Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
क
पञ्चम गणभृछ्रीमत्सु चर्मस्वामिप्रणीतं खरतरगच्छ गगनाङ्गण भास्कर पाठकप्रवरश्रीमाधुरङ्गगणसङ्कलितया दीपिकया समलङ्कृतं
चीराब्दाः २४८९
2206 श्रेष्ठि- देवचन्द्र लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाः ९१०
तथा श्री गच्छीयहर्षकुलगणिविरचितदीपिकाया विशिष्टभागेन संयुतम् । सम्पादक:--क्रियोद्धारक श्री मनमोहनलालजी मुनिवरविनेय स्व० अनुयोगाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजी गणिवर-बिनेयो बुद्धिसागरो गणिः ।
प्रकाशक : --- सुस्त वास्तव्य श्रेष्टि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्वारकोशस्य कार्यवाहको मोतीचंद मगनभाई चोकसी
विक्रमाब्दाः २०१९ **
शाके १८८५
प्रथमं संस्करणम् ।
श्रीसूयगडाङ्गसूत्रम् ।
( द्वितीय तस्कन्धात्मको द्वितीयो विभागः )
U
निष्कर्य रूप्यकश्रयम् ।
ख्रिस्ताब्द १९६२
प्रतय ५००
Ve 1725
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
> * આગમવિભાગના અપ્રગટ પ્રથાની અમારી પ્રકાશન ચેાજનામાં આ પંચમ પ્રકાશન પ્રગટ કરતાં ચાનહદ આનંદ પ્રાપ્ત થાય છે. આ ગ્રંથના પ્રથમ ભાગ વિ. સ. ૨૦૧૫ માં બહાર પડી ગયા છે. બીન્ત શ્રુતસ્કંધરૂપ આ બીજે લાગ પ્રસિદ્ધ કરતાં અમે અત્યંત આનંદ અનુભવીએ છીએ,
આ ગ્રંથનું નામ પ્રાકૃતમાં સૂયગડીંગ અને સંસ્કૃતમાં સૂત્રકૃતાંગ છે. ગ્રંથ અંગેની માહિતી પ્રથમ વિભાગમાં
સવિસ્તર આપેલી છે.
વિવરણઃ— સૂત્ર ઉપરની દીપિકા' નામ સમ્મ" દીપિકા પણ છે. તે સિવાય આ સૂત્ર ઉપર આચાય શ્રી હેમવિમલસૂરિના શિષ્ય હકુલગણિએ સ. ૧૫૮૩ માં ૬૬૦૦-૭૦૦૦ Àા પ્રમાણ દીપિકા રચી છે, જે સિહજી તરફથી મુદ્રિત થઈ છે, તેમાંના સારભાગ આ ગ્રંથમાં પાછા આપવામાં આવેલ છે તેમ જ માળાવાધ શ્રી પાર્શ્વચંદ્રસૂરિએ કરેલ છે.
બાબુ ધનપત્તઆ બ્રધ ઉપર
જેને પ્રથમ ભાગ અમારા તરફથી બહાર પડી ચૂક્યા છે. પ્રેસકે.પી ગ્રિ શ્રી બુદ્ધિમુનિજી તરફથી અમને મળી હતી. ( બાળાઞધ ) ગુજરાતી ભાષાંતર આ॰ શ્રી જિનમાણેક
બીજી દીપિકા- શ્રી સાધુરગ ઉપાધ્યાય રચી છે. બાકીના ખીજે ભાગ આ ગ્રંથમાં પ્રસિદ્ધ થાય છે. આ ગ્રંથની જે અમે સાભાર પ્રકાશિત કરી ચૂક્યા છીએ. આ સૂત્રના ટ સૂરિજી વગેરે તરફથી પ્રકાશિત થયા છે. અંગ્રેજીમાં હુમન કેબી તરફથી ભાષાંતર થયું છે.
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
*
॥
આ મધની પ્રેસકાપી તયાર કરી સોધન કરી આપવા માટે ગણિવય શ્રી અદ્દિમુનિજીને અમે ખાસ ઉપકાર માનીએ છીએ. ગ્રંથના પ્રથમ ભાગનું સંપાદન પણ તેઓશ્રીએ કર્યુ” હતું. ખીજા ભાગના પણ મેઢા ભાગનું સોંપાદન તેઓ શ્રીએ કરેલ છે. મૂળ દીપિકાના અંત ભાગનું મુદ્રણકાર્ય ચાલુ હતુ, તે અરસામાં તેઓશ્રીની તબીયત અત્યં'ત અસ્વસ્થ બની, આથી સોોધનનું કામ ૫૦ કપૂચ'દ ણુડદાસ વાાને સોંપવામાં આવ્યું. તબીયત અસ્વસ્થ હાવા છતાં પૂ ગણિ શ્રી છેલ્લી પ્રૂફ઼ા જાતે તપાસતા. આ રીતે તેઓશ્રી દેવગત થવાથી હાકીની મેટર માટે ખીન્તની મદદ લેવી પડી છે. તેઓશ્રીના આત્માની આ તકે શાંતિ ઇચ્છીએ છીએ.
આ ગ્રંથની પ્રસ્તાવના લખી આપવા માટે આ શ્રી કૃપાચદ્રસૂરિજી મના શિષ્ય ઉપા॰ શ્રી સુખસાગરજી મના શિષ્ય પૃ॰ મુનિરાજ શ્રી મ`ગલસાગરજી મહારાજશ્રીના તથા મૂલ સૂત્રોના તથા સુભાષિત ગદ્ય-પદ્ય-સંગ્રહને અકારાદિ -ક્રમ તૈયાર કરી આપવા ખદલ ગણિય શ્રી બુદ્ધિમુનિજી મહારાજના શિષ્ય પૂર્વ મુનિ શ્રી જયાનંદમુનિજી મના આભાર માનીએ છીએ,
દૃષ્ટિદોષ કે મુદ્રણદોષથી જે કઈ
સ. ૨૦૧૯
મૌન એકાદશી ( માગશર સુòિ ૧૧
સ્ખલના રહી જવા પામી હાય તેની અંતઃકરણથી ક્ષમા યાચીએ છીએ.
લિ
માતીચ'દ મગનલાલ ચેકસી
મેનેજીંગ ટ્રસ્ટી
શેઠ દેવચંદ લાલભાઈ પુસ્તકાર ફંડ, સુરત.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवेदन |
भरू
"3
भगवान् श्री महावीर स्वामिजी के मुख से " उपने वा " " विगमेइ वा २ " " धुवेद वा ३ करके गणधरों ने द्वादशाङ्गी की रचना करते समय प्रथम पवत्तणे पढाए संसार अंगाई एक्काइस अणुपुत्र
इस प्रकार त्रिपदी सुण आधाराङ्ग सूत्र की रचना की कारण की "सध्धेसि आयारो दित्यस्स ( खाचा० नि० सा. ८ ) तीर्थकर भगवान् अपने अपने तीर्थं प्रवर्तन के समय आदि में आचार को हि प्रधानता देते है। आत्मकल्याणार्थ जीवों के लिए तो " " चरण करण ही मोक्षप्राप्ति का प्रधान साधन है ।
भ
प्रस्तुत सूत्रकृताङ्ग दुसरे नम्बर का सूत्र है, सूत्रकृताङ्ग का आचाराङ्ग सूत्र के साथ सम्बंध बतलाते हुवे नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामि कहते है " जीवो छकाय परूवणाय तेसिं बहेण बंधोति " ( ० नि० गा, ३५ )
चपरोक्त पाठसे स्पष्ट है की आचाराङ्ग सूत्र में बताए हुए पृथ्वीकाय आदि षट् जीव निकाय प्राणियों के वधसे याने हिंसी से उत्पन्न होने वाले कर्मों का " बंध" उसको समझों और समझने के बाद ज्ञानपूर्वक किया द्वारा त्याग करो " बुझिजति तिउद्विजा बंघणं परिजाणिया " इत्यादि उपरोक्त सूत्रकवाङ्ग के आदिम सूत्र में ( सू. १ ) श्री गणधर सुधर्मास्वामि बतलाते है कि कर्म
१ भगवान महावीर ने अपनी दीर्घकालिक साधना के बाद जो अनुभव रत्न प्राप्त किया उसके एक अंश में सूचित किया गया है कि कोई भी पुरुष
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
बन्धनों का मूलभूत कारण समज के विशिष्ट संयम अनुष्ठान द्वारा किया करके आत्मा को-कर्मों के बन्धन से मुक्त करो।
यहां पर अन्य दर्शन वाले कोइ एक केवल ज्ञान से मोश्च मानते है । और दुसरे दर्शनावलम्बी केवळ क्रियासे हि मोक्ष मानते हैं।
परंतु जैनदर्शन में तो " उमाम्यां बानकियाम्यामेव मुक्तिः" ज्ञान और क्रिया दोनो मिलने पर ही मोक्ष है, ऐसा झानपूर्वक क्रिया द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध करते है।
अतः प्रस्तुत मृत्र-कताब में व्यानयोग प्रधान होने से नय-निशेषादिक के स्वरूपों का वर्णन करते समय तिनसो त्रेसठ । (३६३ ) पाखण्डियो का मत का खण्डन करके, इस अंथ में अईत भगवान् के सिद्धान्तो का सुंदरतापूर्वक प्रतिपादन किया है । |
इस ग्रंथ के पठपाठन से भव्य जन जैनदर्शन के सिद्धांतों (द्रव्यानुयोग ) का विस्तृत रूप से मान प्राप्त कर सकते है।
प्रस्तुत ग्रंथ मूल-नियुछि-श्रीचीलानापर्व कृत टीका तथा श्रीहर्षकुलगणिकृत दी पिकासह प्रथम उप चुका है। शानी हो तो उसका सार यही है कि वह अपने जात्मज्ञान के कारण विश्वविज्ञान का उपभोग करता हुआ किसी की हिंसा नहीं करना। किसी भी प्रार्गीको न सताता है, न मारता है और न दुःख ही देता है। यहि बहिसा सिद्धान्त है। इसी में विज्ञान अन्तर्भाव हो जाता है। एवं खु नाणिणो सारं न हिंसह किंचण । अहिंसा समय चेव एयावन्तं वियापिया।
सूत्रकृताय ।।१४। 101 भाधुनिक विज्ञान और अहिंसा । लेखक:-णेवामुनि साथि,
सम्पादक:-सुनि कान्तिसागरी
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
परन्तु श्रीखरतरगच्छेश्वर श्रीमजिनदेवसूरीधर के भादेश से पाठक प्रबर प्रीसाधुरागणि द्वारा सं १५९९ वर्षे सङ्कलित TH "दीपिका " नामक ग्रंथका प्रथम पार ही गुण हो रहा है ।
प्रस्तुत सूत्रकृतान की संक्षेपाय बोधिनी "दीपिका" के सम्पादन में गणिचर्य भी बुद्धिमुनिजी महाराज द्वारा सम्मान प्रतियों का परिचय इस प्रकार है। -
(१) प्रति उमाशानभंडार की थी, बागमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पून्यविजयजी महाराज द्वारा मिली थी जिन का लेखनकार्य इस प्रकार है___ संवत १९१४ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दश्याम् लिपिकताऽर्थ पुस्तिका उपाध्याय महेरचन्द्रेण श्रीइन्दोरमध्ये श्री केसरियानाथजी प्रसादात् ॥
(२) प्रति पूना के भान्डारकर-प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर की थी पत्र संख्या २१३ । इसके अंत में लिखनेवाले का नाम | और संवतावि नहीं दिये है, यह प्रति श्रीयुत् अगरचंदजी नाहट्टा द्वारा प्राप्त हुई थी।
(३) प्रति फलोदी (राजस्थान) मोटी धर्मशाला में श्री संघ के मानमविर से प्राप्त की. पत्र संख्या ११४ । इसके अंत में | १ श्रीमतुद्धिमुनेरनुनया, मुद्रणाऽर्थ लिपिकर्ता-पण्डित-गौरीशङ्कर-तनय-द्विवेापाहमदनकुमार शम्मा । फोदी (पलदि) वास्तमः। वैकमाये २००७ तमाये वर्षे पोष शुक १३ मन्ये च ॥ श्री गर्विष्टासादाच्छु मातु ॥
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
IN पल्लेख इस प्रकार है। सम्बत् १९४९ वर्षे कार्तिक सुदि पूर्णिमासी मेदनीपुरवरे ॥
(४) प्रांत कच्छ माडी नगर में श्री धर्मनाथस्वामि प्रसादस्थ शानभंडार में सुरक्षित है, पत्र सं. ७६ पञ्च पाठी 1 | प्रान्त में पुष्पिका इस प्रकार है___ संवत् १६६७ वर्ष मागसिर मासे शुक्ल पक्षे एकादश्यां तिथौ गुरुवासरे श्री जैसलमेर दुर्ग प्रवरे, राउलश्री भीमजी राज्ये, श्री लोका गच्छे आचार्य श्री ६ रत्नसीजी पठनार्थ, संवाति तेजपाल पुत्र संघाति नीवा, ततः पुत्र संघपति कचरा, स्वहस्तेन लिखिता, ऋषि श्री पृथ्वीमल्ल ऋषिरत्ना, लिखा पिता वाच्यमाना शुभं भवतु ।
उपरोक्त प्रतियों के आधार से स्वर्गस्य मुनिजी गणि जी ने संशोधन करने का प्रयास किआ और भव्य जीवो के उपकारार्य द्वितीय दीपिका श्री हर्षकुलगणि रचिन भी इसमें संमिलित की गई है, इसलिये पढनेवालो को बड़ी मुविधा रहेगी।
संशोधन करते समय वृहबृत्ति एवं हर्षकुलगणि की दीपिका संमुख रखके संशोधन किया है किसी किसी जगह पर उपयोगी पाठ समज करके पाठो के टिप्पण भी किए गये है। कुछगणिविरचित दीपिका इस प्रतिमें संपूर्ण नहि छपा है, इसका महत्वपूर्ण भाग हि इसमें दिया है।
पाठकप्रवर श्री साधुरंगमणि का विशेष परिचय नहीं मिलने से यहां नहीं दे सकता हूं और जो परिचय मो इस ग्रंथ के अंतिम प्रशस्ति पृष्ठ-सं. १५४ पर दी गई है. इससे उनका परिचय मालुम हो जाता है.
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट नं. १ मूलसूत्राणामकारायनुक्रमः।
पत्रांक
م
م ب
अह पुरिसे पुरिस्थ. अहावरे दोचे पुरि० अहावरे तो पुरि० अहावरे च उत्थे पुरि अहभिक्खु लुहे. अचमाउसो आता दीहेती. अहावरे दो पुरि पंच० अहावरे चउ० पु. नियति.
अहावरे दाच ट. अहावरे तो दंश अहावरे चउ० दंड अहावरे पंच० दंड. अहावरे छट्टे भोस० अहावरे सत्तमे किरिया अहा. अढमे किरिया अहा० नवमे किरिया. अहा. इसमे किरिया०
م
م
س
م
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक ४४ ४६
अहा. एकारसमे किरिया. अहा. बारसमे किरिया. अहा० तेरसमे किरिया० अदुत्तरं च णं पुरिस अदुआ आणुगामिए अदुवं वा अच्छराए महावरे दोबस्स ठाणं अहा. तबस्स ठाण० महा० पढमस्सि) ठाण. अहा०दोच. ठाण. धम्म. महार तस. ठाण. भीस. अविरति पहुच पाले बहावरं पुखराय
rur
अहा. पुर० कम्मनिया० अहा• पुर० रुक्ले० अहा० पुर० अचारु. अहा० पुर० पुढविजोणिया. अहा० पुर० जाप कम्म० अहा. पुर० कम्पनिया. अहा. पुर० उदएसु० अहा. पुर० चेव पुढवि० अहा. पुर. नाणविहाण. महा पुर० जाणाविहाणं० महा० पुर० पप्पथ. अहा० पुर० घरपरि० अहा. पुर० भुयपरि०
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रक
पत्रांक
१२२
० ००G
१२८
१३७
अहा पुर० खहयर० अहापुर. हेगतिया० बहा० पुर० सत्तानाणा. अहा० पुर० सवाउदग. बहा० पुर. उदएसुक महा० पुर० नाणविह बहा० पुर० बाउकाय. अहा० पुर० पुढविचाऐ. अहा. पुर० सव्वे पाणा. असंतएण मणे. बन्न यरेण मणे अहाकम्माणि मुंजति असे सं अक्खयं वा
अहिंसयं सवपयाणु अहवा वि विदुणः अजोयरूर्व इ६० अवतरुवं पुरिस अभाइक्खंति खलु
आ आसदीपंचमा पुरिसा. आयरिया वेगे अणारिया आया अपचक्खाणी आवि. आचार्य आह-जहा से आदाय बंभचेरै च. आगंतगारे आराम आरंभग चेव परिगाह
१०३
१०६
२
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ उपरोक्त दोनो टीकाओ के आधार पर स्वर्गस्थ गणि श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने अत्यंत परिश्रम करके संपादन किया है
र अस्वस्थ होने पर भी फारम का खदही संशोधन करते थे. एवं पंडित कपुरचंदजी वारया को भी तबिः ।। यत की ज्यादा अस्वस्थता के कारण संशोधन के लिए विए गये थे. ज्यादा सावधानी रखने पर भी यदि कोई त्रुटीयां रह गई हो सो सुज्ञ वाचक वर्ग सुधार के पढे एही प्रार्थना है.
ज्ञानवृद्धि के हेतु से उपरोक प्रतियो को प्रदान करने में जीन जीन महाशयो ने सहायता दी है वह धन्यवाद के पात्र है.
श्री देवचंद लालभाई ट्रस्ट के कार्यवाहक श्रीयुत् केशरी चंदजी हीराचंदजी के द्वारा प्रस्तावना आदि लिखने की सूचना मिलने पर 'निवेदन' मैंने लिखा है. एवं गणि श्री बुद्धिमुनि जी महाराज के शिष्य जयानंदमुनिने भी मूलस्त्र की अकारादि परिशिष्ट | सथा दीपिकागत सुभाषित गद्य पद्य संग्रह लिखने में भी प्रयत्न किया है।
अतः संपादक महाशयजी का परिश्रम को ग्रंथ पठनपाठन करके ज्ञानवृद्धि साथ सफल करे. इति शुभेच्छा । ठि. माधवलाल बाबु
निवेदक :धर्मशाला-पालीताणा.
उपाध्याय श्री सुखसागरजी म. के शिष्य सं. २०१८ कार्तिक शुक्ल ११
मुनि मङ्गलमागर
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
पत्रांक
मुटुं जहेयं तिरिय उई अहेयं वि०विनायक
एएहिं दोहि ठाणेहि
१०७
एतेहिं दोहिं ठाणेहिं० एगंतमेवं अदुवावि० एवं ग मिजति न संसा एवं म्हं पचक्खंताण.
११४
१२९
एवं एगे पागम्भिता एवं से भिक्खु पिरप० एत्थ वि सिवा एत्थ० एवं से भिक्खु धम्मस्थी. एवामेव ते इस्थिकामेहिं० एवामेव समणुगम्म० [एवं] ओसहीणं बचा एवं खलु भगवया० एवं से मिक्स चिरते. एपहिं दोहि ठाणेहि
6mmu WAN
किट्टिए नाए समणासो० किरियाइ वा अकिरि० किरियासि वा जाव. कल्लाणे पाषए वा वि० कि तेसि तहप्पगा.
गंता व उत्था अदुवा.
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रक
चोगग:-मे किन
जमिई ओराठमाहार जेयाविबीओदग भोतिक जीवाणुभागं सुविचिंत. ने यावि मुंशति तहप्प. जे गरहियं ठाणमिहा०
११० १२५
जपि य इम समाणा० जे खलु गारत्या सारंभा० जे [य] अतीया जे इमे तम्रा थावरा० जे इमे काममोगा. जंपि य इमं संपरा जादि य से अम्भितरिया. जहा से वहए तस्स वा० जे एप सनी वा असनी० जे केइ खुड्गा पाणा
णोऽकामकिचा ण ब. णवं ण कुज्जा विहुणे. णेगतिएउणतिया
१२०
तस्थ खलु मगवया. तत्व भिक्खु परकद. तस्थ णं [जे से ] पढमस्स.
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
ते इणमेव जीवितं
तं जहा अअं जनकाले ०
तस्य णं एगमवि०
देणं जरगा अंतो
तेणं तस्थ देवा भवंति ०
ते स्रब्बे पावाच्या ०
तस्य णं जीवा इत्थि ०
ते जीवा माडर व्यं०
तस्थ खलु भगवया०
वस्थ खलु भगवता०
तत्थ खलु भगव० दुवे ०
तस्थ से अपवि[चिता
तत्थ खलु भगव० छजीव ०
पत्रांक :
५८
५८
५९
६५
७०
७३
८४
८५
૮૭
८७
९७
१००
१०१
ते अक्रमण सतु
तं मुंजमाणा मिसिय
तेणं कालेणं तेणं समय ०
तर पं नालंदाएक
तस्य णं लेवरस गाहा ०
तरि च ण गिइपदे०
तसेहि पाणेहिं निहाय०
तथा विदुषंति तसा ०
तस्थ आरेणं जे तस्रा०
सत्थ ने आरे० जाव खाउं०
तपणं से उदर पेढाक०
थूलं चरन्भं इद मारि०
थ
पत्रांक
११७
१२६
१३२
१३३
१३३
१३४
१३९
१४०
૧૦
१५१
१५३
१२५
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
माउसंतो गोयमा० बाउसो गोयमा भानसंतो उचगा०
१३४
इह खलु पाइणं वा० इह खलु पंच मह इह खलु धम्मा पुरिसा० इमं स इमं सहित इह खलु दुवै पुरिसा०
शेते चत्तारि पुरिस. इह खलु पुरिसे अब इह खामम अन. इइ खलु कामभोगा.
इह खलु मम अम० इह खलु गारस्था सारमा० यह खलु गा० कामभोगा. वह खलु तस्स मिक्खुस्स. इह खलु नाणपण्णाणं. इयरस ठाणस्सा इखेपहि वारसहि इति खलु ते असनिणो० इओपहि ठाणेहि इमं वयं तु तुमं पार.
उग्गा उग्गयुत्ता उ8 पादतला आहे.
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
पत्रांक
पुरिसं च विद्धण. पुरिसेति पिनति
१२४
2
नत्यि सिद्धी नियं का नस्थि साहु असाहु वा. नस्थि कल्लाण पावे वा. न किंचि रूवेणऽभि. निग्गंधधम्ममि इमं. नन्नत्य अभिओगेणं.
१११ १११ ११८
=
बाले पुण एवं विप्पडि. बुद्धस्स आणाइ इसं०
१२७
पुवामेव तेसि जायं पुढवी एगे महन्भुते पढमे दंड समादाणे. पुरे कडं अद्द ! इमं सुणेह० पन्नं जहा वणीए. पिनाग पिंडीमविक
भामं उपाय सुविणं. भण [ह ] देवाणुप्पिया० भूयाभिसंकाइ दुगुंछ. भगवं च णे उदाहुल भ० च णं ९० इह खलु गाहा० भ० च णं १० केइ ख० परि० भ० च णं १० संगतिया.
११४
१४२ १४३
१२०
१२२
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
पत्रांक १४६ १४७ १४८ १४९
भ० चणं उ० सं० नो खलु. भ० च णं १० सं० मणुस्सा. भ० च णं उ० सं० भवति भार० भ. चणं ३० सं० पाणा. भ. चणे २० सं० पाणा भवंति० भ० चणं न. सं. समणरे० भ० च णं उदा० ॥ एय भूयं० भ० च णं उदा. उसंतो. भ० च णं उदा० ते ६०
SSC0
लोय च खलु मएक लद्धे ( हु ) अछे अहो. लोयं अजाणितिह० घोर नियमित
१५० १५२ १५३ १५३
विज्ञति तेसि परकमे० वितेसिणो मेहुप्पसंप वायाभिओश्रेण जपाव
महया हिमवंतमळय. महन्धए पंच अणुब्बऐ० मेहाविणो सिखि
११६
सुर्य मे आउसंतेणे० से जहानामए के इ. सतो गस्थि विणासो
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक १५
से किणं किणावेमाणे. से जहानामए गंडे. से जहानामए अरई. से जहानामए वम्मिए से जहानामए रुक्खे. सउणीपंजरं जहा. से बेमि पाइणं वा०४ संते. से मेहावी जाणेज्जा. से मेहावी जाणिज्जा बाहिर से बेमि० पाइण या जाद से बेमि पाइणं बा. से भिक्खु जाणेजा. संति विरति उवसमं०
-~-NNNNN
से भिक्खु धम्म किट्टे समणेति वा माहणेति सुयं मे माउस इ० ख० किरिया से जहानामए केइ० से जहानामर के पुरिक कच्छं. से जहानामए के० पुछ सालीणि. से जहानामए के० पु० गावघा० से जहानामए के. पु० अंचोसले. से एगइओ आयईउं० से एगतिओ आणुगा० से एगइओ उदचर० से एगइओ पाडिपहिया से एगतिए सपिच्छे
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
थारकायाओ विप०
देहाचुए कम्ममिति ० दोसेइ वा पैसेइ मय ०
दीसंति समियाचारा०
दक्षिणाए पडिभो०
दयावरं धम्म दुर्गुछ० दुहवो विधम्मंपि
धम्मं कतर ०
नो इणम सम
नस्थि लोए अलोए वा०
२
द
भ
न
पत्रांक
१४१
४३
६३
११३
११३
१२८
१२८
११५
९७
१०७
नस्थि जीवा अजीवा वा० नम्मे अहम्मे वा०
नत्थि बंधे व मुक्खे ६१०
नत्थि पुत्रे व पावे बा०
नत्थि आसवे संवरे वा०
नत्थि वेयणा निजरा वा०
नत्थि किरिया अकिरि०
नत्थि कोहेन माणे वाढ
नत्थि माया व लोभे वा०
नस्थि पेज्जे व दोसे वा०
नस्थि चाउरंते संधारे०
नत्थि देवा व देवी बा
नत्थि सिद्धी असिद्धी पा०
!
पत्रांक
१०७
१०७
१०८
१०८
१०८
१०८
१०९
१०९
१०९
१०९
११०
११०
११०
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Lik
पत्रांक
पत्रांक
१३१
१३५
१६६
सम्बजोणिया वि खलु० समुच्छिहिंति सत्यारो साउजीविया पटुषिता समिच लोयं तस पाव सीश्रोदरी सेवउ पीय सीओदर्ग वा तह बीय. सिया य बीओदगइ समारभते वणिया० सिणायगाणं तु दुवे सिष्णायगाणं तु दुचे. सम्येसि जीवाण दयटक सिणायगाणं तु दुवे सिणायगाणं तु दुवे
संवच्छरेणावि य एग० संवच्छरेणावि य एच. संवच्छरेणावि य एग संबच्छरेणावि य एग. सवाय भगवं गोयमे संसारिया खलु पाणा. सवायं उदये पेढाल. सवायं उदये पेढाल. संसारिया खलु पाणा. सवायं भगवं गोयमे
१३६ १३७ १३७ १४१
१२१ १२३ १२५ १२६ १२७ १२७
हण छिदमिद विगतमा
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट नं. २ दीपिकागत-सुभाषित-गहा-गद्य-संग्रहस्याकाराद्यनुक्रमणिका ।
पत्रांक
पत्रांक
अट्ठ गुणाणं मझे, इकेण गुणेण संघपचक्त्रं । अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः।
तित्थुन्नयं कुणतो, जुगपवरो सो ३६ नेओ। | अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, आस्मा कपिलदर्शने || .
अपत्तियं जेग सिया, आसु कुप्पेज वा परो। अन्भंगेण व सगडं न तरइ विगई विणा - जो साहू । सव्वसो त न मासिजा, मासं अहियगामिति ।। सो रागदोसरहिओ, मत्ताएँ विहीइ सेवे।
३२ अमत्थविसोहिए, जीवनिकाएहि संघ (डे) होलोए। आया चेव अहिंसा, आया हिंसत्ति निच्छ भो। देसियमसियतं, जिणेहिं तेलोकरंसीहि ॥
१०५ | एसो जोहोई अप्पमत्तो, अहिंसयो हिंसओ इसरो, १०५ अन्नाणनिरंतरतिमिर पूरपूरियंमि भवभवणे।। को पहा? पयत्थे, जइ गुरुदीवान विषति ।। १११। इसीपभाराए, उरि खलु भोयगंमि जो कोसो।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोरस च छन्मार, सिद्धाणोगाइणा भणिया ||
उ
उचालिमि पाए, इरियासमियरस संक्रमद्वाए । वावज्जेज कुलिंगी, मरिज तज्जोगमासज्ज || ए एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवावचें । लिकमेकाम ॥
एरण्डफल बीजादे - चैन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धन विच्छेशन, सिद्धस्यापि तथा भवेत् ॥
क
कुसुमपुरोले बीजे, मथुरायां नारः समुद्भवति । यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः ॥
को दुःखं पाविना ? कस्ल व सुक्खे हि विम्यो हुज्जा १
पत्रांक १११
को व न लहिज्ज ? मुक्खं, रागदोसा जइ न हुआ || कुलालचक्रदोष, मुख्याणां हि यथा गतिः । पूर्वप्रयोगतः सिद्धा, सिद्धस्योङ्खगतिस्तथा ॥ १०५ केवलमणो हि चउदस-दसनत्रपुत्रवीहि संपयं रहिए । सुद्धमसुद्ध चरण को जाणई ? कज्जभाव व ॥ कालाइ दोसओ, कवि दीसंति तारिखा न जइ । सन्त्रस्तवनस्थिति, नेत्र कुज्जा अणासा || कालोचियजयगाए मच्चररहियाण उज्जमंताणं 1 जणजत्तारहियागं, होइ जइत्तं जई सया || केवइयं कालं तु देवापियाणं तिस्थे अणुसज्जिखइ ! गोयमा ! इक्कीसवास सहरसाई मम तित्थे अणुसज्जिरसह तित्यं पुप चावण्यो समाणसंघो समणा समणीओ खावया सावियाओ ॥
२५
७७
पत्रांक १०९
१११
१११
१११
१११
१११
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
से एगतिए गंठिच्छे. से एगतिए उरमिय. से एगतिए सोयरिय. से एगइओ वागुरि० से एगइओ साउणि. से एगइलो मच्छिय० से एगइओ गोपाय. से एगतिओ गोपाल से एगतिओ सोवणि से एगतिओ सोय. पडिक संगतिया मणुस्सा. से एगइओ केणवि० से एग० केश आयाणेणे.
से एगतिलो केणइ आदा. से एगतिओ केणइ आया. से एगइओ केणइ आदा० से एगइओ नो चिति से एगइओ णो० वि० गाहाव से एगति ओ समणं से जहानामए केइ. से जहानामए (के) कक्खे० से जहानामए अणगारा० से जहानामए समगो. सुयं मे आउसं० इ० स्व. आहार. सुर्य मे आउसं० इ० ख० पञ्चखा. से कितं असिन्निदिट्टते.
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
पत्रांक सणसंथारमिसनोऽवि, मुनिवरी भट्टरागमयमोहो।
| नो किण्हे नो नीले नो लोहिए नो हालिहे नो मुकिले जं पावई मुतिसुई, कतो? तं कवटीवि ॥
| नो सुरभिगंधे नो दुरभिमंधे नो तिते नो कदए नो
कसाए नो अंबिले नो महुरे ( नो लवणे) नो पट्टे नो नय तरस तन्निमित्तो, बंधो सहमो विदेसिओ समए । संसे नो चरंसे नो परिमंडले नो दीहे नो हस्से नो अणवज्जे य पओगे, ण सत्रभावेण सो जम्हा ॥ १०५ गुरुए नो लहुए नो सीए नो उपहे नो कक्खडे मो मनए नाणी कम्मरस खयह-मुट्ठिओ नो ठिओ य हिंसाए ।
नो इत्थी को पुरिसे नो अनहा || जबइ असढं अहिंस(स्थ )-मुट्टिओ अबहियो सोच ।। १०५ | न य हिमामित्तणं, सावज्जेणावि हिंसओ होई।
प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति सुद्धस्स य संपत्ती, अफला मणिया जिणवरेहिं ।।
नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि न चाधो गौरवाभावा-न तिर्यक् प्रेरकं विना ।
यत्ने नामाव्यं भवति न माविनोऽस्ति नाशः। न च धर्मास्तिकायस्याभावाल्लोकोपरि ब्रजेत् ॥
पञ्चेन्द्रियाणि विविधं बलं च, उच्छाम निश्वास. नृलोकतुल्यविष्कम्भा, सितच्छत्रनिमा शुभा।
मथान्यदायुः । प्रागा दशते अमद्भिरता-स्तेषां उद्धे तस्याः क्षितेः सिद्धा. लोकान्ते समवस्थिताः ।। १११ । वियोजीकरणं तु हिंसा ।।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रांक
पत्रांक प्रत्यक्ष एवं विश्वेऽस्मिम् प्रपश्चः पुण्यपापयो:
पूर्वसङ्गविनिर्मोक्षा-तथा सिद्धिगतिः स्मृता॥ द्विभिम(हि) जगत्सर्व, सुखदुःखव्यवस्थया ।। १०८ मनोशा सुरभिस्तन्वी, पुण्या परमभासुरा। पूर्वप्रयोगतोऽसा-भाषाबन्धविमोक्षतः । स्वभाव- प्रागूभारा नाम वसुधा, लोकमूनि व्यवस्थिता ॥ परिणामाच, सिद्धस्योयगतिर्भवेत् ॥ पलए महागुणाण, हवंचि संवारिहा लहुगुणा वि।
यथाऽधस्तियंगूद्ध च, लोष्टवायग्निवीचयः । अत्यमिए दिणनाइ, अहिलसइ जणो पइवं पि॥ . १११ ।
११ स्वभावतः प्रवर्तन्ते, तथोर्धगतिरात्मनः ।।
१११
ब्रह्मा लूनशिरा हरिहशि सरक व्यालुप्तशिश्नो हर:, सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽयखिलभुक् सोमः कलका
रतो वा मुढो बा, जो पङजा पोग। हिंसा वि कितः । स्वाथोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुः संस्थैरूपस्यैः तत्थ जायइ, तम्हा सो हिंसओ वुत्तो ।। कृतः, सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ ११८ रागद्वेषो विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि । पत्र
नो निर्जितावेतो, किमरण्ये करिष्यसि !" PAL मृल्लेपसहनिर्मोक्षा-द्यथा दृष्टाऽऽश्वलाबुमः ।
राजानं नृणतुल्यमेव मनुते शऽपि नेवादर, विचो
म
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
पार्श्वनरक्षणव्ययकृतः प्राप्नोति नो बेदनाः । संचा स्वरयंतीह लभते शं मुषभिर्भया, संतोषात्परुषोऽमृतमचिराधायासुरेन्द्रार्चितः ॥
पत्रांक
१२७
स
सध्यत्म संजसं जमाओ अध्यानमेव रक्खि । सुबह इवायाओ, पुणो टि स्रोही न ( स ) या (?) विरहै ॥ १०६ संधरणमिअम, दुम्ह विगतयणहि
८७७
रविवेणं, संवेष दिये असंचरणे ||
दिसत्यं जुजतो सुमहं दोसों
(प)असर इमरो ।
मोय पोसो, जोगतिमिसं व बिले !
