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पोयूपपपिणी टीका सू १९ कृणिकस्य तत्कालीविताचरणम् मउड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे पालंवपलंबमाण-घोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाओ अन्भुटेइ, अन्भुहिता पायपीढाओ पच्चोरुहड,पच्चोरुहित्तावेरुलिय-वरिट-रिट्ठपरिगृत वासि-उस स्थले यस्य स तथा, तत पदद्रयस्य कर्मपाग्य । 'पालय-पल्यमाण-पोलत-भूसण-परे' प्रालम्ब-प्रलम्बमान-पूर्णमान-भूपण-- धर - प्रालम्ब कण्ठाभरणविशेष, स एव प्रलम्बमान-लम्बाकार पूर्णमान दोलायमान भूषण तस्य धर -धारक , एतादृशश 'नरिंदे' नंगेन्द्र कृणिकनृप 'ससभम' ससम्भ्रम-सादर यथा स्यात्, "तुरिय' चरित-भीनतया यया स्यात् , 'चवल' चपल-चञ्चलतया यथा स्यात् तथा 'सीहासणाओ अत्भुटेड' सिंहासानदभ्युत्तिष्ठतिअवतरति, 'अमुहिता' अभ्युथाय-अवतीर्य 'पायपीढाओ पञ्चोम्हइ' पादपीठाप्रत्यागेहनि-अवतरति, प्रत्ययस्य-असतीर्य पादपीठादयोऽवतार्य 'पाउआओ ओमुअइ' पादुके अअमुञ्चति, कीदृशे पादुके । त्याह-' वेरुलिय' दयादि, 'वेलिय-चरिठ्ठटोना केयूर-चाजूवन्द, मुकुट, दोनों कुण्डल, एव १८ लरका हार, जो वक्षस्थल मे धारण किया हुआ था और जिसकी शोभा से वक्ष स्थल सुशोभित हो रहा था, ये सन के सन आभूषणादि कपित हो उठे । (पल्य-पालनमाण-पोलत-भूसण
रे) हर्प-जनित कम्प से चलायमान उनका प्रलम्बमान कण्टाभग्ण उनकी शोभा को बढा रहा था। बाद मे ( ससभम तुरिय चक्ल नरिंदे) गजा वडे ही सभ्रम से-आदरपूर्वक, अर्थात् एकदम जैसे बैठे थे वैसे ही, गीत्र ही चचल जैसा होकर (सीहासणाओ अन्भुटेड) अपने सिंहासन से उठे, और (अन्भुद्वित्ता पायपीढाओ पचोरुहइ ) उठ कर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरे, (पञ्चोरुहिता वेरू(બાજુબ ધ), મુકટ, બને કે ડલ તેમજ ૧૮ સરને હાર જે વક્ષ સ્થળ ઉપર ધારણ કરવામાં આવ્યું હતું, અને જેની શેભાથી વક્ષ સ્થલ સુશોભિત થઈ રહ્યું
तु, ते तमामे तमाम माभूषा माहि हुदी रहा तो, ( पालंब पलनमाण घोलत-भूसण-बरे) पथा उत्पन्न यता ४ थी यसायमान यता तेना मामा પહેરેલા લાબા લટતા હાર તેની શોભામાં વધારે કરી રહ્યા હતા પછી (ससंभम तुरिय चरल नरिंदे) शत पास प्रभथी-माथी अर्थात् अमरवा मेसा त तपाv Saqat या थने (सीहासणाओ अब्भु?ई) पाताना विडामा ५२वी या, मन (अव्भुद्वित्ता पायपीढाओ पन्चोरहइ ) हीने पाहा: ५२ ५1 रामाननीय उता, (पन्चोरहित्ता-वेलिय-चरिट्ठ-रिट्ठ