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মীণহানি मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवओ महावीरस्स वहवे वाणमतरा देवा अंतियं पाउभविस्था-पिसाय-मृयायजक्ख
टीका-'तेणं कालेग तेणं समएण' याति। तस्मिन काल तस्मिन समये श्रमणस्य भगरता महानारस्य 'पहवे गागमतरा देवा पतिय पाउम्भरित्या' बहवा व्यतग देवा अन्तिक प्रादुर्वभूवु , तर अन्तरा-अन्तरम् अवकाग , तहानगरूपम् , पिविषम् अन्तर-- पर्वतान्तर कन्दरान्तर बनान्तर वा आश्रयरूप येपा ते व्यन्तरा देवगिगया , यहा-'वाणमन्तरा' इतिच्छाया। तय न्यु पत्ति जनानामन्तरागि बनान्तगगि, तेषु भवा वानमन्तग , पृषोदरादिना-मध्ये मझागगम । भगवन्महामारस्वामिसनियौ ममममग्ण व्यन्तग देवा प्रकटीभूता इयर्थ, ते कतिविधा । अनाssr'पिसाय-भया य' पिशाचा १, भूतार्थ
'तेग कालेण' इत्यादि ।
( तेण कालेण तण समएण) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवी महावीरस्मा श्रमण भगवान महापौर के (अतिय) समीप (बहवे) अनेक (वाणमतरा देवा) _व्यतर देव (पाउभविस्या) आये। गन्तर इनका नाम इमलिये है कि उनका अन्तर:-अब
काम अयत निवासस्थान अनक प्रकार के है, जैसे--पर्वत, गिरिकन्दरा, वन आदि । अथवा-याणमन्तर की स्कृत छाया 'पानमन्तर' भी होती है । वना तरों मे-वना के मध्य म-जिनका रहना होने पानमन्तर है। ये वानम तर भगवान महावीर के समवसरण म उपस्थित र । ये व्यन्तर देव स्तिन प्रकार के हैं । इस प्रकार की आशका होने पर मूत्रकार उसका समाधान करत हा उनके भेद को गिनाते है-(पिसाय-भूया य जक्ख
' तेण कालेण' त्यादि
(तेण कालेण तेण समण्ण) ते ५४६ मने ते समयने विरे (समणस्स भगवओ महापीररस) श्रमाय मापान मापीनी (अतियं) पासे (बवे ) भने (वाणमतग देवा) व्यतर हवा (पाउभरित्या) माव्या व्यत२ मधु તેમનું નામ એ કારણથી છે કે તેમનું અત્તર-અવકાશ, અર્થાત-નિવાસ સ્થાન, અનેક પ્રકારનું છે જેમકે પર્વત, પર્વતની ગુફા, તથા વન આદિ AAL 'वाणमतरनी संस्कृत छ141 'यानमन्तर थाय के नाम बनाना મધ્યમ-જેમનુ રહેવાનું થાય તે વાનમન્તર છે આ વાનમન્તર ભગવાન મહાવીરના સમવસરણમાં ઉપવિત થયા આ બન્તર દેવ કેટલા પ્રકારના है ? मावी शानु समाधान ४२ता सत्रा२ तेना सेहो । छ-(पियास