留
अयं मीमा म लोकान्यं वत्रैष समये त्रजेत् । सिद्धपर्यायः परमेष्ठी सनातनः ॥
पत्रांक
१०६
१०५
११०
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठि-देवबन्द्र सालभाई जैमपुस्तकोजारे धन्याक १०९ अनुमान
ॐ नमः ॐ नमो
मालश्वामिने 4 परमसुविहितश्रीमहर लरगच्छवि भूषण महोपाध्याय श्रीमत्साधुरङ्गगणिवर्यगुम्फितया वीपिकया सम
सूयगडाङ्गसूत्रम् ।
तस्य द्वितीयात्मको द्वितीयो विभागस्तत्रार्थ पौण्डरीकाध्ययनं ।
सुयं मे आठसंतेण भगवया एवमवखायं - इह खलु पोंडरीए नामऽज्झयणे, सस्स णं अथमट्ठे पन से जहा नामए पुक्खरिणी सिथा बहुउदगा बहुलेया बहुपुक्खला लखट्टा पुंडरीकणी पासादीया दरिलणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तस्थ देसे देसे तहिं तहि बहवे पउमवरपुंडरीया बुझ्या | अणुपुषिट्टिया कासिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणिञ्जा अभिरुवा पडिरूवा । सीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेस भागे
I
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
एगेम पत्ररपुंडरी बुद्दप, अणुपुविट्टिए ऊसिते रुइले वण्णमंते गंधमंते रसमंते फासमंत पासादीए जान पडिरूवे । सङ्घावर्ति च णं तीसे य पुकारिणीए तस्थ तत्थ देसे तहिं हि बहवे पउमवरपुंडरिया बुझता, अणुपुविट्ठिता जाव पडिरूवा [ सवार्तिचणं सीसे णं पुक्खरिणीप
P
सभाए एगे महं पउमरपुंडरीए बुइए अणुपुविट्टिए जान पडिवे ( सू० १ ) ] ॥ arrer - श्रुतं मया आयुष्मता भगवतैवमाख्यातं किमाख्यातं ? भगवता ' इह खलु पोंडरी (प) नाम(ण) - द्वितीया कन्ये द्वितीये 'खल' को वाक्यालङ्कारे, 'पुण्डरीकेण पचलकमलेनाजोषमा भविष्यतीति कृत्वाऽस्याध्ययनस्य पौण्डरीक इति नाम कृतम् । तस्य चायमर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे। 'प्रसर प्ररूपितः ' से अह 'ति तद्यथा । नाम ' इति सम्भावने, पुष्करिणी 'स्थाद्दू' मवेदेवम्भूता तद्यथा बहुदा हु जला तथा 'बा' + बहुकईमा 'बहुला' बहुसम्पूर्णा प्रचुरोदक [मृता] भूता ' लब्धार्या ' यथार्थी, यथा नाना तथा स्वमान 'पुण्डरीकणी' चेतकमलस हिता- बहुवे लपक्ष। 'पासादीचा' निर्मलजलपूर्णश्वातू ' दर्शनीयाः' दर्शन पोथ्या 'अभिरूपा [ आभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि ] सचक्रवाकसारसादीनि जलान्तर्गतानि पर करिमकरादीनि यस्यां सा अभिरूपेति तथा प्रतिरूपः स्वच्छस्वात्सर्वत्र प्रतिविम्यानि समुपलभ्यन्ते । 'ती से णं पुरखरिणी' तस्याम पुष्करिण्यः
J
1
+ " सीयन्ते षण्यन्ते यमिमी सेय:--मः, स []स्पोमा बहुषेया" इति हर्ष० ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्तत्र तत्र देशे देणे-एकैकप्रदेशे, नास्ति स प्रदेश पुकारण्या। यत्र तानि पुनरीकाणि न सन्ति । तत्र तत्र देशे देशे पनि । पारधारीकाणि 'बुइय ति उक्तानि-प्रतिपादिदानि पि। इसवी पू. गजया किसी
योगितानि-जलोपरि व्यवस्थितानि तथा 'चिराणि ' दीसिमन्ति तथा प्रोमनवर्णगन्धरसपशेषन्ति । अमिरूपाणि इत्यादिपर्मवत् । तस्याव पुकारण्याः सर्वतः पपाताया। ( सर्वतः पपवेष्टितायाः) महमध्यदेश मागे एक महम्पअपरDil पुण्डरीका कमानुपयेण पवस्थितमुश्कृितं, रुचिरं वर्णगन्धरसस्पर्शोऽपेतं । अभिरूपं प्रतिरूपं प्रासादीय दर्शनीय प्रतीक । | शोभायमानं पावरपुण्डरी विद्यते ॥१॥
अह पुरिसे पुरस्थिमाओ दिसाओ आगम्मतं पुक्खरिणी, तीसे पुक्खरिणीय तीरे टिना पासति ॥ तं महं एगं पउमवरपुंडरीयं, अणुपुविद्वितं ऊसियं आप पडिरूवं। तते णं से पुरिसे एवं बयासी। अहमसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अबाले मग्गस्थे मग्गविऊ मग्गस्स गति19 परकमन्नू , अहमेयं पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति का इति बुच्चा से पुरिसे अभिक्कमेति तं | पुक्खरिणी, जावं जावं च णं अभिकमेइ सावं तावं ष णं महंते उदए महंते सेए, पहीणे सीरं,
+ यद्यपि - वियते । इस्पेशस्येवार्थों ' व्यक्त' इति लिखितस्तथापि मूळे ' मेयो' इति पाठः सास्वपि दीपिकाप्रतिषु ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपने पउमरपुंडरी, नो इवाए नो पाराए अंतरा पुक्खरिणीय सेयंसि वि[न] सन्ने, पढने पुरिसजाए ( सू० २ ) ॥
अथानन्तरमेवम्भूतष्करिण्याः पूर्वस्था दिशः कचिदेकः पुरुषः समागत्य तां पुष्करिणीं तस्याम ( पुष्करिण्याः ) 'तीरे सटे स्थित्वा संदेवत् (पश्यति, ततस्तत् ) पद्मं पूर्वोक्तविशेषण कलापोपेतं स पुरुषः पूर्वदिग् मागध्य स्थित ' एवं ' वक्ष्यमापनस्था 'वदेत्' धातू - अहमंसि 'ति अहमस्मि पुरुषः किम्भूतः १ ('खेवशो' मनोऽभिलषित कार्यकरण कालमाविपरिश्रम ) 'कुशल' चतुरो - निपुणः, तथा 'पण्डित' धर्मो देशकालक्षेत्रः । 'व्यक्ती' बालमावाचिष्क्रान्तापरिणतबुद्धिः मेघावी ' प्लवनोत्प्लवन थोक पायशः + तथा 'अबालो' मध्यमवयाः पोवपरिवर्त्ती ' मार्गस्थः सद्भिशीर्णमवस्थितो मार्गस्तथा मार्गस्य या 'गति 'गमनं वर्त्तते, तया चत्पराक्रमणं - विवक्षित देशगमनं, वजानातीति पराक्रमशो, यदि 'पराक्रमः' सामध्ये तोऽहमात्मज्ञ इत्यर्थः, तदेवम्भूतोऽहमेतत्पद्मवरपुण्डरीकं पुष्करिणी मध्यदेशपथस्थितस्यामि निष्कासयिष्यामीति कस्नेहागता, इत्युक्त्वाऽसौ पुरुषस्ता पुष्करिणीमभिमुखं क्रामे चदभिमुखं गच्छेत् । ta [] स तदवतरणाभिप्रायेणाभिमुख कामे साम[सान] 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, तस्याः पुष्करिण्या महत्ययाधे जले कईमेज मग्नः । तत्राऽऽकण्ठं निमग्नत्वादस्याकुलीभूतः प्रहीण' स्वरादात्मानं उद्धर्तुमसमर्थो विधि पद्मन स्पुण्ड
4
+ मनोन्मज्जनयोर्विधिः ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
सक्रमप्राप्तस्तस्माच तीरावपि प्रभ्रष्टा, तीपमयोस्न्तराल स्वावशिष्ठति । य एवं अवो 'मोहब्वाए' नाशिटवर्प सो मवति 'नो पाराए 'त्ति न पारगमनाय सपर्थों भवति । एवमचाभयमभ्रष्टोऽजनि, इस्पयं प्रथमः पुरुषजातः ॥ २ ॥
अथ प्रथमपुरुषानन्तरे दिदीपपुरुषस्वरूपाच्यते--- ___ अहायरे दोचे परिसजाए-अ परिसे विखणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्रवरिणी, तीसे पुश्खारेणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपुंडरीयं, अणुविहितं जाव पडिरूवं, तं च । | एरथं एग पुरिसजातं पासति पहीणतीरं अपसपउमवरपुंडरीयं नो हवाए नो पाराए अंतरा |
पुक्खरिणीए सेयंसि निसन्न । तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं बयासी-आहो!! गं इमे पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेहावी वाले णो मग्गत् णो मग्गविऊ णो मगरस गति- | परकमन्न , जन्नं एस पुरिसे [मन्ने]-अहं णं खेयने अहं कुसले जाव पउमवरपुंडरीयं उनि विखस्सामि, णो[य] खल एवं पउमवरपुंडरीयं एवं उन्निक्लेयवं, जहाणं एस पुरिसे मने, अहमसि ।
पुरिसे खेयम्ने कुसले पदिए वियचे मेहाती अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरकमन्नू, | VI अहमेयं पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामि[ ति कटु ] इति वुच्चा से पुरिसे अभिकमे तं पुक्खरिणी,
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
जावं जावं च णं अभिकमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवपुंडरीयं णो दबाए जो शराब [ अंतरा हरिणी ] गांरी वि[नि] सन्ने, दोचे पुरिसजाए ( सू० ३ ) |
व्याख्या - अथ (अपरो द्वितीयः ) कचित्पुरुषो दक्षिणदिग्भागादागत्य तां पुष्करिणीं तस्याश्च पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा तत्रस्थश्च पश्यति महदेकं पद्मवरपुण्डरीकमानुपूर्येण व्यवस्थितं प्रासादीयं यावत्प्रतिरूपं, ततस्तीरे व्यवस्थितः तं च पूर्वव्यवस्थितं चैकं पुरुषं पश्यति किम्भूतं ! तीरात्परिभ्रष्टं अप्राप्त [पद्म]वरपुण्डरीकमुभयम्रष्टुं अन्तराल एवावसीदन्तं दृष्ट्वा द्वितीयः पुरुषस्तं प्राक्तनं पुरुषमेवं वदेत्-अहो ! योऽसौ कर्द्दमनिमग्नः पुरुषः सोऽखेदशोऽकुशलोऽपण्डितोऽमेधावी बालो न मार्गस्थो नो मार्ग्यो नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, अकुशलत्वादिके कारणमाह-- यद्यस्मादेष पुरुष एतत्कृतवान् तद्यथा - अहं खेदह्रः कुशल इत्यादि मणिवा पचवरपुण्डरीकमुत्क्षेप्स्यामीत्येवं प्रतिज्ञातवान् । न चैतत्पद्यवरपुण्डरीकमेवमुत्क्षेमध्ये, rusोत्प्रभं ततोऽहमेवास्योत्क्षेपणे कुशल इति दर्शयितुमाह अहमंसी 'त्यादि, बहं खेदशः कुशलः पण्डितो मेघाषी, अहमेतत्पचवर पुण्डरीकमुद्धरिष्यामि इत्युक्त्वाऽसावपि द्वितीयः पुरुषः पुष्करिणीमभिमुखं व्रजेत्, पानी कमे च मग्नः तीराद्धष्टो द्वितीयतीरं च न प्राप्तः, उमय भ्रष्टोऽभूत् पञ्चमपि नोदधे अन्तराल एव व्यवस्थितः इत्यादि । एवं द्वितीयोऽपि पुरुषः ॥ ३ ॥
अहावरे तचे पुरिसजाए - अह पुरिसे पञ्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणीं, तीसे
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
| पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एग एउादर जरी अपाहिद्वितं जाव पडिरूवं, ते तत्थ । N दोन्नि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपुंडरीयं, जो हवाए णो पाराए जाव सेसि IN निसने। तते णं से पुरिसे एवं वदासी-अहो!! गं इमे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंडिया अवि- |
यत्ता अमेहावी बाला णो मग्गस्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरकमन्नू । जन्नं एते पुरिसा एवं मन्ने--अम्हे एतं पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामो, नो [य] खल एयं पउमवरपुंडरीयं एवं
उनिक्खेतवं, जहाणं एए पुरिसा मन्ने, अहमसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले N मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमन्नू , अहमेयं पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खेस्सामि [त्ति कटु] इति ।
बुच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं, जावं जावं च णं अभिक्कमे तावं तावं च णं महंते उदए । महंते सेए जाव अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि वि[नि]सन्ने, तच्चे पुरिसजाए (सू०४ ) ॥ __ ज्याम्या-अथ वतीयः पुरुषः पश्चिमदिग्विभागादागत्य पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा प्रथमपुरुषद्वितयवत् पूर्वोक्तं वचनअपवं सपयित्वा कमलोदाराय प्रविष्टः । कमलमुर्जुमसमर्थ अन्तराल एव कर्दमे ममा, इति तृतीयः पुरुषः ॥ ४ ॥
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ चतुर्थः पुरुषः---
अहावरे चउत्थे पुरिसजाए - [ अह पुरिसे ] उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणीं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति [ तं महं ] एगं पउमवरपुंडरीयं [ अणुपुविट्टियं ] जाव पडिरूवं, ते तत्थ तिनि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपने जान सेयंसि वि[नि] सन्ने । तते णं से पुरिसे एवं वदासी - अहो !! णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जात्र णो मग्गस्स गतिपरक्कमन्नू, जनं एते पुरिसा एवं भन्ने- अम्हे एतं परमवरपुंडरीयं उन्निक्विस्साभो, णो य] खलु एयं पउमचरपुंडरीयं [ एवं ] उन्निक्वेयवं, जहा णं एते पुरिसा मने, अहमांस पुरिसे खेयने जाव मग्गस्स गतिपरकमन्नू, अमेयं परमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामि [ति कट्टु इति वुञ्चा से पुरिसे तं
खरिणीं अभिकमेs, [ जावं ] जावं चणं अभिक्कमे तावं तवं च णं महंते उदए महंते सेए जाव वि[न] सन्ने, चउत्थे पुरिसजाए || ( सू० ५ )
व्याख्या - अथ चतुर्थः पुरुष उचराया दिशः समागत्य तत्पुरुषत्रिकं दृष्ट्ा तथैवोक्त्वा तचैव पयोद्वरणाय प्रविष्टा, पूर्वपुरुषत्रिकवत् पक्के निममः, एवं चत्वारोऽपि पुरुषाचतुर्षु दिक्षु निमन्त्राः ॥ ५ ॥
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
साम्प्रतं पञ्चमं पुरुषं तद्विलक्षणमधिकत्याह
अह भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने जाव [गति परक्कमन्नू अन्नतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्भा तं एकरसारिणी, ती पुरनिटीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपुंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासति पहीणे तीरं अपत्ते [पउमवरपुंडरीयं नो । हवाए नो पाराए ] अंतरा पुक्खरिणीए जाव (१) सेयंसि विनि]सन्ने । तते णं से भिक्खू एवं
वदासि-अहो !! णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव नो मग्गस्स गतिपरक्कमन्नू , जन्नं एते पुरिसा एवं । मन्ने-अम्हे [एयं] पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामो, णो[य] खलु एवं पउमवरपुंडरीयं एवं
उनिक्खेतवं, जहा णं एते पुरिसा [ मन्ने] । अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्री खेयन्ने जाव मग्गस्स | गतिपरकमन्नू , अहमेयं पउमवरपुंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कड् इति वुझा से भिक्खू णो अभिकमे तं पुक्खरिणी, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा सदं कुज्जा 'उप्पयाहि खल्लु भो परमवरपुंडरीया! उप्पयाहि' अह से उप्पतिते पउमवरपुंडरीए (सू०६)॥
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-अथ चतुर्थपुरुषादनन्तरं पश्चमः पुरुषस्तस्यानि विशेषणानि-भिक्षुः' पचनपाचनादिसावयानुष्ठानरहितो निर्दोषाहारमोजी रागद्वेपरहितः, अत एव 'लूहे' रूक्षा, संसारान्धेस्तीरार्थी तथा खेदज्ञः, पूर्वव्याख्यातान्येवामनि विशेषणानि, सच पत्रमा तरको भिक्षा, अन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगत्य तां पुष्करिणी, तस्याश्च तीरे स्थित्ता समन्तादवलोकयन् बहुमभ्यदेशमागे सन्महदेकं पयवरपुण्डरीकं पश्यति, ताश्च चतुरः पुरुषान् पश्यति । किम्भूतान् ? त्यक्ततीरान् अप्राप्तपरपुण्डरीकान् पङ्कजलावमग्नान् , पुनस्तीरमप्यागन्तुमशक्कान् दृष्ट्वा ततोऽसौ भिक्षुरेवमिति वक्ष्यमाणनीत्या वदेत् । तद्यथा-अहो ! ! इमे चत्वारः पुरुषा अखेदशा पाचनो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः । यथैते पुरुषाः एवं ज्ञातवन्तो, यथा-य पुण्डरीकसत्क्षेप्यामा-उद्धरिष्यामः । न च तत् खल पुण्डरीकमेवमनेन प्रकारेण उत्क्षेप्तव्य, यथते मन्यन्ते-चयं हेलयैवो. क्षेप्स्यामः, न तथोद्धारोऽस्थ भविष्यति । परं अहमस्मि रूक्षो भिक्षुर्यावद्गतिपराक्रमशः। एतद्गुणविशिष्टोऽहमेतत्पुण्डरीक'मुक्षेप्स्यामि' उत्खनिध्यामि-समरिष्यामि, 'एवमुक्त्वाऽसौ' नामिकामेद-तां पुष्करिणी न प्रविशेख, तत्रस्थ एवं तस्यास्तीरे स्थित्वा तथाविधं शन्दं कुर्यात् यथा-'ऊर्द्ध उत्पत', उत्पत स्वल वाक्यालङ्कारे 'हे पचवरपुण्डरीक ! तस्याः पुष्करिण्या मध्यदेशात् खमुत्पत (ख)मुल्पत' इत्येवं तच्छन्दश्रवणादनन्तरं तदुत्पतितमिति ॥ ५॥ एतदृष्टान्तमथ दार्शन्तिके योजयति, अथ श्रीमहावीरः स्वशिष्यानाहकिहिए नाए समणाउसो!, अद्वे पुण से जाणितत्वे भवति । भंते चि समणं भगवं महावीरं ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
निग्गंथा[य] निग्गंधीओ [य] वंदति नमसंहि, बंदिसा गर्मसिसा एवं बयासी- फिट्टिते नाए सम
णाउसो!, अटुं पुण से ण जाणामो। समणाउसो!त्ति समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथे य शनिग्गंधीओ य आमंतेत्ता एवं वदासी-हंत समणाउसो! ते आतिक्खामि विभावमि किमि | पवेदेमि सअटुं सहेउयं सनिमित्तं भुजो भुजो उवदंसमि से बेमि (सू०७)॥
___ व्याख्या-कीर्तिते' कथिते मयाऽस्मिन् वाते हे श्रमणा! आयुष्मन्तोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति भवद्भिः। एतदुक्तं | भवति-नास्योदाहरणस्य परमार्थ यूयं जानीथ, इत्येवमुक्त भगवता ते बहवो निग्रन्या निन्थ्यथ तं श्रमणं भगवन्तं महावीर ते निर्ग्रन्थादयो वन्दन्ते ( कायेन ), नमस्यन्ति-स्तुवन्ति । वन्दित्वा [नमस्यित्वा] चैवं वक्ष्यमाणं वदेया-'कीर्तितमुदाहरणं मगवता, अर्थ पुनरस्य सम्यम्न जानीम, इत्येवं पृष्टो भगवान श्रमणो महावीरस्ताविप्रेन्थादीनेवं यदेव-[हंतेति सम्प्रेषणे, हे श्रमणा आयुष्मन्तो ! यद्भवनिरहं पृष्टस्तत्सोपपत्तिकमाख्यामि-भवतां ['विभावयामि'] आविर्मावयामि- प्रकटाई | करोमि 'कीर्तयामि' पर्यापकथनद्वारेण तथा 'पवेदेमिति प्रवेदयामि-प्रकण हेतुदृष्टान्तेषिचसन्ततावारोपयामि । कथ प्रतिपादयामीति दर्शयति-साथ-पुष्करिणीदृष्टान्तं सहेतुकं प्रतिपादयिष्यामि, यथा ते पुरुषा अप्रासप्रार्थितार्थाः पुष्करिणीकर्दमे दुरुत्तारे निमन्ना एवं वक्ष्यमाणास्तीर्थिका अपारमा संसारसागरस्य, तत्रैव निमअन्तीत्येवंरूपोऽर्थः सदृष्टान्तः प्रदर्शयिष्यते । सनिमित्त-सकारणं दृष्टान्तार्थ भूयो भूयोऽपरैरपरहेतु दृष्टान्तरूपदर्शयामि । सोऽहं साम्प्रतमेव प्रवीमि, भृशुन युपमिति ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोयं च खलु मए अप्पाहद्दु समणाउसो ! सा पुक्खारणी बुइया । कम्मं च खलु मए अप्पा समाउसो ! से उदय बुइस काममोगे यह नए अप्पाड समणाउसो ! से सेए बुइए । जण जाणत्रयं च खलु मए अप्पाहहु समणाउसो ! ते बहवे पडमवरपुंडरीया बुइता | रायाणं च खलु मय् अप्पाहहु समणाउसो ! से एगे महं पउमवरपुंडरीए बुइए । अन्नउस्थिया
खलु मए अप्पा समणाउसो ! ते चत्तारि पुरिसजाया बुड़ता । धम्मं च खलु मंए अप्पाद्दुसमणाउसो ! [ से ]भिक्खू बुइए | धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहहु समणाउसो ! से सीरे बुइए | धम्मक च खलु मए अप्पाहद्दु समणाउसो ! से सहे बुइए । निवाणं च खलु मए अप्पाद समाउसो ! से उप्पाते बुझ्ए । एवमेयं च खलु मए अप्पाहद्दु समणाउसो ! से एवमेयं बुइयं (सू०८ )॥
व्याख्या ----लोकमिति मनुष्यक्षेत्रं, [ च शब्दः, समुच्चये ] खलुरिति वाक्यालङ्कारे, मया लोको मनुष्याssधारस्तमारमन्याहृत्य - व्यवस्थाप्य ' अपाहृत्य [ वा' आत्मना वा मयाऽऽहृत्य ] न परोपदेशतः, सा पुष्करिणी पद्माधारभूतोक्ता । तथा कर्मचाष्टप्रकारं यद्धलेन पुरुषपुण्डरीकाणि भवन्ति, तदुदकं दृष्टान्तत्वेन उपन्यस्तं । कामभोगाथ मया कर्दमोऽभिहितः,
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथा महति पङ्के निमग्नो दुःखेनात्मानमुद्धरत्येवं विषयेष्वप्यासको नात्मानमुद्धर्तुमलमित्येतत् कर्द्दमविषययोः साम्यमिति । 'जना: ' सामान्यलोका: 'जानपदा' विशिष्टार्यदेशोत्पन्नाः गृह्यन्ते, ताँश्च समाश्रित्य मया दार्शन्तिकत्वेनाङ्गीकृत्य तानि बहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि दृष्टान्तत्वेनाभिहितानि । राजानमात्मन्याहृत्य तदेकं पद्म वरपुण्डरीकं दृष्टान्तत्वेनाभिहितम् । तथाऽन्यतीर्थकान् समाश्रित्य ते चत्वारः पुरुषजाता अभिहितास्तेषां राजपुण्डरीकोद्धरणसामर्थ्य वैकल्यात् । तथा धर्म व खल्लामन्याहृत्य श्रमणायुष्मन् । स भिक्षुः रूक्षवृचिरभिहितः, तस्यैव चक्रवर्त्यादिराजपद्म वरपुण्डरीकस्योद्धरणसामर्थ्य सद्भावाद | धर्म्मतीर्थं च खल्वाश्रित्य मया तचीरमुक्तम् । तथा सद्धर्मदेशनां चाश्रित्य मया स भिक्षोः सम्बन्धी शब्दोऽभिहितः । तथा ' निर्माणं ' मोक्षगदमशेष कर्मक्षयरूपसोपस्कार माराख्य भूभागोपर्यवस्थितं क्षेत्रखण्डं चात्मन्याहृत्य स पद्मवत्पुण्डरीकस्योत्यातोऽमिहितः । ' एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण [ ए ] तल्लोकादिकं च खल्वात्मन्याहृत्य - आश्रित्य मया श्रमणायुष्मन् ! ' से ' एतत्पुष्करिण्यादिकं दृष्टान्तत्वेन किञ्चित्साधम्र्यादेवमुक्तमिति ॥ ८ ॥ एतावता सामान्येन दृष्टान्तदान्तिक योजना कृता, अथ विशेषेण प्रधानभूतराजदार्शन्तिकं तदुद्धरणार्थत्वात् सर्वप्रयासस्येति दर्शयितुमाह
इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवति । अणुपुणं लो[ ] गतं (?) उववन्ना, तं जहा - आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे का मंता वेगे [र]हस्समंता वेगे सुवण्णा वेगे दुबन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
णं मणुयाणं एगे राया भवति ।
व्याख्या -' इइ ' मनुष्यलोके, खलुर्वाक्यालङ्कारे, प्राच्यां प्रतीच्या मुदीच्यामपाच्यामन्यतरस्यां वा दिशि 'सन्ति ' विद्यन्ते 'एके' केचन तथाविधा मनुष्या आनुपूर्येण इमं लोकमाश्रित्योत्पन्ना भवन्ति । तानेव दर्शयति, तद्यथा - आर्या अनार्यस्तथा एके उचैर्गोत्रीया इलाखा [एक] बीगोतीष, ए + दीर्घकायाः, एके इस्वकायाः, एके सुवर्णा, एके दुर्वर्णाः कृष्णरूक्षादिवर्णाः, एके 'सुरूपा:' सुविभक्तचारुदेहाः, एके 'दुरूपा।' बीभत्सदेहाः, एतेषां मध्ये कश्विदेवैस्तथाविधकर्मोदयाद्राजा भवति । स कीट्शः १
महया हिमवंत मलय मंदरमहिंदसारे अञ्चतविसुद्धराय कुलवंसप्पसूप निरंतर रायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणवहुमाणइते सवगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिते मुद्धाभिसिते माउपिउ सुजाए दयप्पिए सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुसिदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीदे पुरिसआसीविसे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिन्नविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने बहुजणबहुघणबहुजायरूवरयए + ‘" कायो ' महाकायः प्रांशुत्वं तद्विद्यते येषां ते कायवन्तः " इति बृहद्वृत्तौ |
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
आओगप्पओगसंपउत्ते विच्छडितपउरभत्तपाणे बहुदासदासीगोमहिसगवेलगप्पभूए [ पडिपुण्णकोसकोट्ठागाराउहागारे बलवं दुब्बल्लपञ्चामिचे ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं
अकंटयं ओहयसत्तू नियसत्तू मलियसत्तू उद्धियसत्तू निजियसत्तू पराइयसत्तू क्वगयदुन्भि| क्खमारिभयविप्पमुक्कं, रायवपणओ जहा उबवाईए, जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति । तस्स गं रन्नो परिसा भवति । ___ एतव्याख्यानं औपपातिकोपाला ज्ञातव्यं, पावते राजान उपशान्तडिम्बडमरं* + रज 'ति राज्य प्रसाधयन्ति | तस्य चैवंविधगुणसम्पदुपेतस्य राज एवंविधा पर्पदवसि ।
उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुचा, नाया नायपुत्ता, कोरबा कोरवपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसस्थारो पसस्थारपुत्ता, सेणावई सेणावईपुत्ता, तेसिं च णं एगतीए सङ्की भवति कामं, तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए।
* " ठत्र 'डिम्म:' परानीकश्रृगालिको ‘उमरं ' स्वराष्ट्रक्षोभः, पर्याशै वैतावत्यादरख्यापनार्थमुपात्तौ । ” इनि १० ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
तत्थ अन्नतरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो भवंति, वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्लामो से एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुअक्खाप सुपनन्ते भवति । तं जहा -
व्याख्या-- उग्रा उग्रपुत्राः, एवं मोगपुत्रादयोऽपि द्रष्टव्याः, शेषं सुगमं यावत्सेनापतिपुत्रा इति + । तेषां मध्ये कश्चिदेवैकः ' श्रद्धावान् ' धर्मलिप्सुर्भवति । काममित्यवधृतार्थे । अवधृतमेतद्यथाऽयं धर्म्मश्रद्धालुः, अवधार्य च तं धर्मंलिप्सुतया श्रमणा ब्राह्मणा वा सम्प्रधारितवन्तः ' समालीचितवन्तो धम्मं प्रतिबोधनिमित्तं तदन्तिकगमनाय तत्र चान्यतरेण धर्मेण स्वसमयप्रसिद्धेन प्रज्ञापयितारो वयमित्येवं सम्प्रधार्य राजान्तिकं गत्वा एवमूचुस्तद्यथा - एतद्यथाऽहं कथयाम्येवमिति वक्ष्यमाणनीत्या ' भवन्तो ' यूयं जानीत मयात्रातारो वा ' यथा ' येन प्रकारेण मयैष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रहतो मत्रतीत्येवं तीर्थिकः स्वदर्शनानुरञ्जितोऽन्यस्यापि स्वाभिप्रायेण राजादेरुपदेशं ददाति । तत्राद्यपुरुषजातस्तजीवतच्छरीरवादी राजानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां चक्रे तद्यथा
उ पादतला अहे केसग्गमत्थया तिरियं तयपरियंते जीवे, एस आयपज्जवे कसिणे, एस जीवे जीवति, एस मए णो जीवति, सरीरे धरमाणे धरति विणटुम्मि य णो धरति । एयंत
+ नगरं - ' लेच्छ 'सि लिप्सुकः, स च वणिगादिस्तथा ' प्रशास्तारो ' बुद्ध्युपजीविनो मन्त्रिपभृतयः । इति वृहद्वृत्तौ ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
व जीवितं भवति। आदहणाए परेहिं निजति, अगणिज्झामिए सरीरे कवोतवण्णाणि अट्ठीणि भवंति।। * व्याख्या-'ऊर्ध्व उपरि पादतलादधश्च केशाग्रमस्तकात्तिर्यकत्वकपर्यन्तो जीव, एतावता यदेवैतच्छरीरे स एव ||
जीवो, नैतस्माच्छरीरादयतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थोऽस्तीति यदेवच्छरीरं स एवात्मा। अर्थ काय एव] तस्यात्मनः पर्यय: 'कृत्स्नः' सम्पूर्णः 'पर्यायो'ऽवस्थाविशेषः, यावत्कालमिदं शरीरं जीवति तावत्कालं जीवोऽपि जीवति, शरीरे मृते जीवोऽपि म्रियते । यावदिदं शरीरं पश्चभूतात्मक अध्ययं * घरति तावदेव जीवोऽपीति, तस्मिंश्च विनष्टे जीवस्यापि विनाशः। [तदेवं] याचदेतच्छरीरं वातपित्तश्लेष्माधारं पूर्वस्वभावादाच्युत तावदेव जीवस्य जीवितं भवति, तस्मिश्च विनष्टे तदात्माजीवोऽपि विनष्ट इति कृत्वा आदहनाय मशानादौ नीयते, तस्मिंश्च शरीरे अग्निना च्यामि[ध्मापि]ते कपोतवर्णान्यस्थीनि केवलमुपलभ्यन्ते, परमस्थिव्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्या पदार्थो न दृश्यते, येन तदस्तित्वप्रतीतिरुपजायते, तथा
आसंदीपंचमा पुरिसा गामं पञ्चागच्छति, एवं असंते असंविजमाणे, जेसिं तं असंते असं विजमाणे तेसिं तं सुअक्खायं भवति-अन्नो भवति जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते एवं नो विप्पडिवेदेति
_ व्याख्या-तनान्धवा जघन्यतोऽपि चत्वार:-'आसन्दी' मञ्चकः, स पञ्चमो येषां ते आसन्दीपनमाः पुरुषास्तं कायं ४ अग्निना भ्यामयित्वा पुनः स्वं ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति । पदि पुनस्तास्मापि शरीराद्विमः स्याततः शरीराभिर्गच्छन्
*अमङ्ग-मखण्डं ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृश्येत, न च दृश्यते, सस्माचजीवतच्छरीरमिति स्थितम् । सदेवं येषां मते-असौ जीवोऽसत् अविधमाना, तत्र तिष्ठन् । गच्छन् नोपलभ्यते, येषामयं पक्षस्तेषां तत्स्वारख्यातं भवति, येषां पुनरन्यो जीवोऽन्यच्छरीरं तदृथा, ते तु अन्धरूढया प्रवर्त्तमाना एवमिति वक्ष्यमाणं नैव विप्रतिवेदयन्ति-न जानन्ति, तदेवाह-यद्ययमात्मा शरीरादिनस्तर्हि किं स्वरूपः ? कियत्प्रमागो का ? --
अयमाउसो ! आता दीहेति वा हस्सेति वा परिमंडलोत वा वद्देति वा तंसेति वा चउरसति वा आयतेति वा छलंसिएति वा अटुंसति वा । किण्हेति वा नीलेति वा लोहिएति वा हालिदेति वा सुकिलेति वा। सुब्भिगंधेइ वा दुभिगंधेइ वा । तितेइ वा कडुएति वा कसाइएति वा अंबिलेति वा महुरेति वा लवणेति वा । कक्खडेति वा मउएति वा गुरुएति वा लहुएति वा सीएति वा उसिणेति वा निद्धति वा लुक्खेति वा ? । एवं असए असंविजामाणे जेसि तं सुअ. क्खायं भवति-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते नो एवं उक्लभंति । ___ व्याख्या-(आयुष्मन् ! ) यद्ययमात्मा शरीराद्भिवस्ताहि किं दी? वा इस्वो वाऽस्ति १ तथा अयमात्मा कियत्प्रमाणो का दीर्घो इस्वो वाऽष्ठश्यामाकतन्दुलपरिमाणो वा, १ किं परिमण्डला? किंवा वृत्तः १ यतः चतुरना पडशो चा ( अष्टांगो
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा!) तथा वर्णतः किं किण्हेति वा नीलेति वा लोहिएति वा हालिद्देति वा सुकिलेति वा । तथा गन्धतः किं सुम्मिगंधेइ वा व Mil दुम्मिगंधेह वा । तथा रसतः किं तित्तेइ वा कडएति वा कसाहपति का अंपिलेह बा मह वा लवणेर बा । (तथा पर्वता)
किं कक्सडेति वा मउएति वा गहएति वा लहुएति वा सीएति वा उसिणेति वा निद्धेह बा लुस्खेह वा । एवं असंविजमाणे | जेसिं तं सुअक्खायं भवति-अन्नो जीयो अमं शरीरं, तम्हा ते नो एवं उवलम्मति । इत्यादि-सर्व सुगमम् । अतो येषां
मते केनापि प्रकारेणासंवेबमान:-शरीरादपृथग्भूत आत्मा तेषां सत्स्वाख्यातं भवति, यथाऽन्यो जीव अन्यच्छरीरमित्येवं NI ये प्रतिपादयन्ति ते नात्मानमुपलभन्ते-ते नात्मस्वरूपवेत्तारा, ये तु शरीरात्पृथग्भूतो जीवाख्यः पदार्थ इति स्वग्रन्थेषु
निक्षिप्तवन्तस्तद्धा, कथं ? यथा| से जहा नामए केइ पुरिसे कोसीओ असिं अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो! असी अयं कोसी, एवामेव णस्थि केइ पुरिले अभिनिवटित्ताणं उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया इमं ||
सरीरं । से जहा नामए केइ पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिवद्वित्ताणं उक्दंसेति-अयमाउसो! । मुंजा इयं इसिया, एवामेव नत्थि केइ पुरिसे उदंसेचारो-अयमाउसो! आया इदं सरीरं । से
जहा नाम केइ पुरिसे मंसाओ अहिँ अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! मंसे अयं अट्ठी,
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
- एवामेव नत्थि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया इदं सरीरं । से जहा नामए केइ । IN पुरिसे करतलाओ आमलकं अभिनिवद्वित्ताणं उवदंसेजा-अयमाउसो! करतले अयं आमलए,
एवामेव णस्थि केइ पुरिसे उपसारो अथमाउसो ! आया इदं सरीरं । से जहा नामए केइ || पुरिसे दहीओ नवनीयं अभिनिवहित्ताणं उबदंसेज्जा-अयमाउसो! नवनीयं अयं तु दही, एवामेव नस्थि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो-अयमाउसों ! आया इदं सरीरं । से जहा नामए केइ पुरिसे | तिलहितो तेल्लं अभिनिवहिताणं उबदंसेजा-अयमाउसो! तिल्ले अयं पिनाए, एवामेव नस्थि केइ पुरिसे उक्दंसेत्तारो-अयमाउसो! आया इदं सरीरं । से जहा नामए केइ पुरिसे इक्खूतो ! खोतरसं अभिनिवहिताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो! खोतरसे अयं छोए, एवामेव नस्थि केइ पुरिसे उबदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया इदं सरीरं । से जहा नामए केइ पुरिसे अरणीतो
अग्गि अभिनिवद्वित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो! अरणी अयमग्गी, एवामेव नस्थि केइ पुरिसे। | उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया इदं सरीरं । एवं असंते असंविजमाणे जेसिं त।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुअक्खायं हवइ, तं जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा तं मिच्छा । से हता, तं हणह खणह । छणह डहह पयह लंण्ड आलूपर विलंपह सहसल्लाह विपरामुसह । एतावता x णस्थि जीवे, णस्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा___ व्याख्या-यथा नाम कश्चित्पुरुषः 'कोशतः' परिवार + दसिं-स्वगमभिनिर्य-समाकृष्यान्येषामुपदर्शयेत् , यथाऽयमायुष्मन् ! ' असि' खलः अयं च 'कोशः' परिवारः, एवमेव जीवशरीस्योरपि नास्त्युपदर्शयिता, तद्यथा-अय जीव | | इदं च शरीरमिति । न चास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिदतो न शरीरादिमो जीव इति । अस्मिंश्चार्थे * बहको दृष्टान्ताः सन्तीत्यM. तो दर्शयितुमाह, तद्यथा-कश्चित्पुरुषो 'मुञ्जा'तृणविशेषात् 'इसियं' ति तद्गर्भभूतां शिलिकां पृथक्कृत्य दर्शयेत् । तथा
माँसादस्थि, करतलादामलकं, तथा दध्नो नवनीतं, तिलेभ्यस्तैलं, तथेयो रस, तथाऽरणितोऽग्नि ' अभिनिर्य' पृथक्कृत्य दर्शयेत् , एवमेव शरीरादपि जीवमिति । न चास्त्येवमुपदर्शयिता, तस्मात्तन्मिथ्या यत्कश्चिदुच्यते-यथाऽस्त्यात्मा परलो. कानुयायीति । एवं चाकिस्तजीवतच्छरीवादी शरीरादपृथग्भूतमेवात्मानं मन्यमानः आत्माऽभावप्रतिपादको नास्तिका | प्राणातिपातदोषमविन्दन् प्राणिनामे केन्द्रियादीनां 'हन्ता' व्यापादको भवति । प्राणातिपाते दोषामावमभ्युपगम्यान्येषा
xणत्थि'त्ति शब्दो नास्त्यत्र बृहवृत्यन्वितासु सस्विपि मुद्रिसप्रतिषु, परमस्त्यस्त्रिलास्वपि दीपिकाप्रतिषु मूलेऽतोत्र रक्षितः । + प्रत्याकारात् । म्यान' इति लोके ।
* अस्मिम् 'जीवनास्तिप्ररूपणार्थे ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
afe प्राण्युपपातकारिणामुपदेशं ददाति, तद्यथा - प्राणिनः खङ्गादिना घातयत पृथिव्यादिकं खनतेत्यादि सुगमम् । याददेतावानेव - शरीरमात्र एव जीवस्ततः परलोकिनोऽमावान्नास्ति परलोकस्तदभावाच्च यथेष्टमासत खादत पिषत सुखमनुभवत दहत पचव, अत्र दोषो नास्ति, जावस्थाभावाश्च परलोको नापि पुण्यं न पापं, इत्येवं लोकायतिकास्तजीवतच्छरीरखा दिनो नैवैतद्रक्ष्यमाणं चिप्रतिवेदयन्ति-नाभ्युपगच्छन्ति । तद्यथा
किरियाई वा अकिरियाइ वा, सुकडेइ वा दुकडेइ वा, कल्लाणएति वा पावएति वा, साहूति वा असाहूति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरपति वा अनिरष्टति वा । एवं ते विरूवरूहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए ।
व्याख्या—ये एवं मन्यन्ते नास्ति जीवो नास्ति परलोकस्ते नैत्रं विप्रतिवेदयन्ति-नाभ्युपगच्छन्ति । किं नाभ्युपगच्छन्ति ? 'क्रिया' सदनुष्ठानात्मिकां ' अक्रियां' जसदनुष्ठानरूपणं, एवं नैव ते विप्रतिवेदयन्ति । कृतः १ यद्यात्मा क्रियावांस्तर्हि कर्मबन्धः क्रियया शुभं कर्म बध्यते अक्रियया त्वशुमं ततश्च कोऽपि भोक्ता स्यात् । स तु परलोकगामी जीव एव, स तु मूलतोऽपि निराकृत एव तत कः कर्म बध्नाति ? कश्च कर्मफलमनुभवति १ जीवाभावात्, अतः सत्क्रियादिचिन्ता दूरोरसादितैव, अतः क्रियामक्रियां च न मन्यन्ते । तथा सुकृतं वा दुष्कृतं वा कल्याणमिति पापमिति वा, साधुकृतमसाधुकृतमित्यादिका चिन्तैव नास्ति । तथाहि - ' सुकृतानां कल्याणविपाकिनां साधुतयाऽजस्थानं ' दुष्कृतानां पापरिपाकिनां
1
,
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
असाधुत्वेनावस्थानं, एतदुमयमपि सत्यात्मनि तत्फल जि सम्भवति, तदभावाच्च कृतोऽनर्थको हिताहितप्राप्तिपरिहारी || स्पाता ? | तथा अशेषकर्मक्षयरूपां सिद्धिमपि असिद्धिमपि नाऽभ्युपगच्छन्ति, आत्माभावात् । तथा दुष्कृतेन-पापानुबन्धिना असाध्वनुष्ठानेन नरकोऽनस्को वा तिर्यग्नरामरगतिलक्षणः स्यादित्येवमादिका चिन्तैव न मवेत् , तदाधारस्यात्मसद्धावस्यानभ्युपगमादिति मावः । एवं [ते ]नास्तिका आत्मामावं प्रतिपाय विरूपरूपैः पशुषातमांसभक्षणमुरापाननिलोछनादिभिः | कर्मसमारम्मैः साद्यानुष्ठानः ऋषीचलानुष्ठानादिभिर्विरूपरूपान् कामभोगान् समाददति तदुपभोगार्थमिति ।
साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिमतमुपसंहरनाइ___ एवं एगे पागभिता णिक्खम्म मामगं धम्म पन्नविति, तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साहु सुअक्खाए, समणेति वा माहणेत्ति वा कामं खल्लु आउसो ! तुमं ययामि, 1 तं जहा-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा, तत्ोंगे पूयणाए समाउर्टिसु, तत्थेगे पूयणाए निकाइंसु । ___ व्याख्या-['एवं उक्त प्रकारेण] एके' केचन नास्तिकाः धृष्टाः सन्त एवं वदन्ति-अयमात्मा शरीरादपृथग्भूतोऽस्ति, एतावता शरीरे मृते जीवोऽपि म्रियते, न परं शरीरात्पृथम्माचं मजते । स एव जौचस्तदेव शरीरं, न शरीरारपृथगात्मा, इत्येवं
P
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
ङ्ग
51.
धृष्टाः सन्तः प्रवर्त्तन्ते । स्वकीयदर्शनानुसारेण प्रवज्यां प्रतिपद्य + मदीयोऽयमेव धर्मः सत्यो, नाडपर इति [ परेभ्यः प्रज्ञापचन्ति । ततश्चान्ये श्रोतारः नास्तिकोक्तं धर्म विषयिणामनुकूलं श्रद्धानाः प्रतीयन्तो मनसि रोचयन्तस्तथा अवितथभावेन गृह्णन्तस्तत्र रुचि कुर्वन्तस्तथा 'साधु' शोमनमेतद्यथा स्वाख्यातो यथावस्थितो मत्रता धर्मोऽन्यथा हिंसादिध्ववर्त्तमानाः परलोकमयात्सुखसाधनेषु मद्यमांसादिषु प्रवृत्ति अकुर्वाणा मानुषजन्मफलवश्चिता मवे [युः, ] ततः शोभनमकारि भवता हे श्रमण ! ब्राह्मण ! यदयं धर्मोऽस्माकमावेदितः काममिष्टमेतदस्माकं धर्मकथनं । खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे । हे आयुष्मंस्त्वया वयमभ्युद्धृताः, अन्यथा कापटिकस्तीर्थिकैर्वञ्चिता अभूम:, तस्मादुपकारिणं 'स्व'भवन्तं पूजयामि, अहमपि कञ्चिदायुष्मतोभवतः प्रत्युपकारं करोमि, 'असणेण वा पाणेण वा' इत्यादि बत्रं सर्व सुगमम् । तत्रैके केचन पूजया पूजायां वा 'समाउहिंसु 'ति समावृत्ता- प्रवीभूतास्ते राजानः पूजां प्रति प्रवृत्ताः 'पूयाए निकाइंस' पूजायां 'निकाचितवन्तः ' नियमितवन्तः भवद्भिस्तजीव तच्छरीरमित्यभ्युपगन्तव्यं, अन्यो जीवोऽन्यच्च शरीरमित्येतच्च परित्याज्यं, अनुष्ठानमध्ये तदरूपमेव विधेयमित्येव निकाचितवन्तः के ते ? दर्शनिनः - स्वदर्शनप्रतिपचान् राजादीन् ।
पुवामेव तेसि णायं भवइ- समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभो
+ " यद्यपि नास्तिकानां नास्ति प्रत्रज्या तथापि यौद्धा दिमते प्रत्रस्य पश्चान्नास्तिकीभूते सम्भवति प्रत्रज्या, अथवा नीलपट्टायङ्गीकृतः कश्चिदस्त्येव प्रव्रज्याविशेषः " इति हर्ष० ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
[इणो]गी भिक्खुणो पावं कम्मं नो करिस्सामो, समुद्राए ते अप्पणो अप्पडिविरया भवंति ।। | सथमाइयति अन्नवि आदियाविति अन्नपि आययंतं समणुजाणंति, एवामेव ते इथिकामभोगे| (सु)हिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसट्टा, ते णो अप्पाणं समुच्छे- । दिति, णो परं समुच्छेदिति, णो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समुच्छेदिति । पहीणा। पुत्वसंजोगं आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसन्ना, इति पढमे पुरिसजाते तजीवतस्सरीरएत्ति आहिए (सू०९)॥ ___ व्याख्या-तथा नैर्दर्शनिभिः प्रव्रज्याग्रहणकाल एवैतत्परिज्ञातं भवति, यथा-वयं परित्यक्तपुत्रकलत्राः 'श्रमणा' | यतयो भविष्याम 'अनगारा' गृहरहितास्तथा निष्काश्चनास्तथा [अपुत्रा] ' अपशयो' गोमहिष्यादिरहिताः परदत्तभोजिना, स्वतः पचनषाचनादिक्रियारहितत्वात् । तथा 'भिक्षयो' भिक्षोपजीविनः, कियद्वक्ष्यते ? अन्यदपि यत्किचि'स्पा' सावयं कर्मा-नुष्ठान तत्सर्वे न करिष्या(म इत्येवं )मीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय पूर्व, पश्चात्ते-लोकायतिकभावमुपागताः 'आत्मनः' स्वतः पापकर्मभ्योऽप्रतिविरता भवन्ति, विरत्यभावे च यत्कुर्वन्ति तदर्शयति-पूर्व सावद्यारम्भानिवृत्ति विधाय नीलपटादिकं वा लिङ्गमास्थाय स्वयं सावधमनुष्ठानं 'आददते ' स्वीकुर्वन्त्यन्यानप्यादापयन्ति-प्राहयन्ति अन्यमप्याद
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
rika
FIN | दान-परिग्रहं स्वीकुर्वन्तं समनुजानन्ति, एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीसम्बन्धिषु कामभोगेषु मूञ्छिताः ' गृद्धाः ' कालावन्तो |
'ग्रथिताः' अवबद्धाः 'अध्युपपन्ना' लुब्धाः रागद्वेषवशगाः कामभोगान्धा त्रा, ते एवं कामभोगेष्वववद्धाः मन्तो नात्मान संसाराकर्मपाशाद्वा समुच्छेदयन्ति, नापि परं सदुपदेशदानतः कर्मपाशावपाशितं समुच्छेदयन्ति-कर्मवन्धात्रोटयन्ति, The नाप्यन्यान् प्राणान् भूतान् जीवान सच्चान् समुच्छेदयन्ति । ते चैवविधास्तञ्जीवतन्छीरवादिनो लोकायतिकाः 'पूर्व
संयोगा'त्पुत्रदारादिकात् 'प्रहीणाः' प्रभ्रष्टाः, आर्यमार्गमसम्प्राप्ताः, ऐहिकाऽऽमुष्मिकलोकद्वयात् अभ्रष्टाः, अन्तराल | एव भोगेषु विषण्णास्तिष्ठन्ति, न विवक्षितं पुण्डरीकोत्क्षेपणादिकं कार्य प्रसाधयन्ति । इत्ययं च प्रथमपुरुषस्तजीवतच्छरीर| बादी परिसमाप्त इति । इति प्रथमः पुरुषः । अथ द्वितीयपुरुषजातमधिकृत्याऽऽह
अहावरे दोघे पुरिसजाए पंच महन्भूतिएत्ति आहिजति, इह खलु पाईणं वा दाहिणं वा पडीणं वा उत्तरं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुवेणं लोयं उववन्ना, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेसिं च णं महं एगे राया भवति [महया०] एवं चेत्र निरवसेसं जाव। । सेणावतिपुत्ता, तेसिं च णं एगतिए सड्डी भवति । कामं तं समणा य माणा य पहारिंसु गमणाए। | तत्थऽन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो क्यमिमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो, से एवमायाणह भयंतारो ! जहा | मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवति ।
-
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-इह खलु द्वितीया पुरुषजातः पञ्चभिः [भूतैः पृथिव्यप्तेजोवाबाकाशैश्चरति पचभूतिका, स च सॉख्यमतावलम्बी । स प्रथमपुरुषवद्यावद्राजसमामागत्य स्वीयं धर्म यया प्रकाशयति तथा[ दर्शयितमाह--
इह खलु पंच महाभूता, जेहि नो किज्जति किरियाति वा अकिरियाति वा, सुकडेति वा दुक्कडेति वा, कल्लाणएति वा पावएति वा, साइति वा असाहति वा, सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा, निरएति वा अनिरएति वा, इति [अवि] अंतसो तणमातमवि । तं पिहुद्देसेणं पुढो भूतसमवातं जाणेजा, तंजहा___ व्याख्या-'इह ' द्वितीय पुरुषवक्तव्याधिकारे, खलु शब्दो वाक्यालकारे, पृथिम्यादीनि पञ्च महाभूतानि विद्यन्ते । देषों प सर्वव्यापितया अभ्युपगमान्महवं, पञ्चैव, परस्य षष्ठस्य क्रियाकरीत्वेनानम्युपगमात् । पञ्च भूतानि कार्यकारीणि, न कोऽपि षष्ठः पदार्थोऽस्ति । साङ्खचानां हि मते पंच महाभूतान्येव सर्वक्रियाकारीणि, न कोऽपि षष्ठः आत्माख्या पदार्थः । स तु किमपि न करोति, यतस्तन्मत-" अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, - आत्मा कापिलदर्शने ॥ १५ ॥" साङ्खया एवं वदन्ति-पञ्चभूतैरभ्युपगम्यमानों-ऽस्माकं 'क्रिया' परिस्पन्दामिका चेष्टारूपा [अक्रिया वा-निर्व्यापारतया स्थितिरूपा] क्रियते, तथाहि-सॉख्यानां दर्शन सच्चरजस्तमोरूपा प्रकृतिः सर्वा अर्थक्रियाः करोति, पुरुषः केवलमुपमुळे, तस्याश्च प्रकृतेर्भूतात्मिकायाः सत्वरजस्तमसां चयापचयाम्या क्रियाऽक्रिये स्यातामिति कृत्वा भूतेभ्य एव क्रियादीनि प्रवचन्ते, भूतव्यतिरेकेणापरस्याभावादिति भावः । तथा सकृतं सचगुणाधिक्येन मपति
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
दुष्कृतं रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते, एवं कल्याणमिति वा पापकमिति वा, साध्विति वा असाध्विति वा इत्येतत्सच्चाatri गुणानामुत्कर्षानुत्कर्षतया यथासम्भव मायोजनीयं । तथा सिद्धिरसिद्धिर्वा, तथा 'नरकः पापकर्मणां यातनास्थानं, अनरक स्विर्यमनुष्यामराः, एतत्सर्वं सभ्वादिगुणाधिष्ठिता भूतात्मिका प्रकृतिर्विधचे, लोकायतिकाभिप्रायेणापीहैव तथाविधसुखदुःखावस्थाने स्वर्ग नरकाविति इत्येवमन्तस्तृणमात्रमपि यत्कार्यं तद्भूतैरेव प्रधानरूपापमैः क्रियते । तदेवं साँख्याभिप्रायेणात्मनस्तृण कुब्जीकरोऽप्यसामर्थ्यात्, लोकायतिकाभिप्रायेण त्वात्मन एवाभावात् भूतान्येव सर्वकार्यकर्तृणीत्येवमभ्युपगमः । तानि च समुदायरूपापमानि नानास्वभावं कार्यं कुर्वन्ति । तं च तेषां भूतानां समवायं पृथग्भूतपदोद्देशेन जानीयात्। तथाहि
पुढगे महभूते आऊ दुच्चे महब्भूते तेऊ तच्चे महब्भूते वाऊ चउत्थे महन्भूते आगासे पंचमे महभूते, इच्चे पंच महब्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा नो कडगा अणादिया अणिणा अवंझा अपुरोहिता सतंता सासता आयछट्ठा। पुण एगे एवमाहु
व्याख्या - पृथिव्यैका काठिन्यलक्षणा महाभूतं तथा ' आपो' द्रवलक्षणा महाभूतं, तथा 'तेज' उष्णोवुद्योत लक्षणं महाभूतं, वायु (र्ग ) तिकम्पनलक्षणस्तथाऽवगाहदानलक्षणं सर्वद्रव्याधारभूतमाकाशमित्येवं पृथग्भूतो यः पदोद्देनस्तेन कायाssकारतया यस्तेषां समवायः, स एकत्वेऽपि लक्ष्यते । न न्यूनानि नाप्यधिकानि विश्वव्यापितया महान्ति, त्रिकालमवातानि, एतान्येव क्रमेण व्यवस्थितानि, अपरेण कालेश्वरादिना केनचिदपि न निर्मितानि - अनिष्पादितानि,
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
न
PM तथा परेण अनिर्मापयितव्यानि, तथाऽकृतानि-न केनचितानि क्रियन्ते, अभ्रेन्द्रधनुर्वद्विसापरिणामेन निष्पमत्वात् ,
तथा न पटवकृत्रिमाणि, कर्स करणव्यापारसाच्यानि न मवन्तीत्यर्थः, तथा परन्यापारामावतया 'नो' नैव कृतकानि, न || अपेक्षितपरच्यापारस्वभावानि, विसापरिणामेन निष्पनत्वात्कृतकन्यपदेशमाञ्जि न भवन्ति । तथा अनाधनिधनानि, अब ध्यानि-अवश्यकार्यकारीणि, तथा न विद्यते 'पुरोहित:' कार्य प्रति प्रपर्चयिता येषां तान्यपुरोहितानि, तथा 'स्वतन्त्राणि' स्वाधीनानि, तथा 'शाश्वतानि ' नित्यानि, तदेवम्भूतानि पञ्च महाभूतान्यात्मपष्ठानि ज्ञातव्यानि । एके पुनरेवमाहुः
सतो णस्थि विणासो असतो णस्थि संभवो । एतावताव जीवकाए, एतावताव अस्थिकाए, एतावताव सबलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए । अवि अंतसो तणमायमवि । ___ व्याख्या तथा साँख्याभिप्रायेण 'सतो' विद्यमानस्य प्रधानादेनास्ति विनाश तथा] ' असतः शशविषाणादेर्नापि । 'सम्भवः' समुत्पत्तिरस्ति, अतः सांख्या आत्मनः कार्यकारित्वं न मन्यन्ते । यद्यात्मा क्रियायाः कर्ता स्यात्ततोऽमदुत्पा- | दयति, अत आत्मा अफर्ता निर्गुण इति । ततः सॉख्या एवं वदन्ति एतावानेव जीवकायो, यदुत-पश्न महाभूतानि, तथा । एतावानेव-भूतास्तित्वमात्र एवास्तिकायो, नापः कश्चित्तीथिकाभिप्रेतः पदार्थोऽस्ति । एतावानेव सर्वलोकः, पश्च महाभूतानि | लोकनिष्पत्तौ ' मुख्यानि' प्रधानकारणान्येताम्पेव जानीहि । भूतान्येवान्तशरणमात्रमपि कार्य कुर्वन्ति, पञ्च महाभूतेभ्यः । परस्य कस्याप्यमावादिति । अथ स चैबाधेकत्रात्मनोऽकिंचित्करत्वादन्यत्र चात्मनोऽसचादसदनुष्ठानरपि नात्मा पापकर्म
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
15
भिर्वभ्य इति दर्शयितुमाह---
से किणं किणावेमाणे, हणं घायमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि किणिता घा[य] इता इत्थंपि जाणाहि णस्थित्थ दोसो, ते णो एवं विप्पडिवेदिति, तंजहा - किरियाति वा जावाणेरयेति वा । एवमेव ते विरूवरूवेहिं कम्म समारंभहिं विरूवरूवा कामभोगाई समारभांत भोय[ए] (1), एवामेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना तं सद्दह्माणा तं पत्तियमाणा जाव इति । ते पो हवाए णो पाराय, अंतराय कामभोगेसु विसन्ना, दोच्चे पुरिसजाए पंचमह भूतिएत्ति आहिते (सू०१०) । व्याख्या -' से 'चि यः कश्वित्पुरुषः क्रयार्थी ' क्रीणन् ' किञ्चित् [ वस्तु ] क्रयेण गृहँस्तथा परं क्रापस्तथा प्राणिनो मन् हिंसंस्तथाऽपरै' तयन् व्यापादयन् तथा पचन् पाचयन् क्रीणतः क्रापयतो, मतो घातयतस्तथा पचतः पाचयतश्चापरांस्तथाऽप्यन्तशः पुरुषमपि पश्चेन्द्रियं विक्रीय घातयित्वा अपि पञ्चेन्द्रियघाते नास्ति दोषोऽत्रैवं 'जानीहि ' अवगच्छ । किं पुनरेकेन्द्रिय वनस्पतिघात इत्यपि शब्दार्थः, ततचैवंवादिनः साँख्या बाईस्पस्या वा 'नो' नैवैतद्रक्ष्यमाणं 'विप्रतिषेदयन्ति' जानन्ति तद्यथा- क्रिया सावद्यानुष्ठानुरूपा, एवमक्रिया वा स्थानादिलक्षणा यावदेवमेव विरूपरूपै - रुचावचैर्नानाप्रकारैर्जलस्नानावगाहनादिकैस्तथा प्राण्युपमर्दकारिभिः कर्म समारम्भर्विरूपरूपान्- नानाप्रकारान् सुरापानमा समक्षणागम्यगमनादिकान् कामभोगान् समारभन्ते स्वतः परांब प्रेरयन्ति - नास्त्यत्र दोषं इत्येवं प्रतार्यासत्कार्य करणाय प्रेरयन्ति,
•
,
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं तेनार्या अनार्यकर्मकारित्वाद्विरुद्धं मार्गों विप्रतिपत्र ' माणा ' तमात्मीयमेव कुमतं पश्च महाभूतात्मक start स्तमेव च सत्यमित्येवं ' प्रतीयन्तः प्रतिपद्यमानास्तमेव स्वपक्षं रोचयन्तस्तद्धर्मस्याऽऽख्यातारं प्रशंसयन्तः • स्वाख्यातो धर्मो भवता, अस्माकमयं धर्मोऽत्यन्तमभिप्रेतः, सावधानुष्ठानेनाप्यधर्मो न भवतीत्यध्यवसायिनः स्त्रीकामेषु मूर्च्छिताः इत्येवं पूर्ववत्रेयं यावदन्तरे कामभोगेषु विषण्णाः ऐहिकामुष्मिको भय कार्य भ्रष्टाः नात्म[नः ] त्राणाय नापि परेपामिति । एवं द्वितीयः पुरुषजातः पञ्च महाभृताभ्युपगमिको व्याख्यात इति, साम्प्रतं तृतीयपुरुषं ईश्वरकारणिकमधिकृत्याद्द
अहावरे सच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिएत्ति आहिज्जति, इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मनुस्सा भवंति अणुपुवेणं लोयं. उववन्ना, तंजहा - आरिया वेगे, जाब तेर्सि चणं महंते एगे राया भवति जात्र सेणावतिपुत्ता, एतेसिं च णं एगतीए सड्डी भवति । कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए जाव जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवति ।
व्याख्या -- तदेवमीश्वरकारणिक आत्माद्वैतवादी वा तृतीयः पुरुषजात आख्यायते । इह खलु पुरुष प्रस्तावे स्खलु शब्दो वाक्यालङ्कारे, प्राच्यादिषु दिवन्यतरस्यां दिशि व्यवस्थितः कश्विदेवं ब्रूयात्, तद्यथा-राजानमुद्दिश्य तावद्यावत्त्वाख्यातः इत्यादि सर्वे पूर्ववदवगन्तव्यं । अथ च ईश्वरप्रणीत जगदिदं मन्यते स कस्यापि राज्ञः समीपमागत्य आत्माभिप्रेतं धर्म प्ररूपयति
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरा पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमन्नागता पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति । ___ व्याख्या-'इह ' संसारे, स्खल्विति वाक्यालङ्कारे, धर्मा:-सवेतनाचेतनरूपाः पदार्थाः पुरुषादिकाः, पुरुष-ईश्वर | आत्मा का कारणमादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकारणिका आत्मकारणिका बा, तथा पुरुषोत्तराः, तथा पुरुषेण प्रणीताः, तथा पुरुषसम्भूताः 'पुरुष(प्र)द्योतिताः' पुरुषप्रकाशिता, प्रदीपमणिसूर्यादिभिर्यथा घटपटादयः पदार्थाः प्रकाश्यन्ते तथा सवेऽपि पदार्थाः पुरुषेण-इश्वरेण प्रकाशिताः, ते च धर्मा जीवानां जन्मजरामरणव्याधिरोगशोकसुखदुःखजीवनादिकाः अजीवधर्मास्तु मूर्तिमतां द्रष्याणां वर्णगन्धरसस्पर्शाः, अमूर्चिमतां च धम्माधर्माकाशानां गत्यादिका पाः, सर्वेऽपीश्वर| कृताः । सर्वेऽपि पुरुषमेवाभिव्याप्य तिष्ठन्ति । अस्मिार्थे इष्टान्तमाह
__ से जहानामए गंडे सिया सरीरे जाते सरीरे संबुड्ढे सरीरे अभिसमन्नागते सरीरमेव | अभिभूय चिट्ठति, एवामेव धम्मा पुरिसादिया, जाव [पुरिसमेव] अभिभूय चिट्ठति । ____ व्याख्या- से' ति तच्छाब्दार्थे । 'नाम' इति सम्भावनायो। यथा नाम गण्डं 'स्या 'हवेत् । गण्डं रोगविशेषः।
सम्भाव्यते प्राणिनां गण्डादिसावः । तच्च शरीरे जातं, शरीरे दिमुपगतं, शरीरे अमिसमन्वागत-शरीरं व्याप्य व्यव| स्थितं, न वदवययोऽपि शरीरात्पृथग्भूत इति । शरीरममि[भूय-] व्याप्य (१) पीडपिता तिष्ठति, न शरीराबहिर्मवति,
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथा तत्टिकं शरीरैकदेशभूतं न युक्तिश्लेनापि शरीरात्पृथग्दर्शयितुं शक्यते, एवमेव ये धर्माश्चेतना वेतनरूपास्ते सर्वेऽपीश्वर कर्तृकाः, न ते ईश्वरात्पृथक पार्यन्ते । पुनर्दृष्टान्तान्तरमाह
से जहानामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे (अभि X ) संबुद्धा सरीरे अभिसमन्नागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवामेव धम्मा [वि] पुरिसाइया जाब पुरिसमेवाभिभूय चिट्ठति । व्याख्या - तद्यथा नाम 'अरति' विचोद्वेगलक्षणा' स्याद्' भवेत् सा च शरीरे जातेत्यादि गण्डवश्रेया, दार्शन्तिकेऽप्येवमेव सर्वे धर्माः पुरुषप्रभवा इत्यादि पूर्ववत्रेयम् । पुनर्दृष्टान्तमाह
+
से जहानामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंतु अभिभूय चिट्ठ, एवमेव धम्मा [वि] पुरिसाइया जाव [ पुरिसमेव ] अभिभूय चिट्ठति ।
पुढविअभिसमन्नागए पुढविमेव
व्याख्या -- यथा 'वल्मीकं' पृथ्वीविकाररूपं स्यात्तच्च पृथिव्यां जातं पृथिवीसम्बद्धम् पृथिव्यभिसमन्वागतं, पृथिवीShastra तिष्ठति एवमेव यदेतचेतनाचेतनरूपं तत्सर्वमीश्वरकारणिकमात्मविवरूपं वा नात्मनः पृथग्म वितुमर्हति । पृथिव्या वल्मीकवत् । तथा
X बृहत्त्यादर्शेषु नास्त्ययं शब्दः ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
से जहानामए रुक्खे सिया पुढविजाए जाव पुढविसंबुडे पुढविअभिसमन्नागर पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवामेव धम्मा वि [ पुरिसादिया ]जाव[ पुरिसमेव ]अभिभूय चिट्ठेति । से जहानाम पुक्खरिणी सिया* पुढविजाता जाव पुढत्रिमेव अभिभूय चिट्ठति, एवामेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहानामए उद्गपुक्खले सिया उदगजाए [ जाव ] उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवामेव धम्मा वि । पुरिसादिया जात्र पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहानामए उद्गबुब्बुए सिया[ उदगजाए जाव ] उदगमेव ( जावX ) अभिभूय चिट्ठइ, एवामेव धम्मा विपुरिसा [ दिया ] जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ।
व्याख्या -- एतत्सर्वं सुगमं पूर्ववत्रेतव्याः सर्वेऽपि दृष्टान्ताः । एतावता यदीश्वरकृतत्वेनाभ्युपगम्यते तत्सर्वं तथ्यं,
* " यथा नाम पुष्करिणीस्यात् - तडागरूपा भवेत् " इति वृहद्वृत्तौ । X नास्त्ययं शब्दोऽत्र बृहद्वृत्त्यादर्शेषु ।
+ केवलं हाळापुरीयप्रतिकृतावस्य सूत्रस्य व्याख्या ' से ' ( तद् ) यथा नाम ' उदकपुष्कलं ' प्रचुरपानीयं - उदकप्राचुर्यं, aa ' तद्धर्मत्वाद' तत्स्वभावत्वादुदकमेवामिभूय तिष्ठति, एवं दार्शन्तिकेऽपि " एवम्भूता स्थानान्तरे लिखिताऽस्ति परं | पाश्चात्येन लेखकेन केनापि लिखिता सम्भाव्यते, समस्तानां दृष्टान्तसूत्राणामेवम्भूताया व्याख्याया अनुपलम्भात् ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपरं सर्व मिथ्येति तदाविर्भावयाह
जंपि य इमं समणाणं निग्गंथाणं उहि पणियं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडगं, तंजहाआयारो सूयगडो जाव दिट्टिवाओ, सबमेयं मिच्छा, ण एवं तहियं ण एयं अहातहियं
व्याख्या - यदपि चेदं प्रत्यक्षासन्नभूतं ' श्रमणानां साधूनां 'उद्दिष्टं तदर्थं प्रणीतं, व्यञ्जितं प्रकटीकृतम् । द्वादशाङ्गं गणिपिटकं, तद्यथा - आचारानं यावदृष्टिवादः, सर्वमेतन्मिथ्या, अनीश्वरप्रणीतस्वात्, यदीश्वरप्रणीतं तदेव सत्यमन्यत्सर्व मिथ्यैव एतदपि गणिपिटक ईश्वरप्रणीतं न भवति, स्वेच्छया कल्पितं तेन मिथ्या । अनया प्ररूपणया अभूतोद्भावनत्वमावेदितं । गणिपिटकं सर्व दृष्टिवादपर्यन्तमवध्यमपि तथ्यतया प्रतिपादयन्ति, अचौरे चीरत्ववत् असद्भूतार्थाशेषणं कुर्वन्ति जैनाः । एतावता ईश्वरप्रणीतमेव तथ्यं नापरं किमपि । अथ यत्सत्यतया मन्यन्ते तदेवाह
इमं स इमं तहितं इमं अहातहितं, [ते] एवं सन्नं कुवति ते एवं सन्नं संठावेंति, ते एवं सनं सोवद्रुवयंति । तमेव ते तजाइयं दुक्खं णो तिउहंति ।
व्याख्या - यदीश्वरप्रणीतं तदेव तथ्यं तदेव यथातथ्यं ते ईश्वरकारणिका एवं संज्ञां कुर्वन्ति, स्वदर्शनानुरागिणः संज्ञां संस्थापयन्ति । एवम्भूतां संज्ञां वक्ष्यमाणनीत्या निर्मुक्तिकामपि सुष्ठु सामीप्येन तथाऽऽग्रहितया तदभिमुखा युक्तीः स्थापयन्ति, तव ईश्वरप्रणीतं सर्वं सचेतनाचेतनं जगदित्यादिप्ररूपणया तमेव तदम्युपगमजातीयं दुःखहेतुत्वादुःख-मष्टप्रकारं
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
कर्म न त्रोटयन्ति । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तमाह
सउणीपंजरं जहा, ते णो विप्पडिवेदेति तं जहा-किरियावाई वा जाव अणिरपति घा, Nएवामेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभर्हि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवामेव
ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सद्दहमाणा जाव इति णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु | विसनेत्ति । तच्चे पुरिसजाते ईसरकारणिएत्ति आहिते (सू० ११)। ___व्याख्या-यथा 'शकुनिः' पक्षिविशेषः पञ्जर नातिवर्तते, पौन:पुन्येन प्रान्त्वा तत्रैव वर्त्तते, एवं तेऽपि एवम्भूताम्युपगमवादिनः कर्मवन्धनं 'नासिवर्तन्ते' न वा त्रोटयन्ति । ते च स्वाग्रहाभिमानग्रहग्रस्तानवद्वक्ष्यमाणं 'विप्रतिवेदयन्ति' न सम्यग् जानन्ति, तद्यथा-क्रियामक्रियां वा शोमनामशोभनां वा, यावदयं [अ]नरक इत्येवं सदसद्विवेकरहितत्वानाव| धास्यन्ति । एवमेव यथा कथश्चित्ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्मै नानाप्रकारैः सावद्यानुष्ठाने ईव्योमर्जनोपायभूतैर्द्रव्यमुपादाय र विरूपरूपा-नुच्चावचान कामभोगान समाचरन्ति[ भोजनाय ], इत्येवं ते अनार्या विरुद्धं मागं प्रतिपन्ना न सम्यग्वादिनो भवन्ति । तदेवमीश्वरकर्तृत्त्रमात्माद्वैतपक्षश्च युक्तिभिर्विचार्यमाणो न स्थश्चित् घटां प्राचति । अत्रैतन्मतनिरासे बहूक्तमस्ति । ( तद् ) बृहड्डीकातोऽवधारणीय, अत्र अन्धविस्तरभयान लिखितमिति । एवं ते प्रतीयन्तः श्रद्दधानाथ 'नो हव्वाए नो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्न 'चि इत्ययं तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इति । असमञ्जसमाषितया त्यक्त्वा
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्वसंयोगमप्राप्तो विवक्षितस्थानमन्तराल एव कामभोगेषु मूर्छितो विषण्ण इत्यवगन्तव्यमिति तृतीयः पुरुषजातः समाप्तः । अथ चतुर्थं पुरुषजातमधिकृत्याह -
अहावरे चउत्थे पुरिसजाए नियतिवाहपत्ति आहिज्जति - इह खलु पाईणं [ वा ४ तहेव जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं चणं एगतीए सड्डी भवइ, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपनत्ते भवइ ] ।
व्याख्या - अथ चतुर्थः पुरुषजातो नियतिवादिक आख्यायते स तु नियतिवादी, ( एवमाह - ) नात्र कश्चित्कालेश्वशदिकं कारणं, नापि पुरुषकार:, तेषां नियतिबलादेवार्थसिद्धेर्निपतिरेव कारणं, उक्तञ्च " प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योsर्थः सोऽवश्यं भवति तृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि यत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ १ ॥ " इत्यादि । " इह खलु पाईणं० " इत्यादिको ग्रन्थः प्राग्वत्रेतथ्यो, यावदेष घम्मों नियतिवादरूपः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति । स च नियतिवादी स्वाभ्युपगमं दर्शयितुमाह
इह खलु दुवे पुरिसा भवंति - एगे पुरिसे किरियमातिक्खति एगे पुरिसे णोकिरियमातिक्खति, जे य पुरिसे किरियमाइक्खड़ जे य पुरिसे नोकिरियमाइक्खड़, दोषि ते पुरिसा तुला,
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
एगट्ठा, [ कारणमावन्ना ] ।
व्याख्या - इहाsस्मिन् जगति, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वौ पुरुषौ भवतः, तत्रैकः क्रियामाख्याति, क्रिया हि देशादेशान्तरावाप्तिलक्षणा पुरुषम्प भवति, न कालेश्वरादिना प्रेरितस्य ) ता ( १ ) भवति, अपितु नियतिप्रेरितस्य एवम क्रियाऽपि, यदिवा क्रियात्रादमक्रियावादं च समाश्रितौ तौ द्वावपि नियत्यधीनत्वा सुन्यौ । यदि पुनस्तौ स्वतन्त्रौ मवतस्तदा क्रियाक्रिया मेदान तुल्यौ स्यातां इत्यत एकार्थी, एककारणापचत्वादिति, नियतिवशेन तो नियतिवादमनियतिवादं च समाश्रिताविति भावः । उपलक्षणार्थत्वावास्यान्योऽपि यः कश्चित् कालेश्वरादिकं पक्षान्तरमाश्रयति सोऽपि नियतिप्रेरित एव द्रष्टव्य इति ।
बाले पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने - अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, अहमेयमकासि, परो वा जं दुक्खति वा सोयति वा जूरति वा तिप्पड़ वा पीडइ वा परितप्पड़ वा, परो एवमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्नो । मेहावी पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्नो अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्यामि वा णो अहं एयम
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
कासि । परो वा जं दुक्खति वा जाव परितप्पइ वा नो परो एवमकासि, एवं से मेहावी सकारणं ।। वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने ।
व्याख्या--नियतिवाद्येवं प्ररूपयांत-यो 'बालो' मूखास एवं जानाति यत्सुखदुःखाधुत्पद्यते जन्तूनां तत्सर्व कालेश्वरादिकतं जायते । तद्यथा-योऽहमस्मि दुख-शारीरमानसमनुभवामि तथा 'सोयामि' इष्टानिष्टविप्रयोग[संप्रयोग]कतं शोकमनुभवामि तथा 'तिप्पामि' शारीरबलात् क्षरामि तथा 'पीडामि' सबाह्याभ्यन्तरया पीडया पीडामनुमवामि । तथा 'परितप्पामि ' परितापमनुमचामि 'जूश्यामि' अनार्यकर्मणि प्रवृत्तमात्मानं गर्हामि, अनर्थावातौ विसूरयामि | तदेवं यदहं सुखदुःखत्रोकादिकमनुभवामि तत्सर्व मयैव परपीडयाजितं ममोदयमागतम् । तथा परोऽपि यत्सुखदुःखादिक. मनुभवसि मयि वाऽऽपादयति तत्स्वयमेव कृतमिति दर्शयति-'परो वे' त्यादि । तथा परोऽपि यन्मा दुःखयति शोचयति इस्यादि प्राग्वज्जेयं, तत्सर्वमहमकार्षम् । बालोऽज्ञ एवं [विप्रतिवेदयति-जानीते । स्वकारणं वा परकारणं वा सर्व दुःखादि पुरुषाकारादि] कतमिति जानीते, तदेवं नियतिवादी पुरुषाकारकारमवादिनो बालत्वमापाच स्वमतमाह 'मेहावी' त्यादि, 'मेधावी' नियतिवादपक्षाश्रयी एवं विप्रतिवेदयति-जानीते । 'कारणमापन' इति नियतिरेव कारणं सुखदुः]खायनुभवस्य । तद्यथा-योऽहमस्मि 'दुःखयामि' शोचयामि तथा 'तिप्पामि तिथरामि पीडामनुभवामि परितापमनुमवामि, नाइमेकमका दुःखं, अपि तु नियतित एवैतन्मव्यागतं, न पुरुषाकारादिकतं, यतो-नहि कस्यचिदात्मा अनिष्टो, येनानिष्टा
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुःखोत्पादिकाः क्रियाः समारभते । नियत्यैवारमा अनिच्छापि तत्कार्यते येन दुःखी भवेत् । कारणमापन इति परेऽप्येवमायोजन (या) यम् । एवं स नियतिवादी दृष्टं पुरुषकारं परित्यज्य [अद्दष्ट] नियतिपक्षाश्रयणेन महाऽविवेकी स्वकारणं परकारणं च दुःखशोकादिकमनुभवन्नियविकृतमित्येवं विप्रतिवेदयति, नात्मना कृतं । कारणं चात्रैकस्या[सदनुष्ठानरवस्था ] पि न दुःखमुत्पद्यते परस्य तु सदनुष्ठायिनोऽपि तद्भवतीत्यतो नियतिरेव कर्त्रीति नियतिवादे स्थिते परमपि यत्कि[िच]त्सर्वं नियत्यधीनमिति दर्शयितुमाह
से बेमि- पाइणं वा ४ जे तस्थावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छति, ते एवं विपरियासमाजंति, ते एवं विवेगमागच्छति, ते एवं विद्वाणमागच्छंति, ते एवं संगतियंति उवेहाए नो एवं विप्पडिवेदेति । तं जहा
व्याख्या -सोsहं नियतिवादी ' त्रवीमि ' प्रतिपादयामि, ये केवन प्राच्यादिषु दिक्षु श्रसाः स्थावराश्च प्राणिनस्ते सर्वेऽप्येवं नियतित एवौदारिकादिशरीरसम्बन्धमागच्छन्ति नान्येन केनचित्कर्मादिना शरीरं ग्राह्यन्ते, तथा बालकुमार-यौवन-स्थविर - वृद्धावस्थादिकं विविधं पर्याय नियतित एवानुभवन्ति, तथा नियतित एव ' विवेकं शरीरात्पृथग् भावमनुभवन्ति तथा नियतित एव विविधं विधानं ' अवस्थाविशेषं कुन्जकाणस्वञ्जवामन कजरामरणं रोगशोकादिकं बीभत्समागच्छन्ति । तदेवं ते प्राणिनखसाः स्थावरा ' एवं ' पूर्वोक्तया नील्या सङ्गतिं यान्ति-नियतिमापसाः नानाविध
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधानभाजो मवन्ति । तदुत्प्रेक्षया-नियतिवादोत्प्रेक्षया पत्किनकारितया परलोकमीरखो नैतद्विप्रतिवेदयन्ति - जानन्ति । तदेवाऽह
किरियाति वा जाव निरपत्ति वा अणिरयत्ति वा एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूबाई कामभोगाई समारंभति लोगणाए । एवामेव ते अणारिया विपडिवला तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो दबाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना । चडत्ये पुरिसजाते जियइवातिए ति आहि [ ए ]जति ।
व्याख्या -- ते नियतिवादिनो नियतिपक्षमेवाश्रिताः नान्यत्किमपि विदन्ति-क्रियामक्रियां सिद्धिमसिद्धिं चेत्यादि न जानन्ति । नियतिमेवाश्रित्य तमेव निर्मुक्तिकं नियतिवादं श्रद्दधानास्तमेव प्रतीयन्त इत्यादि तावत्रेयं यावदन्तरा कामभोगेषु विषण्णा आत्मानमन्यांचोद्धर्तुमशक्ताः ऐहिकामुष्मिकाष्टा मुक्तिमप्राप्ता अन्तराल एवं संसारपत्रे मग्नाः [ पद्मवर]पुण्डरीकोद्धरणासमर्थाः सन्त एवमेवावतिष्ठन्ते इति चतुर्थः पुरुषजातः समाप्त इति । एतावता चतुर्थः पुरुषो नियतिपक्षाश्रित उक्तः । उपसञ्जिघृक्षुराह-
चारि पुरिसजाता णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई नाणा
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
रंभा नाणाज्झत्रसाण संजुत्ता पहीणपुत्र संजोगा आरियं मग्गमसंपत्ता इति ते णो हब्बाए णो पाराए, अंतरा कामभोगे जिन्ना ( सू० १२) ।
व्याख्या -' इत्येते' पूर्वोक्तास्तजीवतच्छरीर-पञ्चमहाभूतेश्वर कर्त्तृत्व-नियतिवाद पश्चाश्रयिणश्वत्वारः पुरुषाः नानाप्रकारा 'प्रज्ञा' मतिर्येषां ते तथा 'नानाजन्दा ' नानाऽभिप्रायाः 'नानाशीला' नानाऽऽचारा इत्यर्थः नानारूपा 'दृष्टि'दर्शनं येषां ते नानादृष्टयः । तथा नानारुषयः ' नानाऽऽरम्भाः नानाप्रकारधम्र्मानुष्ठानाः नानाऽध्यवसायसंयुक्ताःधर्मार्थमुद्यताः परित्यक्त पूर्वसंयोगाः- मातृपिय कलत्र पुत्रसम्बन्धाः आर्यमार्गमसम्प्राप्ताः, इति पूर्वोक्तया नीत्या ते चत्वारोऽपि नास्तिकादयः पुरुषाः 'नो हव्वाए 'सि नैहिकसुखमाजो भवन्ति तथा 'नो पाराए 'ति असम्प्राप्तत्वादार्यमार्गस्य सर्वोपाविशुद्धस्य प्रगुणमोक्ष पद्धतिरूपस्य न संसारपारगामिनो भवन्ति । न च परलोके शुभ[ सुख ]माजो भवन्तीति, किन्त्वन्तराल एव - गृहवासार्थमागयोर्मध्यवर्त्तिन एव कामभोगेषु ' विषण्णाः अभ्युपपन्ना, दुष्पारपङ्कमना इव करिणो विषीदन्तीति स्थितम् । उक्ताः परतीर्थिकाः, साम्प्रतं लोकोत्तरं रूक्षवृत्ति भिक्षु पञ्चमं पुरुषजातमधिकृत्याह
·
,
से बेमि पाईणं वा० ४ संतेगतिया मणुस्सा भवति, तं जहा आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे नीयागोया वेगे काय मंता वेगे इस्समंता वेगे दुरूवा
सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरुवा वेगे
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेगे xतेसिं च णं खेत्तवत्थणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरा वाx, तेसि । चणं अणजाणवयाइं परिग्गहियाइं भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुजयरा वा, तहप्पगारोहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता संतो वि एगे णायओ [अणायओ] य उवगरणं न विष्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता, असतो वा [वि.] णायओ य अणायओ य उवगरणं | व विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता, [जे ते सतो पा असतो वा णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता ] पुत्वमेव तेहिं णायं भवति, तं जहा
व्याख्या-यादुकाममोगेब(ना)सक्तः समन्तरा नावसीदति पमवरपुण्डरीकोद्धरणाय च समर्यो भवति तदेतदहं ब्रवीमिप्राचीनादिकामन्यतरां दिशमुद्दिश्य एके केचन मनुष्याः सन्ति, आर्याऽनार्याः उच्चैर्गोत्राः नीचैगोत्राः * 'कायवन्तः' प्रांशवः 'स्वाः' वामना: सुवर्णाः दुर्वर्णाः सुरूपाः कुरूपाः, एके केचन कर्मपरवशा भवन्ति, तेषां च क्षेत्राणि वास्तूनि-[गृहाणि]
xx नास्त्येतचिन्हान्तर्गतो मूलपाठः सवत्तिकमुद्रितप्रतिषु, वृत्तिस्तु विहिता वृत्तिकृत्पूज्यैः ।
* एतचिन्हान्तर्गतो वृत्तिपाठः “ कुरूपाः " इत्यतोऽनन्तरमस्ति सास्वपि दीपिकाप्रतिषु, परं सूत्रानुसारतो युज्यतेऽत्रैवातो. त्र नियोजिसः।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
.] खातोच्छुिता[दी]नि परिगृहीतानि भवन्ति, तान्येव विशिनष्टि-अल्पतराणि स्तोक[१ प्रभूत ]तराणि वा भवन्ति, तेषामेच जन[जान ]पदाः परिगृहीता भवन्ति, तेऽप्यल्पतराः प्रभूततरा वा भवेयुस्तथा तेषु चाऽऽर्यादिविशेषणविशिष्टेषु तथाप्रकारेषु कुलेष्वागम्य एवम्भूतानि गृहाणि गत्वा,तथाप्रकारेषु कुलेषु वा आगम्य-जन्म लम्या अभिभूय च विषयकषायादीन परीपहोपसर्गान् वा सम्यगुत्थानेनोत्याय-प्रव्रज्यां गृहीत्वा एक कंचन नथाविवसचवन्तो मिक्षाचया समुत्थितास्तथा 'सतो' | विद्यमानानपि वा 'एके' केपन महासचोपेताः 'जातीन् ' स्वजनान् अज्ञातीन् ' परिज ]नांस्तथोपकरणं चकामभोगाङ्गं धनधान्यहिरण्यादिकं विविध प्रकर्षण 'हित्वा त्यत्वा मिक्षाचर्यायां समुत्थिताः । असतो वा बाती(नवाती). नुपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायामेके केचनापगतस्वजनविभवाः समुस्थिता, ये ते पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भिक्षाचर्यायामम्धताः 'पूर्वमेष ' प्रव्रज्याग्रहणकाल एव तैरेतत् शातं भवति, तद्यथा| इह खल्ल पुरिसे अन्नमन्नं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-खेत्तं मे वस्थू मे हिरणं NI मे सुवन्नं मे धणं मे धन्नं मे कंसं मे दूस मे, विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवाल
रत्तरयणसंतसारसावतेयं मे, सदा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एते खलु मम कामभोगा | अहं खलु एतेसि । से मेहावी पुवामेव अप्पणो एवं समभिजाणेजा, तं जहा
व्याख्या-वह जगति, खलु-क्यालकारे, अन्यदन्यदस्तूहिश्य ममतहोगाय मविपतीत्येवमसौ प्रवज्या प्रतिपमा
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
| प्रविजिषुर्वा ' प्रवेदयति ' जानाति, यथा-क्षेत्रं 'वास्तु' गृहं हिरण्यं सुवर्ण धनं धान्यं कांस्य दृष्यं [तथा] विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशशिलाप्रवालरक्तरत्नादिकं सत्सारं 'स्त्रापतेयं' द्रव्यजातं सर्व मे, तन् 'मे' ममोपमोगाय भविष्यति । तथा शब्दाः रूपाणि गन्धाः रसाः स्पाः , एते सर्वे स्खलु मे काममोगाय भविष्यन्ति, अहमप्येषां योगक्षेमार्थ प्रमविष्यामि, इत्येवं सम्प्रधार्य पूर्वमेवात्मानं विजानीया-देवं पर्यालोचयेना
इह खल मम अन्नयरे । दक्खे ] रोगातके समुप्पज्जेज्जा अणिटे अकंते अप्पिए असुभे अम। णुन्ने अमणामे दुक्खेणो सुहे से हंता, भयंतारो ! कामभोगा! इमं मम अन्नतरं दुक्खं रोगायक प
रियाइयह, अणिटुं अकंतं जाव दुषखं णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जुरामि वा । तिप्यामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मं अन्नयराओ दुखाओ रोगातंकाओ परिमोयह, | अणिट्ठाओ जाव अमणामाओ दुक्खाओ, णो सुहाओ, एवं नो लद्धपुत्वं भवति । ___ व्याख्या-'ह' संसारे, खवधारणे। इह ' मनुष्यभवे ममान्यवरहुःख-शिरोवेदनादिकं 'आतलो' वा आशुजीवितव्यापहारी शूलादिकः समुत्पद्यते । कीदृशः १ अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अशुभः अमनोशः अवनामा दुःखा, दुःख हेतुत्वात् 'यो सुहे' सुखलेशेनाप्यस्पृष्टः, एवंविधः आतङ्क आयाति तदा काममोगान् प्रत्येवं वक्ति, यथा-'इंत' इति खेदे, मयात्रातारो यूयं क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यादिकाः परिग्रहविशेषाा, तथा शब्दादयो वा विषयाः, हे मांग]वन्तः !
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
काममोगा: ! यूयं मया पालिताः परिगृहीता[२], अतो यूयमपीदं दुःखं रोगातडू 'परियाइयह 'त्ति विभागशः परिगृहीत । यूयं, अत्यन्तपीडयोद्विनः पुनस्तदेव दुःखं रोगातवं च विशेषणद्वारेणोच्चारयति-[अनिष्ट] अकान्तमप्रियमशुभं, यावदमनोज गज दुःखमेव, ततोऽशुभमिस्येवम्भूतं ममोन्यमं, यूयं विमजत, अहमतीव 'दुःखामि' दुःखित इत्यादि पूर्ववन्नेयं, इत्यतो । [ऽमुष्मान्] मामन्यतरादुःस्वाद्रोगाद्वा प्रतिमोचयत | अनिष्टादित्यादि विशेषणानि पूर्ववव्याख्येवानि, प्रथमं प्रथमान्तानि, TV पुनर्द्वितीयान्तानि, साम्प्रतं पश्चम्यन्तानि । एवं तेन दुःखोद्विग्नेन प्रतिपादितं परं नैतल्लब्धपूर्व भवति, न हि ते क्षेत्रादयः परिप्रदविशेषाः नापि शब्दादयः कामभोगास्तं दु:खितं दुःखाद्विमोचयन्तीत्येतदेव लेशतो दर्शयति
इह खल्लु कामभोगा नो ताणाए वा[णो]सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुचिं कामभोगे विप्प- 1. जहति, कामभोगा वा एगया तं पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खल्लु कामभोगा अन्नो अहमसि, से किमंगपुण वयं अन्नमन्नहिं कामभोगेहिं मुच्छामो इति संखाएणं वयं च कामभोगे विप्पजहिस्सामो। ____ व्याख्या-इह खल्विमे काममोगा अत्यन्तमभ्यस्ता न 'वस्य' दुःखितस्य वाणाय शरणाय[ वा ] भवन्ति । सुलालितानामपि काममोगानां पर्यवसानं दर्शयति-'पुरुषो वा' प्राणी 'एकदा' रोगोत्पत्तिकाले जगजीर्णकाले वा अन्य स्मिन्वा राजाद्युपद्रवे ' तान् ' कामभोगान् परित्यजति स वा पाणी द्रव्याधभावे तैः काममोगैस्त्यज्यते । स च प्राण्येवमवधास्यति-हमे कामभोमा अन्ये तेभ्यश्चाइमन्यः, तदेवमेवेषु परभूतेषु किमिति वयं मूछा कुर्मः । एवं केचन महापुरुषाः
क
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसंख्याय ' ज्ञावा [2] " कामागान [] विप्रजहियाम स्वल्यामः" इत्येत्रमध्यवसायिनो भवन्ति-ते । | महापुरुषा ज्ञेयाः । पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिकारणमाइ
से मेहावी जाणेजा बाहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा-माता मे पिता मे भाया । M मे भइणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूया मे पेसा मे नत्ता मे सुण्डा मे सुही मे [पिया मे सहा मे]
सयणसंगंथसंथुया मे, एते खलु मम नायओ अहमाव एतोस । एवं से मेहावी पुत्वामेव अप्पणा एवं समभिजाणिज्जा ।
व्याख्या-एते खलु क्षेत्रवास्तुप्रभृतयः परिग्रहविशेषाः शब्दादयश्च विषयाः दु:खपरित्राणाय न मगन्तीत्युक्तं, तदेते बाह्या विद्यन्ते, परमेते मातापित्रादयो ज्ञातयः पूर्वापसँस्तुता एते ममोपकाराय मविष्यन्तीत्यहमपि [ए]तेषां स्नानभोजनादि. नोपकरिष्यामीत्येवं स मेधाची पूर्वमेवात्मना एवं सममिजानीयादित्येवं पर्यालोचयेत्-कल्पितवानिति । एतदध्यवसायी चासौ स्यादिति दर्शयितुमाह___ इह खल्लु मम अन्नयरे दुक्खे रोगायक समुप्पजेजा अणिढे जाव दुक्खे, णो सुहे, से हंता भयंतारो य णायओ य इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोगायकं परियादियह, अणिटुं जाव णो सुह,
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताऽहं दुखामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामिवा,इमाओ मं अन्नयराओ [दुक्खाओ] रोगायंकाओ परिमोएह अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ, एवामेव नो लखप्नुवं भवइ । तेसि वा वि भयंताराणं मम
णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा अणिटे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं al णाययाणं इमं अन्नयरं दुक्खं रोगमतकं परियाइयामि अणिटुंजाव णो सुहं, मा मे दुक्खंतु वा [जाव
मा मे परितप्पंतु वा ], इमाओ[f] अन्नयराओ दुक्खाओ रोयातंकाओ परिमोएमि अणिट्ठाओ जाव N] णो सुहाओ । एवामेव नो लद्धपुत्वं भवति-अन्नस्स दुक्खं अन्नो नो परियादियति अन्नेण क(डं)तं
. अन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जायति पत्तेयं मरति पत्तेयं चयति पत्तेयं उववज्जति पत्तेयं झंझा IN | पत्तेयं सन्ना पत्तेयं मन्ना, एवं विन्न वेदणा, इति खलु नातिसंजोगा णो ताणाए वा सरणाए वा, | । पुरिसे य एगया पुट्विं नातिसंजोए विप्पजहति नातिसंजोगा वा एगया पुविं पुरिसं विप्पजहंति। M अन्ने खलु नातिसंजोगा अन्नो अहमंसि, किमंग पुण वयं अन्नमन्नहिं जातिसंगहि मुच्छामो ?
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति संखाए णं वयं नातिसंजोगं विष्पजहिस्सामो इति । ___व्याख्या-'ह' अस्मिन् मधे मम वर्तमानस्य अनिष्टादिविशेषणविशिष्टो दुःखातङ्कः समुत्पयेत, ततोऽसौ तदुःख. | | दुःखितो ज्ञातीनेवमभ्यर्थयेत् , तद्यथा-दं ममान्यतरं दुःखातर्फ समुत्पनं परिगृहीत यूयं, अहमनेन दुःखात न पीडितोऽस्मि, अतोऽमुष्मान्मा परिमोचयत यूयमिति । न चैततेन दुःखितेन लब्धपूर्व भवति, न हि ते ज्ञातयस्तं दुःखान्मोचयि. तुमलमिति भावः, नाप्यसौ तेषां दुःस्वमोचनायालमिति । 'तेसिं वा वि भयंताराणं मम नाययाणमित्यादि सर्व प्राग्वद्योजनीय, यावदेवं नो लब्धपूर्व मवतीति । किमित्येवं नो लब्धपूर्व भवतीत्याह-'अन्नस्स दुक्खं नो अन्नो परियाविया 'इत्यादि, सर्वस्यैव संसारोदरविवरवर्तिनोऽसुमतः स्वकृतकम्मोदयाघदुःस्वमुत्पद्यते तदन्यस्य दुःखमन्यो मातापित्रादिको न पर्यादत्ते तस्मात्पुत्रादेःखेनात्यन्तं पीडिताः स्वजना नापि तदुःखमात्मनि कर्तुमलं । किमित्येवमाशयाह'अत्रेण कडं अन्नो नो.पडिसंवेदेति' अन्येन जन्तुना मोहवशगेन यत्कृतं कर्म तदन्या प्राणी नो प्रतिसंवेदयति-नानुभवति, तदनुभवने यकृतागमकृतनासो स्याता, न मौ युक्तिसंगतो, अतो यद्येन कृतं तत्स एवानुभवति, यस्मात्स्वकृतकर्मफलेश्वरा जन्तवस्तस्मात् 'पत्तेयं जायति पत्तेयं मरति' इत्यादि, सर्वोऽपि प्राणी प्रत्येकं जायते प्रत्येकं च नियते, यता-" एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहिस-मेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥ १ ॥" इति । तथा
* मास्स्येध शब्दो मुद्रिवामु सन्धिकप्रतिषु हर्षवलीयदीपिकायामपि ।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
f
प्रत्येकं [ क्षेत्रवास्तु ] हिरण्यसुवर्णादिकं परिग्रहं शब्दादश्च विषयान्मातापितृपुत्र कलत्रादिकं [च] त्यजति । प्रत्येक मुपपद्यते, प्रत्येकं झंझा' कलहः कषायाच प्रत्येकं मन्द- तीव्रतया समुत्पद्यन्ते । तथा प्रत्येकं ' सञ्ज्ञा ' अर्थपरिच्छितिः, साऽपि मन्दमन्दतरपटुपदुतरभेदात्प्रत्येकमुपजायते । सर्वज्ञादास्तस्तस्तमयोगेन मतेर्व्यवस्थितत्वात् । तथा प्रत्येकं ' मननं ' पर्यालोचनं तथा + प्रत्येकमेव सुखदुःखानुभवः । उप[सं] जिघृक्षुराह -' इति खलु नातिसंजोगा नो ताणाए वा सरणाए वा ' इति पूर्वोक्तप्रकारेण यतो नान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवेदयते प्रत्येकं [ च ] जातिजरामरणादिकं ततः खल्बमी ज्ञातिसंयोगाः संसारेऽत्यन्त पीडितस्य तदुद्धरणे न त्राणाय नापि शरणाय । किमिति । यतः पुरुष एकदा क्रोधोदयेन ज्ञातिसंयोगान् ' विप्रजहाति ' त्यजति स्वजना वा तदनाचारदर्शनतस्तं पुरुषं त्यजन्ति । तदेवं व्यवस्थिते एवं मावयेत् खल्बमी ज्ञातिसंयोगा मत्तो भिन्ना, एम्यश्चाहमन्यः । ततः किमन्यै][रन्यै]र्ज्ञातिसंयोगैर्मूच्छ कुर्मः १ न तेषु मूर्च्छा क्रियमाणा न्याय्येत्येवं ' संख्याय ' ज्ञाखा वयमुत्पत्रवैराभ्या ज्ञातिसंयोगांस्त्यक्ष्याम इत्येवं ये कृताघ्यवसायिनस्ते ' विज्ञा: ' पंडिता, ते विदितवेद्या भवन्तीति । साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाह---
,
से मेहावी जाणिजा बाहिरगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तंजहा - हत्था मे पाया मे बाहा मे ऊरू मे उदरं मे सीसं मे सीलं मे आऊ मे बलं मे वष्णो मे तथा मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे + " प्रत्येकमेव ' विष्णु ति विद्वान्, तथा " इति ददौ ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिब्भा मे फासा गे समातिष्यसि क्यानो पारिताशि, संजहा-आऊओ बलाओ वन्नाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ, सुसंधिता संधी विसंधी हवंति। वलि[य] तरंगे गाए भवति । किण्हा केसा पलिया भवंति । तंजहा-जंपि य इमं सरीरं उरालं आहारोवचियं, एयपि या अणुपुत्वेणं विप्पजहियवं भविस्सति । एवं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्ठिए दुहओ लोग जाणेजा, [तंजहा-] जीवा चेव अजीवा चेव, तसा चेव थावरा चेव (सू. १३)। ___ व्याख्या-स मेधावी एतद्वक्ष्यमाणं जानीयात् , तद्यथा-वाचतरमेतज्ज्ञातिसम्बन्धनमिदं, इदमुपनीततर-मासमवरं, | शरीरावयवाना आसनतरत्वात । तद्यथा-हस्तौ मे पादौ मे पनगर्भसकमालो, नान्यस्य कस्यापीरशावित्यादि । शीर्ष मे । उदरं मे शीलं मे आयुर्मे वर्णषलत्वचाछायाश्रोप्रचक्षुर्नासिकाजिलास्पर्शनेन्द्रियमित्याबंगोपालाः सर्वेऽपि सुन्दरतराः, इत्येवं 'ममाति' ममी करोति, याह मे न तामन्यस्येति भावः। एतच हस्तपादादिकं स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं वयसा परिणामात्कालकतावस्थाविशेषात् 'परिजरइ'चि परिजीयते-जीर्णा थाति, प्रतिक्षणं विशरारुतां याति । तस्मिंश्व प्रतिक्षणं विशीर्यति शरीरे प्रतिसमयं प्राण्येतस्माद्धश्यते, तद्यथा-बायुषः पूर्वनिबद्धात्समयादिहान्या अपचीयते, आवीची. मरणेन प्रतिसमयं मरणाभ्युपगमात् । तथा पलादपचीयते, तथाहि-यौवनावस्थायाध्यत्रमाने शरीरके प्रतिक्षणं शिथिली
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
मत्सु सन्धिबन्धनेषु बलादवश्यं भ्रश्यते । तथा वर्णाश्वचश्छायातोऽपचीयते । अत्र सनत्कुमारचक्रिणो दृष्टान्तो वाच्यः । तथा जीर्यति शरीरे श्रोत्रादीन्द्रियाणि हीयन्ते । तथा च वयोहान्या ' सुसन्धितः सुबद्धः 'सन्धि' जनुकूर्षरादिको विसन्धिर्भवति-बिग[लि]तबन्धनो जायते । तथा वलितरङ्गाकुलं सर्वतः शिरा ( नाड़ी )जालवेष्टितमिदं वपुरुद्वेगकृद्भवति । तथा कृष्णाः केशाः वयोहान्या घवला जायन्ते । ततो वयःपरिणामे सन्मतिरेवं भावयेत् तथाहि यदपीदं शरीरं उदारत्रोमं विशिष्टाहारोपचितं एतदपि ममावश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुषः क्षये विप्रहाराज्यं भविष्यतीत्येतदवगभ्य - संख्याय परित्यक्तसमस्तगृह प्रपञ्चो निष्क्रितापगम्य संयमयात्रा मिद्याचयायां समुत्थितः सन् द्विधा लोकं जानीयात् । तदेव लोकद्वैविध्यं दर्शयति-' जीवा चेव अजीवा चेव, तसा चेव थावरा श्रेय' तत्र जीवाः प्राणधारणलक्षणास्तद्विपरीता अजीवा धर्मास्तिकायादयः, तत्र भिलोरहिंसाप्रसिद्धये जीवान् विभागेन दर्शयति-इह खलु जीवा अपि द्विधा - त्रसाः स्थावराय, तेऽपि सूक्ष्मवादरपर्याप्ता पर्याप्तकभेदेन बहुधा द्रष्टव्याः । एतेषु चोपरि बहुधा व्यापारः प्रवर्त्तते । अथ तदुपमर्दकव्यापारकर्तन् दर्शयितुमाह
इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गद्दा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा थावरा पाणा, ते सयं समारंभंति, अत्रेण वि समारंभाविति, अन्नं पि समारंभंतं समणुजाणंति । उपाख्या - इह खलु संसारे गृहस्थाः ' सारम्भाः ' जीवोपमर्दकारिणो वर्तन्ते सपरिग्रहाच वर्तन्ते, न केवलं गृहस्था
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
नुष्ठानेन वा 'अनुपस्थिताः' सम्यगुस्थानमकृतवन्तो येऽपि कथनिधर्मकरणायोस्थितास्तेप्युदिष्टभोजित्वासावद्यानुष्ठान| परत्वाच गृहस्थकल्पा एवेति । [ साम्प्रतमुपसंहरति-]
जे खल्लु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, | दुहतो पाबाई कुवंति, इति संखाए दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रीएज्जा।
व्याख्या-ये इमे गृहस्थादयस्ते विधाऽपि मारम्भसपरिग्रहत्त्वाम्यामुभाम्यामपि पापान्युपाददते, यदि वा रागद्वेषाभ्यां यदि वा गृहस्थप्रव्रज्यापर्यायाम्यां उमाभ्यां पापानि कुर्वत इत्येवं 'संख्याय ' ज्ञात्वा द्वयोरप्यन्तयो रारम्भ| परिग्रहयो रागद्वेषयोर्वा अदृश्यमानो भिक्षुरनवयाहारभोजी सत्संयमानुष्ठाने 'रीयेत' प्रवर्खेत ।
से बेमि- पाईणं वा ४ जाव एवं से परिन्नायकम्मे, एवं से वियय[ववेयकम्मे । एवं से । वियंतकरए भवतीति मक्खायं ( सू. १४) ___ व्याख्या-'से बेमि' तदहमधिकृतमेवार्थ विशेषिततरं सोफ्पत्तिकं ब्रवीमि-प्रज्ञापकापेक्षया प्रच्पादिकाया दिशोअन्यतरस्याः समायाता-स भिक्षुईयोरप्यन्तयोरदृश्यमानतया सत्संयमे रीयमाणः सन्नेवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण क्षपरिक्षया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिझया च प्रत्याख्याय+ कर्मणामन्तकृद्रवति । अनेन प्रकारेण संसारस्याप्यन्तकद्भवतीत्येतत्तीर्थ
+ "परिजातकर्मा भवति, पुनरपि एषमिति परिजातकर्मत्वाव्यपेतकर्मा भपति-अपूर्वस्याबन्धको भवतीत्यर्थः, पुनरेवमित्य
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
करगणधरैराख्यातमिति प्राणिव प्रवृत्तस्य न कर्मापगमो भवति, यतस्तत्प्रवृत्तस्यात्मौपम्येन प्राणीनां पीडोत्पद्यते, तथा चकर्मबन्धा, इत्येवं सर्व मनस्याधायाह
तत्थ खलु भगवया छजीवनिकाया हेऊ पन्नता, तंजहा - पुढविका [ ए ] इया जाब तसका [ ए ]इया से जहा नामए ममं अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आउडिमाणस्स वा इम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिजमाणस्स वा परियाविजमाणस्स वा किलि[ किलामि] माणस्स वा x उद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमात्तमवि हिंसाकारणं दुःखं भयं पडिसंवेएमि, इश्वेवं जाणं सवे जीवा स भूया सबे पाणा सबै सत्ता दंडेण वा जाव कनालेण वा आउट्टिजमाणा + वा इम्ममाणा वा सज्जिजमाणा वा सालिजमाणा वा परिता विजमाणा वा किलाबन्धकतथा योगनिरोधोपायतः x x x विशेषेण ” इति गृहवृत्तौ ।
★ असत्या' ओडविज्य० ' इत्येवं पाठो युज्यत इत्येष ममाभिप्रायः ।
+ यद्यप्येतेषु सप्तस्वपि पदेषु ' माणाण वा ' इत्येवमेवोपलभ्यते पाठः सर्वाश्वपि दीपिका प्रतिषु किन्तु मुद्रिवासवृत्तिकप्रतिषु ' माणा वा' इत्येवमस्ति अर्थसङ्गस्या तु ' माणाण या ' इत्येतदेव युक्तमाभाति ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिजमाणा वा उदविजमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, ॥ एवं नच्चा सोपाणा न हंतवा न अज्जावेयवान परिघेत्तवा न परियावेयवा न उबद्दवेयवा । से बेमि-- ___ व्याख्या-' तो 'ति कर्मबन्धप्रस्तावे खलु भगवता षड्जीवनिकाया हेतुत्वेनोपन्यस्ताः, पृथिवीकायो यावत्रसकाय ! इति । तेषां च पीड्यमानानां यथा दुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंवित्तिसिद्धेन रष्टान्तेन दर्शयितुमाह-यथा नाम मम 'असात'
दुःखमुत्पद्यते तथा तेषामपीति । तद्यथा-दण्डेन अस्थना मुष्टिना लेलुना' लोष्ठेन कपालेन ' आकोबमानस्य' सझो V! च्यमानस्य इन्यमानस्य तय॑मानस्य, ताड्यमानस्य कुल्यादाभिषातादिना, परिताप्यमानस्य तथा उपद्राव्यमानस्य'
मार्यमाणस्य यावश्लोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकरं दुःखं भयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेदयामीत्येवं जानीहि । तथा सर्वे प्राणा जीवा भूतानि सच्चा, एतेषां दण्डादिनाऽऽकुद्यमानानां यावल्लोमोत्खननमात्रमपि दुःखं हिंसाकरं भयं चोत्पन्न तेऽपि प्राणिनः सर्वेऽपि 'प्रतिसंवेदयन्ति' साक्षादनुभवन्तीत्येवमात्मोपमया पीड्यमानानां जन्तूनां यतो दुःखमुत्पद्यते, अतः सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या न व्यापादयितव्या न आज्ञापयितष्पा' न बलात्कारेण व्यापारे प्रयोक्तव्यास्तथा न परि. प्राया न परितापयितव्याः नापदावयितव्याः । सोऽहं ब्रवीमि एतम स्वमनीषिकया, किन्तु सर्वतीर्थकराज्ञयेति[दर्शयति
जे[य]अतीया जे[ य ]पडुप्पन्ना जे[य]आगमिस्सा अरिहंता भगवंतो, ते सवे एवमाइ. क्खति एवं भासांत एवं पन्नर्विति एवं परावति-सत्वे पाणा जाव सवे सत्ताण हंतवा जाव ण उवद्द.
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
FM वेयवा, एस धम्मे धुवे णितिए सासए समेच लोगं खेयन्नोविं पवेदिते ।
| ब्याख्या-'जे[य] अतीया' इत्यादि सर्वे सुगमं । नवरमयं धर्मः प्राणिरक्षणलक्षणो ध्रुवो ' नित्यः' अवश्यंभावी-- शाश्वतः । इत्येष चाभिसमेत्य-ज्ञानेनावलोक्प चतुर्दशरत्रात्मकं लोकं खेद 'स्तीर्थकृद्भिः प्रवेदितः । एवं ज्ञात्वा स
मिक्षुर्विदितवेद्यो विरत: प्राणातिपातायावत्परिग्रहादिति, एतदेव दर्शयितुमाह। एवं से भिक्खू विरए पाणातिवायाओ जाय विरते परिग्गहाओ, नो खल्लु दंतपक्खालणेणं दंते | पक्खालेजाणो अंजणेणं अंजेज्जा णो क्मणं णो धूवणे णो तं परियाविएज्जा । सेभिक्खू अकिरिए
अलुसए अकोहे अमाणे अमाए अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे, नो आसंसं पुरओ कुजा । ___व्याल्या-तथाऽपरिग्रहः साधुनिकिञ्चनः सन् नो दन्तप्रक्षालनेन दन्तान् प्रक्षालयेत् , नो अञ्जनं विभूषार्थमक्ष्णोर्द धात् , नो वमनविरेचनादिकाः क्रियाः कुर्यात् , न शरीरस्य वस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात्, न कासाबपनयनाथ धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिबेदिति । एवं गुणव्यवस्थितो भिक्षुरक्रियः' सावधक्रियारहितः संवृतात्मकतया साम्परायिककर्माबन्धका, | कुत एवम्भूतो? यतः प्राणिना मलूषकोऽहिंसकः, एक्मक्रोधोऽमानोऽमायी अलोभः कषायोपशमाञ्चोपश्चान्तः 'परिनिश्रुतः'
समाधिवान् । एवमैहिककामभोगेभ्यो निवृत्तः पारलौकिकम्योऽपि विरत इति दर्शयति-'नो आसंसं पुरओ कुञ्जा'नो 4 नवाशंसा-ममानेन तपसा जन्मान्तरे कामभोगावाप्तिर्मविष्यतीत्येवम्भूतामाशंसां न पुरतः कुर्यात् । इत्येतदेव दर्शयति
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
इमेण मे दिद्वेण वा सुरण वा मरण वा विन्नाएण वा इमेण वा सुचरियतवनियमबंभचेरवासेणं इमेण वा जायामायावत्तिएणं धम्मेणं इओ चुए पिच्चा देवे सिया, कामभोगाण वसवची सिद्धे वा अदुक्खमसुभे। __व्याख्या---(+एतजन्मकृतस्य तपसः फलं आमोषध्यादिलब्धिसम्प्राप्त्या दृष्टं । ) अनेन सपोनियमब्रह्मपर्यादि । धर्मकरणीयेन तो मृतो भवान्तरे देवो भयासं एवंविधामाशंसां न करोति, अशेषकर्मवियुतो वा सिद्ध 'अदुख अशुम' शुभाशुभकर्मप्रकृत्यपेक्षया, एतावता मध्यस्थ: स्यामहं इत्येवंविधामाशंसा न करोति । तदकरणे कारणमाह
एत्थ वि सिया एत्थ वि नो सिया।से भिक्खू सद्देहिं अमुच्छिए रूबोहि अमुच्छिए रसहिं अमु
+ एतस्मिन्नर्द्धचन्द्राकारचिन्हमध्यवर्तिपाठस्याने निर्देक्ष्यमाणः पाठोऽस्ति बृहद्वत्तौ-" इमेण मे-इत्यादि, अस्मिन्नेव जन्मन्य. मुना विशिष्टतपश्चरणफलेन दृष्टनामर्दषभ्याविना तथा पारलौकिकेन च श्रुतेनाकघम्मिल्लब्रझदतादीनां विशिष्टतपश्चरणफलेन, सथा 'मएण व 'त्ति — मन ज्ञाने' जातिस्मरणादिना मानेन तथाऽऽचार्यादेः सकाशादिशातेन-अवगतेन ममापि विशिष्टं भविष्यतीत्येवं नाशंसा विदभ्यात् ।
** यद्यप्येतचिन्हान्तर्गतः सूत्रपाठः सवृत्तिकासु मुद्रितप्रतिषु "गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अनुच्छिए" इत्येवं व्यत्ययेनास्ति, ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
_ -
छिए गंधेहिं अमुच्छिए* फासेहिं अमुच्छिए विरए कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ ! दोसाओं कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुन्नाओ परपरिवायाओ अरतीओ अराति ]रतीओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए पडिविरए से भिक्खू। ____ व्याख्या अनेन विशिष्टतपसाऽपि स्यात् कदाचित् सिद्धिः कदाचिन स्यादपि । अतः आशंसां न कुर्यात् । तदेवमैहिकार्थमासुष्मिकार्थ च कीर्तिवर्णश्लोकाद्यर्थ च तपो न विधेर्य-न कुर्यादिति । कथम्भूतो भिक्षुः? शब्द रूपे से गन्धे स्पर्श अमृतिः । क्रोधमानमायालोमं यावन्मिथ्यादर्शनशल्यं, एवमष्टादश पापस्थानकेभ्यो विरतः। तथा स भिक्षुर्भवति यो महतः कर्मोपादानादुपशान्तः सन् संयमे चोपस्थितः सर्वपापेभ्यश्च विरतः प्रतिविस्त इति । कर्मोपादानाद्विरमणं साधादर्शयति
जे इमे तसा थावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारंभात । नेवन्नहि समारंभावेति । अन्ने | समारंभंते विनसमणुजाणति, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उबट्ठिए पडिविरए [से भिक्खू] |
व्याख्या-इत्यादि सुगमम् । एवं महतः कर्मोपादानादुपशान्तः प्रतिचिरतो भवति भिक्षुरिति । साम्प्रतं कामभोगपर दीपिकाप्रतिषु सर्वास्वप्येतत्क्रमेणैवास्ति, वृत्तिकारेणापि " एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि वाच्यमित्य "नेन वाक्येनैतदेव क्रमः स्वीकृतोऽस्ति ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवृचिमधिकृत्याह
जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा, ते णो सयं परिगिवहति णो अनेणं परिगिहावेति अन्नं परिहितं न समणुजाण, इति ले महतो आयाणाओ उवसंत उवट्टिए पडिविरते से भिक्खू ।
व्याख्या - ये केचन काम ( 1 ) भोगाय ते सचित्ता वा अचित्ता वा मवेयुस्तांश्च न स्वतो गृहीयात्राप्यन्येन प्राहयेनाप्यपरं समनुजानीयादित्येवं कम्र्मोपादानाद्विरतो भिक्षुर्भवतीति ।
पिय इमं संपराइयं कम्मं कज्जति, नो तं सयं करेति नेवन्नेणं कारवेति अन्नपि करंतं नाशुजाणति, इति से महतो आदाणाओ उवसंते उचट्ठिए पडिविरते ( + भवति भिक्खू ) ।
- येन कर्मणा संसारे पर्यटनमनन्तशो जायते तत्साम्परायिकं कर्म तथ प्रद्वेषनिन्हव मात्सर्यान्तरायाश्रातनोपार्वध्यते, तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितानुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयते । साम्प्रतं भिक्षाविशुद्धिमधिकृत्याहसे भिक्खू जाणेज्जा असणं ४ वा अस्सि X पडियाए एवं साइम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समारंभं समुद्दिस्स कीतं पामिचं अच्छेनं अणिसिद्धं अभिहर्ड आहद्दुद्देसियं तं चे
+ नास्त्येव चिन्हान्तर्गतः शब्दः सवृत्तिकासु मुद्रितप्रतिषु ।
x आहारदानप्रतिज्ञया यदिवाऽस्मिन् पर्याये- साघुपयोंये व्यवस्थितं साधुं साधर्मिकं समुद्दिश्य । इति टि० २ ।
६
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
तियं सिता, तं० नो सयं भुंजइ नेवन्नणं भुंजावेति अन्नंपि भुंजंतं नो समणुजाणइ इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते से भिक्खू ।
व्याख्या - सुगमम् | यो भिक्षुरेवम्भूतमाहारं + द्वाचच्चारिंशदोषदुष्टं स्वयं न गृह्णाति न ग्राहयति गृहन्तं न समनुजानाति स भवति भिक्षुरिति । स भिक्षुः पुनरेवं जानीयात्
विज्जति तेलि परक्कमे जस्सट्ठाए चेइयं सिया, तं जहा - अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुहाणं धातीणं नातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाणं पुढो पहेणाए सामालाए पातरासाए सन्निहिसंनिचए कज्जति इह मेगेसिं माणवाणं भोयणाए ।
----
व्याख्या - विद्यते ' तेषां गृहस्थानां 'पराक्रमः सामध्ये आहार निर्वर्त्तनं प्रत्यारम्भः, तेन च यदाहारजातं + " जानीयात् 'अस्सिं पडियाए' एतत्प्रतिज्ञया एकं साधुसाधर्मिकं समुद्दिश्य कश्चिस्प्रकृतिभद्रकः श्रावकः साध्वाहारदानार्थ प्राणिनः समारभ्य - प्राणिघातकमारम्भं कृत्वा सत्त्वान् समुद्दिश्य तत्पीढां सम्यगुद्दिश्य क्रीतं 'प्रामित्यं' उच्छिनकं 'आच्छेचं ' अन्यस्मादाच्छिय गृहीतं ' अनिसृष्टं' परेणाननुमतं ' अभ्याहृतं साधुसम्मुखमानीतं 'आहृत्य उपेत्य शारदा साध्यर्थं कृतमुदेशिकं, एवम्भूतमाहारं साधवे 'चेतितं ' दत्तं स्यात् साधुना वाकामेन गृहीतं स्यात्, तद्दोषदुष्टं ज्ञात्वा स्वयं न भुञ्जीत अन्यं न भोजयेत् न च सुखानमन्यं खमनुजानीयात् एवं " इति इर्ष० ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
शनितितं ' यस्य चार्थाय ' यत्कृते 'चेतित' दत्तं, निष्पादितं स्यानवेत् । यत्कृते निष्पादितं तत्स्वनामग्राहमाह, तद्यथा 'आत्मनः ' स्वनिमित्तमाहारादिपाकनिर्वसनं कृतमिति । तथा पुत्रा[चx]] ' आदेशार्थ' प्रापूर्णकाद्यर्थ, तथा पृथक्प्रहेणार्थ +विशिष्टाहारनिर्वर्तन क्रियते, तथा 'इयामा' रात्रिस्तस्यामशनं, तदर्थ यावत्प्रातराना-प्रत्ययस्येव भोजनं, तदर्थ ।। सभिधेः सनया, विशिष्टाहारसहस्य सञ्चयः क्रियते । अनेन चैतत्प्रतिपादितं भवति-पालम्लानाद्वादिनिमितं प्रत्यूपादिसमयेष्वपि भिक्षाटनं क्रियते, अतः सनिधिसञ्चय इहेकेषां मानवानां भोजनार्थ भवति । तत्र भिक्षुरु-चवविहारी पस्कृत परनिष्ठितमुद्गमोत्पादनेषणाशुद्धमाइयारेद, परभूतमाहा सचिाह...
तत्थ भिक्खू परकडं परनिहितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थाईयं सस्थपरिणामितं आविहिसितं एसितं वेसितं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं, अक्खो बंजणवणलेवणभूयं संजमजाया| मायावत्तियं बिलमिव पन्नगभूतेणं अप्पाणणं आहारं आहारेज्जा, अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, IN वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले, से भिक्खू मायन्ने अन्नयरिं दिसं वा अणुदिसं ।
वा पडिवन्ने धम्म आइक्खे विभए किहे उवट्टिएसु वा अणुवद्विपसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए । व्याख्या-सस्थाईय' शत्रमग्न्यादिकं, तेनातीतं-प्रासुकीकृतं, शत्रपरिणामितमिति-शस्त्रेण स्वकायपरकायादिना x आविशब्दः प्रकारार्थत्वाद् दुहितृस्नुषाधायाद्यर्थम् । + “ पऽणयं-भोजनोपायनमुत्सनश्चे"ति देशीनाममालावृत्तौ ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसादिभिश्व परिणामितं, हिंसां प्राप्तं हिंसितं विरूपं हिंसितं विहिंसितं, न सम्यनिर्जीवीकृतमित्यर्थः, तत्प्रतिषेधादविहिंसितं निर्जीवमित्यर्थः । तदप्येपिवेदितं पिवाचफेरिदित बाई ' हिलियं वैषिकमिति harya+, तदपि ' सामुदानिकं ' मधुकरवश्यावाप्तं सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतं, तदपि गीतार्थेनोपात्तमानीतं तदपि वेदना वैयावृत्यादि के कारणे सति तदपि प्रमाणयुक्तं, नाऽतिमात्रं, तदपि न वर्णबलाद्यर्थं किन्तु यावन्मात्रेणाऽऽहारेण देहः क्रियासु वर्त्तते, यथाऽक्षस्योपासनं अभ्यङ्गो व्रणस्य ' लेपनं ' [ व्रण ] लेपस्तदुपमया आहारमाहरेत् । उक्तं च"अभंगेण व सगडं, न तरह बिगड़ं विणा उ जो साहू । सो रागवोसरहिओ, मत्ताऍ बिहीह तं सेवे ॥११॥ " एतदेव दर्शयति-संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रा [ मात्रा ], यावत्याऽऽहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्त्तते । तथा बिलप्रवेशपन्नगभूतेनात्मना आहारमाहरेत्, यथा पत्रगो जिले प्रविशेस्तूर्णमेत्र प्रविशति एवं साधुनाप्याहारस्तत्स्वादमनास्वादयता शीघ्रं प्रवेशयितव्य इति । तदपि ' अन्नं अन्नकाले ' सूत्राथपौरुष्युत्तरका [लं ] ले (2) भिक्षाकाले प्राप्ते, तथा पानके पानककाले* तथा ब बस्त्रकाले गृहीया - दुपभोगं वा कुर्यात् । तथा ' लयनं' गुद्दादिकमाश्रयस्तस्य वर्षास्ववश्यमुपादानम न्या त्वनियमः । तथा शय्यासंस्तारकः, स च शयनकाले । तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं निद्राविमोक्षो गीतार्थानान्तु
+ " न पुनर्जास्थायाजीवनतो निमित्तादिना बोत्पादित "मिति बृहद्वृत्तौ ।
X अभ्यङ्गेनेव शकटं न शक्नोति विकृति विनैव यः खाधुः । स रागद्वेषरहितो मात्रया विधिना तां सेवेत ॥ १ ॥ *" न तृषितो भुञ्जीत न बुभुक्षितः पानकं पिबेत् । " इति हर्ष० ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रहरमेकमिति । तथा स भिक्षुराद्दारोपधिशयनस्वाध्यायाध्ययनादीनां मात्रां जानावीति तद्विषिज्ञः, अन्यतरां दिशमनुदिशं वा ' प्रतिपद्मः समाश्रितो धर्ममाख्यापयेत् - प्रतिपादयेत्, यद्येन [ साधुना गृहस्थेन वा ] विधेयं तद्यथायोगं विभजेत् धर्मफलानि च कीर्त्तयेत् । परहितार्थ प्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु वा [ अनुपस्थितेषु ] कौतुकादिप्रवसेषु शुश्रूषमाणेषु श्रोतुं प्रवृतेषु स्वरहिताय ' प्रवेदयेत् ' कथयेत् । यत्कथयेत्तद्दर्शयितुमाह
संतिविरति उवसमं निवाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवातियं, Hafi पाणाणं, सबेसि भूतानं जाव सवेसिं सत्ताणं अणुवीह किए धम्मं ।
व्याख्या -- शान्ति - रुपशमः क्रोधजयः 'विरतिः ' प्राणातिपातादिभ्यः शान्तिविरतिस्तां कथयेत । तथोपशमं इन्द्रि योन्द्रियोपमरूपं रागद्वेषाभाव जनितं तथा निर्वृति निर्वाणं, तथा ' शौचं ' तदपि मावशौचं सर्वोपाधिविशुद्धं व्रतामालिन्यं ' अज्जधियं ' आर्जवं मायारहितत्वं, तथा ' मार्दवं ' मृदुभावः अकठोरत्वं सर्वत्र प्रश्रयत्वं विनयनम्रता, तथा ' लाघवियं ' कर्मणां लाघवापादनं । साम्प्रतं सर्वशुमानुष्ठानानां मूलकारणमाह 'अतिपातः प्राप्युपमईनं, तत्प्रतिषेवादनतिपात्तिकस्तं सर्वेषां प्राणिनां भूतानां यावत् सवानां धमनुविचिन्त्य कथयेत् सर्वप्राणिनां रक्षानिमित्तभूतं धर्म्म कथयेत् ।
,
से भिक्खू धम्मं किडेमाणे णो अन्नस्स हेडं धम्ममाइक्खेजा, नो पाणस्स देउं धम्ममाइक्खेज्जा,
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो वत्थस्स हेडं धम्ममाइक्वेजा, नो लेणस्स हेउं [धम्ममाइक्खेज्जा,] नो सयणस्स हे उं[धम्ममा इक्खेज्बा, नो अन्नेसि विरूवरूवाणं कामभोगाणं हे भम्प्रमाइलेजा, अगिलाए धम्ममाइक्खेजा, नन्नत्थ कम्मनिजरट्टयाए धम्माइक्खेजा। ____ व्याख्या-स भिक्षुर्नानस्य हेतोममायमीश्वरो धर्मकथाश्रवणेन विशिष्टाहारजातं दास्यतीत्येतनिमित्तं न धर्ममाच.
धीत । तथा पानस्य वस्त्रलयनशयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत । अन्येषां या 'विरूपरूपाणां' उच्चाबचानां कार्याणां RAI कामभोगानां वा निमितं न धर्ममाचक्षीत । तथा ग्लानिमनुपगच्छन् धर्ममाचक्षीत । कर्मनिर्जरायाधान्यत्र न धर्म कथयेत् , अपरप्रयोजननिरपेक्ष एव धर्म कथयेदिति । अथ धर्मकथनफलम्पदर्शयति
इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुढ़िया ते एवं सबोवगता, ते एवं सबोवरता, ते एवं सवोवसंता, ते एवं सवत्ताई, परिनिव्वुडेत्ति बेमि। ____ व्याख्या-इह खलु जगति तस्य मिक्षोर्गुणवतोऽन्तिक-समीपे धर्म श्रुत्वा [निशम्य च] सम्पगुत्थानेनोत्याय 'वीरा' कर्मविदारणसहिष्णवो ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये मोक्षमार्गे प्राप्ताः सर्वपापस्थानेम्यो निवृत्ताः सर्वत उपवान्ताः जितकवायतया
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
शीतलीभूताः, तथा त एवं ' सर्चास्मतया ' सर्वसामयन सदनुष्ठाने उद्यमं कृतवन्तो, ये चैवम्भूतास्ते अशेषकर्मक्षयं कृत्वा ५. परिनिईचार, अशेषकर्मक्षयं कृतवन्त इति । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अयाध्ययनोपसंहारार्थमाहस एवं, से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ नियागपडिवन्ने, से जहेयं बुइयं अदुवा पत्ते पउमवर
पुंडरीयं अदुवा अपत्ते पउमवरपुंडरीयं । एवं से भिक्खू परिक्षायकम्मे परिन्नायसंगे परिनायगिहवासे उवसंते समिए सहिये सया जए, से एवं वणिज्ने, तं जहा-- ___व्याख्या-एवं समिक्षुधार्थी यथावस्थितं परमार्थितो ] (१) धर्म सर्वोपाधिविशुद्धं जानातीति धर्मविन , l तथा ' नियागः' संयमो विमोक्षो वा, तं प्रतिपन:-नियागप्रतिपन्ना, स चैवम्भूतः पञ्चमपुरुषजातः, तं चाऽऽश्रिस्य तद्यथेदं प्राक प्रदर्भितं, तत्सर्वमुक्तं, स च प्राप्तो वा स्यात् पलवरपौण्डरीकमनुप्रायं पुरुषविशेष चक्रवादिकं, तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलज्ञानावाप्ती सत्यां भवति, साक्षाद्यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिछित्तेः, अप्राप्तो वा स्याम्मतिश्रुतावधिमन:| पर्यायज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा समन्वितः । स चैवम्भूतो भिक्षुः परित्रातका(दिविशेषणविशिष्टो भवतीत्येतदर्शयितुमाह-)
स चैवम्भूतो भिक्षुः परिज्ञातकर्मा' परिज्ञातकर्मस्वरूपा, परिज्ञातसा, परिक्षातगृहबासः, तथोपशान्ता, [इन्द्रियनो] hi इन्द्रियोपशमात्तथा समितिभिः समितः, तथा सहितो ज्ञानादिमिः सदा यतः' संयतः, एवंविधगुणकलापोपेत
एतद्वचनीया-स ईदृशः कथ्यते, (तबथा-)
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
समणेति वा माहणेति वा खंतेति वा दंतेति वा गुत्तेति वा मुत्तेति वा इसीति वा मुणीति वा 1) कतीति वा विदूति वा भिक्खूति वा लूहेति वा तीरद्वेति वा चरणकरणपारविउत्ति बेमि [सूत्र १५] ।
वितियस्स [सुय]क्वंधस्स पोंडरीयं नाम पढमं अज्झयणं समत्तं । ____ व्याख्या–स पूर्वोक्तगुणकलापोपेतः किनामा कथ्यते ? श्रमणः तथा 'माहण 'चि माह्मणः, मा प्राणिनो व्यापादयेति | माइनः ब्रह्मचारी वा प्रामणः, क्षान्तः क्षमोपेतत्वात् , दान्तः इन्द्रिय[नोइन्द्रिय दमनात् , तिमृमिर्गुप्तिमिर्गुप्ता, मुक्त इव । मुक्ता, विशिष्टतपश्चरणो महर्षिः, मनुते जगतत्रिकालावस्थामिति मुनिः, कृतमस्यास्तीति कृती ' पुण्यवान् परमार्थपण्डितो | वा, तथा 'विद्वान् ' सवि[सद्वियोपेतः, तथा 'भिक्षु निरवद्याहारतया भिक्षणशीलः, तथा अन्तवान्ताहारत्वेन रूक्षा, संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी, तथा चर्यत इति चरणं-मूलगुणा, क्रियत इति करण-उत्तरगुणास्तेषां 'पारं 'तीरं पर्यन्तगमनं, | तद्वेत्तीति करणचरणपारवित् । इतिशन्दःपरिसमात्यर्थे, ब्रवीमीति तीथे करवचनात सुधम्मस्वामी जम्वृस्वामिनमुदिश्येवं मणतीति।
इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छविभूषणपाठकप्रवरश्रीमत्साधुरङ्गगणिवरसन्दुग्धायां
श्रीमत्वकताङ्गदीपिकायां समाप्तं द्वितीयश्रुतस्कन्धाभ्ययनं प्रथमम् ॥
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनम् ॥
-
-
-
-
साम्प्रतं द्वितीयधुतस्कन्धे द्वितीयं क्रियाध्ययन प्रारम्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-इहानन्तराध्ययने पुष्करिणी-पुण्ड|रीकदृष्टान्तेन तीथिकाः सम्यङमोक्षोपायाभावात्कर्मणां बन्धकाः प्रतिपादिताः सत्साघवश्व सम्यग्दर्शनादिमोक्षमार्गप्राच
| त्वात् कर्मणां मोचका सदुपदेशदानतो परेवामपीति, तदिहापि यथा कर्म द्वादशभिः क्रियास्थानबध्यते यथा च त्रयोदशेन IN पुच्यते तदेतत्पूर्वोक्तमेव बन्धमोक्षयोः प्रतिपादनं क्रियते, तथाहि| सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खल्लु किरियाठाणे नामं अज्झयणे पन्नत्ते,
तस्स अयमढे (पन्नते-) इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवमाहिति-धम्मे चेव अधम्मे 2 चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव। र व्याख्या-सुधर्मस्वामी जम्यूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह-श्रुतं मया आयुष्मता भगवतवमाख्यातं-इह खल क्रियास्थानं
ते. तस्य चायमर्थः इह खल 'संजणं ति सामान्येन संक्षेपेण च द्वे स्थाने भवतः। य एते क्रियावन्तस्ते सर्वेऽप्यनयोः स्थानयोरेवमाख्यायन्ते-धौ पैक अधर्मे चैव, इदमुक्तं भवति-धर्मस्थानमधर्मस्थानं च । कारणशुरक्षा च कार्यभुद्धिर्भवतीत्याह-उपशान्वं यत्तद्धर्मस्थानं अनुपशान्तमधर्मस्थानं । लोकस्तु प्रायेणाधर्मप्रवृतो भवति, पश्चात्स
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
+
-
दुपदेशयोग्याचार्यसंसर्गाभस्थाने प्रति, अतः स्वमधर्मस्थानमाधवत्याह
तत्थ णं [जे से] पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमद्वे [पण्णत्ते]- । - इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, [तं जहा]INI व्याख्या-तत्र प्रथमस्य अधर्मपक्षस्य — विभंगो' विचारस्तस्यायमर्थ इति । ' इह जलु' इह अस्मिञ्जगति
खलु' निश्चितं प्राच्यादिदिक्षु मध्ये अन्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन मनुष्यास्ते चैवम्भूता भवन्तीत्याह-- __+आयरिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे,
सुवन्ना वेगे दुव्वन्ना वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं इमं एयारूवं दंडसमादाणं संपेहाए। | तं जहा-नेरईएसुवा]x तिरिक्खजोणीएसु माणुसेसु देवेसुजेयावन्ने तहप्पगारा पाणा चिन्न[विन्नू] । वेयणं वेयंति, तेसि पि य णं इमाई तेरस किरियाठाणाई भवंतीतिमक्खायं, तं जहा-अट्ठादंडे १, IN __ + सर्वास्वपि दीपिकाप्रतिषु 'आयरिया' इति पाठो लेखकप्रमादजः सम्भाव्यते, मुद्रितासु सवृत्तिकप्रतिषु 'आरिया' इत्येवोपलभ्यते, योऽर्थशष्टया युक्त आभाति |x मुद्रिवासु प्रवृत्तिकप्रतिष्वेवे चत्वारोऽपि पदावा'शब्दान्ताः सन्ति, परं दीपिकाप्रतिषु यमेवं एषोऽपि लेखकदोष एव सम्भाव्यते ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
अणठादंडे २, हिंसादंडे ३, अकम्हादंडे ४, दिट्ठीविपरियासियादंडे ५, मोसवत्तिए ६, अदिन्नादा|| गवत्तिए ७, * अज्झस्थिए ८, माणवत्तिए ९, मित्तदोसवत्तिए १०, मायावत्तिए ११, लोभवत्तिए
१२, इरियावहिए १३ । [ सू० १] ___व्याख्या-एके आर्या एके अनार्याः भवन्ति, याचद्रूपाः सुरूपाश्चेति । तेषामार्यादीनामिदं-पक्ष्यमाण मेतद्रूपं | 'दण्ड 'पापोपादानसङ्कल्पस्तस्य 'समादानं ' ग्रहणं 'संपेहाए 'त्ति सम्प्रेक्ष्य, तचतुर्गतिकानामन्यतमस्य भवति, तद्यथा-नारकादिधु, ये चान्ये तथाप्रकारास्तभेदवर्तिनः सुवर्णदुर्वर्णादयः प्राणिनो विद्वाँसो 'वेदना' ज्ञानं, तद्वेदयन्त्यनु
भवन्ति, यदिवा सातासातरूपां वेदनामनुमवन्तीति, अत्र चत्वारो भकास्तद्यथा-संझिनो बेदनामनुभवन्ति विदन्ति च १ | सिद्धास्तु विदन्ति नानुभवन्ति २, असंज्ञिनोऽनुभवन्ति न विदन्ति ३, अजीवास्तु न विदन्ति नानुभवन्ति । इह पुनः प्रथमस्तीयाभ्यामषिकारो, द्वितीयचतुर्थाववस्तुभूताविति । तेषां च' नारकतिर्यमनुष्यदेवानां तथाविधवानवता 'इमानि ' वक्ष्यमाणलक्षणानि प्रयोदश क्रियास्थानानि भवन्ति, एवमाख्यातं वीर्थकरगणघरादिभिरिति । कानि ? पुन
* यद्यपि सटीकमुद्रितप्रतिध्वत्र परत्र च सर्वत्रापि 'अज्झस्थवत्तिए' इत्येकरूप एव पाठोऽस्ति, पर दीपिकाप्रतिषु समपास्वप्यत्र 'अन्झथिए' इत्येवमुपलभ्यते, वृत्तिताऽपि 'आत्मभ्यध्यध्यात्म-तत्र भव आध्यात्मिकः' इत्येवमों विहिव अतो दीपिकापाठः युक्त इत्याभाति ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वानीति दर्शयति- ' तं जड़े 'त्यादि, तद्यथा' आत्मार्थाय स्वप्रयोजनकृते दण्डो ऽर्थदण्डः--पापोपादानं १, तथाऽनर्थदण्ड प्रतिनियोजनदेव सायकियानुष्ठानमनर्थदण्डा २ तथा हिंसा - प्राण्युपमईरूपा तथा दण्डो हिंमादण्डः २, तथाSकस्माद्दण्डः (१) अनुपयुक्तस्य [ दण्डः ] अकस्माद्दण्डा, अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य व्यापादनम् ४ । तथा दृटेर्विपर्यासो रज्ज्चामि सर्पबुद्धिः, तथा दण्डो दृष्टिविपर्यासदण्डस्तद्यथा-लेष्ठुकाष्ठादिबुद्धया शराद्यभिघातेन चटकादिव्यापादनम् ५, तथा मृषावादप्रत्ययिकः, स च सद्भूतनिवासद्भूतारोपणरूपः ६, तथा अदत्तस्य परकीयस्य ग्रहणं स्तैन्यं तत्प्रत्ययिको दण्डः ७, तथाऽध्यात्मदण्डो - निर्निमित्तमेव दुर्मना उपहतमनः संकल्पो हृदयेन दूयमानथिन्यासागरावगाढः संतिष्ठते ८, तथा जात्याद्यष्टमदस्थानोपहतमनाः परावहेलारूपस्तस्य मानप्रत्ययिको दण्डो भवति ९, तथा मित्राणामुपतापेन दोषो मित्रदोषस्वत्प्रस्यथिको[दण्डो] भवति १०, तथा 'माया' परवश्चन बुद्धिस्तया दण्डो माया [प्रत्ययिको] दण्डः ११, तथा लोभप्रत्य frat - लोमनिमित्तो दण्ड इति १२, तथा पञ्चसमितित्रिगुप्तिभिरुप युक्त स्ये र्या प्रत्ययिका सामान्येन कर्मवन्धो भवति १३, एतच्च त्रयोदशं क्रियास्थानमिति । अथानुक्रमेण क्रियास्थानानि व्याख्यानयति —
पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवन्तिपत्ति आदिअइ, ( + तं जहा - ) से जहा नामए केइ पुरिसे आय हेउं वा पाइहेउं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा मित्तहेउं वा नागहेउं वा भूयहेउं वा + नास्ति बहुस्त्रादर्शेध्वयं पाठयोदशस्वपि क्रियास्थानसूत्रेषु ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
जक्खहेउं वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव निसिरति अण्णेण[वि निसिरावेति अन्नं पि || | निसिरंतं समणुजाणति, एवं खल्ल तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिज्जति, पढमे दंडसमादाणे । INअट्टादंडत्तिए आहिए ॥ [ सू०२]
___ व्याख्या-यत्प्रथम पात्तं दण्डसमादानमर्थाय दण्ड इत्येवमाख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः, पुरुपग्रहप्पेन सर्वोऽपि | चातुर्गतिका प्राणी, आत्मनिमित्तं झातिनिमित्तं तथा गृहनिमित्तं परिवारो-दासीकमकरादिकस्तभिमित्रं, तथा मित्रनागभूतयक्षनिमिस तथाभूतं स्वपरोपघात दण्ड समारनेषु मारो लयमेव निवृत्रति ' निक्षिपति-उपतापयति प्राण्युपमईकारिणी क्रियां करोति, तथाऽन्येन कारयति, तथा परं दण्डं निसजन्तं समनुजानीते। एवं कृतकारितानुमतिभिः कर्म| सम्पन्धो भवति, तदर्थदण्डप्रत्ययिकं प्रथमं क्रियास्थानमाख्यातमिति ।
अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडबत्तिएत्ति आहिज्जति । तं जहा से जहा नामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवति, ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए, एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए बिसाणाए दंताए दाढाए णहाए | पहारुणीए अट्ठीए अट्ठिमंजाए णो हिंसिसु मेति णो हिंसंति मेति णो हिंसिस्संति मोरे, णो |
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवूहणताए नो समणमाहणवत्तणाहेउं नो तस्स सरीरस्स किंचि विप्परियादित्ता भवंति । से इंता लेता भेचा लंपइत्ता विलंपइचा उद्दवइत्ता । उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति अणट्ठादंडे।।
व्याख्या-अथापरं द्वितीयं[ दण्डसमादानं अनर्थदण्डप्रत्यायिक अभिधीयते । स यथा नाम कश्चित्पुरुषः +ये केचन | 'अमी' संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्षाश्छागादयःप्राणिनस्तांश्चासौ हनन् 'नो' नैव अर्चाय हिनस्ति, तथा नो 'अजिनाय' चर्मणे, नापि मांसनोणितहृदयपित्तक्सापिच्छपुच्छवालशृङ्गविषाणनस्वस्नायव[स्थ्य स्थिमिजा इत्येवमादिकं कारणमुद्दिश्य, नैवाहिसिघुनापि हिंसन्ति नापि हिंसयिष्यन्ति मां मदीयं चेति । तथा नो पुत्रपोषणाय-पुत्रं पोषयिष्यामीत्येतदपि कारणमुद्दिश्य न व्यापादयति, तथा नापि पशूनां पोषणाय, तथा 'अगाई' गृहं, Xन तदर्थ हिनस्ति, तथा न श्रमणब्राह्मणवर्सनाहेतुं, तथा यचेन पालयितुमारग्धं नो तस्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय तत्त्राणिव्यपरोपणं भवति, इत्येवमादिक कारणमनादृत्यैवासौ क्रीडया व्यसनेन वा प्राणिनां हन्ता भवति दण्डादिमिः, छत्ता भवति कर्णनासिकादिविकर्त्तनता, तथा मेचा-शूलादिना तथा लुम्पयिताऽन्यतराङ्गाययवविकतनतस्तथा विलुम्पयिता चक्षुत्पाटनचर्मविकर्तनकरपादादिच्छेदनतः परमाषामिकवत्प्राणिनां ||
+ " निनिमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनो हिनस्ति, तदेव दर्शयितुमाइ-" इति वृ० पू०। - " तस्य ' परिवडणा' वृद्धिः" | इति हर्ष।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
निनिमित्तमेव नानाविधोपायैः पीडोत्पादको भवति, तथा जीवितादप्यपदावयिता भवति । स च+पालोऽसमीक्षितकारितया ५ जन्मान्तरानुबन्धिवैरस्याभागी मत्रति । तदेवं निनिमित्तमेव पश्चेन्द्रियप्राणिपीसनतो यथाऽनर्थदण्डो भवति तथा प्रतिपादितं, अधुना स्थावरानधिकृत्योच्यते
से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवति, तं जहा-इक्कडाइ वा कडि(कढि)णाइ वा जंतुगाइ वा परगाइ वा मोक्खाइ वा तणाइ वा कुसाइ वा कुच्छगाइ वा पप्प[पत्र]गाइ वा पलालएइ वा, ते णो पुत्तपोसणयाए नो पसुपोसणयाए नो अगारपरिवूहणयाए नो समणमाइणपोसणयाए नो तस्स सरीरगस्स किंचि वि परियाइत्ता भवति । से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति अणट्ठादंडे । | व्याख्या--स यथा नाम कश्चित्पुरुषो निर्विवेकः प[थि]रि( ? )गच्छन् [निनिमितमेव] वृक्षादेः पालवादिकं दण्डादिना । प्रध्वंसयन् फलनिरपेक्षस्वच्छीलतया व्रजति, एतदेव दर्शयति-ये केचनामी-प्रत्यक्षाः स्थावस वनस्पतिकायिकाः प्राणिनो भवन्ति तद्यथा-'इकडा'दयो वनस्पतिविशेषाः सुगमार्थाः । तदिहेयमिकडा, ममानया प्रयोजनमित्येवममि[सं]धाय न ___ + “ सद्विरेकमुऽज्झित्वाऽऽत्मानं वा परित्यज्य घालवद्वाल" इति वृ० वृत्तौ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
छिनति, केवलं तत्पत्रयुष्पफलादिनिरपेक्षस्तच्छीलतयेत्येतत्सर्वत्रानुयोजनीयमिति । तथा न पुत्रपोषणाय, न पशुपोषणाय, नागारकार्याय, न श्रमणमाक्षणप्रवृत्तये, नापि शरीरस्य किश्चित्परित्राणं भविष्य नीति, केवलमेवमेवासौ वनस्पति हन्ता छेत्तेत्यादि यावअन्मान्तरानुगन्धिनो वैस्स्याभागी भवति । अयं वनस्पत्याश्रयोऽनर्थदण्डोऽमिहिता, साम्प्रतमन्याश्रितमाह
से जहा नामए केइ पुरिसे कच्छसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा | नमंसि वा गहणसि बागणविहुयलि वा इमलिदा माजिदुग्गति हा पवयंसि वा पवयविदुग्गंसि | वा तणाई ऊसविय २ सयमेव अगणिकायं निसिरति अण्णेहि अगणिकायं निसिरावेति अन्नं पि जाव समणुजाणति अणटादंडे, एवं खलु तस्स पुरिसस्स तप्पचियं सावर्जति आहिजति । दोश्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडबत्तिएत्ति आहिए [ सू० ३] ॥
ध्यारूपास यथा नाम कश्चित पुरुषो, निर्विवेकतया कच्छादिषु दशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्यन्तेषु 'वृणानि' काई
* "कच्छे नदीजळवेष्टिते वृक्षाविमति प्रदेशे. हवे-प्रतीते, उदके-जलाशयमाने, द्रविके-तृणादि द्रव्यसमुदाये, वलये-वृत्ताकार नधादिजलकुटिलगवियुकप्रदेशे, नूमे-अवतमसे गहने वृक्षवल्लीपमुदाये, गहनेऽपि दुर्ग-पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवल्लोसमुदाये, वनविदुर्गेनानाविधवृक्षसमूहे, एतेषु" इति हर्ष ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिकादीनि पौनःपुन्यैनोर्वाधास्यानि कृत्वाऽग्निकार्य निसृजति ' प्रक्षिपत्यन्येन वा निसर्जयति प्रक्षिपयत्यन्यं च निसृजन्तं
समनुजानीते । तदेवं योगत्रिकेण तस्य यत्किञ्चनकारिणस्तत्प्रत्यायक-दवदाननिमित्तं 'सावा कम' महापातकमारूपा. प्रतम् । एमन द्वितीयमनर्थदण्डममादानमाख्यातमिति बनीपमधुना व्याख्याति
अहावरे तच्छे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिज्जति । से जहा नामए केइ पुरिसे मम | वा ममि वा, अन्नं वा अन्निं वा, हिंसिसु वा हिंसति वा हिंसिस्सति वा, तं दंडं तसथावरेहि पाणेहि सयमेव निसिरति जाव अन्नपि समणुजाणति हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तिय सावर्जति
आहिजति । तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिते [ सू० ४] ॥ ____ व्याख्या- अहावरे' इति, अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्ड प्रत्ययिकमाख्यायते-म यथा नाम कश्चित् । 'पुरुष' पुरुषाकार वहन् , स्वतो मरणभीरुतया का मामयं घातयिष्यतीत्येवं मत्वा कंपवदेवकीसुतान् भावतो जपान, मदीयं वा पितरमन्यं वा 'मामक' ममीकारोपेतं परशुरामवत् कार्तवीर्य जपान, अन्य वा कश्चनायं सर्पसिंहादिव्यांपादयिष्यतीति मत्या सादिकं व्यापादयति, अन्यदीयस्य वा कस्यचिहिरण्यपथादेस्यमुपद्रवकारीति कृत्वा तत्र दण्डं निसजतीति । तदेवमयं मां महीपमन्यमन्यदीय वा हिंसिसवान् हिनस्ति हिसिष्यतीत्येवं सम्माविते असे स्थावरे वा 'तदण्डं ' प्राणध्य| परोपणलक्षणं स्वयमेव निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृजन्तं वाऽन्यं समनुजानीते, इत्येतसृतीयं दण्डसमादानं हिंसा
S
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
दण्ड प्रत्यायिकमाख्यातमिति । KM अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हा[अकस्मात् दंडवत्तिए[ति ] आहिज्जति । से जहा M १ नामए केइ पुरिसे कच्छसि वा जाव वणविदुग्गसि वा मियवित्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे
| मियवहाए गंता, एए मिएत्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसु आयामेत्ता गं णिसिरेज्जा, 41 से मियं वहिस्सामीति कह तित्तिरं वा वहगंवा चडगं चा ]लावगं वा कवोतगं वा कविं वा कर्विजलं
वा विंधेत्ता भवति । इह खलु से अन्नस्स अट्टाए अन्नं फुसति अकम्हादंडे । ___व्याख्या-अथाऽपरं चतुर्थ दण्डसमादानमकस्माइण्डप्रत्ययिकमाख्यायते-तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषो लुम्घकादिकः कच्छे वा यावदनदुर्गे वा गत्वा ' मृगै 'राटव्यपशुभिर्वा वृत्तिर्यस्य स मृगरिका, स चैवम्भूतस्तथा मृगसङ्कल्पः, भृगप्रणिधान:-क मृगान् द्रक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी सन् मृगवधार्थ कच्छादिषु गन्ता भवति, तत्र च गतः सन् दृष्ट्वा [मृगानेते] मृगा इत्येवं कृत्वा तेषां मध्ये अन्यतरस्य मृगस्य वधार्थ 'इपुं' शरं आयामेन समाकृष्य मृगदिश्य निसृजति । स चैवे
• "इह चाकस्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्याबालगोपालानादिना संस्कृत एवोचार्यत इति सदिहापि तथाभूत एचोपरित इति"० वृची।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
सङ्कल्पो भवति यथाऽहं मृगं हनिष्यामि इतीर्षु निक्षिप्तवान् स तेन इषुणा तिभिरादिपचिविशेषं व्यापादयिता भवति, तदेवं वचसावन्यस्यार्थाय निक्षिप्तो दण्डो यदन्यं ' स्पृशति ' घातयति सोऽकस्माद्दण्ड इत्युच्यते । अधुना वनस्पतिमुद्दिश्या
करमाइण्डमाह
से जहा नामए केइ पुरिसे सालीणि वा वहीणि वा कोहवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा लाणि वा निति[णिलि ]जमाणे अन्नयरस्स तणस्स बढ़ाए सत्थं निसिरेजा, से सामगं तणगं मुकुंद कुमुदु]गं वीहीऊसियं कलेसुयं तणं छिंदिस्ता मित्ति कट्टु सालिं वा वीहिं वा कोद्दवं वा कंगुं वा परगं वा रालगं वा छिंदित्ता भवति, इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसति अकमहादण्डे, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावजंति आहिज्जति । चउत्थे दंडसमादाणे अकमहादंडवत्तियत्ति आहिते ॥ [सू०५]
व्याख्या - स यथा नाम कश्चित्पुरुषः कृषीवलादिः शाक्यादेर्धान्यजातस्य श्यामादिकं तृणजातमपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणः समन्यतरस्य तृणजातस्यापनयनाथै श्रखं दात्रादिकं निसृजेत् स च श्यामादिकं तृणं छेत्स्यामीति कृत्वा अकस्माच्छालि वायावद्वाकं वा छिन्द्यात्, रक्षणीयस्यैव धान्यस्य अकस्माच्छेता मत्रतीत्येवमन्यस्यार्थाय अन्यकृतेऽन्यं वा 'स्पृशति '
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
छिनत्ति, तदेवं खलु तत्कर्त्तुस्तत्प्रत्ययिक-मकस्माद्दण्डनिमिथं ' सावद्यं पापमाधीयते सम्बध्यते तच्चतुर्थं दण्डसमादानमकस्माद्दण्डप्रत्ययिक माख्यातमिति ।
अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिट्टीविप्परियासिया दंडवत्तिए आहिज्जति । से जहा नाम केह पुरिसे माईहिंवा पीईहिं वा भाईहिं वा भइणीहिं वा भज्जाहिं वा पुतेहिं वा धूयाहिं वा सुहाहिं सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्तमि [ति]व मन्नमाणे मिते हयपुत्रे भवति दिट्ठीविप्परिया सियादडे |
व्याख्या -- अथाऽनन्तरं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यास दण्डप्रत्ययिकमाख्यायते तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषश्वारमटादिको मातृपितृभ्रातृमगिनी म ( र्यापुत्रपुत्रिकास्नुपादिभिः सार्द्ध [सं] वसंस्तिष्ठन् ज्ञातिपालनकृते मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रो ऽयमित्येवं मन्यमानो ' हन्यात् ' व्यापादयेत् तेन च दृष्टिविपर्यासवता मित्रमेव हतपूर्वं भवतीत्यतो दृष्टिविपर्यासदण्डोऽयम् । पुनरन्यथा तमेवाह
से जहा नामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा नगरघायंसि वा खेड० कब्बड० मबघायांस वा दो मुहघायंसि वा पट्टणघायांस वा X आसम० सन्निवेस० निगम० रायहाणीघार्यसि वा अतेणं * " संबाहघायंसि वा ” इति हर्ष० । प्रामादिलक्षणं चेदं 'ग्रामो वृश्वा इतः स्यानगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासियो मं, खेटं
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हयपुत्वे भवति दिट्रीविष्परियासियादंडे, एवं खल तस्स तप्पत्तियं IN सावजंति आहिज्जति। पंचमे दंडसमादाणे दिट्टीविप्परियासियादंडवत्तिएत्ति आहिए। [सू०६॥ _व्याख्वा-स यथा नाम कवित्पुरुषः पुरुषाकारबहन् प्राममायादि विनय प्रानला दृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोऽयमित्येवं मन्यमानो व्यापादयेत् , तदेवं तेन भ्रान्तमनसा विभ्रमाकुलेनाचौर एव इतपूर्वो भवति, सोऽयं दृष्टिविपर्यासदण्डस्तदेवं खलु ' तस्य' दृष्टिविपर्यासवतस्तत्प्रत्यायिकं सावा कर्माधीयते । तदेवं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासप्रत्यायिकमाख्यायते*।
अहावरे छटे मोसवत्तिए किरियाठाणे + आहिज्जति-से जहा नामए केह पुरिसे आयह वा नाइहेउं वा अगारहेड वा परिवारहेडं वा सयमेव मुसं वयति अनेणं मुसं वयावेति मुसं वयंत नयद्रिवेष्टं परिघृतममितः कर्मटं पर्वतेन । ग्रामो युक्तं मरम्बद[१]लितदशशतः पचन रत्नयोनि, द्रोणाख्यं सिंधुवेलाबलयितमथ सम्बाधन चाद्रिश्रृङ्गः ॥१॥' इति । आश्रमस्तापसस्थानं, सनिवेश:-सार्थकटकादिवासः, निगमो-बहुवणिग्वासः । राजधानी-राजकुळस्थानम् ।" इति हर्ष। ख्यात इति' प्र.।' ख्यातमिति'. वृ. ।।
+ मुद्रितासु सवृत्तिकप्रतिषु 'छड़े किरियाणे मोसारसिएत्ति' इत्येवमस्ति, तत्समीचीनं प्रतिभाति, दीपिकाकारेणाप्यर्थ | एसरकमेणैव कुतत्वात् । किञ्च-किस्यिहाणे मोसाबलिए' इत्यत्र 'किरियाठाणे मोमबत्तिए' इति सम्यगामाप्ति ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्नं समणुजाणाति, एवं खलु तस्स तप्पतियं सावज्जति आहिजति, छ? किरियाठाणे मोसव- । त्तिए[त्ति ] आहिते [ सू०७] ॥ ____ व्याख्या-अथाऽपरं षष्ठं क्रियास्थानं मृपावादप्रत्ययिकमाख्यायते, तत्र पूर्वोक्तानां पश्चानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रियास्थानत्वे प्रायशः परोपघातो मवतीति कृत्वा दण्डसमादानसंज्ञा कता, षष्ठादिषु च चाहुल्येन परव्यापादनं न | मवतीति कृत्वा क्रियास्थानमित्येषा संज्ञोच्यते । स यथा नाम कश्चित् पुरुषः स्वपक्षावेशादागृही आत्मनिमित्तं पावत्परिवारनिमिचं वा सद्भूतार्थनिन्हवरूपमसभृतोद्धावनरूपं वा स्वयमेव मृषावादं वदति, तद्यथा-नाई मदीयो वा कश्चिचौरा, स च |
तथा परमचौरं चौरमिति वदति, तथाऽन्येन मृषावाद भाण यति, तथाऽन्यांश्च मृपावाद । वदतः समनुजानीते । तदेवं खलु तस्य योगत्रिककरणत्रिकेण मृषावादं वदतस्तत्प्रत्ययिकं सावध कर्माधीयते-सम्बध्यते । तदेतत्वष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमारूयातमिति ।
अहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिनादाणवत्तिए[त्ति] आहिज्जति-से जहा नामए केइ पुरिसे । आयहेडं वा जाव परिवारहेडं वा सयमव अदिन्नं आदियति अन्नेण वि अदिन्नं आदियावेति M अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजति । सत्तमे M किरियाठाणे आदिन्नादाणवत्तिएत्ति अहिते [ सू०८]॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-अथापरं सप्तमं क्रियास्थानमदचादानप्रत्यायिकमारूयायते, एतदपि प्राग्वज्जेयम् । म यथा नाम कश्चित्पुरुष । आत्मनिमित्तं यावत्परिवारनिमिर्च [स्वयमेय] परद्रव्यमदत्वमेव गृह्णीयात् अपरं च ग्राइयेद गृहन्तमध्यपरं समनुजानीयादित्येवं तस्यादसादानप्रत्ययिकं कर्म मध्यते । सप्तमं क्रियास्थानमाख्यातमिति ।
शायरे अट्रले किरिया अझापयत्तिएत्ति आहिज्जति। से जहा नामए केइ पुरिसेणस्थि णं केति किंचि विसंवादेति, सयमेव होणे दीणे दुढे दुम्मणे ओयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसं. पविढे करतलपल्हत्थमुहे अहज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाइ, तस्स णं अज्झस्थिया असंस| इया चत्तारि ठाणा एवमाहिजति, तंजहा-कोहे माणे माया लोहे, अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जति, अट्ठमे किरियाठाणे अज्झथिएत्ति आहिए [सू०९]॥ ___ व्याख्या-अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिकमित्यन्तःकरणोद्भवमाख्यायते, मानसिकमित्यर्थः। तद्यथा नाम कश्चिद पुरुषश्विनोत्प्रेक्षाप्रधानस्तस्य च नास्ति कश्चिद्विसंवादयिता-न तस्य कश्चिद्विसंवादेन परिभवेन वाऽसद्धृतोद्भावनेन वा चित्तःस्त्रभुत्पादयति, तथाऽप्यसौ स्वयमेव वर्णापशदवद्धीनो दुर्गतबहीनो दृश्चित्ततया दुष्टो दुर्मनास्तथोपहतोऽस्वस्थतया
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
म मनासकल्पो यस्य स तथा चिन्ताशोकसागर(सं)प्रविष्टः। तथा करतलपर्यस्तमुखः, तथाऽऽध्यानोपगतो-निर्विवेकतया ।
धर्मध्यानादरवर्ती [भूमिगतदृष्टिः] निर्निमित्तमेव द्वन्द्वोपहतवद्ध्यायति, तस्यैवं चिन्ताशोकसागरावमाढस्य सत ' आध्या
मिकानि' अन्तःकरणोद्भवानि मनासंश्रितान्यशंसयितानि वा-निःशमयानि चत्वारि वक्ष्यमाणानि स्थानानि भवन्ति, || तानि चवमाख्यायन्ते, वद्यथा-क्रोधस्थान मानस्थानं मायास्थानं लोमस्थानमिति । ते च चत्वारोऽपि कषाया आध्यात्मि
का, एमिरेप सद्भिर्दुष्टं मानो पति, तो नसा दुर्मनसोधमानपालोभरत एवमेवोपहतमनःसङ्कल्पस्य 'तत्प्रत्ययिक' | अध्यात्मनिमित्तं सावधं कर्म आधीयते-सम्बयते, तदेवमष्टममेतत् क्रियास्थानमाध्यात्मिकायमाख्यातमिति ।
अहावरे नवमे किरियाठाणे माणवत्तिए[ति] आहिजति। से जहा नामए केइ पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण वा रूवमएण वा तवमएण वा सुयमएण वा लाभमएण वा ईसरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मदट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेति निंदति
खिंसति गरहति परिभवति अवमन्नति, इसरिए अयं, अहंमंसि पुण विसिटजाइकुलबलाइV. गुणोववेए, एवमप्पाणं समुक्कसे। ___व्याख्या-अथापरं नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमाख्यायते । स यथा नाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपत्तपःश्रुतलाभैश्वर्य प्रशामदास्थैरष्टभिर्मदस्थानैरन्यतरेण वा मत्तः परमवमबुद्धया हीलयति तथा निन्दति
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
F2
IN जुगुप्सते गर्हति परिभवति, एतानि कार्थिकानि । यया परिमवति तथा दर्शयति-'इतरोऽयं' जघन्यो हीनजातिकस्तथा
मता कुलबलरूपादिमिरमपभ्रष्टः सर्वजनावगीतोxsयाति, अहं भूनविशिधातिलालादिगुणोपेता, एवमात्मानं सावर्षयेदिति+ । साम्प्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह
देहा चुए कम्मवितिए अवसे पयाइ, तं जहा-गब्माओ गभं जम्माओ जम्मं माराओ मारं नरगाओ नरगं, चंडे थद्धे चवले माणी आवि भवति, एवं खल्ल तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहि. ज्जति । नवमे किरियाठाणे माणवत्तिए[त्ति ] आहिते [ सू० १०] ॥ ___ व्याख्या-देहा चुए'त्ति, तदेवं जात्यादिमदोन्मता समिव लोके गर्हितो भवति, *जातिमदः कस्यचित्र कुल. मदोऽपरस्य कुलमदोन जातिमदः, अपरस्योभयं, अपरस्यानुमयमिति, एवं [पदद्वयेन चत्वारो भङ्गाः] पदक्रयेणाष्टो, चतुमि : षोडशेत्यादि याववष्टभिः पदैः षट्पञ्चाशदधिकं तद्वयमिति, सर्वत्र मदामावरूपश्वरमभङ्गः शुद्ध इति । परलोकेऽपि च मानी दुःखभाग्भवतीत्यनेन प्रदश्यते । स्वायुषः क्षये देहाच्युतो भवान्तरं गच्छन् शुमाशुभकर्मद्वितीया कर्मपरायत्तत्वादश:
x निन्दनीयः । + वक्ष्यमाणः । तदेव ' मित्यादितः शुद्ध' इति पर्यन्तः पाठोऽत्रत्य आभाति । ' परलोकेऽपी 'ति वाक्य चमवती 'यस्थाने। इति टिप्पणं आगमोक्ष्यसमितिमद्रितास सत्तिकप्रतिषु । "अत्रच जात्यादिपद्वयादिसंयोगा प्रष्टव्यात, ते बैकं भवन्ति ।" इति वृत्तौ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
परतन्त्रः प्रयाति । ठ[च]थाहि (१) गर्भाद्रमं पश्चेन्द्रियापेक्षं, तथा गर्भादगर्भ विकलेन्द्रियापेश्चं-विकले[न्द्रिये ]स्पद्यमानः पुनरर्मा, एकदा में रच वरकरपमर्म दुःखापया अभिहितम् । उत्पद्यमानदुःखापेक्षया स्त्रिदमभिधीयते - जन्मनः एक्रस्मादपरजन्मान्तरं व्रजति, मरणान्मरणान्तरं व्रजति । नरकदेश्यात् श्वपाकादिवासात् मादिकं नरकान्तरं व्रजति, यदिवा नरकात्सीमन्तादिकादुद्र सिंहमत्स्वादात्पद्य पुनरपि तीव्रतरं नरकान्तरं व्रजति । तदेवं नटवङ्गभूमी संसार
वाले स्त्रीपुंनपुंसकादीनि बहुत्यवस्थान्तराण्यनुभवति । तदेवं मानी परपरिभवे मति ' चण्डो' रौद्रो भत्रति परस्यापकरोति, तदभावे ह्यास्मानं व्यापादयति । तथा स्वब्ववपलो यत्किञ्चनकारी, मानी सन् सर्वोऽप्येतदवस्थो भवति । तदेवं मानप्रत्ययिकं सावधं कर्म बद्धयते । नवमं [ ए ]तक्रियास्थानमाख्यातमिति ।
अहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिजति । से जहा नामए केइ पुरिसे माहिं वा पिईहिं वा भाईहिं वा भइणीहिं वा भज्जाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुहाहिं वा सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्नयरेसिं वा [ अन्नयरंसि ] अद्दालडुगांस अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं निवन्तेति । तं जहा - सीओदगवियसि वा कार्य उच्छोलित्ता भवति, उसिणोदगवियडेण वा कार्य उस्सिचित्ता भवति, अगणिकारणं वा कार्य उबडहित्ता भवइ, जोतेण वा वेत्तेण वा चेण वा
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
तयाइ वा कसेण वा छियाए वालयाए वा पासाई उहालेत्ता भवइ, डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा NI लेलूण वा कवालेण वा कार्य आउहित्ता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाते संवसमाणे दुम्मणा भवंति, 7 एवरमाणे सुमणा भलि, नाहगादे पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरक्खडे अहिए इमंसि । लोगसि अहिए परंसि लोगसि संजलणे कोहणे पिद्विमासियावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं ।। सावज्जति आहिज्जति, दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिते ॥ सू० । ११ ॥ ___ व्याख्या-अथापरं दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषप्रत्ययिकमारूयायते-तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः प्रमुकल्पो मातापिसात्स्वजनादिमिः सार्धं परिवसस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेनाऽनाभोगतया यथाकथञ्चिलघुतरेऽप्यपराधे वाचिके दुर्वचनादिके तथा काषिके हस्तपादादिसट्टनरूपे कृते सति ' स्वयमेव ' आत्मना क्रोधामातो गुरुतरं दण्डं दुःखोत्पादक 'निवर्तयति' करोति । तथा-शीतोदके सस्य' अपराधकर्तुः कायमधो बोलयिता भवति, तथोष्णोदकविकटेन कार्य | सिञ्चयित्ता भवति, तत्र विकटग्रहणादुष्णतैलेन काँजिकादिना वा कायापतापयिता भवति, तथाऽमिकायेनोलमुकेन वायसा | |वा काय उप[दाहयिता तापयिता वा (१) मवति, तथा जो[ यो ]त्रेण वा, वेत्रेण था, [ नेत्रेण वा] 'स्वचा वा'
सनाविकमा लतया वाऽन्यतमेन मा दवरकेण ताडनाता 'तस्य' अस्मापराधकर्तुः शरीरपाणि 'उद्दालयितुं ' चर्माणि । | बम्पयितुं (प्रस्तुतो) भवति, तथा दण्डादिना कायमुपताडयिता भवति, तदेवमल्पापराधिन्यपि महाक्रोधदण्डवति तथा
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकारे पुरुषजाते एकत्र वसति सति तत्सहवासिनो मातापित्रादयो दुर्मनसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति तस्मिँश देशान्तरं गच्छति तत्सहवासिनः सुमनसो मवन्ति । तथाप्रकारच पुरुषजातोऽल्पेऽप्यपराधे महान्तं दण्डं कल्पयतीति, तदेव दर्शयतिदण्डपार्थी स्वल्पेऽप्यपराधे कुप्यति दण्डं व पातयति, दण्डेन गुरुको भत्रति तथा दण्डपुरस्कृतः - सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः । 'स्लो' मिति अहितः प्राणिनामहितदण्डापादनात् तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसाबद्दितः, येनकेनचिनिमितेन क्षणे क्षणे सज्ज्वलतीति सज्ज्वलनः स चात्यन्तकोधनो बधबन्धविच्छेदनादिषु शीघ्रमेव क्रियासु प्रवर्त्तते, तदभावेऽप्युत्कटद्वेषतया मर्मोधनतः पृष्ठिमासमपि खादेतदसौ ब्रुयाद्येनासौ परः सज्ज्वलति, तदेवं तस्य महादण्डप्रवर्त्तयितुस्तद्दण्डप्रत्ययिकं सावधं कर्म बध्यते, तदेतदशमं क्रियास्थानं मित्रद्रोहप्रत्ययिकमाख्यातमिति ।
9
अहावरे एक्कारसमे किरियाठाणे मायावत्तिपत्ति आहिज्जति, जे इमे भवंति गूढायारा तमोकासिया उल्लूगपत्तलहुया पवयगुरुआ ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ विप्पउंजंति, अन्ना संता अप्पाणं अन्ना मन्नंति, अन्नं पुट्ठा + अन्नं वागारंति, अन्नं आइक्खियां अनं
X "अन्ये पुनरष्ट क्रियास्थानमात्मदोष प्रत्ययिकमाचक्षते, नत्रमं तु परदोषप्रत्ययिकं, दशमं पुनः प्राणवृत्तिकमिति " हर्षकुलः । + यद्यपि दीपिका प्रसिषु सर्वास्वपि 'अनं पुण कृति अनं० ' इत्येवंरूपः पाठोऽस्ति मूले, परं सद्वृत्तिकमुद्रित प्रतिषु 'अनं पुट्ठा अनं० प्रत्येवम्भूतोऽस्ति, अर्थो दीपिकायामप्येवंविध पत्र विदित इत्ययमेव मूले निवेशितः ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आइखति ।
,
व्याख्या - अथापरं एकादशं [ मायाप्रत्यधिकं ] किया स्थानमाख्यायते ये केचनामी मवन्ति पुरुषाः गूढाचाराः गलग्रन्थिदादयस्ते च नानाविधैरुपायैर्विश्रम्भमुत्पाद्य पश्चादवकुर्वन्ति, प्रद्योतादेरभयकुमारादिवत् ते व मायाशीलस्वेनाप्रकाशचारिणः । तमः काषिणः- पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्ति ते च स्वचेष्टयैव' उलूकपत्र त्रह्मषवः कौशिकप[च]सोऽपि पर्वतत्रद्गुरुमात्मानं मन्यन्ते यदिवाऽकार्यप्रवृतेः पर्वतवन स्तम्भयितुं शक्यन्ते, ते चार्यदेशोत्पन्नाः सन्तः पूर्वप्राथा आत्मप्रच्छादनार्थ म परमयोत्पादनार्थं वा अनार्य भाषाः प्रयुजन्ते, पथ्यामोदार्थं स्वमतिपरिकल्पित माषाभिरपराविदिताभिर्भाषन्तं तथाऽन्यथा वा व्यवस्थितमात्मानमन्यथा- साध्वाकारेण मन्यन्ते व्यवस्थापयन्ति च तथाऽन्यत्पृष्टा मातृस्थानतोऽन्यदाचक्षते यथाऽऽग्रान् पृष्टाः कोविदारकान् + आचक्षते, वादकाले वा कश्चिन्यायवादितया व्याकरणे [पृष्टे] प्रवीण [ प्रचणं ] स्व (१)र्क मार्गमवतारयति तथाऽन्यस्मिंश्चार्थे कथयितव्येऽन्यमेवार्थमाचक्षते । तेषां च सर्वार्थविसंवादिनां कपटप्रपञ्चचतुराणां विपाकोद्वावनायान्तं दर्शयितुमाह
से जहा नामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले, तं सलं नो सयं णीहरति नो अनेणं वीइरावे नो पडिविद्धंसेति, एवमेव निपहवेह, अविउद्यमाणे अंतो अंतो झि[ रि]याति, एवमेव माई मायं को कोविदाशे -युगपत्र: ' इति हेमवचनांइनस्पतिः कचनार 'इति लोके ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
- आलोएति नोपडिकमातिनो निदइनो गरिहा नो विउति नो विसोहेइ नो अकरणयाए अब्भुदेइ
नो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जति, माई अस्तिं लोए पञ्चायाति माई परंस लोए
[पुणो पुणो] पञ्चायाति । निंदइ गरिहइ पसंसइ णिच्चरति, णो नियट्टति णिसिरियं दंडं छाएति "IN] मायी असमाहडसुहलेस्से आवि भवति, एवं खल्लु तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिजति । एक्कार
समे किरियाठाणे मायावत्तिएति आहिए ॥ सूत्र १२ ॥
व्याख्या-' से जहे 'त्यादि, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः समामादपक्रान्तोऽन्ता समस्या, शल्य घट्वनवेदनामीरु. क्या तच्छश्यं न स्वतो निहरति-अपनयति नोडरति, नाप्यन्येनोदास्यति नापि तन्छल्यं वैद्योपदेशेनौषधोपचारयोगादिमिरु
पायैः प्रध्वंसयति, अन्येन केनचित्पृष्ठोऽपृष्ठो का तच्छल्यं ' एवमेव निष्प्रयोजन मेत्र निनुते-अपलपति, तेन च शस्येनाIN सायन्तर्सिना 'अविउमाणे 'त्ति पीडयमानः 'अन्तो अन्तो' मध्ये मध्ये पीयमानोऽपिरीयते ' जति, तस्कृता
वेदनामधिसहमाना क्रियासु प्रवर्तते। साम्प्रतं दार्शन्तिकमाह-' एवमेवे 'त्यादि, यथाऽसौ मन्नरयो दुःख माग् मवत्येव मेवासौ 'मायी' मायाशल्यवान् यत्कृतमकार्य तन्मायया निगृहयन्मायां कृत्वा न तां मायामन्यस्मै 'आलोचयति' कथयति नापि तस्मात् स्थानात् प्रतिकामति-न संतो निवर्वते, नाप्यात्मसाक्षिकं तन्मायाशल्यं निन्दति, तबथाविमापदहमेवम्भूतमकार्य कर्मोदयात्कृतवान् । नापि परमाक्षिकं 'गईति' आलोचयति नापि च जुगुप्सते तथा
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
|'नो विउडई इति नापि सन्माषाशस्य विनोटपति, अपुनःकरणतया न निवर्तयतीत्यर्थः। +[ नापि तन्मापाऽऽदिकमकार्य । सेवित्वाशलोचनाऽर्हापाऽऽत्मामं निवेद्य तबकार्याकरणतयाऽम्युचिष्ठते, प्रायश्चिसं प्रतिपद्यापि नोयुक्तविहारी भवतीत्यर्थः । तथा नापि गुर्चादिमिरभिधीयमानोऽपि यथाऽईमकार्य निर्वाहणयोग्यं प्रायचित्र-शोधयतीति प्रायश्चिनं तपाकर्म विशिष्ट से चान्द्रायणाद्यास्मकं 'प्रतिपद्यते' अभ्युपगच्छति । ] नो यथायोग्य प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, तदेवं मायया सत्कार्यप्रच्छाद. कोऽस्मिन्नेष लोके मायावीत्येवं सर्वकार्येष्वेवाविश्रम्भणत्वेन 'प्रत्यायाति' प्रख्यानि शानि. तथाभूतश्च सर्वस्याविश्वा[स्यो]. सो (१) भवति । तथाऽतिमायाविवादसौ परलोके सर्वाधमेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषु पौनःपुन्येन प्रत्यायातिभूयोभूपस्तेष्वेवारघदृषटीन्यायेन प्रत्यागच्छति । तथा नानाविधैः अपश्र्वञ्चयित्वा परं ' निन्दति जुगुप्सते, तयथा- |
अयमझो मूर्खः पशुकल्पो, नानेन किमपि प्रयोजनमित्येवं परं निन्दति आत्मानं प्रशंसयति, तथाऽऽत्मप्रशंसया | | तुम्पति, एवं चासो लब्धप्रपरोऽधिकं तथाविधानुष्ठायी भवति । निश्चरति-तस्मान्मातृस्थानान्न निवर्तते । तथाऽसौ मायपा 11दण्डं' प्राण्घुपमर्दकारिणं 'निसज्य' पातयित्वा पश्चाच्छादयति-अपलपति अन्यस्य[ वा ] उपरि प्रक्षिपति । स च मायावो a सर्वदा वञ्चनपरायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेऽप्येवम्भूतो भवति- असमाहृता ' अनङ्गीकृता शोभना लेण्या येन स तथा, |
आध्यानोपड़ततया अशोभनलेश्य इत्यर्थः । तदवमपगतधम्मध्यानोऽपमाहितोऽशुद्धलेश्यश्चापि भवति । तदेवं तस्य मायाशस्पप्रत्यषिकं सावधं कर्माधीयते, तदेतदेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्यायिक व्याख्यातम् ।
+[ ] नास्त्येतविहान्तर्गतपाठः प्रत्यन्तरेषु ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
अहावरे बारसमे किरियाठाणे लोभवत्तिएचि आहिजति-जे इमे भवंति, [तं जहा-] आरनिया || | आवसहिया गामंतिया कण्हुई राहस्सिया नो बहसंजया नो बहुपडिविरया सबपाणभूयजीवIN सत्तेहि, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं वि[पाउंजति-अहंन तबो अन्ने हंतवा, अहं न अजायबो अन्ने
अजावेयवा, अहं न परिघेत्तयो अन्ने परिघेत्तवा, अहं न परितावेयवो अन्ने परितावेयहा, अहं न उद्दवेयवो अन्ने उद्दवेयबा, एवमिव ते इस्थिकामोह मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहिया अज्झोववन्ना | आव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाई अप्पयरो वा भुजयरो वा भुंजित्तु [ भोग]भोगाई कालमासे | कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति । ततो विप्पमुच्चमाणा 9 भुजो भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जातिमूयत्ताए पञ्चायंति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति
आहिज्जति, दुवालसमे किरियाठाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए । इच्चेयाई दुवालसकिरियाठाणाई दविएणं समणेणं वा माहणेणं वा सम्म सुपरिजाणियवाणि भवंति ॥ [ सू. १३ ] ॥
न्याया-अथ द्वादशं क्रियास्थानं लोमप्रत्यरिकमाख्यायते, [सपथा]-य इमे वक्ष्यमाणा-अरण्ये वसन्त्यारण्यकास्ते
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
च कन्दमूलफलाहाराः सन्तः केचन वृक्षमूले वसन्ति केचन ' आवसधेषु ' शूद्र ( पूड ) वा [ उटजा] कारेषु गृहेषु तथाऽपरे ग्रामादिकमुपजीवन्तो ग्रामसमीपे वसन्तीति ग्रामान्तिकाः, कचि( कदाचित्कार्ये मण्डल प्रवेशादिके रहस्यं येषां ते राहसिकास्ते च' न बहुसंयताः 'न सर्वसाक्यानुष्ठानेभ्यो विरता, एतदुक्कं भवति-न बाहुल्येन प्रसेषु दण्डसमारम्भं विदधति, एकेन्द्रियोपजीविन स्व विगानेन तापमादयो भवन्ति, तथा 'न बहुविस्ता न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविश्मणादिव्रतेषु 'वर्त्तन्ते, किन्तु द्रव्यतः कतिपयत्रतवर्त्तिनो, न भावतो, तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनस्याभावादित्यभिप्रायः । इत्येतदेवविर्भावरिलाइ लक्षणे खादि, वैरण्यकादयः सर्वप्राणभूतजीव सच्चैम्प' आत्मना ' स्वतोऽविरता:- तदुपमर्द का दा रम्भादविरता इत्यर्थः । ते पाषण्डिका आत्मना बहूनि स ( त्य ) त्यामृषाभूतानि वाक्यानि ' एवं ' वक्ष्यमाणनीत्या विशेषेण प्रयुञ्जन्ति, यदिवा सत्यान्यपि तानि प्राण्युपमर्दकत्वेन मृषाभूतानि स(स्य)स्यामृपाणि, एवं ते प्रयुञ्जन्तीति दर्शयति, तद्यथाअहं ब्राह्मणस्वाम हन्तव्योऽन्ये तु शूद्रत्वाद्धन्तव्याः तथाहि तद्वाक्यं -' शूद्रं व्यापाद्य प्राणायामं +जपेत् किञ्चिद्वा दात्, तथा 'क्षुद्रसपानामनस्थिकानां शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं भोजये' दित्यादि, अपरश्चाहं वर्णोचमपवास आज्ञापतिभ्योऽन्ये तु मत्तोऽत्रमाः [ धमाः समाज्ञापयितव्याः, तथा नाहं परितापयितव्यः [ अन्ये तु परितापयितव्याः ], तथा वेतनादिना कर्मकरणाय न ग्राह्यः अन्ये तु शूद्रा प्राझा x इति । किम्बहुनो केन १ नाहमुपद्रावथितष्यो-न जातियोsन्येत्व ( तू ) पद्रावयितव्या इति । तदेवं परपीडोपदेशनतोऽतिमूढत याऽसम्बद्धप्रलापिनामज्ञानाताना
+ श्वासप्रश्वास रोचनम् । X मूले ग्रहणसूत्रानन्वरं परितापसूत्रमस्ति ।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
areeratri fortनां न प्राणातिपातविरतिरूपं व्रतमस्ति तथा मृषावादादतादानविरमणा मावोऽयायोज्यः अधुना वनादिभवाभ्यासाद्दुस्त्यजत्वेन प्राधान्यात्सूत्रेणैवाब्रह्माधिकृत्याऽऽह-' एवामेवे 'त्यादि, ' एवमेव ' पूर्वोक्तेनैव कारणेनातिमूढतया परमार्थम जानानास्ते तीर्थिकाः स्त्रीषु कामेषु च शब्दादिषु मूर्च्छिता गृद्धा ग्रथिता अभ्युपपन्नाः यावद्वर्षाणि चतुष्पश्च
कान, अयं च मध्यमः कालो गृहीतः, प्रायस्तीर्थिका अतिक्रान्तवयस एवं प्रव्रजन्ति, तत्र च ते त्यत्वाऽपि गृहवासं वा भोग भोगानिति ते च किल वयं प्रब्रजिता इति वदन्तोऽपि न भोगेभ्यो निवृत्ताः, यतो मिध्यादृष्टितयाऽज्ञानान्ध त्वात्सम्यग्विरतिपरिणाम रहिताः, ते चैवम्भूतपरिणामाः स्वायुषः श्रये कालमासे कालं कृत्वा त्रिकृष्टतपसोऽपि सन्तोऽन्यतरेवासुरिकेषु किल्विषिकस्थानेषूत्पादयिता भवन्ति ते ह्यज्ञानतपसा मृता अपि किल्बिषकेषु स्थाने] पुत्पत्स्यन्ते तस्मादपि स्थानादायुषः क्षपाद्विप्रमुच्यमानाः किल्बिषम हुलास्तत्कर्मशेषेण एलमूक भावेनोत्पद्यन्ते, यथा एडमूकोऽव्यक्तवाग्भवति एवमसावण्य व्यक्त वाक्समुत्पद्यते, तथा 'समूयसाए 'चि तमस्त्वेन - अत्यन्तान्धतमसत्वेन जात्यान्वत यात्यन्ताज्ञानवृत्तया [षा ] तथा जातिमृकता-उपगतवाच हह प्रत्यागच्छन्तीति । तदेवम्भूतं खलु तीर्थिकानां सावधानुष्ठानादनिवृत्तानां तत्प्रत्यपिकं साधं कर्माधीयते, तदेतलोम प्रत्ययिकं द्वादशं क्रियास्थानमाख्यातमिति । इत्येवमर्थदण्डादीनि लोभप्रत्ययिक क्रिया • स्थानपर्यवसानानि द्वादश क्रियास्थानानि + ' द्रविण ' मुक्तिगमनयोग्येन श्रमणेन माहनेन एतानि 'सम्यग् ' यथात्रस्थितस्वरूपनिरूपणतो मिथ्यादर्शनाऽऽचितानि संसारकारणानीति कृत्वा ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहर्त्तव्यानि । + " कर्मप्रन्थि द्रावणाद्रवः- संयमः, स विद्यते यस्यासौ द्रविकस्तेन " इति हर्ष० ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहावरे तेरसमे किरियाठाणे इरियारहिएत्ति आहिज्जति-इह खलु अतत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंडमन्तनिवखेवणासमि. यस्स उच्चारपासवण खेल सिंघाणजलपारि द्वावणियासमियस्स, मणसमियरस वयसामेयस्स काय समियरस, मणगुत्तस्स वयगुत्तस्स कायगुत्तस्स, गुत्तिदियस्ल गुत्तबंभचारिस्स, आउतं गच्छ माणस्स आउतं चिद्रुमाणस्स आउतं निसियमाणस्ल आउतं तुयहमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउन्तं भासमाणस्स आउन्तं वत्थं पडिग्गदं कंबलं पायपुंछणं गिह्रमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपद्दनिवायमवि अस्थि वेमाता सुहुमा किरिया इरियावहिया नाम कज्जइ, सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा, बितिय समए वेड्या, तइयसमए निज्जिपणा, सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया निज्जिपणा, सेयकाले अकम्मए यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जांति आहिज्जति, तेरसमे किरियाठाणे इरियावहिपत्ति आहिज [ ए ]ति । *तेरसमे किरियाठाणे इरियावद्दिएत्ति
* एतचिन्हान्तर्गतो भूलपाठो नास्ति मुद्रितासु प्रवृचिकप्रतिषु हर्षकुलीयदीपिकास्वपि, परमेतदीपिका प्रतिषु सर्वास्वप्यस्ति,
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
[] * । से बेमि जे अतीया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता सवे ते एयाई चैत्र तेरस किरियाठाणाई भासिंया मार्सिति या मासिस्संति का, पन्नविंसु वा पन्नावित वापनविस्सति वा, एवं चैव तेरसमं किरियाठाणं सेर्विसु वा सेविंति वा सेविस्संति वा ॥ [सू० १४ ॥ ]
व्याख्या – अथापरं त्रयोदर्श क्रियास्थानमीर्यापथिकं x नामाख्यायते -इह खलु प्रबचने संयमे वा [ आत्मनो भाव ] आत्मत्वं, तदर्थमात्मत्वार्थं संहृतस्य अनगारस्य ईर्यादितमितस्य तथा त्रिगुप्तिगुप्तस्य गुप्तेन्द्रियस्य नवब्रह्मचर्यमुप्युपेतब्रह्मचारिणश्च सतः, तथोपयुक्तं गच्छतस्ततो निपीदतस्त्वग्वर्तनां कुर्व्वाणस्य तथोपयुक्तमेव व पतद्रहं कम्बलं पादप्रोष्छन कं वा गृहतो निक्षिपतो वा, यावचक्षुःपक्ष्मनिपातमप्युपयुक्तं कुर्वतः सवोऽत्यन्तस्याप्यस्ति विद्यते विविधा मात्रा [विमात्रा]] तदेवंविधा सूक्ष्माक्षिपक्ष्ममञ्चलनरूपादिकेर्यावधिका नाम क्रिया केवलिनाऽपि क्रियते, तथाहि सयोगी जीवो न शक्नोति क्षणमप्येकं निश्चल: स्थातुं, अग्निसाध्यमानोदकवर कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयमे वास्ते, केत्र लिनोऽपि किन्तु सर्वेषामपि क्रियास्थानानामुपसंहारसुत्रवदत्रापि ' हिज्जती 'व्यस्य स्थाने 'हिते ' वा ' आहिए ' इति भवितुमईसीत्युद्बोघनार्थ लेखकादिभिः पुनरुक्ततया लिखितो भविष्यतीति सम्भावनायां न किमप्ययुक्तस्वं प्रतिभासते । ४ “ ईरणं - ईर्ष्या, तस्यास्तया वा पन्था ईर्यापथः स विद्यते यस्य तदीर्यापधिकं एतच शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं तु इदं सर्वत्रोपयुक्तस्य निष्कषायस्य समीक्षितमनोवाक्काय क्रियस्य या [] क्रिया ] तया यत्कर्म तदीयपथिकं सैव वा क्रिया ईर्यापथिकम्" इति हर्ष० कुल: ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ष्मगात्रसञ्चारा मवन्ति, तया क्रियया यद् बध्यते कर्म तस्य च कर्मणो या अवस्थास्ताः क्रियाः, ता एव दर्शयितुमाह'सा पढनसमये'त्यादि, याऽसावकषायिणः क्रिया तया यद्वध्यते कर्म, तत्प्रथमसमय एच बद्धं स्पृष्टं चेति कृत्वा तक्रियैव बद्धस्पृष्टेत्युक्ता, तथा द्वितीयसमये वेदिता तृतीयसमये निर्जीणा, एतदुक्तं भवति-कर्म योगनिमित्तं बध्यते, तत् स्थितिश्च कषायायत्ता तदभावाच न तस्य सांपरायिकस्येय स्थितिः, किन्तु योगसद्भावाद्वध्यमानमेव 'स्पृष्टता ' संश्लेष याति, द्वितीयसमये त्वनुभूयते, तच्च प्रकृतितः सातावेदनीय स्थितितो द्विसमयस्थितिक अनुभावतः शुभानुभावमनुत्तरोपपातिकदेवसुखातिशायि प्रदेशतो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुव्ययं च । तदेवं सा ईपिथिका क्रिया प्रथमसमये बद्धस्पृष्टा द्वितीये समये उदिता वेदिता निर्जीर्णा भवति । 'सेयकाले प्रति आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षया अकर्मचापि च भवति । एवं तावद्वी. तरागस्येर्याप्रत्ययिकं कर्म आधीयते' सम्बध्यते । तदेतत्रयोदशमं क्रियास्थानं व्याख्यातं, ये पुनस्तेभ्योऽन्ये प्राणिनस्तेषां सापरायिको बन्धः । तेषां वीर्यापथवर्जाणि द्वादशक्रियास्थानानि, तेपु( १ ) वर्तन्ते, तेषां च नर्तिनामसुमतां मिथ्यावा. विरतिप्रमादकपाययोगनिमित्तः साम्परायिको बन्धो मवति, स खनेकप्रकारस्थितिकः, तद्रहितस्तु केवलयोगप्रत्यायको द्विसमयस्थितिरेवेर्याप्रत्यायिक इति स्थितम् । एतानि त्रयोदशक्रियास्थानानि न बर्द्धमानस्वामिनेवोक्तानि, किन्त्वन्यैरपीत्ये. तदर्शयितुमाह-' से बेमी'त्यादि, सोऽहं प्रवीमि-यत्प्रागुक्तं तनीमि इति, तद्यथा--येहन्तोऽ)तिकान्ताः, ये च वर्तमानाः, ये चागामिनि काले भविष्यन्ति, ते सर्वेऽप्येचं +प्ररूपितवन्तः प्ररूपयन्ति प्ररूपयिष्यन्ति, तथैतदेव त्रयोदशं क्रिया- |
+ अभाषिषुः भाषन्ते भाषिष्यन्ते च । तथा तत्स्वरूपतस्तद्विपाकतश्चेति वृत्तौ ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
| शान सविनयन्तः सेवन्ने सविध्यन्ते च, यथा हि-जम्बुद्वीपे सूर्यद्वयं तुल्यप्रकाशं भन[:]ति यथा वा सहशोपकरणाः प्रदीपास्तुत्यप्रकाशा भवन्य तीर्थकृतोऽपि निरावरणत्वात्कालत्रयवर्तिनोऽपि तुल्यादेशा भवन्ति ।
साम्प्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नाभिहितं पापस्थानं तद्विभणिपुराह--- __ अदुत्तरं च णं पुरिसविजयविभंगमाइक्खिस्सामि।
व्याख्या-अस्मात्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनादुचरं यदत्र न प्रतिपादितं तदनेन सूत्रसन्दर्भम प्रतिषाचते-पुरुषविजयIN विमङ्गो म च विमङ्गवदवधिविपर्ययवद्विभङ्गो ज्ञानविशेषस्तमेवम्भूतं ज्ञानक्रियाविशेषमाख्यास्यामि-प्रतिपादयिष्यामि । यादृशानां चासौ भवति तोल्लेशतः प्रतिपादयितुमाइ
इह खलु नाणापपणाणं नाणाछंदाणं नाणासीलाणं नाणादिट्ठीणं नाणारुईणं नाणारंभाणं नाणाज्झवसाणसंजुत्ताणं नाणाविहपावसुयज्झयणं एवं भवइ, तं जहा
व्याख्या--इह खलु जगति नानाप्रकारा बिचित्रक्षयोपशमात्प्रज्ञा येषां ते नानाप्रज्ञास्तेषां, तथा छन्दो-ऽभिप्राया,
* " पुरुषा । विचीयन्ते ' मृग्यन्ते-विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः पुरुषविजयो वा-केषाश्चिवल्पसत्वानां तेन ज्ञानलवेनाविधिप्रयुक्तनानानुबन्धिना विजयादिति "बृहद्वृतौ।"विजयो नाममार्गणा, विविधो विशिष्टो वा विभागो-विमङ्गः, सं पुरिसजातविभंग आइक्खिस्सामि" इति चूर्णौ ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
स नाना येषां ते तथा तेषां नानाश्शीलानां, तथा नानारूपा दृष्टि-रन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति, तथा नानारुचियेषां ते नानारुचयस्तेषां तथाहि आहारशयनासनाच्छादना भरण या नवानगीतवादिनादिषु मध्येऽन्यस्यान्याऽन्यस्थान्या रुचिर्भवति तेषां नानारुचीनामिति तथा नानारम्भाणामिति कृषिपाशुपाल्यविपणि शिल्पकसेवाद्यन्यतमारमेण तथा नानाऽध्यवसायसंयुतानां शुभाशुभाध्यवसायमाजामिति, इहलोकप्रतिवद्धानां परलोकनिष्पिपासानां विषयतृषिजानामिदं जानावि पाति । तद्यथा
भोमं उप्पायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरलक्खणं ( लक्खणं ) वंजणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिंढलक्खणं कुक्कडलक्खणं तित्तिरलक्खणं वट्टगलक्खणं लावगलक्खणं चक्कलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागणिक्खणं सुभगाकरं दुब्भगाकरं गभाकरं मोहणकरं आणि पागसासणि दबहोमं खत्त [ खत्तिय ] विज्जं चंदचरियं सूरचरियं सुक्कचरियं वहस्सतिचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचकं वायस परिमंडलं पंसुवुट्ठि केसवुद्धिं मंसवुट्ठि रुहिबुद्धिं वेतालिं अद्धवेतालि ओसोवर्णि तालुग्वाडा सोवा [ गं गिणिं साबरिं दामलिं कालिंगिं गोरिं गंधारि उवराणि उप्पयणि जंभिर्णि
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
r, थंभणि लेसणि आमयकरणिं विसल्लकरणिं पक्कमणिं अंतद्धाणि आयमणिं, एवमाइयाओ विजाओ
अन्नस्स हेडं पउंजंति पाणस्स हेउं पउंजंति वत्थस्स० लेणस्स० सयणस्स० अन्नेसिं वा विरूवरूवाणं |
कामभोगाणं हेउं पउंजंति, तेरिच्छं ते विजं सेवंति, अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे कालं -TN किच्चा, अन्नयराइं आसुरियाई, किब्बिसियाई ठाणाइं उबवत्तारो भवंति, +ते ततो विप्पमुच्चमाणा
भुजो एलमूयत्ताए तमअंधयाए पञ्चायति । (सू० १५)
व्याख्या-भूमौ भवं भौम-निर्घातभूकम्पादिक, उत्पात-कपिहसितादिकं, स्वप्न-गजसिंहषमादिकx अंग-अक्षि | बाहुस्फुरणादिकं, स्वरलक्षणं-काकस्वरगम्भीरस्वरादिकं, लक्षणं-यवपनादिकं, व्यञ्जनं-मषतिलकादि, तथा स्त्रीलक्षणं [रक्तकरचरणादिकं, एवं ]पुरुषलक्षणादीनां काकिणीरत्नपर्यन्तानां लक्षणप्रतिपादकशाखपरिज्ञान, तथा मन्त्रविशेषरूपा विद्या, तथाहि-सौभाग्यकरां, दुर्भाग्यकरां, तथा 'गर्भकगं गर्माधानविधायिनी, मोहकरी-व्यामोहोत्पादिका, आथर्वणी-सद्योऽनर्थकारिणी, तथा ' पाकशासनी' इन्द्रजालसंशिका, तथा नानाविधद्रव्यः कणवीरपुष्पादिभिःघृतमध्वादिमिहवनं, तथा क्षत्रि-14 याणां विद्या धनुर्वेदादिका( तां), तथा ज्योतिषमधीत्य व्यापास्यन्ति, 'चंदचरिय 'मित्यादि, चन्द्रचरित्रं वर्णसंस्थान
+ नास्ति एतौ शब्दो सवृत्तिकमुद्रितप्रतिषु I Xतथाऽऽन्तरीलं-अमोधादि ' इति बृहद्धृत्तौ ।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणप्रमानक्षत्रयोग हुग्रहणादिर्के, सूर्यचरित-सूर्यस्य मण्डलपरिमाणराशिपरिभोगोद्योतावकाशराहूपरागादिकं, तथा शुक्रचारो वीथीत्रपप्रचारादिकः, तथा बृहस्पतिचारः [ उदयास्तवर्षफलादि ] शुमाशुमफलप्रदः संवत्सरराशिपरिभोगादिकः, तोल्का दिग्दाहा पायादिषु मण्डलेषु मन्त्रानिक्षुत्पीडाविधायिनो भवन्ति, तथा मृगशृगालादीनां आरण्यकजीवानां रुतदर्शनग्राम नगरप्रवेशादौ (या) शुभाशुभचिन्ता तन्मृगचक्रं, तथा वायमादीनां पक्षीणां यत्र स्थानदिकस्वराश्रयणात् शुभाशुभफलं चिन्त्यते तद्वायमपरिमण्डलं, तथा पांशुकेश माँ मरुधिरादिवृष्टयोऽनिष्टफलदा यत्र शास्त्रे चिन्त्यते, तथा विद्या नानाप्रकाराः क्षुद्रकर्मकारिण्यस्तायेमाः - बैताली नाम विद्या नियताश्चरप्रतिवद्धा, सा च किल कतिभिर्जापैर्दण्डमुत्थापयति तथाऽर्द्धचैताली तमेवोपशमयति, तथाज्ञस्वापिनी + प्रमुखाः सर्वा अपि विद्या ज्ञातव्याः । तदेवमादिकाः प्रायादिकाथ गृह्यन्ते, एताश्च पाषण्डिका अविदितपरमार्था गृहस्था वा स्वयुध्या वा द्रव्यलिङ्गवारिणोऽनपानाद्यर्थ प्रयुञ्जन्ति, अन्येषां वा विरूपरूपाणां कामभोगानां कृतं प्रयुञ्जन्ति । सामान्येन विद्यासेवनमनर्थकारीति दर्शयितुमाह'तैरिव 'मित्यादि, तिरश्रीनां सद्नुष्ठानविघातिनीं ते अनार्या विप्रतिपन्ना विद्यां सेवन्ते यद्यपि ते भाषार्याः क्षेत्रार्यास्तथाप्यनार्य कर्मकारित्वादनार्यां एव द्रष्टव्याः । ते च स्वायुषःक्षये कालमासे कालं कृत्वा यदि कथश्चिदेवलोकगामिनो भवन्ति _daaisatory वषिकादिस्थाने पूत्पत्स्यन्ते, ततोऽपि विप्रमुक्ता यदि मनुष्येषूत्पद्यन्ते तत्र च तस्त्रकर्मशेषतया
•
+ " तालोदूघाटीनी श्वपाकी शाबरी द्राविडी कालिङ्गी गौरी गान्धारी अवपतनी उत्पतनी जम्भिनी स्तम्भिनी लेषिणी आमयकाणी विशल्यकारिणी अन्तर्द्धानकारिणी " इति इर्ष० ।.
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
एडसूकत्वेनाव्यक्तभाषिणस्तमस्त्वेनान्यतया मुकतया वा प्रत्यागच्छन्ति । ततोऽपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु नारकतिर्यगादिषूत्पद्यन्ते ।
साम्प्रतं गृहस्थानुद्दिश्या धर्मपक्षासेवनमुच्यते-
से एगइओ आयउं वा णायहेउं वा, सयणहेउं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा नाय[ गं वा ] ( ? ) सहवासियं वा णिस्साए ।
व्याख्या - स एकः कदाचित् कोऽपि गृहस्थः निस्त्रिंशः साम्प्रतापेक्षी अपगतपरलोकमयः कर्मपरतन्त्रः सुखमोगमिच्छन् आत्मनिमिचं यानि कर्कशानि कर्माणि कुरुते तान्याह - ' आयहेउं वा, ' आत्मनिमित्तं, तथा ज्ञातयः स्वजनास्तनिमितं, तथा ' अगारनिमित्तं ' गृहसंस्करणार्थं, सामान्येन वा कुटुम्बाऽर्थं [वा ] परिवारनिमित्तं दासीदास - कर्मकरादिकते, तथा ज्ञात एत्र ' ज्ञातकः परिचितस्तमुद्दिश्य 'सहवासिक' प्रातिवेश्मिकमुद्दिश्य, एतानि वक्ष्यमाणानि कुर्यादिति सम्बन्धः । तानि च दर्शयितुमाह
2
अदुवा अणुगामिए १, अदुवा उवचरए २, अदुवा पाडिपहिए ३, अदुवा संधिच्छेद ४, अदुवा गठिच्छेद ५, अदुवा उरबिभए ६, अदुवा सोयरिए ७, अदुवा वागुरिए ८, अदुवा साउणिए ९, अदुवा मच्छिए १०, अदुवा गोवालए ११, अदुवा गोघायए १२, अदुवा सोवणिए १३, अदुवा
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोतणियंतिए १४ । ____ व्याख्या--अथवा 'आनुगामिका' कवितकार्यकरणाय गच्छति, तमनुगच्छति, अथवा अकार्यकरणाय, अथवाऽपकारकर्यपकारकृते विश्वसनाय उपचारको मवति, अथवा तस्य प्रातिपथिको भवति, प्रतिपथ' सन्मुखमागच्छति, अथवा स्वजनाद्यर्थ सन्धिच्छेदको ( ग्रन्थिच्छेदकश्चापि ) भवति-चौर्य प्रतिपद्यते, तथोर! मैंपैश्चरति, औरधिको मरति, [ अथवा || सौकरिकः ] अथवा शकुनिभिश्चरति शाकुनिको भवति, अथवा 'वागुरया' मृगाऽदिवन्धनरख्या परति रक्षकः | x[चागुरि], अथवा मत्स्येश्वरति मात्स्यिकाच्छिका, अथवा गोपालमा प्रतिपद्यते, अथवा गोपातकः स्यात. अथवा | अभिश्चरति शौवनि-गुना परिचालको मात, अथक मृगषां कुर्वन् वभिगषातं करोति । अथैतानि चतुर्दशस्थानानि आदितो विश्णोति--
से एगतिओ आणुगामियं भावं पडिसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता छेत्ता भत्ता लंपइत्ता विलंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति इति से महया पावहिं कम्मेहिं अचाणं उवक्खाइत्ता भवइ ॥१॥ व्याख्या-तत्रैकः कश्चिदात्माअर्थ अपरस्य नामान्तरं गच्छतः किञ्चिद्व्यजातमवगम्य केट के गत्वा अवसरं लब्ध्वा ४ मूले शाकुनिकवागुरिकयोः स्थाने वागुरिकशाकुनिकयोरिति व्यत्ययेन निर्देशः ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
| तद्व्यं गृहीतुमनाः पथिकं [दण्डादिभिः ] हन्ता मवति, तथा छेत्ता मवति खङ्गादिभिः, तथा भेत्ता [वजमुख्यादिमिः]
लम्पयिता-केशाकर्षमादिकदर्थनतः, तथा विलुम्पयिताऽत्यन्त दुःखमुत्पादयति, तथाऽपद्रावयति जीविताव्यपरोपयति ।। तदेवमादिकं कृत्वाऽऽहारमाहारयति, एतदुक्तं भवति-गलककः कश्चिदन्यस्य धनवतोऽनुगामुकमावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायविधम्मे पातयित्वा, भोगार्थी-मोहान्ध इहलोकार्थी तस्य धनक्तो गलकर्सनादिकं कृत्वा तस्य द्रव्यजातमादायाss. हारादिकां मोगक्रियां विधत्ते, इत्येवमसौ 'महद्भिः' रैः 'कममि स्नुष्ठानमहापातकभूतैस्तीवानुभावैरात्मानमुपख्यापयिता | मवति । तथाहि-असो महापापकारीस्येवमात्मानं ख्यापयति । तथा लोके तद्विपाकाऽऽपादितेनावस्थाविशेषेण नारक- IN तिर्यगादिगतावात्मानमाख्यापयिता भवति ॥ १ ॥
से एगइओ उवचरगभावं पडिसंधाय तमेव उवचरितं हंता छेत्ता भेत्ता जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावेहि कम्महि अत्ताणं उवक्ताइत्ता भवति ॥ ९ ॥
___ व्याख्या--एकः कश्चिदकर्तव्यकारी कस्यापि धनवतो धनं जिघृक्षुः उपचारकभाव प्रतिसन्धाय पश्चातं नानाविधैV रुपायैरुपचरति, उपचर्य च विश्रम्भे पातयित्वा तद्रव्यार्थी तस्य हन्ता छेत्ता मेत्ता यावदपदावयिता भवतीत्येवमसौ [ आत्मानं ) महद्भिः पापैः कर्मभिरुपाख्यापयिता भवतीति ॥२॥
से एगइओ पाडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव पाडिपहे ठिचा हंता छेत्ता जाव उद्दवइत्ता
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहारं आहारेति इति से महया पावहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ॥३॥ ____ व्याख्या--'अथैकः कश्चिदागन्तुकस्य पथिकादेर्धनवतः प्रातिपथिकमा प्रतिपद्यते-सम्मुखं गत्वा प्रच्छन्नो मार्ग बवा तिष्ठति, ततः प्रतिपथे स्थित्वा तस्यार्थवतो विश्रम्भतो हन्ता छत्ता पावदपदावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं पापैः कर्मभिः ख्यापयतीति ॥ ३ ॥
से एगतिए संधिच्छेदनाचं पडिसंबाप तोष सथि छेत्ता भत्ता जाव इति से महया पावेहि | कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ॥ ४ ॥ ____ व्याख्या---एकः कश्चित्पुरुषो विरूपकर्मणा जीवितार्थी सन्धिच्छेदकभावं' खत्रखननत्वं प्रतिपद्यते, ततोऽसौ 'सन्धि छिन्दन् ' खात्रं खनन् प्राणिनां हन्ता छेत्ता भेत्ता भवतीत्येतच्च कृत्वाऽऽहारमाहारयतीत्येवमसौ महद्भिः पापकर्मभिः संसारे भ्रमति ॥४॥
से एगतिए गंठिच्छेद[ग]भावं पडिसंधाय तमेव गंठिं छेत्ता भेचा जाव इति से महया पावहिं कम्महिं अप्पाणं उवक्खाइत्ता भवति ॥ ५॥
व्याख्या-अथ कश्चित्पापकर्मकारी घुघुरादिना ग्रन्थिच्छेदकमा प्रतिपद्य तमेव हन्ता छेत्ता यावत् परद्रव्यमादाय भी कर्मवन्धं करोति, ततः संसारे पर्यटतीति पूर्ववत् ॥ ५ ॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
से एगतिए उरब्भियभावं पडिसंधाय उरब्भं वा अनतरं वा तसं पाणं ता जाव उवक्खाsar भवइ, एसो अभिलावो सवत्थ ६ ।
व्याख्या -- कांदबुचिः ' और अकमावं औरणिकभावं प्रतिपद्यते स च और निकस्तदर्णया तन्मांसादिना वात्मानं वर्त्तयति, तदेवमसौ तद्भावं प्रतिषध उर वा अन्यं वा त्रवा ( १ ) प्राणिनं स्वमाँसपुष्प व्यापादयति, तस्य वा हन्ता छेत्ता भवतीति शेषं पूर्ववत् ॥ ६ ॥
से एगतिए सोयरियभावं पंडिसंधाय महिसं वा अन्नयरं वा तसं पाणं दंता जाव उवक्खाइता भवति ॥ ७ ॥
व्याख्या - कश्चित् शौ (व) निक+भावं ( शौवनिका ) चाण्डालाः वाटिकास्तद्भावं प्रतिपद्यते, शेषं पूर्ववत् ॥ ७ ॥ से एगइओ बागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अन्नयरं वा तसं वा पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति ॥ ८ ॥
व्याख्या— कश्चित्पापात्मा ' वागुरिकमावं ' लुब्धकवं प्रतिपद्य वागुरया मृगं अन्यं वा असं प्राणिनं शशकादिकमात्म+ "अत्रान्तरे लौकरिकपदं तच खबुद्ध्या व्याख्येयं सौकरिका:- श्वपचाश्चाण्डालाः खट्टिका इत्यर्थः " इति वृत्तौ ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
| पुनर्थ स्वजनाद्यर्थ वा सापादयति, योग पूर्णदत् ।। . "
से एगइओ साउणियभावं पडिसंधाय सउणियं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ ॥९॥ ___ व्याख्या-कश्चिदघमोपायजीवी ' शकुना' लावकादयस्तैश्चरति, ततश्च तन्मांसाधर्थी 'शनि' पक्षिणं [अन्यं वा] तित्तिरादिकं व्यापादयति, शेषं पूर्ववत् ॥९॥
से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अन्नयरं वा तसं पाणं इंता जाव उक्क्खाइत्ता भवति ॥१०॥ व्याख्या-कश्चिन्मात्स्यिकमावं प्रतिपद्यते, तद्भाव प्रतिपद्य जलचरजीवान् व्यापादयति, शेषं पूर्ववत् ॥ १० ॥
से एगइओ गोपायगभावं पडिसंधाय गोणं वा अन्नयरं वा तसं पाणं इंता जाव उवक्खाइत्ता भवद ॥ ११ ॥ ___ व्याख्या-यथा कश्चित्क्रूरकर्मकारी गोधातकमावं प्रतिपद्यते, शेषं पूर्ववत् ॥ ११ ।।
से एगतिओ गोपालगभावं पडिसंधाय तमेव गोणं [अन्नयरं वा तसं पाणं] परिजविय
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
Tr-
परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति ॥ १२ ॥ ___व्याख्या-कश्चित् गोपालकमावमादृत्य ' गोणं' वृषमं गोकुलाहालयित्वा 'परिजविय परिजथिय' पृथकृत्य | तस्य हन्ता छेत्ता इत्यादि पूर्ववत् ।। १२ ।।
से एगतिओ सोवणियभावं पडिसंधाय मणुस्सं [सुणयं] वा अन्नयां वा तसं पाणं हंता । जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावहिं कम्महि अत्ताणं उबकावाहत्ता भवति ॥ १३ ॥ ____ व्याख्या-कश्चिञ्जयन्यकर्मकारी, सौ[ शौ ]बनिकभावं (-पापदिमा प्रतिपद्यते ), सारमेयं गृहीत्वा आखेटकक्रिया करोति, तेन मृगशूकरादिकं व्यापादयति, शेषं पूर्ववत् ॥ १३ ॥
से एगतिओ सोवणि[यंति]यभावं पडिसंधाय मणुस्सं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता छेत्ता | जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावहिं कम्महि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति १४। [सू० १६]
व्याख्या--अथैका कश्चिन्महाक्रूरकर्मकारी प्रत्यन्तनिवासी क्रूरसारमेयपालको दुष्ट सारमेयपरिग्रहं प्रतिपय मनुष्यं । वा कश्चन पथिक-अम्यागतमन्यं वा मृगशूकरादिकं त्रसंप्राणिनं हन्ता भवति, तदेवमसौ महाक्रूरकर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति ॥ १४ || आजीविकार्थे पापकर्म उक्तं, अथ केनापि हेतुना यत्पापं क्रियते तदाह
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
संतगतिया मणुस्सा परिसामज्झाओ उर्दुत्ता अहमेयं हणामि त्ति कटु तित्तिरं वा वगं वा लावगं वा कवोतगं वा कविजल वा अन्नयर वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति ॥ । __ व्याख्या-अथैकः कश्चिन्मांसादनेच्छया व्यसनेन क्रीडया कृषितो वा परिषदो मध्यादुत्थायैवम्भूतां प्रतिज्ञां विदध्यात्, यथाऽहमेनं वक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिष्यामीति प्रतिज्ञां कृत्वा पश्चात्तितिरादिकं हन्ता छेता यावदात्मानं पापेन कर्मणा ख्या. पयिता भवतीति । अत्र पूर्वमनपराधक्रुद्धा अभिहिताः, साम्प्रतमपराधक्रुद्धान्दर्शयति___से एगईओ केणवि आयाणेणं विरुद्धे समाणे, अदुवाखलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सरसाइं झामेइ अनेण वि अगणिकाएणं | सस्साई झामावेइ अगणिकाएणं सस्साई झामतं पि अन्नं समणुजाणति, इति से महया पावहिं । कम्मोहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ।
व्याख्या-अथकः कश्चित् प्रकृत्या कोपना केनापि हेतुना इपिता सन् परस्यापकुर्यात् , तत्र शब्दादानेन केनचिदाक्रुष्टो निन्दितो वा विरुखेत, रूपादानेन तु बीमत्सं कश्चन दृष्ट्वाऽपशकनाध्यवसायेन कुप्येत, गन्धरसादिकं त्वादानं शणैन । दर्शयति-[ अथवा ] 'खलस्य' कृषितादिविशिष्टस्य दानं स्खलके [ स्खलस्य वालपधान्यादेनं, तेन पितोऽपवा
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुरायाः 'स्थाल' कोरमादि तेन विपक्षितलाभाभावात् कुपितो गृहपत्पादेरेतत्कृयादित्याह-स्वयमेवाग्निकायेनाग्निना खलकवींनि "शस्यानि' धान्यानि 'मापयत्'दहे इन्धन वा दाइयेहइतो वाऽन्यान्स मनुजानीयादित्येवमसौ महापापकर्ममिगत्मानमुपरल्यापयिता भवति । साम्प्रतमन्येन प्रकारेण पापोपादानमाह
से एगइओ केणइ आयागेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा उहाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ BI कप्पेति अनेण वा कप्पावेति कप्पंतं [ पि ] अन्नं ससणुजाणति, इति से महया जाव भवति ।
___व्याख्या-अकः कश्चिन्नचित खलदानादिनाऽऽदानेन गृहपत्यादः कृषितस्तत्सम्बन्धिन उष्ट्रादेः स्वयमेवात्मना| पर्थादिना 'धूरिया[ घूरा ]ओ'रि जङ्घाः खलका वा 'कल्पयति' छिनत्ति अन्येन वा छेदयति अन्यं वा छिन्दन्तं ममनुजानीने, इत्येवमसावात्मानं पान कर्मणा उपख्यापयिता भवतीति । किश्च--
___ से एगतिओ केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहा| वतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा उसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभ
* ' ट()(१) ' इति प्रत्यन्तरे। " नक्वायवयवान् ” इति हर्ष ० ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
सालाओ वा, कंटगचोंदियाहिं पडिपिहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अत्रेण वि झामावेति झामंतं पितं समजापति, इति से मझ्या पावकम्महिं उबकखाइत्ता भवति ।
व्याख्या
- अथैकः कञ्चित्केनचिनिमित्तेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्सम्बन्धी नामुष्ट्रादीनां 'शाला' गृहाणि कष्टकशाखाभिः 'विधाय ' स्थगयित्वा स्वयमेवाग्निकायेन दहेत् शेषं पूर्ववत् ।
,
से एगतिओ केइ आयाणेणं त्रिरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा कुंडलं वा मणिं वा मोतियं वा सयमेव अवहरति अनेण वि अवहरावेति अवहतं[ प ] अन्नं समणुजाणति, इति से महया जाव भवति ।
व्याख्या--अथैकः कश्चित्केनचिदादानेन कुपितो गृहपत्यादेः सम्बन्धिकुण्डलादिकं द्रव्यजातं स्वयमेवापहरेदवशिष्टं पूर्ववत् । साम्प्रतं पापण्डिकोपरि कुपितः सन् यत्कुर्याद्दर्शयति
से इओ के आदाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं समणाणं वा माहाणं वा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लट्ठिगं वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मगं वा चम्मच्छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति जाव समणु
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाणति, इति से महया जाव उपक्खाइत्ता भवति । ___ व्याख्या-अथैकः कश्चित्स्वदर्शनानुरागेण वा वादपराजितो वा[ऽन्पेन ] केनचिनिमितेन वा कृषितः सभेतस्कुर्यात्- || श्रमणानां शाक्यादीनां माहनानां वा केनचिदादानेन कुपितः सन् दण्डन्छवादिक+ भुपकरण जातमपहरेन् , अन्येन वा हारयेत् अन्यं वा हरन्त समतुजानीयादित्यादि पूर्ववत् । एवं तावद्विरोधिनोऽमिहिताः साम्प्रतं इतरेऽभिधीयन्ते
से एगइओ नो वितिगिंछइ [तं जहा-] गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा सयमेव अगणिकारणं ओसहीओ झामेति जाव अन्नपि झामतं समणुजाणति, इति[से ]महया जाव भवति । ___व्याख्या-कश्चित्पुरुषोऽत्यन्तमूर्खतया नोवितिगिंछइन स्वचेतसि विमृशते, यथाऽनेन कार्येण कृतेन परलोको महते दुःखाय भविष्यतीति न मीमांसतेऽतिमूर्खत्वाच, मदीयमिदमनुष्ठानं पापानुवन्धीत्येवं न पर्यालोचयति, ततश्च परलोकविरोधिनीक्रियाः कुर्यात् । एनदेवोदेशतो दर्शयति, [x तद्यथा-गृहपत्यादेनिनिमित्तमेव-तत्कोपकरणमन्तरेणैव 'स्वयमेव' आस्मना ' अग्निकायेन ' अग्निना 'औषधीः' शालिबीमादिकाः 'इमापयेत् ' दहेत्तथाऽन्येन दाहयेहान्तं च समनु
+ " भाण्डं किनिद्वस्तु ' मात्र ' पात्रं 'लद्विगं' यष्टि 'मिपिगं' दृषी आमनमिति यावत् 'चेटक' व 'चिलिमिलिग' | प्रच्छादनपटी 'चर्मक ' पादुकादि चर्मकछेक्नक ' शस्त्रादि चर्मकोशक' शवक्षेपकोत्थलक स्वयमपहरेत् ," इति हर्ष ।
x[ ] एतचिन्हान्तर्गत: पाठो नास्ति सास्वपि दीपिकाप्रतिध्वतो वृत्तितोऽनोवृतः ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
जानीयादित्यादि। ___ [से एगइओ णो वितिगिछइ,] तं जहा-गाहावईण वा गाहावतिपुत्ताण वा उधाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेति अन्नण वा कप्पावेति अन्नं पि कप्पतं । समणुजाणति ।। १॥ से एगतिओ णो वितिर्गिछति, तं जहा-गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा | उदृगसालाओ वा जाव गद्दभसालाओवा कंटगोंदिया[हिं ]ए पडिपिहित्ता सयमेव अगणिकाएणं । झामेइ जाव समणुजाणति ॥२॥से एगतिओ णो वितिगिछति, तं जहा-गाहावतीण वा गाहावति । पुत्ताण वा कुंडलं वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणति ॥३॥ से एगतिओ जो वितिगिछति, [तं जहा-] समणाणं वा माहणाणं वा [छत्तगंवा] दंडगं वा जाव चम्मच्छेद । [ण]गंवा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणति ॥॥ इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवति।। ___व्याख्या---एते आलापकाः पूर्वपद् व्याख्येया:, विशेषस्त्वयं-प्राक्तनेवालापकेषु केनापि कारणेन कृषितः सन् पापक्रियाः कुरुते, बालापकेषु निरर्थकं पापं गृहाति, अयं विशेषः । साम्प्रतं विपर्यस्तदृष्टय आगादमिथ्यादृष्टयोऽमिघीयन्ते
से एगतिओ समणं वा माहणं वा दिस्सा नाणाविहहिं पावकम्मोहिं अचाणं उवक्खाइत्ता भवति ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यरू अवैकः अधिमिध्यादृरिभद्रकः साधु दृष्ट्वा प्रत्यनीकतया श्रमणादीनां निर्गच्छतां प्रविशतां स्वतःच निर्गच्छन् प्रविशद् वा नानाविधैः पायोपादानभूतैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीत्येतदेव दर्शयति
अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवति अदुवा णं फरुसं वादत्ता भवति कालेण वि से अणुप्पविटुस्स असणं वा ४ जाव नो दवावित्ता भवति, जे इमे भवंति वोन्नमंता भारुकंता अलसगा वलया किवणगा समणगा पवयति ।
व्याख्या - अथवेति पक्षान्तरोपग्रहार्थी, कचित्साधुदर्शने सति मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया अपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपादपसारयन् साधुद्दिश्याज्ञयाऽसया- अपुटिकाया आस्फालयिता भवति, अथवा तिरस्कारमापादयन् परुषं बचो ब्रूयात्, तद्यथा-ओदनमुण्ड ! निरर्थक कायक्लेश परायण ! दुर्बुद्धे 1 अपसराप्रतः, ततोऽसौ भ्रुकुटिं विदध्यादसभ्यं वा ब्रूयाद, तथा भिक्षाकालेनापि तस्य मिचोरन्वेम्पो भिश्वानरेभ्योऽनुपश्चात्प्रविष्टस्य मतोऽतिदृष्टतया अन्नादेन दापयिता भवति अपर दानोद्यतं निषेधयति, तस्प्रत्यनीकतया एवं ब्रूते- ये इमे पाषण्डिका भवन्ति ते एवम्भूता भवन्तीत्याह-' दोन मंत 'ति तृणकाष्ठादारादिकमध[म] ( १ ) कर्म्म तद्वन्तस्तथा भारेण-कुटुम्ब[मारेण पोलिका दि]मारेण वाऽऽकान्ताः परामग्नाः सुख लिप्सवोऽलप्ताः - क्रमागतं कुडुम्बं पालयितुमसमर्थाः, ते पाषण्डमाश्रयन्ति, तथा ' वसलग ति ' वृषला ' अघमरः शूद्रजाता, तथा 'कृपणाः' क्लीवा अकिञ्चित्कराः श्रमणा मंत्रन्ति, प्रवज्यां गृहन्तीति ।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
ते इणमेव जीवितं धिज्जीवितं संपडिब्रूहिंति, नाइ ते परलोगस्स अट्ठाए किंचि वि सिली संति, ते दुखति ते सोयंति ते जुनि ते तिप्पंति ते पिहंति ते परितपति ते दुक्खण- सोयण-जूरणतिप्पण-पिहृण-परितप्पण-वह- बंधण-परिकिलेसाओ अपडिविरता भवति । ते महया आरंभेणं ते महया समारंभेणं ते महया [आ]रंभसमारंभेणं विरूवरूवेहिं पावकम्मकिचेहि ओरालाई माणुसगाई भोग भोगाई भुंजित्तारो भवंति ।
}
व्याख्या—' ते इणमेवे 'त्यादि, ते हि साधुवर्गापवादिनः सम्प्रत्यनीका 'इदमेव जीवितं परापवादोनजीवितं ' विजीवितं ' साधुनिन्दापरायणं कुत्सितजीवितं [ सम्प्रतिबृंहन्ति ]- एतदेवामदूतजीवितं प्रशंसन्तीति, ते चेहलोके प्रतिबद्धाः साधुनिन्दाजीविनो मोहान्धाः साधून वदन्ति न च ते साधूनामनुष्ठानं स्त्रश्पमपि 'विष्यन्ति' समाश्रयन्ति, केवलं ते वचोभिः सान् दुःखयन्ति पीडामुत्पादयन्ति तथा तेऽज्ञानान्धास्तत्कुर्वन्ति येनाधिकं श्रोचन्ते परानपि शोचयन्ति दुर्भाषितादिभिः शोकश्चोत्पादयन्ति तथा ते परान् 'जूरयन्ति' गईन्ति तथा ' तिष्यन्ति ' सुखात् व्याययन्ति आत्मानं पथ, तथा अष्टधर्माण: असदनुष्ठानैः स्वतः पीड्यन्ते पराँश्च पीडयन्ति तथा ते पापेन कर्मणा ' परितप्यन्ते ' अन्तर्द अन्ते पथ परितापयन्ति, तदेवं ते सद्वृतेष्वसन्तो दुःखनशोचनादिक्लेशादप्रतिविस्ताः सदा भवन्ति, एवम्भूताय सन्तस्ते Harstrमेण महता समारम्भेण प्राणि परितापनरूपेण तथोमाभ्यामप्यारम्भसमारम्भाभ्यां 'विरूपरूपैश्व " नानाप्रकारैः
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावधानुद्दानैः पापकर्मकृत्यैरुदारान्मानुष्यकान् भोगभोमान् [ते] सावधाऽनुष्ठायिनो भोक्तारो भवन्ति । एतदेव दर्शयति । तं जहा - अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले, [ स ] पुवावरं च णं पहाए कयत्रलिकम्मे कयकोउय मंगलपायच्छिते सिरसा पहाए कंठे मालकडे आविद्धमणिसुवणे कपियमालामउली पडिबद्धसरीरे वग्वारिय सोोणेसुत्तगमल्लदामकलावे अद्दतवत्थपरिहसे चंदणो [क्खिस ] किन्नगायसरीरे मतिमद्दालियाए कूडागारसालाए महति महालयंसि सीहासांसि इत्थीगुम्मसंपरिवुडे सबराइएणं, जोइणाय झियायमाणेणं महया हयनहगीयवाइयतंतीतलतालतु डितघण मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं ओरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ।
उपारूषा - तद्यथा - अमलकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्सम्पद्यते एवं पानवस्त्रश्शयनासनादिकमपि यथाकाले सर्वमपि सम्पद्यते, यद्यदा प्रार्ध्यते तचदा सम्पद्यते, इत्यभिलषितार्थप्राप्तिमेव लेखतो दर्शयति, तद्यथा-विभूत्या स्नाता तथा कृतं देवतादिनिमितं बलिकर्म येन स तथा तथा कृतानि कौतुकान्यवतारणकादीनि तथा मङ्गलानि-दध्यक्षतचन्दनादीनि तथा दुःस्वप्नप्रतिघातकानि प्रायश्वितानि [ येन स ] कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः + तथा कल्पितमाला झुकु [टी]ट (१) प्रति+ तथा " शिरसि स्नातः नानाविधविलेपनावलितचे "ति बृहद्वृत्तौ । अत्र वृतिदभिप्रायेण मूळे कतिचित्पदानां प्राचा बिस्वमस्ति ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्धशरीरः [ दृढावयवा ], तथा 'पाचारियं 'ति प्रलम्बितं ' श्रोणीसूत्र' कटिसूत्रं मल्लदामकलापा, ४ तदेवं स यथोक्तभूषणभूषितः 'महतिमहालियाए 'ति विस्तीर्णायां कुटाकारशालायां ' महतिमहालये ' विस्तीर्णे सिंहामने समुपविष्टः 'बीगुल्मेन' युवतिजनेन सार्द्धमपरपरिवारेण 'सम्परिशतो' वेष्टितः, महता गीतवादिवतन्यादिरवेणोदारान् मानुष्यकान् भोगमोगान शुआनो विहरति ।
तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चतारि पंच जणा अवुत्ता चेव अब्भुटुंति । व्याख्या-तस्य व प्रयोजने समुत्पन्ने सति एकमपि पुरुषमाज्ञापयतो यावञ्चत्वारः पन वा पुरुषाः अनुक्ता एव समुपतिष्ठन्ते, ते च किं कुर्वाणाः १ एतद्गमणमस्ताना .......
भण[६] देवाणुप्पिया! किं करेमो ? किं आहरेमो ? किं उवणेमो? किं उवढे[आचिट्ठा]मो? किं भे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सदति ? । तमेव पासित्ता अणारिया एवं वदंति-देवे !
खल्लु अयं पुरिसे देवसिणाए खलु अयं पुरिसे देवजीवणिज्जे खल्ल[ अयं पुरिसे, अन्नवि[य]णं | उवजीवंति, तमेव पासित्ता आरिया वदति-अभिकंतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे, अतिधूते
x“बहतं अखण्डितं वस्त्रं परिहितं येन स तथा, चन्दनन उत्क्षिप्तं सिक्तं' गात्रं शरीरं शरीरावयवा यस्य स तया, नानाविधविलेपनावलित इत्यर्थः।" इति हर्ष।
:
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
पतिमा
M अइयायरक्खे दाहिणगामिए नेरइए कहपविखए आगमिस्साणं दुल्लहबोहियाए यावि भविस्सइ।।
गागा-मण स्वाभिमानापम माया मं: येन भवताऽप्येवमादिश्यन्ते, किं कुर्म ? इत्यादि सुगम, यावत् हृदयेप्सित. मिति तथा किच'' युष्माकं ' आस्थकस्य' मुखस्य ' स्वद
ते[अथवा] यदेव त्वदीयास्यात् 'श्रवति' निर्गच्छति तदेव वयं कुर्मः। तथा तमेव राजानं तथाकीरमान दृष्टाऽन्येऽनार्याः एवं वदन्ति, तद्यथा-देवः खल्वयं पुरुषस्तथा 'देवस्नातको' देवश्रेष्ठो बहूनामुपजीव्या । तथा तमेवासदनुष्ठायिनं दृष्ट्वा ' आर्याः' विवेकिना-सदाचारा एवं ब्रुवते-अमिक्रान्तरकर्मा खल्वयं पुरुषो, हिंसादिप्रवृत्त इत्यर्थः । तथाऽसौ धूयते' रेणुत्रद्वायुना संसारचक्रवाले | प्राम्यते येन तद्भुतं-कर्म अष्टप्रकारं यस्य सोऽतिधूता, तथा अतीवात्मनः पापैः कर्मभिः रक्षा यस्य स आत्मरक्षा, संसारे | बहुभिः पापकर्ममिः बहुकालं स्थास्यतीति भावः, तथा दक्षिणदिग्मामी, यो हि क्रूरकर्मा साधुनिन्दापरायणः साधुदाननिषेधकः स दक्षिणदिम्मामुको भवति, दाक्षिणात्येषु नरकतिर्यकमनुष्याऽमरेत्पद्यते, 'नेरइए 'त्यादि, नरकेषु मवो नारका, तथा कृष्णपाक्षिकाx, इदमुक्तं भवति-प्रायेण दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिगप्रशस्ता, गतिषु नरकगतिः, पक्षयोः कृष्णपक्षः, तदस्य साधुप्रद्वेषमतेर्दानान्तरायविधायिनो दिमादिकं सर्वमप्रशस्तं दर्शितं, अन्यदपि यदप्रशस्तं गत्यादिकमबोधिलाभादिका तद्योजनीयमस्येति । एतद्विपरीतस्य सा शंसावत: सदनुष्ठानपरस्य अदक्षिणगामुकत्वं सुदेववं शुक्लपाक्षिकत्वं समानुषाया. तस्य सुलभबोधित्वमिस्येवमादिकं सद्धर्मानुष्ठायिनो भवतीति । साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराक
x" तथा आगामिनि काले नरकादुशो दुर्लभबोधिक चाय बाहुल्येन भविष्यति" इति वृवृत्तौ ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
इच्छेयस्स कणस उडिया से अति, अणुट्टिया वेगे अभिगि [ज्झं]हति, अभिझंझाउरा अभिगि(ज्झं ) इंति, एस ठाणे अणारिए अकेवले अपडिपुन्ने अयाउए असंसुद्धे असलगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिवाणमग्गे अनिजामग्गे असवदुक्खप्प होण मग्गे । एगंतमिच्छे असाहू, एस खलु पढम (स्ल) ठाणस्ल अधम्मपक्खस्स विभंगे एत्रमाहि [ ए ] जाति ( सू० १७ )
व्याख्या -- इत्येतस्य पूर्वोक्तस्य स्थानस्यैश्वर्यलक्षणस्य शृङ्गारमूलक्ष्य साँसारिकस्य परित्यागबुद्ध्या 'एके' केचन विपर्यस्तमतयः पापण्डिकोत्थानेनोत्थिताः परमार्थम जानाना 'अभिभिज्नंति 'ति आभिमुख्येन लुभ्यन्ते - लोभवशगा भवन्तीत्यर्थः । तथा ' एके' केचन साम्प्रतेक्षिणस्तस्मात्स्थानादनुपस्थिता गृहस्था एवं सन्तः ' अभिशंस 'ति, झञ्झा-तृष्णा, तदातुराः सन्तोऽर्थेषु अत्यन्तं लुभ्यन्ते, अतो घेतत्स्थानमनाये महापुरुषैरनाचीर्णे, तथा ' अकेबलिये ' अशुद्धमिति, अस्मिन् स्थाने न केवलज्ञानावाप्तिरिति मात्रः । तथाऽपरिपूर्णमितरपुरुषाचीर्णत्वात्तथा सद्गुणविरहात् तुच्छं, तथानैयायिक न्याय मार्गाद्वहि [ असंशुद्धं समलं ] तथा ' असलगत्तणं ' ( असलगत्वं - ) इन्द्रियासंवरणरूपं अथवा न शल्यकर्त्तनं, न सिद्धिमार्गः, तथाऽशेष कर्मक्षय लक्षणायाः मुक्केन मार्गस्तथा अनिर्वाणमार्गः, तथा अनिर्माणमार्गस्तथा न सर्वदुःखानां प्रक्षीण मागी । कुत एवम्भूतं तत्स्थानं ? इत्याह-स्थाननामेकान्तेन मिध्यास्त्ररूपं, अत एव साधुः असदाचारवान झयं सत्पुरुषसेवितः पन्था येनास्मिन्मार्गो विपयान्वाः प्रवर्तन्ते, एवाचवाऽयं प्रथम[स्य ] स्थान
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्याधर्मपक्षस्य पापोपादानभूतस्य — विभङ्गो ' विशेष स्वरूपमिति । साम्प्रतं द्वितीय धर्मोपादानभूतं पक्षमाश्रित्याह___ अहावरे दोच्चस्स ठाणस्त धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति-इह खल्लु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे नीयागोया वेगे कायमंता वेगेहस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुबन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं चणं खेत्तवरणि परिगहियाई भवंति, एसो आलाक्गो जहा पुंडरीए तहा नेयबो, जाव सबओ (वसंता)सब(ताए)याओ (1) परिनिवुडे ति बेमि, एस ठाणे आरिए केवले जाव सबदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू दोच्चस्स ठाणगस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते ॥ ( सू० १०)॥ ___ व्याख्या-अपमालापकः सुगम एक, यथा पुण्डरीकाध्ययने तथेदापि सर्व निरवयर भणितम्यं, यावचे ' एवं ' | पूर्वोक्तन प्रकारेण सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपशान्ताः, तथा अत एव सर्वात्मतया परिनिईता इत्यहमेवं ब्रवीमि । तदेव- 16 मेतत्स्थान कैवलिक प्रतिपूर्ण नैयायिकमित्यादि प्राग्वद्विपर्ययेण नेयं, यावद्वितीयस्य स्थानस्य धाम्भिकस्यैष ' विभाः' स्वरूपव्याख्यानमिति । साम्प्रतं धर्माधर्मयुक्तं तृतीयस्थानमाश्रित्याह
अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिजति-जे इमे भवंति आरनिया आव- 1
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहिया गामणियंतिया कोई राहस्सिया, जाव ते तओ विप्पमुञ्चमाणा भुजो २ एलमूयचाए [ तमूत्ताए ] पञ्चायति । एस ठाणे अणारिए अकेवलिए जाव असम्बदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभङ्गे एवमाहिते ॥ [ सू० १९ ] - व्याख्या-अथापरस्य तृतीयस्य स्थानकस्य मिश्राख्यस्य विभङ्गः-स्वरूपमाख्यायते, अत्राधर्मपक्षेण युक्तो धर्मपक्षो मिश्र इत्युच्यते, तत्राधर्मस्य प्राचर्यादधर्मपक्ष एव दृष्टव्यः, एतदक्तं भवति-यद्यपि मिथ्यादृष्टयः काश्चित्तथाप्रकारां | प्राणातिपातादिनिवृत्ति कुर्वन्ति तथाप्याशयाविशुद्धत्वात् अमिनवे पित्तोदये सति शर्करामिश्रक्षीरपानक्दपरप्रदेशवृष्टिवद्विवक्षितकार्यासाधकत्वाभिरर्थकथासारते, तथा भिध्यासानुपानिपक्षीयधर्मपक्ष एवावगन्तव्यः। [ए]तदेव दर्शयितुमाहये हमे आरण्यका:-कन्दमूलफलाशिनस्तापसाः वनवासिनो, ये च आवसथिका:-गृहिणस्ते च कुत्तचित्पापस्थानानिवृत्ता अपि प्रबलमिथ्यात्वोपहतबुद्धयः, ते च यधुपवासादिना महता कायक्लेशेन देवगतयः केचन भवन्ति, तथापि ते आसुरीयेषु स्थानेषु किल्विषिकेषु उत्पद्यन्ते, इत्यादि सर्व वोक्तं भणनीय, यावत्नतश्ता मनुष्यमत्र प्रत्यायाता एलकमूकत्वेन उमोऽन्धतया जायन्ते, तदेवमेतत्स्थानमनार्य अकेवलं-असम्पूर्ण अनैयायिकमित्यादि यावदेकान्तमिध्याभूतं सर्वथैवैतदसाध्विति इतीयस्थानस्य मिश्रस्यायं विभङ्गा-स्वरूपमाख्यातमिति । उक्तान्यधर्मधर्ममिश्रस्थानानि, साम्प्रनं तदेव विशेषेण कथयति
अहावरे पढम[स्स] ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति, इह खलु पाइणं वा ४
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
| संतेगतिया मणुस्सा भवंति-गिहत्या] महेच्छा महारंभा महापरिगहा अधम्मिया अधम्माणु[ण्णा]या अधम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्म[पायजीविणो]जीवी अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणा अहम्मसीलसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति ।। ___ व्याख्या-अथापरोऽन्यः प्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य ' विभङ्गो' विभाग एवमाख्यायते, इह खलु मनुष्या एवंस्वभावा भवन्तीति, एते च प्रायो गृहस्था एव भवन्तीत्याह 'गिहत्या' (इत्यादि०)। 'महेच्छा' महती-ज्यविभवपरिवारादिका सर्वातिशायिनी 'इच्छा' मनाप्रपत्चिर्येषां ते महेच्छाः, तथा महारम्भा:-कृषिकरणादिभ्योऽविरताः, तथा महापरिप्रहा:-द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिपरिग्रहोपेताः, अत एवाधार्मिकाः, तथामिष्ठा-निस्विंशकर्मकारित्वादधर्मबहुलाः, तथाऽधम्में कर्तव्ये 'अनुज्ञा' अनुमोदनं येषां ते अधर्मानुज्ञा, एवमधर्ममाख्यातुं शीलं येषां ते तथा, [ एवमधर्मप्रायजीविनः । एवमधर्ममेव प्रलोकितुं शील येषां ते अधर्मप्रलोकिनः, तथाऽधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यन्त इत्यधर्मप्ररता, तथाऽधर्मशीला-अधर्मस्वभावा, तथाऽधर्मात्मका समदाचारो-यत्किञ्चनानुष्ठान येषां ते अधर्मशील. समुदाचाराः, तथा 'अधर्मेण ' पापेन ' वृत्तिनि हो येषां ते तथा, एवंविधाः विहरन्तः कालमतिबाहयन्ति । पापानु. ष्ठानमेष लेशती दर्शयितुमाह---
हण छिंद भिंद विगत्तगा लोहितपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्तिया उकुंचणवंचणमायानिय
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
डिकूडकवडसा तिसंपओगबहुला दुस्सीला दुधता दुष्पडियाणंदा असाहू सहाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए जान सबाओ परितगदाओ टेक्रिया जावजीवाए, सवाओ कोहाओ जाव मिच्छादंसण सल्लाओ अप्पडिबिरया, सवाओ पहाणुमहणवण [ग] गंधविलेवणसद्दफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरता जावज्जीवाए, सब्बाओ सगडरद्दजाणजुग्गगिल्लिथिलिलीयासंदमणिया सणास जाणवाहणभोगभोयणपवित्थरविहीओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सवाओ कयविक्रयमासद्धमासवगसंववहाराओ अप्पाडविरया [ जावजीवाए ], सबाओ हिरण्णसुवपणधणधन्नमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालाओ अप्पडिविरया [जावजीवाए ], सबाओ कूडतुलकूडमाओ अपडविरया [ जावज्जीवाए ], सल्बाओ आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया [ जावare ], सवाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सबाओ पयणपयावणाओ अप्पडिविया [ जावज्जीवए ], सबाओ कुट्टणापिहृणतज्जणताडणबहबंध [ण] परिकि लेखाओ अप्पडिविरता जावज्जीवाए, जेआवणे तहष्पगारा सावज्जा अबोहिता कम्र्म्मता पराणपरितावणकरा जे
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
TE
अणारिएहिं कज्जति, ततो वि अप्पडिविरया जावजीवाए__व्याख्या-ते अनार्याः स्वत एव हननादिकाः क्रियाः कुर्वाणा अपरेषामपि एवमेवोपदेशं ददति । तत्र हननं दण्डा- | दिभिस्तत्कारयन्ति । तथा छिन्धि कर्णादिकं, भिन्दि शूलादिना 'विककाः ' प्राणिनां चर्मापनेतार; अत एव लोहितागाया, तथा [चण्ड । 'रौद्रा'निस्त्रिंशाः, क्षुद्राः क्षुद्रकर्मकारित्वात् , तथा साहसिकाः असमीक्षितकारित्वात् , तथोत्कृश्नत्रश्चन । मायानिकृतिकटकपटादिभिः सहातिसम्प्रयोगो-गाय, तेन बहुलास्तस्प्रचुगः, एते चोत्कश्चनादयो मायापर्याया, इन्द्रशका. दिवत् कथश्चिक्रियाभेदेऽपि द्रष्टव्याः +। तथा दुःशीलाश्चिरम्पचरिता अपि क्षिप्रं विसंवदन्ति, दुःखानु यदारुणस्वभावा इत्यर्थः । तथा दुष्टयताः माँसाभक्षणव्रतकालसमाप्तौ प्रभूतवरमयोपधातेन माँसप्रदान, अन्यदपि नक्तभोजनादिकं दृष्टयतमिति, तथा दुःखेन प्रत्यानन्यन्ते [हर्ष प्राप्यन्ते] दुष्प्रत्यानन्दा, दुराराध्या इत्यर्थः, उसकारेऽपि दोषमेव गृह्णन्ति, यत एवमतोऽमा. धवस्ते, पापकर्म कारित्वात् , तथा यावजीवत्या सर्वस्मादपि प्राणातिपातादविरताः, लोकनिन्दनीयात् स्त्रीहत्याबालमाह्मणऋषिघातादेरप्याविरता, एवं मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभप्रेमद्वेष कलहाभ्याख्यानपैशून्पपरपरिवादरत्य__ + " सत्र शूलाधारोपणार्थमूल कुञ्चनमुत्कुल नं। वसनं-प्रतारणं, यथाऽभयकुमारः प्रद्योतगणिकाभिर्धर्मत्रश्चनया वद्धितः । माया-वचनबुद्धिः, प्रायो वणिजामिव । निकृतिस्तु बकवृत्त्या देशभाषा विविपर्यय करणं । कुटं तुलामानादेन्यूनाधिककरणं । कपरयथाऽऽषाभूतिना वेषपराच्याऽऽचार्योपाध्यायसवाट कारमार्थ वारंवार मोदका लब्धाः ।" इति हर्ष ।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
रतिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्यादिभ्योऽसदनुष्ठानम्यो पावजीचयाऽप्रतिविस्ता भवन्तीति, तथा सर्वस्मात् स्नानोद्वर्तनवर्णकविलेपनशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमाल्याऽलङ्कारात्-कामानान् मोह जनितादप्रतिविरता यावीवया, तथा सर्वतः शकटस्थादर्यान. विशेषादिकात् प्रविस्तरविधेः परिकररूपात् परिग्रहादप्रतिविरताः, तदेवमन्यस्मादपि वस्त्रादेः परिग्रहादुपकरणभूतादविरतास्तथा ' सर्वत: ' सर्वस्मात् ऋयविक्रयाभ्यां करणभूताभ्यां यो मापकार्द्धमाषकरूपककारणादिभिः पण्यविनिममा । त्मकः संव्यवहारस्तस्मादविरताः, यावजीरपति, था ' 'स्मात् हिरवादिः प्रधानपरिग्रहादविरतास्तथा कूटतुलटमानादेशविस्ताः, तथा सर्वतः कृषियाशुपाल्यादेयत् स्वतः करण अन्येन यत्किश्चित्कास्यन्ति तस्मादविरतास्तथा पचनपाचनतस्तथा स्त्रण्डनकुट्टनपिनतजनताडनबधबन्धनादिना यः परिक्लेशः प्राणिनां तस्मादविरताः। माम्प्रतमुप. | संइरति-ये चान्ये तथाप्रकाराः परपीडाकारिणः सावद्याकम्भरमारम्भाः ' अबाधिकार'बोधिलामविघातिनः, नथा [परप्राण]परितापनकराः गोग्राहबन्दीग्रहग्रामघातात्मका:, ये अनायः क्रियन्ते, ततोऽप्रतिविरताः पावजीवयेति । पुन-10 रन्यथा बहप्रकारमधामिकपदं प्रतिषिपादयिषुराह---
से जहा नामए केइ पुरिसे कलममसूरतिलमुग्गमासणिप्फावकुलत्थआलिसंदगपलिमंथPM गमादिएहिं अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजंति, एवामेत्र तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिरवहगलावग
कपोतकर्विजलमियमहिसवराहगाहगोहकुम्मसिरीसिवमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति,
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
जावि य से बाहिरिया परिसा भवति, तं जहा
व्याख्या-यथा नाम अस्मिन् विचित्रे संसार केचनवम्भूताः पुरुषाः, ये कलममतिलमुगादिषु पचनपाचनादिकया IMI क्रियया स्वपराथेमयताः करा: मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति, निरपराधेष्वपि मिध्यादण्डं विदधति, तथैवमेव निष्प्रयोजन । Vा तथाप्रकाराः पुरुषा निर्दयह जीपोपघातनिस्तास्तित्तिरवकलावकादिषु जीवनप्रियेषु प्राणिषु अगता:-क्रूरकर्माणो नरा!, मिध्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति, तेषां करत्रियां " यथा राजा तथा प्रजा" इति वचनात् परिवारोऽपि तथाभूत एवं कुरो मवतीति, तथा दर्शयितुमाइ-'जावि य से' इत्यादि, यापि च तेषां बाह्या पर्षद्भवति, तद्यथा
दासेइ वा पेसेइ वा भयएति वा भाइल्लेति वा कम्मकरएति वा भोगपुरिसेति वा, तेसिं पि य णं अन्नयरसि वा अहालहगंसि अबराहंसि सयमेव गरुयं दंडं निव्वत्तेति । तं जहा-इम | | दंडेह इमं मुंडेह इमं तजेह इमं तालेह इमं अंडयबंधणं करेह इमं नियडबंधणं करेह इमं
हडिबंधणं करेह इमं चारगबंधणं करेह, इमं नियलजुयलसंकोडियमोडियं करेह, इमं हत्थ- 1 छिन्नयं करेह इमं पायछिन्नयं करेह इमं कन्नछिन्नयं करेह इमं नकउहसीसमुखछिन्नयं करेह, वेयगच्छहियं अंगच्छहियं पप्फोडियप [ पक्खाफोडि ] यं करेह इमं नयणुप्पाडियं करेह दसणवसण
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिन्भुप्पाडियं करेह, उल्लंबियं ऊ[घ]सियं करेह घोलियं करेह सूलाइयं करेह [सूला ] भिन्नयं खारवत्तियं दब्भवत्तियं करेह सीइपुच्छियगं करेह वसहपुच्छियगं करेह दवग्गिदड (यं) गं कागिणिमंसखावियं भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावज्जीवं वहबंधणं करेह इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह
व्याख्या - दामः ' प्रेष्य! ' प्रेषणयोग्यो 'भृतको ' वेतनेनोदकाद्यानयनविधायी, तथा भागिको यः षष्ठांशादिलाभेन कुष्यादौ व्याप्रियते, तथा कर्मकरः प्रतीतः [ तथा नायकाश्रितः कञ्चिद्धोगपरः ], तदेवं ते दामादयोऽन्य ( तरस्मिन् १ ) स्थ वायराधे शब्दाश्रवणादिके गुरुतरं दण्डं प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्ति च । स च नायकस्तेषां दामादीनां बाह्यवर्षतानामन्य[तर][माप्यपराधे शब्दाश्रवणादिके गुरुतरं दण्डं प्रयुक्ते, तद्यथा-इमं दास सर्वस्त्रापहारेण दण्डयत सूपमित्यादिसूत्र सिद्धं यावदिममन्यतरेणाशुभेन कुस्मितमारेण व्यापादयत यूयं ।
जाविय से अभितरिया परिसा भवति, तं जहा- मायाति वा पिताति वा भायाति वा । भइणीति वा भज्जाइ वा पुस्ताइ वा सुण्हाइ वा धूयाइ वा, तेसि पि य णं अन्नयरंसि अहाल हुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंड निवत्तेइ, सीओदगवियडांसे उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
[जा] अहिए, परंसि लोगंसि, ते दुखंति सोयंति जूरंति तिष्यंति पिहंति परितप्यंति, ते दुक्खणसोयणजूरणतिपणापट्टण परितावणत्र बंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवति ।
- याऽपि च क्रूरकर्मवतामभ्यन्तरा पद्भवति, तद्यथा - मातापित्रादिका, मित्रदोषप्रत्ययिक क्रियास्थानवसे पावदहितोऽ[म]स्मिलोके इति, तथाहि - आत्मनोऽध्यकारी परस्मिलोके, तदेवं ते मातापित्रादीनां स्वल्पापाधिनामपि गुरुतरदण्डापादनतो दुःखमुत्पादयन्ति तथा नानाविधैरुपायैस्तेषां शोकमुत्पादयन्तीत्येवं प्राणिनां बहुप्रकार पीडोत्पादका यावदूवधबन्ध (न) परिक्लेशादप्रतिविरता भवन्ति । ते च विषयासक्ततयैतत्कुर्वन्तीत्येतदर्शयितुमाह----
एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोवत्रन्ना जाव वासाई चउपंचमाई छसमाई वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं भुंजितु (भोग) भोगाई परामु[पविसु ]इत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहूइं कूराई कम्माई ओसन्नाई संभा (रकडेण) रेणं कस्मेण से जहा नामए अयगोलेति वा सेलगोलेति वा उदगंांसि पखित्ते समाणे उदगतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपड्डाणे भवइ, एवमेव पगारे पुरिसजाए वज्जबहुले धूतबहुले पंकबहुले वेरबहुले अयसबहुले अप्पसिय० दंभ० नियडि० सादिबहुले ओसन्नतसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा घरणितलमतिवत्ता
"
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहे णरगतलपइट्टाणे भवति (सू० २०)॥
व्याख्या-एवमेव पूर्वोक्तस्वभावा, एवं ते निष्कृपा निरनुक्रोशा बाह्याभ्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनाशाविकर्तनादिना दण्डपातनस्वभावाः स्त्रीप्रधानाः कामास्तेषु मूञ्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपमाते च ते भोगासक्ता व्यपगतपरलोकमयाः यावर्षाणि चतुःपश्च षट्सप्त वा दश वाऽल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं भुक्त्वा भोगभोगान् तथा परपीडोत्पादनतो वैराऽनुबन्धान प्रवियो-त्पाद्य तथा ऋयित्वा गहूनि जानकारिणनिहानि 'क्रूराणि' दारुणानि नरकादिषु यातना. स्थानेषु क्रक चपाटनतप्तत्रपुपानात्मकानि कर्माण्यष्टप्रकाराणि बद्धस्पृष्टनिघत्तनिकाचनावस्थानि विधाय तेन च सम्मारकृतेन कर्मणा प्रेयमाणास्तत्कर्मगुरवो वा नरकतलप्रतिष्ठाना भवन्ति । अस्मिन्नर्थे सर्वलोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह-' से जहा नामए अयगोले' इत्यादि, तद्यथा नाम 'अयोगोलको' लोहगोलक [ शिलागोलको वृत्ताश्मशकलं वा ] उदके प्रक्षिप्तः सन् सलिलतलमतिवा-तिलहध्याऽधोधरणितलप्रतिष्ठानो भवति । अथ दार्शन्तिकमाह-' एवमेधे 'त्यादि, यथा. ऽसावयोगोलकः शीघ्रमेवाधो यात्येवमेव तथाप्रकार: पुरुषजातः, तमेव लेयतो दर्शयनि- वजबहलो' बजगद्गुरुत्वाकर्म, तबहुला, बय मानकर्मगुरुः, तथा धूपत इति [ धूतं-] प्राग्नद्धं कर्म, तत्प्रचुरः, तथा 'पङ्क' पापं तबहुला, तथा वरबहुला, तथा 'अप्पत्तियति अप्रत्ययबहुलः, तथा 'मायावहुल:' कपटबहुलः, तथा निकृति माया वेबमाषापरावृत्तिच्छचना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः, तथा सातिबहुलः, हीनद्रव्यस्य सातिशयेन द्रव्येण संयोजन सातिस्तद्भहुल:-तत्करणप्रचुर, तथा अपशो बहुला, स एवम्भूतः पुरुषः कालमासे कालं कृत्वा नरकतलप्रतिष्ठानो भवति ।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ नरकस्वरूपं निरूपयति
ते णं णरगा अंतो वहा वाहिँ चउरसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निबंधकार तमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्त जोइसप्पा मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिखिलित्ताणुलेवणतला असुई विस्ता परमदुभिगंधा कण्हा अगणित्रवणाभा कक्खडफासा दुरुद्दियासा असुभा णरगा असुभा नरसु वेदणाओ | नो चेवणं नरपसु नेरइया निद्दायंति वा पयलायंति वा सुई वा रतिं वाधितिं वा मि वा उबलमंति, ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिनं दुरहियासं निरवेयणं पञ्चणुभवमाणा विहति ॥ ( सू० २१ )
व्याख्या – ' ते णं नरगा' इत्यादि, ते नरकार सीमन्तकादयः, बाहुल्यमङ्गीकृत्यान्तर्मध्ये वृत्ता बहिरषि चतुरस्राः [अवश्व क्षुरप्र संस्थान संस्थिताः X ] नित्यान्य करत मसाः - मेषच्छन्नाम्बरतल कृष्ण पक्ष रजनीच रामो बहुला, तथा व्यपगतश्चन्द्रसूर्य नक्षत्र ज्योतिष्पयो येषां ते तथा, तथा मेदवसामाँसरुधिरपूपपटला + तथा अशुचयो विसुक्कलेदप्रधानाः, अत एव ★ " एतच संस्थानं पुष्पावकीर्णानाश्रित्योकं तेषामेव प्रचुरत्वात, आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्तभ्यत्र चतुरस्त्र संस्थाना एक भवन्ति " इति वृहद्वृत्तौ ।
+ " तैर्लिप्तानि - पिच्छिलीकृतानि ' अनुलेपनतळानि ' अनुलेपनप्रधानानि तानि येषां ते तथा " इति बृहद्वृत्तौ ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
'विश्राः ' कथितमामादिकल्पकर्दमविलिप्ताः, एवं परमदुर्गन्धा:-[ कृथितगोमायु]कलेवरावप्यमवगन्धाः, तथा कृष्णाऽग्निः । वर्णामाः रूपतः, स्पर्शतस्तु 'कर्कशः' कठिनो वजकण्टकादप्यधिकतर स्पर्धा येषां ते तथा]ीः, तथा ' दुस्सहाः' अतीव दुरलेन अधिसह्यन्ते, किमिति ! यतस्ते नरका:-पश्चानाम पीन्द्रियार्थानापशोमनत्वादशुमाः, तत्र च । कारिणामुग्रदण्डपातिनां ती वा अतिदुःसहा वेदनाः प्रादुर्भवन्ति । ते व नारकास्तया वेदनया अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न निद्रायन्ते न अचलायन्ते; * वेदनाऽभिभूतत्वात्कृतस्तेषां निद्रालाभो भवतीति दर्शयति, तीवा-मुजालामित्यादिविशेषण. | विशिष्टां यावद् वेदनां वेदयन्त्यनुभवन्ति । पुनस्परं प्रशान्तमा --
से जहा नामए (केइ) रुक्खे सिया पवयग्गे जाते मूले छिन्ने अम्गे गरुए जओ णिन्नं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते गब्भातो गभं जम्मातो जम्मं माराओ मारं नरगाओ नरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए नेरईए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लहबोहिए यावि भवति, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव [अ]सबदुक्खप्पहीणमम्गे एगंतमिच्छे असाहू, पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विहंगे एवमाहिए ॥ [ सू० २२ ]
*" श्रुति वा रति वा धृति वा मति वा नोपलभन्ते " इति हर्ष ।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
व्याख्या-सुगमैव स्वयमेवाम्या +
अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव । धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुब्बया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सवाओ पाणा(ति)यवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जाव जेयावन्ने तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्मंता | परपाणपरितावणकरा कज्जति, तओ वि पडिविरया जावजीवाए । ___व्याख्या-अथाऽपरस्य द्वितीयस्य स्थानस्य 'विमङ्गो' विभागः स्वरूपमेवं-वक्ष्यमाणनी त्याऽऽख्यायते, तद्यथाइह खलु प्राच्यादिदिक्षु मध्ये अन्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते, ते चैवम्भूता भवन्तीति, त[प]था-न विद्यते सावध __ + "तयथा नाम कश्चिदुश्नः पर्वताये जातो मूलछिन्नः शीघ्रं यथा निम्न पतति, एवमसावण्यसाधुकर्मकारी तत्कर्मवातेरितो बात प्रेरितः सन् शीघ्रमेव नरके पतति, तोऽप्युदत्तो गर्भादूगर्भमवश्यं याति, न तस्य किनिराणं भवति, यावदागामिन्यपि कालेऽसौ दुर्लभधर्मप्रतिपत्तिर्भवतीति। साम्प्रतमुपसंहरति-'एस ठाणे इत्यादि, तदेतत्स्थानमनाये पापानुष्ठानपरत्वाद्यावदेकाम्तमिध्यारूपमसाधु । | तदेवं प्रथमस्याधर्मपाक्षिकस्य स्थानस्य विमङ्गो' विभागः स्वरूपमेष व्याख्यातः।" इति प्रत्यन्तरेऽस्य सूत्रस्य व्याख्योपलभ्यते ।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
| आरम्भो येषां ते अनारम्भाः, तथा ' अपरिग्रहाः ' निष्किचना, धर्मेण चरन्तीति धामिका, पावद्धम्र्मेणैवात्मनो वृत्ति
परिकल्पयन्ति, तथा सुशीला सुबताः सुप्रत्यानन्दाः सुगमत्र समान नामानिनादादिरता, पलं गावत्परिग्रहाद्विरता इति, IN | ये चान्ये तथाप्रकाराः सावद्यारम्भा यावदबोधिकारिणस्तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विरता इति ।
पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणान् दर्शयितुमाह
से जहा नामए अणगारा भगवंतो इरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाण. भंडमचनिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिद्वावणियासमिया, मणसमिया वयसमिया कायसमिया, मणगुत्ता वययुत्ता कायगुत्ता, गुत्ता प्रतिदिया गुत्तबंभयारी, अकोहा अमाणा अमाया अलोभा, संतो पसंता उवसंता परिनिव्वुडा, अणासवा अग्गंथा छिन्नसोया निरुवलेवा, कंसपाईव मुक्कतोया संखो इव निरंजणाजीवो इव अप्पडिहयगई गगणतलं पिव निरालंबणा | वाउरिव अप्पडिबद्धा सारदसलिलं व सुद्धहियया, पुक्खरपत्तं पिव निरुवलेवा कुम्मोइव प्रतिदिया विहग इव विप्पमुक्का खग्गिविसाणं व एगजाया भारंडपक्खीव अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा. वसहो इव जातथामा सीहो इव दुद्धरिसा मंदरो इव निप्पकंपा सागरो इव गंभीरा चंदो इव
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
|| सोमलेसा सूरो इव दित्ततेया जच्चकंचणगं व जातरूवा वसुंधरा इव सबफासविसहा सुहतहुया- 11
सणो विव तेयसा जलंता। नत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थ वि पडिबंधे, से य पडिबंधे चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-अंडएति वा पोयएति वा उग्गहेइ वा पग्गहेइ वा, जन्नं जन्नं दिस इच्छंति तन्नं तन्नं दिसं अप्पडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अ[ग]प्पगंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । तेसि णं भगवंताणं इमा एतारूवा जायामायावित्ती होत्था, तं जहा-चउत्थभते
x" नास्ति तेषां कुत्रचित्प्रतिबन्धः, स च प्रतिबन्धश्चतुर्विधस्तश्चया-अण्डजो हंसावि. अण्डकं चा मयूराण्ड क्रीडामयूरा बिहेतुः, स्याचेन तत्र प्रतिबन्धः। पोतजे हस्त्यादौ पोवके वा शिशुस्वारप्रतिबन्धः स्यात् । अथवा 'अंडजोड वा बॉडजोहवा' इति पाठान्तरं । अण्डज-सणिका विवस्त्रं, वोज-कापसिं वलं, तत्र प्रतिबन्धः स्यात् । 'उग्गहेइ का' अवगृहीतं-परिवेषणार्थमुत्पाटित भक्तपानं, प्रगृहीत-भोजनार्थमुत्पाटितं तदेव, अथवा अनवमहिकं वसतिपीठफळकादि औपनदिक वा दण्डकाधपधिजातं, प्रग्रहीतं तु । रजोहरणाचौधिकोपविरूप, वत्र प्रतिबन्धः स्यात् । 'जष्ण 'ति यां यां] दिशमिच्छन्ति विहां तांतां विशं विहरन्ति । किम्भूताः ? खप्रतिबद्धाः शुचिभूता-भावशुद्धिमन्तः श्रतिभूता वा-प्राप्तसिद्धान्ताः । लघुभूता-अल्पोपधयोऽगौरवाच, अनल्पग्रन्था-पहागमा, न विद्यते खात्मनः सम्बन्धी अन्यो-हिरण्या विर्येषों सेऽनात्मग्रन्था इति वा"इवि हर्ष।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
छट्टभत्ते अट्टमभत्ते दसमभत्ते दुवालसमभत्ते वोद्दसमभत्ते, अद्धमासिए ( भत्ते ) मासिए ( भने) दोमासिए तिमासिए चउम्मासिए पंचमासिए छम्मासिए, अदुत्तरं चणं उखिचचरगा (निक्खितचरगा उक्खित्त) निखित्तचरगा अंतवरगा पंतचरगा लूहचरगा समुयाणचरगा संसद्वचरगा असंसचरगा तज्जातसंसट्रुचरगा, दिट्ठलाभिया आदट्ठलाभिया, युट्ठलाभिया अपुटुलाभिया, भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया, अन्नातचरगा * अन्नगिलायचरगा उपनिहिया, + संखादत्तिया परिमिय
* नास्त्येतचिह्नमध्यगतः पाठः सवृत्तिकमुद्रित प्रतिषु ।
+ " सङ्ख्याप्रवाना दत्तयो येषां ते तथा । परिमित-पोषादि(?) ( पिण्डपात- आहार) काभो येषामस्ति ते तथा । 'सुद्धेसणिया ' शुद्धेषणाः, शुद्धस्य वा निर्व्यञ्जनस्य भक्तादेरेषणा येषामस्ति [ तथा ] | अभ्वप्रान्तं - बलचनकादिः, स आहारो येषां ते तथा । विरसं नीरसं शीतलीभूतं । रूक्षाहाराः । ' अंबलिया' आचाम्लं-ओदन कुल्माषादि तेन चरन्वीति । निर्विकृतिका:घृताविविकृतित्यागिनः । अमद्यमांसाशिनः -- मद्यमांसं नाशन्तीति । 'नो नियाग 'चि न नित्यं रस भोजिनः । 'नेसज्जिया' निष्यायुतायां भूमौ उपदिशनं, तथा चरन्तीति नैषधिकाः । सिंहासन निविष्टश्य भून्यस्तपादस्य सिंहासनापनोदे सति या शमवस्थानं, तस्यास्ति स वीरासनिकः । दण्डस्येवायतं - आयामो येषां ते दण्डायतिकाः । लगण्डं वक्रकाएं, तद्वत् शेरते ये ते गण्डशायिनः
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिंडवाइया, सुद्धेसणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लूहाहारातुच्छाहारा, अंतजीवी | पंतजीवी, आयंबिलिया पुरमडिया निविगइया, अमजमंसासिणो नो निकाम[नो नियाग]रसभोई ।। ठाणाइया पडिमाठाणाइया उकुडुआसणिया नेसजिया वीरालणिया दंडायतिया लगंडसाइणो[आयावगा] अवाउडा अगत्तया अकंडया आनिहा धुतकेसमंसुरोमनहा, सबगायपडिकम्म| विष्पमुक्का चिट्ठति । [ते णं] एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहुई वासाइं सामनपरियागं पाउणति पाउणित्ता आवाहंसि उप्पन्नंसि वा अणुप्पन्नति वा बहूई भत्ताइ[पञ्चक्खंति],पञ्चक्खित्ता बहूई। भत्ताई अणसणाए छेदिति, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाण[भावे]गे अदंतवणगे अच्छत्तए अणोबाहणए, भूमिसेजा फलगसेजा कट्टसेजा केसलोए बंभचेरवासे । परघरपवेसे लद्वावलद्धे माणावमाणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ पामिका शिरश्च वा (?) भूमौ लगति तथा शयनं कुर्वतः । आतापका-आतापनामाहिणः । 'अबाउडा अप्रावृता:-प्रावरणवकाः ।। अगिट्टहा' अनिष्टीवना।" इति हर्षकुलीयदीपिकायाम् ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
तालणाओ उच्चाक्या गामकंटगा बावीसं परसिहोवसग्गा अहियासिज्जति तमढें आराहेंति, आराहित्ता चरमहिं ऊसासनीसासेहि अणंतं अणुत्तरं निवाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुग्नं केवल वरनाणदंसणं समुप्पाडिंति, समुप्पाडित्ता कालमासे कालं किच्चा ततो पच्छा सिझंति बुज्झति । मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति । एगच्चाए पुण एगे भयंतारो भवंति, अवरे पुण पुवकम्मावसेसेणं [कालमासे]कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, सं जहा-महिडिएसु महज्जुतिएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेख महाणुभावेसु महासुक्खेसु । ____ व्याख्या--+ इत्यादिसाधुवर्णकः प्राक्तनः सर्वोऽपि पाठसिद्ध एच, सुगमत्वात् , हट्टीकाकारेण न व्याख्यातोऽत्रा || ___+ इत: प्राक् प्रत्यन्तरे निम्नप्रकारेणोपलभ्यते वृचिपाठः-" सुगम एक, नवरं विशेष:- उक्खित्तचरए' उरिक्षप्त-स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धतं, तदर्थमभिमहतश्चरवि-सद्गवेषणाय गच्छतीत्युक्षिप्तचरकः ।निक्खित्तचरए ति निक्षित-पाकमाजनादनुद्धतं । ' उक्खित्त-निक्वितचरए पति पाकभाजनादुत्क्षिप्तं तत्र पाऽन्यत्र च स्थाने (निक्षिप्तं ) यसस्क्षिप्तनिश्चितं । 'संसह चरए 'त्ति संसष्ठेन-खरण्टितेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते, तवरति यः स था। 'असंसहचरए 'ति [उक्तविपरीतमसमष्ट, तेन परति । 'तजाय 'ति] तजातेन देयद्रव्याविरोधिना यत्संसृष्टं इस्वादि, तेच दीयमानं यश्चरति स तथा । 'अनायचरए 'त्ति
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्यत एव न लिखितः । अन्यच्च विशेषार्थिना औपपातिकमाचाराङ्गसम्बन्धिप्रथममुपानं तत्र च साधुगुणाः प्रबन्धेन व्यावर्ण्यन्ते तदिहापि तेनैव क्रमेण द्रष्टम्यमिति वा एविवाः सत्वरः सर्वगात्र परिकर्म्मविप्रमुक्ता निष्प्रतिकर्म शरीरास्तिष्ठन्तीति । तथोग्रविहारिणः प्रब्रज्यापर्यायमनुपालय आबाधारूपे रोगात समुत्पन्ने अनुरुपको वा मक्तप्रत्याख्यानं विदधति । किं बहुनोक्तेन ? यत्कृतेऽयमयोगोलकषन्निरास्त्रादः करवालपारामार्गवद्दुरध्यवसायः श्रमण मावोऽनुपात्यते तमर्थ सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राख्यमाराध्याऽव्याइतमेकमनन्तं केवलज्ञानमवाप्नुवन्ति, केवलज्ञानावाप्लेरू सर्वदुःखविमो क्षणलक्षणं मोक्षमवाप्नुवन्ति । एके पुनरेकया अर्चया- एक्रेन शरीरेण एकस्माद्वा मत्रात्सिद्विगतिं गन्तारो मरन्ति, अपरे अतो-नुपदर्शितस्थाजन्यादिभावः संश्वरति यः स तथा 'दिलामिए 'चि दृष्टस्यैव भक्तादेईष्टाद्वा-पूर्वोपलब्धदायकालाभो यस्यास्ति साभिः । ' अदिट्ठलाभिए ' तत्रादृष्टस्यापि अपवरकादिमध्यान्निर्गतस्य श्रोत्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेरष्टाद्वापूर्वमनुपलब्धाय का लाभो यस्यास्ति स तथा । ' पुडुलाभिए 'ति पृष्टस्यैव हे साधो ! किं ते दीयते ?' इत्यादिप्रमितस्य यो लाभो यस्यास्ति स तथा । ' अट्ठलाभिए 'त्ति [ पृष्टलाभिकविपर्ययात् । 'भिक्खलाभिए 'ति ] भिक्षेव भिक्षा- तुच्छमवज्ञातं वा, तल्लामो ब्राह्मतया यस्यास्ति स मिश्रालाभिकः । 'अभिक्खलाभिए 'ति उक्तविपर्ययात् । [ अज्ञातचरका - अज्ञातगृहेषु चरन्तीत्यभि भवन्तः ] । ' अन्नगिलायए 'त्ति अन्नं भोजनं विना ग्लायति ( यः स ) अनग्लायकः, स चाभिपदविशेषात्प्रातरेव दोषाऽप्रभुगिति । ' उवनियि'त्ति उपनिहितं [ यथा कथविदासनीभूतं तेन चरति यः स औपनिद्दितकः ] " इत्यादि ।
* 'घूतं' अपनीतं केशश्मश्रुलोमनखादिकं यैस्ते तथा इति बृहद्वृत्तौ ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वशाविद्यममारे सरि घमावगाः कालं कुत्वाऽन्यतमेषु वैमानिकेषु देवेपूत्पद्यन्ते, तत्रेन्द्रसामानिकवायस्त्रिंशल्लोकपालपार्षद्या[स्म]रक्षप्रकीर्णेषु नानाविधसमृद्धिषु मवन्तीति, नस्वाभियोगिककिल्लिषिकादिग्विति । 'तं जहे'. | त्यादि, तद्यथा-महादिषु देवलोकेषत्पधन्ते । ते देवास्त्वेवम्भूता भवन्तीति दर्शयति
ते णं तत्थ देवा भवंति-[ महिड्डिया महज्जुत्तिया जाव महासुक्खा ] हारविराइयवच्छा | कडगतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्टगंडतलकण्णापीढधारी विचित्तवत्थाहरणा विचिचमाला
मउलिमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा । दिवेणं रूत्रेणं दिवेणं वष्णेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं | दिवाए इड्डीए दिवाए जुत्तीए दिवाए पभाए दिवाय छायाए दिवाए अच्चाए दिवेणं तेएणं दिवाए। लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गतिकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि भवंति । एस ठाणे आयरिए, जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसाहू दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सु० २३ ] ॥ व्याख्या-'ते ण तस्थ वेषा' इत्यादि, ते देवा नानाविधतपश्चरणोपाचशुमकायो महादिगुणोपेता भवन्ती
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्यादिकः सामान्यवर्णकस्तथा हारविराजितत्रक्षस इत्यादिक आमरणवस्त्रपुष्पवर्णकः । पुनरविश्यापादनार्थं दिव्यरूपादिप्रतिपादनं चिकीर्षुराह - ' दित्र्वेणं रूचेणं' दिव्यरूपेण दिव्यया द्रव्यश्ययोपेताः दशापि दिशः समुद्द्योतयन्तो गत्था श्रीरूपया कल्याणाः, तथा स्थित्योत्कृष्टमध्यमया कल्याणास्ते भवन्ति । तथाऽऽगामिनि काले भद्रकाः शोभन मनुष्यमत्रसम्पदुपेताः तथा सद्धर्मप्रतिपचारच भवन्तीति । तदेतत्स्थानमा मेकान्तेनैव सम्यग्भूतं सुसाध्विति । एतद्वितीय [स्य ] स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य विभङ्ग एवमाख्यातः ।
अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसमस्त विनंगे एवमादिजाति-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवति, तं जहा - अपिच्छा [अप्पारंभा ] अप्पपरिमहा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चैव वित्तं कप्पेमाणा विहरंति । सुसीला सुवया सुप्पडियाणंदा साहू एगञ्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए एगचाओ अप्पडिविरया जाव जे यावन्ना तहपगारा सावजा अबोहिया कम्ता परपाण परितावणकरा कज्ळंति, ततोवि एगच्चाओ अप्पडिविरया ।
व्याख्या - अथापरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाख्यस्य विभङ्गः समाख्यायते एतच यद्यपि मिश्रत्वाद्धर्माधर्माम्यामुपेतं भवति [ तथापि ] धर्म भूमिपुत्वाद्धार्मिकपक्षेऽवतरति, तद्यथा - बहुषु गुणेषु मध्यपतितो दोषो नात्मानं लभते, कलङ्क व चन्द्रिकाया, तथा बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलावयवो नोदकं कल्पयितुमलं, एवमम्मोंऽपि धर्ममिति स्थितं ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
VI असौ मिश्रपक्षोऽपि धाम्मिकपक्षेऽवतरति । इह खलु जगति प्राच्यादिदिक्षु एके' केवन शुभकर्माणो मनुष्या भजन्तीति, IN
अल्पेच्छा अल्पपरिग्रहारम्भा, एवंविधा धामिकत्तयः ग्राया सशीला सवताः सुप्रत्यानन्दा: साधवो एकस्मात् स्थूलात्सङ्कल्पकनात प्रतिनिता, एकस्माच्च सूक्ष्मादारम्भजादप्रतिविरताः, एवं शेषाण्यषि व्रतानि संयोज्यानीति | 'जे याघन्ने' ये चान्ये सावद्या नरकगतिहतका कर्मममारम्भास्तेभ्य एकस्माधन्त्रपीडानिलाञ्छनादिभ्यो निवृत्ता एकस्माच | क्रयविक्रयादेरनिवृत्ता इति । तांश्च विशेषतो दर्शयति
से जहा नामए समणोवासगा भवंति-अभिगयजीवाजीवा उपलद्धपुन्नपावा आसक्संवरवेयणाणिज्जराकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसला असहिजा देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नरकिपुरिसगरुलगंधवमहोरगमाइएहिं देवगणेहिं निगंथाओ पावयणाओ अणइकमणिजा, निग्गंथे । पावयणे निस्संकिया निकांखिया णिवितिगिच्छा, लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभि
गयट्ठा अट्रिमिंजपेमाणुरागरत्ता, अयमाउसो ! निग्गंथे पायवणे अढे अयं परमटे सेसे अणद्वे, Hऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा अचियत्ततेउरपरघरप्पवेसा, चाउद्दसट्टमुहिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं
पोसह सम्म अणुपालेमाणा, समणे निम्गंथे फासुयएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थ
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं [ओसहभेसजेणं ] पीढफलगसिहा संशारए पहिलाभेमाणा बहूहिं।
सीलवयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववाहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा ETV बिहरंति, ते गं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बलूई वासाई समणोवासगपरियाय पाउणति,
पाउणित्ता आबाहंसि उप्पन्नंसि वा अणुप्पन्नंसि वा बहई भत्ताई अणसणाए (पञ्चक्खायंति), IN पच्चक्खाइचा बहूई भत्ताई अणसणाए(छेदेति),च्छेदित्ता आलोइयपडिकत्ता समाहिपत्ता कालमासे | कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवताए उववत्तारो भवति, तं जहा-महिडिएसु मह जुइएसु जाव महासुक्खेसु, सेसं तहेव जाव एस ठाणे आरिए जाव एगंतसम्म साहू, तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवं आहिए । ___ व्याख्या-अयं श्रमणोपासकवर्णका सुगम एव, विशेषार्षिना वृहट्टीका विलोकनीया, अत्र ग्रन्धमौरवमयान्याख्या
न लिखिता । नवरं-'ऊसियफलिहा' उच्छुितानि स्कटिकानीव स्फटिकान्यन्त:करणानि येषां ते तथा, एतदुक्तं भवति21 मौनीन्द्रदर्शनावातौ सत्यां परितुष्टमानसा इति । तथा अप्रावृतानि द्वाराणि यैस्ते तथा, उद्घाटितगृहद्वारास्तिष्ठन्ति, सदर्शन
लामेन न क(स्माचिस्यचि()द्वि भेति, शोमनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटितशिरसो विश्रब्धं-विष्ठन्तीति । अपर सर्व सुगमम् ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
तदेतत् स्थानं कल्याणं - परम्परया सुखचिपाकमिति कृत्वाऽऽर्यमित्येवं विभङ्गस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाख्यस्याऽऽरूयात इति । उक्ताः धार्मिका अनामिकाच, तदुभयरूपाश्चाभिहिताः । साम्प्रतमेतदेव स्थानत्रिकं संक्षेपतो विभणिपुराह -
अविरतिं पच्च वाले आहिजति, त्रिरतिं पच पंडिए आहिजति, विरयाविरई पडुच्च बालपंडिए आहिज्जति, तत्थ णं जा सा सहओ अविरती एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए जाव असवदुक्खप्पीस एमिच्छे बाहू । तस्य मं जा सा सवतो विरती एस ठाणे अणारंभट्ठाणे ( एस ठाणे ) आरिए जाव सवदुक्खष्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू । तत्थ णं जा सा सबओ विश्यावर एस ठाणे अणा [आरंभणोआ] रंभट्ठाणे, एस ठाणे आरिए जाव सवदुक्खप्पीणमो एतसम्म साहू ॥ [सू. २४] ॥
व्याख्या - येयमविरतिरसंयमरूपा, सम्यक्त्वा मावान्मिथ्यादृटेर्द्रव्यतो विरतिरप्यविरतिरेव तां 'प्रतीत्य ' आश्रित्य बालोऽङ्गः, सदसद्विवेक विकलत्वादित्येवमाधीयते - व्यवस्थाप्यते आख्यायते वा, विरति प्रतीत्य पण्डितः, तथा विरताविरति प्रतीत्य वालपण्डित इत्येतत्प्राग्वदायोज्यमिति । ' तत्थ ण' मित्यादि, तत्र पूर्वोक्तेषु स्थानेषु येयं सर्वस्मादविरतिविरतिपरिणामाभावः, तदेतत्स्थानं सावद्यारम्मस्थानं, एतदाश्रित्य सर्वाणि [अ] कार्याणि क्रियन्ते, अत एतदनार्यस्थानं, निशङ्कतया परिकञ्चनकारित्वात् यावदसर्वदुःख प्रहीण माग्गोऽयं एकान्तमिध्यारूपोऽसाधुरिति, तत्र च येयं 'विरतिः '
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वपूर्विकासविद्यारम्मानिवृत्तिः, सा स्थगिताश्रव द्वारत्वात्पापा[ नुपादानरूपेति त्तित्वात् (१) । एतत्स्थान मनारम्भाणी गातानानं देवस्थान मास्थानं अशेषकम्र्मश्वयमार्गः, तथैकान्तसम्यग्भूतः, एतदेवाहसाधुरिति साधुभूतानुष्ठानात् । तत्र चेयं या विरताविरतिरभिधीयते सा मिश्रस्थानभूता, तदेतदारम्भाना रम्मस्थानं एतदपि विदार्यमेव, पारम्पर्येण सर्वदुःखप्रक्षीण मार्गस्तथैकान्त सम्यग्भूतः साधुश्चेति । तदेवमनेकविधोऽयमधर्म्मपक्षो धर्म्मपेक्ष मिश्रपक्षचेति संक्षेपेणाभिहितः । मिश्रपक्षोऽप्यनयोरेवान्तर्वर्त्ती भवतीति दर्शयति
1
एवमेव समणुगममाणा + इमेहिं चैव दोहिं ठाणेहिं समोअरंति, तं जहा-धम्मे चैव अधम्मे चेव उवसं चेव अणुत्रसंते चैत्र, तत्थ णं जे से पदम [स] ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे माहिए, तत्थ णं इमाई तिनि तेबट्टाई पावाडयसयाइं भवतीति मक्खा [] याइं ] यं । तं जहा - किरियाबाईणं अकिरियावाईणं अन्नाणियवाईणं वेणईयवाईणं, तेवि [परि ] निवाणमाहंसु, वि पलिमोक्खमासु, ते वि लवंति सावगा ते वि लवंति सावइचारो ॥ [ सू. २५ ] व्याख्या- 'एवमेवेत्यादि, एवमेत्र संक्षेपेण 'समनुगम्यमाना व्याख्यायमाना 'अनयोरेव' धर्माधर्मस्थानयोरनु+ 'समशुगिज्झमाणा' इति पाठान्तरं सम्यगनुगृह्यमाणः ' इत्यर्थच हर्ष० ।
1
-
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
पतन्ति कथं यदुपशान्तस्थानं तद्धर्म्मपक्षस्थान [मनुपशान्तस्थानमधर्मपचस्थान ]मिति, तत्र च यदधर्म्मपाक्षिकं प्रथमं स्थानं तत्रामूनि श्रीणि त्रिपथ्यधिकानि प्रावादुकशतान्यन्तर्भवन्ति, एवमाख्यातं पूर्वाचार्यैरिति । एतानि च सामान्येन दर्शयितुमाह-' से जहा ' इत्यादि, तत्र क्रियवादिनः ज्ञानरहितो क्रियां स्वर्गापवर्गसाधिकां वदन्ति ते क्रियावादिनः क्रियात एव मोक्षं वदन्तीति भावः । तत्र क्रियावादिनामशीत्युत्तरं शतं, अक्रियावादिनां चतुरशीतिः, अज्ञानिकानां सप्तषष्टिः, वैनयिकानां द्वात्रिंशदिति । एते सर्वेऽपि प्रावादुकाः मोक्षमार्ग कथयन्ति तेऽपि प्राचादुकाः संसारबन्धनान्मोचनात्मकं मोक्षमाहुः । तेऽपि ' तीर्थिकाः 'लपन्ति' वदन्ति मोक्षं प्रति धर्मदेशनां विदधतीति । शृण्वन्तीती श्रावकाः, अहो श्रावका ! एवं गृह्णीत यथा देवमथापि श्रावयितारः सन्तः एवं 'लपन्ति' भाषन्ते यथाऽनेनोपायेन स्व. मोक्षावाप्तिरिति तद्वचनं मिथ्यात्वोपहतबुद्धयोऽवितथमेव गृह्णन्ति, कूटपण्यदायिनां विपर्यस्तमतय इवेति तथा कथमेते प्रादादुकाः * अहिंसां प्रतिपादयन्ति न च तां प्रधान मोक्षाङ्गभूतां सम्यगनुतिष्ठन्ति । तथा सर्वे प्रावादुकाः मोक्षाङ्गभूतामहिंसा अप्राधाम्येन प्रतिपद्यन्ते इति दर्शयितुमाह
तेस पावाडया आइकरा धम्माणं नाणापन्ना नाणाछंदा नाणासीला नाणादिट्ठी नाणारुई नाणारंभा नाणाऽज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किया सबे एगओ चिति । पुरिसे य * " मिध्यावादिनो भवन्तीसि १ अत्रोच्यते-- यतस्तेऽपि " इति बृहद्वृत्तौ ।
१३
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
IT
॥
सागणियाणं इंगालाणं पातिं बहुपडि
ओनं पंढासणं महाय ते सधे पावाउए (प्रावादकान् ) आदिगरे धम्माणं नाणापन्ने (प्रज्ञान् ) जाव नाणाऽज्झवसाणसंजुत्ते एवं वयासि-हं भो पावाडया ! 'जाइरा बम्माणं नानापन्ना जाव नाणाऽज्झवसाणसंजुत्ता ! इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगलाणं पाई बहुपडिन्नं गाय मुहुत्तयं मुहुत्तयं पाणिणा घरेह नो बहुसंडासगसंसारियं कुजा नो बहु अग्गिथंभणियं कुजा नो बहुसाहम्मिय* त्रेयावडियं (वैयायं ) कुजा नो बहुपरधम्मियने या वडियं कुज्जा उज्जुया नियागपडिवन्ना अमायं कुवमाणा पाणिं पसारेद्द, इति वच्चा से पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पातिं बहुपडिपुन्नं अओमएणं संडास एणं गहाय पार्णिसु निसि - रति तप णं ते पावादुया आदिगरा धम्माणं नाणापन्ना जाव नाणाज्झवसाणसंजुत्ता पार्णि डिसा • हरति (सोवयेयुः), तए णं से पुरिसे ते सधे पावा [ उए [इयाणं आदिगरे धम्माणं जाव नाणाज्झवसाणसंजुत्ते एवं वदासी-हं भो पावादुया ! आदिगरा धम्माणं ( णाणापना ) जाव नाणा
* साधकानामग्निदाहोपशमनाऽदिनोपकारं कुरुतेति ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्झवसाणसंजुत्ता!कम्हाणं तुम्भे पाणि पडिसाइरह ? पाणी नो डहेज्ज( दयति )दरे कि भविस्तइ ? [दुक्खं] दुक्खंति मन्नमाणा पाणिं पडिसाहरह, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्थ णं जे तेसमणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूविति-॥
सवे पाणा जाव सवे सत्ता इंतवा अजायबा परिघेतवा परितावेयवा किलामेतवा उद्दवेयवा, ते । आगंतु छेयाए से आगंतु भेलाए जा से भागंतु अाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणब्भवगम्भवा- |
सभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहणं दंडणाणं बहुणं मुंडणाणं तज्जणाणं तालणाणं
अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भइणीमरणाणं भजामरणाणं । पुत्तमरणाणं धूयामरणाणं सुण्हामरणाणं दारिदाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओगाणं | या बहणं दुक्खदोम्मणस्साणं आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरत- |
संसारकंतारं भुजो भुजो अणुपरियाहस्संति, ते णो सिन्झिस्संति नो बुझिस्संति जाव नो सबदुक्खाणमंतं करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं ।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
समोसरणे। तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूविति-सवे पाणा जाव सवे सत्ता न हंतवा जाव न उद्दवेयवा, ते णो आगंतुं छेयाए णो आगंतुं भेयाए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणब्भवगम्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो णो भविस्तंति । ते णो बहूणं दंडणाणं जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं नो आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं भुजो भुजो नो अणुपरियहिस्सति (ते सिन्झिस्संति] जाव सबदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ [ सू. २६ ] ___ व्याख्या- ते सव्वे ' इत्यादि, ते सर्वे प्रावादुकास्पिष्टयुत्तरशतन्त्रयपरिमाणा अप्यादिकराः यथा स्वं धर्माणा,
तथा 'नाना' भिन्ना 'प्रज्ञा' ज्ञानं येषां ते नानाप्रज्ञाः, तथा नानाछन्दा-मिनाभिप्राया, तथा ते नानाऽध्यवसाया।, IT ते सर्वेऽपि प्राबादुका यथा स्वं पक्षमाश्रिताः एकत्र प्रदेशे मण्डलिवन्धमाधाय तिष्ठन्ति, तेषां च व्यवस्थिवानामेकः ।।
कश्चिन्पुरुषस्तेषां प्रतिषोधनार्य ज्वलतामहाराणां प्रतिपूर्णी ' पात्रीं' अयोमयं माजनं लोहमयेन मन्दंशकेन गृहीत्वा तेषां | दौकितवान् , उवाच च-भोः प्रावादकाः । इदमजारभृतं भाजन एकैकं महतं प्रत्येकं विमृत यूयं, न चेदं सन्दंशकं सांसारिक नापि चाम्निस्तम्भनं विधत्त नापि साधम्मकान्यधार्मिकाणामग्निदाहोपशमादिनोपकारं कुरुतेति 'ऋजवो' मापामकुर्वाणा:
ज
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाणि प्रसारयत, तेऽपि च तथैव कुयुः, ततोऽसौ पुरुषस्तद्वाजनं तत्पाणौ समर्पयति, तेऽपि च दाहाया हस्त सङ्कोचयेयुरिति । ततोऽसौ तानुवाच-किमिति पाण प्रतिसंहरत ! यूर्य, एवमाहितास्ते ऊचुः-दाहमयादिति । एतदुक्तं भवति-अवश्यमग्निदाहमयान्न कश्चिदग्न्यभिमुखं पाणिं ददातीत्येतत्परोऽयं दृष्टान्तः। [ स नर प्राह-] पाणिना दग्धेनापि किं भवतां | भविष्यति । दुःखमिति चेयद्येवं दाहभीरवो यूयं सुखाभिलाषिणच, तदेवंसति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदरविवरवर्चिन एवम्भूता | एवेत्येवमात्मतुलया-ऽऽत्मौपम्येन यथा मम नाभिमतं दुःखमेवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याहिंसैव प्राधान्येनाऽऽश्रयणीया । | 'तदेतत्प्रमाण' सैषा युक्तिः “आत्मवत् सर्व भूतानि, यः पश्यति स पश्यति" तदेतत् समवसरण-स एवं धर्मविचारो यत्राहिंसा सम्पूर्णा, तत्रैव परमार्थतो धर्म इत्येवं व्यवस्थिते तत्र ये केचनाचिदितपरमार्थाः श्रमणबामणादयः ‘एवं' वक्ष्य माणमाचक्षते-परेषामेवं भाषन्ते, तथैवं धम्म ' प्रज्ञापयन्ति ' यत्रस्थापयन्ति, तथाऽनेन प्राण्युपतापकारिणा प्रकारेण धम्म प्ररूपयन्ति, तथाहि-सर्वे प्राणा इत्यादि, याचदन्तव्या दण्डादिभिः, परितापयितव्याः धर्मार्थमरघट्वहनादिभिः, परिमायाः श्राद्धादौरोहितमत्स्यादय इव तथाऽपद्रावयितव्या देवतायामादिमिमि छागादयः, इत्येवं ये श्रमण | कारिणी भाषा भाषन्ते ते आगामिनि काले 'अनेको' बहुशः स्वशरीरच्छेदाय भेदाय च भाषन्ते, तथा ते सावध| भाषिणो मविष्यति काले जातिजरामरणानि बहूनि प्राप्नुवन्ति । [ योन्यां जन्म ] योनिजन्म, तदनेको गर्भव्युत्क्रान्तजावस्थायां प्राप्नुवन्ति, तथा संसारप्रपत्रान्तर्गताः कलङ्कलीभावभाजो भवन्ति बहुश्शो भविष्यन्ति च, तथा ते बहूनां दण्णादीनां [ शारीराणां ]दुःखानामात्मानं माजनं कुर्वन्ति, तथा ते मानमरणादीनां मानसाना दुःखानां तथाऽन्येषामप्रिय.
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्प्रयोगार्थनाशादिभिर्दुःखदौर्मनस्यानामा भागिनो भविष्यन्ति । तथाऽनाद्यनवद-अनाद्यनन्तं संसारकान्तारं भूयो - भूयः अनुपरिवर्तिष्यन्ते, अरघट्टघटीन्यायेन तत्रैव भ्रमन्तः स्थास्यन्ति । तथा ते कुप्रावचनिकाः नैष सेत्स्यन्ति, नैव ते सर्वपदार्थान् भोत्स्यन्ते नैव ते संसारान्मोक्ष्यन्ते, तथा परिनिर्वृतिः- परिनिर्वाणमानन्दं नैव लप्स्यन्ते । न च ते सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति एवं स्वयूथ्या अपि सावद्योपदेशतया न सेत्स्यन्ति । एषा तुला एतत्समवसरण - मागमविचार रूपं द्रष्टव्यमिति । तथा ये पुनर्विदिततच्चा एवं प्ररूपयन्ति - सर्वेऽपि जीवा दुःखद्विषः सुखलिप्सवोऽतो न हन्तव्या इति भाषन्ते ते पूर्वोक्तं दण्डनादिकं न प्रास्यन्ति, संसारकान्तारमचिरेणैव व्यतिक्रमिष्यन्तीत्यादि सर्वे पूर्वोक्तं भणनीयमिति । भणितानि क्रियास्थानानि, अथ पूर्वोक्तमेव संक्षेपेण कथयति -
sarहिं बारसहिं किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा नो सिंज्झिसु जाव नो सवदुक्खाणं अंत [] वा [ णो ] करिस्संति वा, एयंसि चैव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणां जीवा सिज्झि बुझि मुचिंसु परिनिवाईसु जाव सङ्घदुक्खाणं अंतं करिंसु वा करिति वा करिस्सति वा । एवं से भिक्खू आतट्ठी ( आत्मार्थी ) आयहिते आयगुत्ते आयजोगे आयपरक्कमे आरखिए आयाणुपए आयनिप्फेडए आयाणमेव पडिसाहरिज्जासि तिबेमि [सू० २७ ] | arrerita किरियाठाणं नाम बीयमज्झयणं समत्तं ॥
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - इत्येतेषु द्वादश क्रियास्थानेष्वधर्मपक्षः समवतार्थते, तत् एतेषु वर्तमाना जीवा नातीते काले सिद्धा न सिद्ध्यन्ति न सेत्स्यन्ति, तथा न बुबुधुने बुद्ध्यन्ते न भोत्स्यन्ते तथा न मुमुचुर्न मुञ्चन्ति न च मोक्ष्यन्ते, न निर्वृता न निर्वान्ति न निर्वास्यन्ति तथा न सर्वदुःखानामन्तं यथुर्न च यान्ति न च यास्यन्ति । साम्प्रतं त्रयोदशं क्रियास्थानं धर्मपाश्रितं दर्शयितुमाह-' एसि ' इत्यादि, एतस्मित्रयोदशे क्रियास्थाने वर्त्तमानाः जीवाः सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति यावत्सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति स्थितम् । तदेवं स भिक्षुर्यः पुण्डरीकाध्ययनेऽभिहितो द्वादशक्रियास्थानवर्जका अधर्मपक्षानुपश्रमपरित्यागी धर्मपक्षे स्थित उपशान्तः आत्मार्थ्याऽऽत्मार्थसाधकः आत्महितः आत्मगुप्तः आत्मयोगी-सदा धर्मध्याना वस्थित तथा पापेो दुर्गतिगमनादिभ्यः आत्मा रक्षितो येन स आत्मरक्षी, सावद्यानुष्ठानानिवृत्त इति भावः । तथाऽस्मान मनुकम्पते - शुभाऽनुष्ठानेन सद्गतिगामिनं विधत्ते, तथाऽऽत्मानं [संयमेन] संसारचारकान्निस्सास्यति, तथाऽऽत्मानमनर्थभूतेभ्यो द्वादशक्रियास्थानेभ्यः प्रतिसंहरेत् तथाऽऽत्मानं सर्वानर्थेभ्यो निवर्त्तयेदिति । एतच महापुरुषे सम्भाव्यते । इतिः परिसमाध्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत्, श्रीसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य भाषते - श्रीवर्द्धमानस्वामीसमीपे मयैतच्छुतं तद्भवतो निवेदित, न स्वमनीषिकयेति समाप्तं क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनमिति ।
वापि मया पुण्यं, क्रियास्थानं विवृण्वता । तेन पुण्येन लोकोऽयं, भूयादानन्दमेदुरः || १ ||
**********
इति श्रीपरमसुविहितस्वरतरगच्छवि भूषण पाठक प्रवर श्री मत्साघुरङ्गगणिवर कृतायां श्रीमत्कृताङ्गदी पिकाय
द्वितीयश्रुतस्कन्थे द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
mapkin been aloittaa domprarbet
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहारपरिज्ञाभिधं तृतीयमध्ययनम् । अथ आहारपरिक्षाव्यं तृतीयमध्ययन प्रारम्यते । तथाहि
सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु आहारपरिन्नानाम अज्झयणं, तस्स णं | अयमढे पन्नत्ते, इह खलु पाईणं वा ४ सवतो सवाति च णं लोगंसि चत्तारि बीयकाया एव| माहिजंति, तं जहा-अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंघबीया, तेसिं चणं अहाबीएणं अहावगासेणं इह एगतिया सत्ता पुढविजोणीया पुढविसंभवा पुढविवुकमा य, तज्जोणीया तस्संभवा तदुवकमा | कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउद्यति । ते । जीवा तेसिं नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउ- | सरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं, नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति, परिविद्वत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूवि[य] कडं संतं, अवरे वि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा नाणावण्णा नाणागंधा नाणारसा नाणाफासा नाणासंठाण
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
संठिया नाणाविहसरीरपुग्गलविउविता ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मक्खायं ॥ [सू०१॥ ___व्याख्या-'सुयं मे ' सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्यैतदाह, तद्यथा-श्रुतं मया आयुष्मता भगवतेदमाख्यातं, आहारपरिक्षेदमध्ययनं, तस्य चायमर्थः-प्राच्यादिदिक्षु सर्वत' इत्यूर्वाधो विदिक्षु च सर्वस्मिल्लोके चत्वारो 'बीजकाया' बीजप्रकाराः-समुत्पत्तिभेदा भवन्ति, तद्यथा-अग्रे बीजे-येषां तेऽग्रवीजाः तलतालीसहकारादयः शाल्यादयो वा, यदि वा अप्राण्येवोत्पत्ची कारणता प्रतिपयन्ते येषां ते कोरण्टादयः । तथा मूलबीजा आर्द्रकादयः, पर्वबीजा इक्ष्वादया, स्कन्धचीजाः सल्लक्यादयः, तेषां च चतुर्विधानामपि वनस्पतिकायानां यद्यस्य योज'मुत्पत्ति कारण तद्यथाचीज, यथा शास्यरस शालिबीज-मुत्पत्तिकारण, एवमन्यदपि द्रष्टव्यं, ' यथावकाशेनेति यो यस्यावकाशा-यधस्योत्पत्तिस्थानं, अथवा भूम्यम्बु| कालाकाशबीजसंयोगा यथावकाशे गृह्यन्ते, तदेवं यथाबीजं यथाऽवकाशेन चेदाऽस्मिञ्जगति 'एके' केचन सन्चा ये | तथाविधकम्मोदयाद्वनस्पतिपित्सवस्ते हि वनस्पतावुत्पद्यमाना अपि पृथिवीयोनिका भवन्ति, यथा तेषां वनस्पतिविजे| कारणं, परमाधारं विनोत्पत्तिर्न स्याद् तेन पृथिवीयोनिका इत्युच्यन्ते, यथा सेवालकईमानामुत्पत्ती आधारभूतमम्मा, तथा 'पुदविसंभवा' पृथिव्या वनस्पतिकायसम्भवः, तथा 'पुढविवुकमा' पृथिव्यां 'ध्युत्क्रमो' वृद्धिर्मवति, [एवं च ते ] तद्योनि कास्तत्सम्भवास्तव्युत्क्रमाः, अर्थः पूर्ववत् । तथा 'कम्मोवगा' ते हि तथाविधेन वनस्पतिकाय- | सम्मवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वनस्पतियूप-सामीप्येन तस्यामेव पृथिव्यां गच्छन्तीति कर्मोपमा भण्यन्ते, वे हि कर्म
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
मग
वशमा वनस्पतिकायादागत्य तेष्वेष पुनरपि वनस्पतिस्पद्यन्ते, न चाऽन्यत्रोता अन्यत्र भविष्यन्ति, यतः "कुसुम-Jy पुरोते बीजे, मथुरायां नाङ्कुरः समुद्भवति । यत्रैव तस्य बीजं, तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः ।। १ ।। " तथा ते जीवाः | कर्मनिदानेन-कारणेन समारष्यमाणास्तत्र-पृथिव्यां वनस्पतिकाये वा व्युत्क्रमाः-समागताः सन्तो नानाविधयोनिकासुपृथिवीमियन्येषामपि षण्ण कायानामुत्पत्तिस्थानभूतास सचित्ताचित्तमिश्रासु वा श्वेतकगादिवर्ण-तिक्तादिरस-सुरम्पादि। गन्ध-मृद्धकर्कशादिस्पशोदिकर्विकल्पेहुप्रकारासु भूमिषु वृक्षतया विविधं वर्तन्ते, ते च तत्रोत्पन्नास्तासां च पृथिवीनां | 'स्नेह' स्निग्धभावमाददते, स एव तेषां बनस्पतिजीवानामाहार इति, न च ते पृथिवीशरीरमाहास्यन्तः पृथिव्याः पीडामुत्पादयन्ति । एवमकायतेजोवायुवनस्पतीनामप्यायोज्यम् । अत्र च पीडाऽनुत्पादनेऽयं दृष्टान्तः, तद्यथाअण्डोद्भवाद्या जीवा मातुरुन्मणा वित्र माना गर्भस्था वा उदरगतमाहारमाहास्यन्तो नातीव पीडामुत्पादयन्त्येवमसावपि । बनस्पतिकायिकः पृथिवीस्नेहमाहारयमातीव तस्याः पीडामुत्पादयति उत्पद्यमानः, समुत्पन्नश्च वृद्धिमुपागतोऽसवर्णरसाधुपेतत्वात् वाधां विदध्यादपीति । एवमकायस्य भौमस्यान्तरिक्षस्थ वा शरीरमाहारपन्ति । तथा तेजसो मस्मादिक । शरीरं गृहन्ति, एवं वाय्वादेरपि द्रष्टव्यम् । किं बहूक्तेन ? नानाविधानां त्रसस्थावराणां यच्छरीरं तत्ते समुत्पद्यमाना अचिनमिति-स्वकायेनावष्टभ्य प्रासुकी कुर्वन्ति, यदि वा परिविश्वस्तं पृथिवीकायादिशरीरं किश्चित्परितापितं कुर्वन्ति ते च वनस्पतिजीवा एतेषां पृथिवीकायादीनां तच्छरीरं 'पूर्वमाहारित मिति तैरेव पृथिवीका यादिमिरुत्पत्तिसमये आहारितमासीत्-स्वकायत्वेन परिणामितमासीत् , तदधुनापि वनस्पति जीवस्तत्रोत्पधमान उत्पमो वा 'त्वचा स्पर्शेन आहारयति,
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहार्य व स्वायत्वेन विपरिणामयति, विपरिणामितं च तच्छरीरं स्वकायेन [ सह ]स्वरूपतां नीतं सत्तन्मयतां प्रतिपद्यते। अपराण्यपि शरीराणि मूलशास्त्राप्रतिज्ञाखापत्र पुष्पफलादीनि तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि तथाहि स्कन्ध्रस्यान्यथाभूतो वर्णो मूलस्य चान्यादृश इति एवं यावन्नानाविधशरीरपुद्गलविकुर्वितास्ते भवन्तीति, तथाहि - नानारसवीर्यविपाका नानाविधपुद्गलोपच यात्सुरूपकुरूप संस्थानास्तथा ढाल्पसंहननाः कुशस्थूलस्कन्धाथ भवन्त्येवमादिनानाविधस्वरूपाणि शरीराणि विकुर्वन्तीति स्थितम् । ' ते जीवा कम्मोववन्नगा ' ते च जीशस्तत्र - वनस्पतिषु तथाविधकर्मणा उपपन्नगास्ते वेदं एफेन्द्रियजाविश्यावरन वनस्पतियोग्यायुष्कादिकमिति, तत्कर्मोदयेन तत्रोत्पन्नाः- कम्र्मोत्पन्ना इत्युच्यन्ते न पुनः कालेश्वरादिना तत्रोत्पाद्यन्ते इत्येवमाख्यातं तीर्थकरादिभिरिति । एवं पृथिवीयोनिका [वृक्षा] उक्ताः, साम्प्रतं तद्योनिकेष्वेव वनस्पतिषु परे समुत्पद्यन्ते इत्येतदर्शयितुमाह
अहावरं पुरखायं इगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तजोणिया तरसंभवा तदुकमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थ वुक्कमा पुढविजोणिएहिं रुक्खहिं रुक्खत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति । ते जीवा आहारेति पुढवि सरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं नाणाविहाणं तसधावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुति परिविद्वत्थं तं सरीरगं पुवाहारितं तयाहारियं विष्परिणयं सारूविकडं संतं अवरे वि य णं तेसिं
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीश नाणावण्णा नाणागंधा नाणारसा नाणाफासा नाणासंठाणसंठिया नाणाविहसरीरपोग्गल विडब्बिया ते जीवा कम्भोगभयंतीति खायं ॥ [सू० २ ]
- सुधर्मस्वामी शिष्योदेशेनेदमाह - अथापरं एतदाख्यातं पुरा तीर्थकरेण तद्यथा हास्मिन् जगत्येके केचन तथाविधकम्मदवर्त्तिनः 'सत्राः ' प्राणिनः वृक्षा एवं योनिरुत्पत्तिस्थानमाश्रयो येषां ते वृयोनिकाः । इह यत् पृथिवीयोनिषु ष्वभिहितं तदेतेष्वपि वृक्षयोनिकेषु वनस्पतिषु तदुपचयकर्तृ सर्वमायोज्यं यावदाख्यातमिति । साम्प्रतं वनस्पत्यवयवानधिकृत्याह
अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खबुकमा य तजोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोत्रगा कम्मनियाणेणं तस्थ वुक्कमा रुक्खा रुक्खजोगिएसु रुखत्ताए विहृति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं [ नाणाविद्वाणं ] तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुर्वति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावपणा जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीति मक्खायं ॥ [ सूत्रं ३ ]
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ व्याख्या-अथापरमेतदाख्यात, तदर्शयति-हास्मिञ्जगत्येके, न सर्वे, तथाविधकम्मोदयवतिनो वृक्षयोनिका || । सवा मवन्ति तदवयवाश्रिताबापरे चनपतिरूपा एवं प्राणिनो भवन्ति, तथाहि-यो पेको वनस्पतिजीवः सर्ववृक्षावयव म्यापी भवति, तस्य चापरे तदवयवेषु मुलकन्दस्कन्धत्वशाखाप्रवालपुष्पपत्रफलबीजभूतेषु दशसु स्थानेषु जीवाः सह स्पद्यन्ते । ते च तत्रोत्पद्यमाना सूक्षयोनिकाः पयोद्भवाः वृक्षव्युत्क्रमायो च्यन्ते स्पधन्ते (१) इति, शेषं पूर्ववत् । इन च ।
न सूत्राण्यांमाईतानि, तद्यथा-वनस्पतयः पृथिव्याभिताः भवन्तीत्येक १, तच्छरीरमकायादि. IN शरीरं वाऽऽहारयन्तीति द्वितीयं २, तथा विपदास्तदाहारितं शरीरमचित्तं विद्धस्तं च कृत्वाऽऽत्मसारकुर्वन्तीति तृतीयं ३, अन्यान्यपि तेषां पृथिवीकाययोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि मूलकन्दस्कन्धादीनि नानावर्णानि मवन्तीति चतुर्थ , IA एवमत्रापि वनस्पतियोनिकानां वनस्पतीनामेवंविधार्थप्रतिपादकानि चतुष्प्रकाराणि सूत्राणि द्रष्टव्यानि यावत्ते जीवा बनस्पस्यषयवमूलकन्दादिरूपाः कर्मोपपत्रमा भवन्तीत्येवमाख्यातम् ।।
___ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया | तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थ वुकमा रुक्खजोणिएसु रुस्खेसु मूलत्ताए कंदचाए खंधत्ताए तयचाए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलसाए बीयत्ताए विउहति, ते जीवा तेसिं रूक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं आउ
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
ए ।
३॥
तेउवाउवणस्सइसरीरं नाणाविद्वाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुति परिविद्धत्थं सरीरं जाव सारूविकडे संतं, अवरे विय णं तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा नाणागंधा जाव नाणाविह सरीरपोग्गलविउविता ते जीवाना भरतीति मावं ॥ [ सूत्रं ४ ]
*याख्या - अयमालापको व्याख्यात एवं प्राखर्चते, अत्र तु लिखितोऽस्ति मया, (परं) सम्यन्नाऽयमतोऽस्ति, तेन विद्वद्भिः सम्यग् विचार्य वाचनीयः + | साम्प्रतं वृक्षोपर्युपपन्नान् वृक्षानाश्रित्याह
अहावरं पुरखायं इद्देगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खबुकमा तजोणिया तसंभवा तदुकमा कम्मोव [वन्न]गा कम्मनिदाणेणं तत्थ वुक्कमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेोहिं अज्झारुदत्ताए विउट्टंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहा [ रुक्खा ]णं सिणेह माहारिंति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं
+ " अथापरमेतदाख्यातं इद्दे के सत्त्वा वृक्ष योनिकाः स्युः, तस्यैकस्य वनस्पचेर्मूलारम्भकस्य उपचयकारिणस्ते वृक्षयोनिका उक्थन्ते, यदि वा मूळस्कन्धादिकाः पूर्वोक्त दशस्थानवर्त्तिनस्ते एवमुच्यन्ते । अत्रापि सूत्रचतुष्टयं प्राग्यत् । " इति इर्ष० ।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
अझरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं ॥ [ सूत्रं ५]
-
व्याख्या - मथापरमेतत्पुराsssयातं यद्वक्ष्यमाणमिहैके सच्चा वृक्षयोनिका भवन्ति, तत्र ये ते पृथिवीयोनिका स्तेष्वेव प्रतिप्रदेशतया ये अपरे समुत्पद्यन्ते तस्यैकस्य वनस्पतेर्मूलारम्भकस्योपचयकारिणस्ते वृक्षयोनिका इत्यभिधीयन्ते, तेषु च वृक्षयोनिषु वृक्षेषु कम्र्मोपादाननिष्पादितेषु उपर्युपरि अध्यारोहन्तीत्यध्यारुहा-वृक्षोपरि जाता वृचा इत्यभिधीयन्ते । तेच लक्षाभिधानाः कामवृक्षाभिधाना वा द्रष्टव्यास्तद्भावे चापरे वनस्पतिकायाः समुत्पद्यन्ते वृक्षयोनिकेषु वनस्पतिष्विति, इदं प्रथमं सूत्रं । इहापि प्राग्वचत्वारि सूत्राणि द्रष्टव्यानि तद्यथा-वृक्षयोनिकेषु वृक्षेष्त्रपरेऽध्यारुहाः समुत्पद्यन्ते, वे च तत्रोत्पन्नाः स्वयोनिभूतं वनस्पतिशरीरमाहारयन्ति तथा पृथिव्यप्तेजोवाय्वादीनां शरीरकमादारयन्ति, वच्छरीरमादारित सदविचं विद्धस्तं विपरिणामितमात्मसात्कृतं स्वकायावयवत्या व्यवस्थापयन्ति, अपराणि च तेषामध्यारुहाणां नानाविधरूपरसगन्धस्पर्शोपेतानि नानासँस्थानानि शरीराणि भवन्ति, ते जीवास्तत्र स्वकृत कम्मोपपत्रा भवन्त्येतदाख्यातमिति प्रथमं सूत्रम् १ ॥
अहावरं पुरखायं इद्देगतिया सत्ता अज्झारुहजोणिया अज्झारुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तस्थ वुक्कमा रुक्खजोणिपसु अज्झारुहेसु अज्झारुदत्ताय त्रिउद्वंति, ते जीवा तेर्सि अज्झारुह[ रुक्ख ] जोणियाणं अज्झारुहाणं सिणेहमाहारिंति, ते जीवा [ आहारिति ]पुढविसरीरं जाव
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
साविक संसं, अवरे त्रि य णं तेसिं अज्झारुहजोणियाणं अज्झारुद्दाणं सरीरा नाणावण्णा जावखायं ॥ [ सूत्रं ६ ]
व्याया— अभार पुरा
योनिकेषु वृक्षेष अभ्यारुदाः प्रतिपादितास्ते देवापरे प्रतिप्रदेशोपकर्णारोऽध्यारुहवनस्पतित्वेनोपपद्यन्ते ते च जीवा अध्यारुहप्रदेशेषूत्वमा अध्यारुहजीवास्तेषां स्वयोनिभूतानि शरीरा याहारयन्ति तत्रापशम्यपि पृथिव्यादीनि शरीराण्याहारयन्ति, अपराणि चाध्यारुहसम्भवाना मध्यारुह जीवानां नानावर्णकादीनि शरीराणि भवन्त्येवमाख्यातमिति द्वितीयं सूत्रम् २ ||
अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता अज्झारु जोणिया अज्झारुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तस्थ बुकमा अज्झारुह ( रुक्ख ) जोणिएसु ( अज्झारुहेसु ) अज्झारुहत्ताए बिउहंति, ते जीवा तेर्सि अज्झारु जोणियाणं अज्झारुद्वाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं आउ [] सरीरं ] जाव सारूविकद्धं संतं, अवरे वि य णं तेर्सि अज्झारुहजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीरा नाणावन्ना आवमक्खायं ॥ [ सू० ७]
व्याख्या - मथापरं पुराऽऽख्यातमिके सच्चा अध्यारुहसम्मवेष्वभ्यारुद्देष्वन्याहहत्वेनोत्पद्यन्ते ये चैवमुत्पद्यन्ते तेऽभ्या
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
doe
सहयोनिकानामध्यारुहाणां पानि शरीराणि तान्याहारयन्ति । द्वितीयसूत्रे प्रक्षयोनिकानामन्यारहाणां यानि परीराणि तानि अपरेऽभ्यासहजीवा आहारयन्ति, तृतीये स्वध्यारुहयोनिकानामध्यारुहजीवानां शरीराणि द्रष्टव्यानीति विशेषः । इदं तु | चतुर्थक, तद्यथा___अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्झारुहजोणिया अज्झारुहसंभवा जाप कम्मनिदाणेणं तत्थ वुकमा अज्झारुहजोणिएसु अज्झारुहेसु( अज्झारुहत्ताए )मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउद्घति, से जीवा तेसिं अज्झारुहजोणियाणं अज्झारुहाणं सिणेहमाहारिति(ते जीवा आहारित पुढवीसरीरं आउ०) जाव( सारूविकडं संतं, )अवरे वि य णं तेसिं अज्झारुहजोणियाणं (अज्झारुहाणं) मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा नाणावपणा जावमक्खायं ॥ [ सू०८] ___ व्याख्या-अथापरमिदमाख्यातं, तद्यथा-ईके सत्त्वा अध्यायोनिकेवध्यारुहेषु मूलकन्दस्कन्धत्वशाखाप्रालपत्रपुष्पफलचीजमानोत्पद्यन्ते, ते तथाविधकम्मोपगा भवन्तीत्येतदाख्यातमिति । शेषं पूर्ववदिति । साम्प्रतं इचव्यतिरिक्त शेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता पुडविजोणिया पुढविसंभवा जाव नाणाविहासु जोणिया
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
糖訂收
T
पुढ
तत्ताप विउति, ते जीवा तेसिं नाणाविह जोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारिंति जाव ते जीवा कम्मो भवतीति मक्खायं १ [ सू० ९] एवं पुढविओोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउद्वंति, जाव मक्खातं २ [ सू० १० ] एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउति, तणजोणियं तणसरीरं च आहारिंति जावमक्खायं ३ । एवं तणजोणिषसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयचाए विउर्हति ते जीवा जाव [ एव ] मक्खायं ४ |
व्याख्या - अथापरमिदमाख्यातं यदुत्तरत्र वक्ष्यते, तद्यथा-इके सत्बा: [ पृथिवीयोनिकाः ] पृथिवीसम्भवाः [पृथिवी-] व्युत्क्रमा इत्यादयो यथा वृक्षेषु चत्वार्या[चत्वार आ]लापकाः एवं तृणान्यप्याश्रित्य द्रष्टव्यास्ते चामी-नानाविधासु पृथिवीयोनिषु तृणत्वेनोत्पद्यन्ते पृथिवीशरीरं चाहारयन्ति १ । द्वितीयं तु पृथिवी योनिकेषु तृणेषूत्पद्यन्ते तृणशरीरं बाहारयन्ति २ । तृतीयं तु तृणयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यन्ते तृण [ योनिकं ] वृणशरीरं चाहारयन्ति ३ । चतुर्थं तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु मूलादिषु दशप्रकारेषुत्पद्यन्ते तृणशरीरं श्राहारयन्तीत्येवं पावदाख्यातमिति ४ ।
[ एवं ] ओसहीणं चत्तारि आलावगा, एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा [ सू० ११] व्याख्या - एवमौषध्याभयाश्वत्वार आलापका भणनीयाः, नवरं -औषधीग्रहणं कर्त्तव्यं, एवं हरिताश्रयाश्रस्वारः
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलापका वाच्याः । कुछणेषु त्वेक एव आलापको द्रष्टव्यः, स चार्य -
अहावरं पुरस्वायं इगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थ बुक्कमा णाणाविइजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूद्दणत्ताए, कंदु[क]ताए उह[]यत्ता निहलि[णि] यत्ताए सच्छवार उत्तगवाद वासाशिवाय क्रूरताए विउद्वंति, ते जीवा तेसिं नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारिति पुढवी सरीरं जाव संत, अवरे वियणं तेसिं पुढविजोणियाणं आयत्ताणं जाव कूराणं सरीरा नाणावण्णा जावकखायं । इक्को चेव आलावगो, सेसा तिन्नि नत्थि ।
व्याख्या--कुछणेष्वेक एवालापको ज्ञेयः शेषास्त्रयो न सन्ति तद्योनिकानामपरेषामभावादिति । इह चामी वनस्पतिविशेषा लोकव्यवहारतोऽवगन्तव्याः प्रज्ञापनातो वा अत्रसेया इति । सम्प्रतम काययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपं दर्शयितुमाहअहावरं पुरखायं इद्देगतिया सत्ता उद्गजोणिया उद्गसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ तुकमा णाणाविह जोणिएसु उदगेसु रुक्खत्ताए विउति, ते जीवा तेर्सि नाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेर्सि उद्ग
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जोणियाणं रुक्खाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं। जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि NR गमा अज्झारुहाण वि तहेव तणाणं ओसहीणं [ हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियवा इक्केके । ___ व्याख्या-अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणमारूयात, तद्यथा-वहै के सवास्तथाविधकम्मोदयादुदकयोनिका उदकसम्भवा | पावत्कर्मनिदानेन सन्दानितास्तदुपक्रमा भवन्ति, ते च तत्कम्मवशगा नानाविधयोनिकेदकेषु वक्षत्वेन पिनकोवलादित्वेन)
वृत्तामन्ति' उत्पद्यन्ते | ये च जीवा उदकयोनिका वृक्षत्वेनोपनास्ते तच्छरीर-मुदकशरीरमाहारयन्ति, न केवलं तदेव, अन्यदपि पृथिवीकायादिकं शरीरमादारयन्तीति । शेष पूर्वना । पथा पृषितिरोनिकाना वृक्षाणां चत्वार आलापका पाया वादकयोनिकानामपि वृक्षाणां भवन्तीत्येवं द्रष्टव्यं, तदुत्पमानामपरस्य प्रागुक्तस्यविकल्पाभावादिति । किं तर्हि १ एक एवालापको भवति,[ए]तेषां हि उदकाकृतीनां वनस्पतिकायानां तथा अवकपनकशैवलादीनामपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्प. का स्पामावादिति, एते चोदकाश्रया वनस्पतिविशेषाः कलम्बुकाहडादयो लोकव्यवहारतोबसेया इति ।
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा नाणाविहजोणिएसु उदएसु उदमत्ताए अवगत्ताए पणगचाए सेवालत्ताए कलंबुगताए | हडताए कसेरुगताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्ताए नलिणसाए सुभयचाए
पतचिन्हान्तर्गतः पाठो साफदोषजा सम्माम्यते, वृत्तिष्वनुपरम्मात् |
Asana...
-
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोगंधियत्ताए पोंडरीय महापॉडरायत्ताए सयपतत्ताय सहसपत्तत्ताए एवं कल्हारकोंकणत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिभगत्ताए विडहंति, ते जीवा सिं नाणाविह जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसिं उद्गजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सरीस नाणावण्णा जामखायं । एको चैत्र आलावगो ३ । [ सू० १२]
व्याख्या--- अथापरमन्यत् स्थानकं तीर्थकरैराख्यातं, तद्यथा-' इह' जगति एके जीवा उदकयोनिका नाना योनि(का) के (१) अवकपनक सेवालाः यावन्मृणालपुक्खलान्ता उत्पद्यन्ते, ते जीवा नानाविधयोनिकोदकस्नेहमाहारयन्ति इत्यादिपूर्ववत् । अस्थायमेक एव आलापको ज्ञेयः ।
अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता तेसिं चेव पुढविजोणिएहिं रुक्खेर्हि रुक्खजोणिएहिं Xहिं, तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं + (रुवखजोणिएहिं अज्झारुहेहिं, अज्झारुहजोणिपि * चिन्हात पिठस्थाने ' रुक्खेहि रुबखजोगिएहिं ' इत्येवंविधः पाठोऽस्ति सवृत्तिकमुद्रित प्रतिषु । + ( ) नास्त्येव चिन्ान्तर्गतः पाठः पुण्यपचनीय दीपिका प्रतिषु ।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
*जाव बीएहिं, पुढवि जोणिएहिं तहिं तणजोणिएहिं भूलेहिं जाब बीएहिं एवं [ ओसहीहिं ] समरथ वि सिन्नि आलावगा, एवं हरिएहिं ) वि तिन्नि आलावगा, पुरविजोणिएहिं वि आएहिं काहि जाव कुरूप [ कूरे ]हिं उदगजोणिएहिं रुक्खेहिं * रुखजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहि, एवं अनारुहिं वितिनि तणेहिं वि तिन्नि आलावगा, ओसहीहिं वि तिन्नि इरिएहिं वितिनि उद्गजोणिएहिं उदगएहिं अपएहिं जाव पुक्खलच्छिभपहिं तसपाणत्ताए विउति ४ । ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं उद्गजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहजोणियाणं तणजोणियाणं ओस हिजोणियाणं हरियजोणियाणं रुक्खाणं अज्झारुहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव कुरवा[कूरा]णं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सिणेह माहारिति । ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसिं रुक्जोणियाणं अज्झारुह जोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंद* अत्रैव चिन्हस्थानेषु " अज्वारुहेहिं अज्झारुहजोणिएहिं मूलेहिं " तथा " तणजोणिएहिं तद्दि " वथा 64 जोणिएहिं रुक्खेद्दि " इतिरूपेण पाठाधिक्यमस्ति सवृत्तिकमुद्रित प्रतिषु ।
रुक्ख
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोणियाणं जाव श्रीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणियाणं[ जाव कूरजोणियाणं ]उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलच्छिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा नाणावण्णा | जावमक्खायं १॥ [ सू०१३ ]
म्याख्या- वनस्पतावुत्पमा जीराः पृथिवीयोनिकानां तथोदकानां वृक्षाच्याहतणौषधिहरित योनिकानां पक्षाणां यावत्स्नेहमाहारयन्तीत्येतहारूयातमिति, तथा त्रमा प्राणिनां शरीरमाहास्यन्तीत्येतदवसाने द्रष्टव्यमिति । तदेवं वनस्पति.
न्यानो स्वरूपमभिहितं. शेषाः पृथिवीकायादयश्चत्वार एकेन्द्रिया उत्तस्त्र प्रतिपादयिभ्यन्ते, साम्प्रतंत्र त्रसकायिकस्यावसरः, स च नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदमिन्नः, तत्र नारका अप्रत्यक्षत्वेनानुमानग्राह्यार, [तथाहि-] दुम्कुत. कर्मफलभुजा केचन सन्तीत्येवं ते ग्राझाः, तदाद्वारोऽप्येकान्तेनाशुमधुगलनिवर्तित ओजसा, न प्रक्षपेणेति, देवा अप्यधुना पाहुल्येन अनुमानगम्या ए[व], तेषामन्याहारः शुभ एकान्तनोजोनिवर्णितो, न प्रक्षेपकत इति । स चाभोगनिवर्तितोऽना[मोगकृतथ, तत्राना]मोगकतः प्रतिसमयभावी बाभोगकतश्च जघन्येन चतुर्थभक्तात उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्रनिष्पादित इति, शेषास्तु तिर्यमनुष्यास्तेषां च मध्ये मनुष्याणामहितत्वासाने पाक प्रदर्धयितुमाह--
अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं मणुस्साणं, तं जहा-कम्मभूमिगाणं अकम्मभूमिगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खुगाणं, तेसिंचणं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्सय कम्म
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
कडाए जोगिए एत्थणं मेहुणवत्तिए नामं संजोगे समुपजाति, ते दुहओ विसिणेहूं संचिणति ।
व्याख्या -- अथानन्तरमेत 'पूरा' पूर्वमाख्यातं, तद्यथा - आर्याणामनार्याणां च कर्मभूमि जाकर्म भूमित्रादीनां मनुष्याणां नानाविधयोनिकानां स्वरूपं वक्ष्यमाणानीत्या समाख्यातं तेषां च श्रीपुंनपुंपक मेदभिमानां 'यथाबीजे ने 'ति यद्यस्प बीजं, सत्र स्त्रियाः सवन्धि श्रोणितं पुरुषस्य शुक्रमेतदुभयमप्यविद्धस्तं, शुक्राधिकं सन्मनुष्यस्य शोणिताधिकं खियास्तत्समता नपुंसकस्य कारणतां प्रतिपद्यते, तथा ' यथावकाशेने 'ति यो यस्यावकाशो मातुरुदरक्ष्यादिकः, तत्रापि किल वामा खियो दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्योमयाऽऽश्रितः षण्ढ इति । तत्र चाविद्धस्ता योनिरविद्धस्तं + बीजमिति चत्वारो मङ्गकाः, तत्राप्याद्य एव भङ्गक उत्पत्तेरवकाश, न शेषेषु त्रिष्विति । अत्र च खीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्मनिवर्त्तितायां योनौ 'मैथुनप्रत्यथिको ' रताभिलाषोदयजनितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सवो जन्तवस्तैजसका र्म्मणाम्यां शरीराभ्यां कम्मेरज्जुसन्दानितास्तत्रोत्पद्यन्ते । ते च प्रथममुभयोरपि स्नेहमाचिन्वन्त्यविस्तायां यो सत्यामिति, विद्धस्यते तु योनिः " पञ्चपञ्चशिका नारी, सप्तसप्ततिकः पुमानि” ति, तथा द्वादश मुहूर्त्तानि याच्छुक्रशोणिते अषिद्धस्तयोनि के भवतस्तत ऊर्द्ध समुपगच्छत इति ।
तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए नपुंसगताप विउर्हति ।
+ "बीजं १, अविध्वस्ता योतिर्विध्वस्वं बीजं २, विश्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजं ३, विश्वस्ता योनिर्विध्वस्तं । " इति इर्ष० ।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
SSSS
N व्याख्या-तत्र च जीवा उभयोरपि स्नेहमा[हार्य-आदाय स्वकर्मविपाकेन यथास्त्र स्त्रीपुंनपुंसकभावेन 'विउति'ति ।। विवर्तन्ते-समुत्पद्यन्ते ।
ते जीवा माउण उयं रियं तु गाय संशष्टुं कलसं किवितं तप्पढमयाए आहारमाह- M रिति । ततो पच्छा जं से माता नाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहरेति ततो एगदेसेणं ओयमाहारित, आणुपुवेणं वुडा पलिबागमणुप्पवना ततो कायातो अभिनिवट्टमाणा इरिथ वेगया । जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति णपुंसगं वेगया जणयंति । ते जीवा डहरा समाणा माउए खीरं । सपि च आहारित आणुपुत्रेणं वुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वियणं तेसिं णाणाविहाणं मणुस्साणं कम्मभूमिगाणं अकम्मभूमिगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीरा नाणावण्णा भवंतीति मक्खायं ॥ [सू०१४] ___व्याख्या-ततस्ते जीवास्तत्रोत्पाः सन्तो मातुराहारमोजमा मिश्रेण वा लोमभिर्वाऽऽनुपूय॑गाहारयन्ति 'यथाक्रम'
आनुपूर्येण वृद्धिमुपगताः सन्तो 'गर्मपरिपाक' गर्भनिपचिमनुप्रपन्नास्ततो मातुः कायादमिनिवर्तमाना-पृथग्भवन्तस्त| योनेनिर्गच्छन्ति, ते च तथाविधकोदयादात्मनः स्त्रीभावमप्येकदा बनयन्ति अपरे केचन पुम्भावं नपुंसकमावं च, इदसतं
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवति-स्त्रीनपुंसकमावः प्राणिनां स्वकृतकर्मनिवतितो भवति, न पुनर्यो यादृगिहभषे सोऽस्मिन्नपि तादृगेवेति, ते चर IN तदहर्जातबालकाः सन्तः पूर्वमवाभ्यासादाहाराभिलाषिणो मातुः स्तनस्तन्यमाहारयन्ति, [ तद्प्रहारेण च पृद्धिमुपगता
स्तदुत्तरकालं नवनीतदध्योदनादिकं यावत्कुलमाषान् भुञ्जते, तथाऽऽहारत्वेनोपगतानसाँस्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवा आहार| यन्ति, तथा नानाविधवृथिवीशरीरं लवणादिकं मचेतनमचेतनं वा आहारयन्ति, तच्चाऽहारितमात्मसात्कृतं सद्" रसासुश्मासमंदोऽस्थिमाशुकाणि पातव " इति सप्तधा व्यवस्थापयन्ति, अपराण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां [ नानावर्णानि ] शरीराण्याविर्भवन्ति, ते च तद्योनिकत्वात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीराण्याहारपन्तीत्येवमाख्यातमिति । एवं ताबद्गर्भव्युत्क्रान्तजमनुष्पाः प्रतिपादितास्तदनन्तरं सम्मूर्छनजानामवसरः, साँचोत्तस्त्र प्रतिपादयिष्यामि । साम्प्रतं तियम्यो. निकास्तत्रापि जलचरानुद्दिश्याऽऽह---
अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा-मच्छरपणं जाव सुंसुमाराणं तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए तहेव, जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारिति आणुपुवेणं वुड्डा पलिपागमणुप्पचन्ना ततो कायातो अभिनिवट्टमाणा. अंडं वेगया जणयंति पोयं ए[]गया जणयंति, से अंडे उभिजमाणे इत्थ वेगया जणयंति परिसं वेगया जणयंति नपुंसगं वेगया जणयंति । ते जीवा डहरा समाणा
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आउसिणेहमाहारिति आणुपुवेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारैति | पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसिं नाणाविहाणं जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं सुंसुमाराणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं ।
ग्यारूया-अथाऽनन्तरमेतद्वक्ष्यमाणं पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-नानाविधजलचरपञ्चेन्द्रिगतिर्यग्योनिकानां सम्बन्धितः । कॉमित स्वनामग्राहमाह-" मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं " तेषां मत्स्य]च्छकछपादीनां यस्य यथा यीजं तेन तथा 'यथाऽवकाशेन ' यो यस्योदरादाववकाशस्तेन, त्रिपाः पुरुषस्य च स्वकर्मनिपचितायां योनावुत्पधन्ते, ते च तत्राभिव्यक्ता मातुराबारेण धुद्धिमुपगताः स्त्रीनपुंसकानामन्यतमत्वेनोत्पबन्ते, ते च जीवा जलचरा गर्भाव्युत्क्रान्ताः सन्तस्तदनन्तरं पाव 'डहर 'त्ति लघवस्तावदपाँस्नेहमप्कायमेवाऽहारयन्ति, आनुपूर्येण च वृद्धाः सन्तो वनस्पतिकार्य प्रसान् स्थावर शाहारयन्ति । तथा ते जीवाः पृथिवीशरीरं-कई मस्वरूपं क्रमेण वृद्धिमुपगताः सन्त आहारयन्ति, तसाहारित सत्समानरूपी. कृतमात्मसात्परिणामयन्ति, शेषं सुगमं, यावत्कर्मोपगा भवन्तीत्येवमाख्यातम् । साम्प्रतं स्थलचरानुद्दिश्याह
अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं चउप्पयथलचरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणंतिं जहा-] एगखुराणं, दुखुराणं, गंडीपदाणं, सणफयाणं, तेसिं च णं अहाबीपणं अहावगासेणं इत्थीए
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरिसरस य कम्म० जात्र मेहुणवत्तिए नामं संजोगे समुत्पज्जति, ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिस [ ताए ]जाव विउति । ते जीवा माऊए उयं पिउसुकं, एवं जहा मस्साणं जाव इथि गया जणयंति पुरिसंषि नपुंसगंपि, ते जीवा डहरा समाणा माउणो खीरं सप्पि आहारिति । आणुपुत्रेणं बुढा वणस्सतिकायं तस्थावरे य पाणे, ते जीवा आधारित पुढावे - सरीरं जाव संत, अवरे वि य णं तेर्सि नाणाविद्दाणं चउप्पयथलचरपर्चिदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणफयाणं सरीरा नाणावपणा जावमक्खायं ।
व्याख्या - अथापरमेतत्तीर्थ करैराख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां तद्यथा- एकखुराणामश्वानां द्विखुराणां गोमहिष्यादीनां गण्डीपदानां हस्त्यादीनां सनखपदानां सिंहव्याघ्रादीनां तेषां यथावीजं यथाऽवकाशं जीवानामुत्पचिते बुद्धिमुपगताः सन्तोऽपरेषामपि शरीरमाहारयन्तीति शेषं सुगमं, यात्रत्कम्पमा भवन्तीति । साम्प्रतं उरःपरिसर्पानुद्दिश्याह
अहावरं पुरखायं नाणाविद्दाणं उरपरिसप्पाणं थलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जड़ाअहीणं अजगराणं असालिआणं महोरगाणं, तेलिं च णं [अहावीएणं ] अहावगासेणं इत्थीए जाव
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्थ णं मेहुणे, एवं तं चेव, नाण-अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयांत, से अंडे उब्भि| जमाणे इत्थं वेगया जयंति पुरिसंपि नपुंसगंपि, ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेंति, मा आणुपुत्रेणं वुहा वणस्सतिकायं तसथावरे पाणे, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संत, अवरे
वि य तेसिं नाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरपंचिंदियतिरिक्ख. अहीणं जाव महोरगाणं सरीरा नाणावण्णा [ नाणागंधा] जानसक्खायं ।। ____X[ व्याख्या- नानाविधाना ' बहुप्रकाराणां उरसा ये प्रसर्पन्ति नेपा, तद्यथा-अहीनामजगराणामशालिकानां | महोरगाणां स्थाबीजेन यथाऽयकाशेन चोत्पस्याsx[]स्वेन पोतजत्वेन वा गर्भानिर्गच्छन्ति, ते च निर्गता मातुरूष्माण (बाष्पगयं ) वायुं चाहारपन्ति, तेषां च जातिप्रत्ययेन तेनैवाहारेण क्षीरादि नेव द्विरुपजायते, शेषा ] व्याख्या सुगमैच पूर्ववत् । साम्प्रतं जपरिसर्पानुद्दिश्याह
अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं भुयपरिसप्पाणं थलचरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं, तं जहागोहाणं नउलाणं सीहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खराणं घरकोइलाणं विस्संभराणं मूसगाणं
x नास्त्येतचिन्हान्तर्गतः पाठः प्रत्यन्तरेषु ।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
IFINI मंगमा
SSSSS
मंगुसाणं पयलातियाणं बिरालियाणं जोहाणं चउप्पाइयाणं, तेर्सि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य, जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियत्वं, जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तसिं नाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिंदियथलचरतिरिक्खाणं गोहाणं जावमक्खायं ।
व्याख्या-x [ नानाविधानां भुजाभ्यां ये प्र(परि)मन्ति तेषां, तद्यथा-गोधानलादीनां सम्मोपानेन यथाबीजेन यथाऽवकाशेन चोत्पत्तिर्भवति, ते चाण्डजत्वेन पोतजत्वेन चोल्पनास्तदनन्तरं मातुरूक्ष्मणा वायुना चाहारितेन वृद्धिमुपयान्ति । शेष ] सगुममेव पूर्वदन् । साम्प्रतं हे चरानुद्दिश्याह --
अहावरं पुरक्खायं नाणाविहाणं खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा-चम्मपक्खीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं,तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए जाव जहा उरपरिसप्पाणं, नाण-ते जीवा डहरा समाणा माउए गायसिणेहं आहारिति । आणुपुवेणं वुहा वणस्सइकायं, तस-थावरे य पाणे, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसिं नाणाविहाणं खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं० चम्मपक्खीणं जावमक्खायं । [सू० १६]
x नास्त्येतचिन्हान्तर्वत्रिपाठः प्रत्यन्तरेषु। .
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - नानाविधानां खेचराणामुत्पचिरेवं द्रष्टव्या, उ [य]था-चपचिणां चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तथा लोमपचिणां सारस- राजहंस - काक-बकादीनां तथा समुद्गपक्षि-चितपश्चि बहवर्तिनां पतेषां यथावीजेन यथाऽवकाशेन चोत्पानामाहारक्रिया एवमुपजायते, तद्यथा-सा पक्षिणी तदण्डकं स्त्रपक्षाभ्यामावृश्य तात्रत्तिष्ठति यावत्तदण्डकं तद् ष्मणाऽऽहारितेन वृद्धिमुपगतं सत् कललावस्थां परित्यज्य चञ्च्चादिका नवयवान् परिसमापय्य भेदमुपयाति तदुत्तरकालमपि मात्रोपनीतेनाहारेण वृद्धिमुपयाति शेषं प्राग्वत् । व्याख्याताः पश्चेन्द्रिया मनुष्यास्तिर्यश्वव तेषां चाद्दारो द्वेषा - आभोगनिर्वर्त्तितोऽनाभोग निर्वर्त्तितश्च तत्राऽनाभोग निर्वर्तितः प्रतिक्षणभावी आभोगनिवर्तितस्तु यथास्वं क्षुद्रेदनीयोदय मावीति । साम्प्रतं विकलेन्द्रियानुद्दिश्याह
अहावरं पुरक्खायं इहेगलिया सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणात्रिहवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थ वुक्कमा नाणाविहाणं तसथावराणं पोम्गलाणं सरीरेसु वा सच्चित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउद्धति । ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारिति । ते जीवा आधारित पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेत्रिय णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं । एवं दुरूवसंभवत्ताए, एवं खुरदुगत्ताए । [ सू० १७ ]
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
व्याख्या – अथानन्तरमेतदाख्यातं ' इह 'अस्मिन् संसारे 'एके 'केचन तथाविधकम्र्मोदयवशवर्त्तिनः 'सत्राः प्राणिनो नानाविधयोनिकाः कर्मनिदानेन स्वकृतकर्म्मणा तत्रोत्पत्तिस्थाने ' उपक्रम्प' आगत्य नानाविधत्र सस्थावराणां शरीरेषु सचित्तेषु वाऽचिचेषु वा 'अणुसूयत्ताए 'चि अपरशरीराभिततया परनिश्रया 'विवर्त्तन्ते ' समुत्पद्यन्ते, यावत्ते च जीवा विकलेन्द्रियाः सचित्तेषु मनुष्यादिशरीरेषु यूकालिक्षादिकत्वेनोत्पद्यन्ते तथा तत्परियुज्यमानेषु मञ्चकादिष्वचितेषु मल्कुणत्वेनाविर्भवन्ति-उत्पन्यन्ते तथऽचित्तीभूतेषु मनुष्यादिशरीरेषु विकलेन्द्रियशरीरकेषु वा ते जीवा 'अनुभू [१स्यू ] तत्वेन' परनिश्रया कृम्यादिवेनोत्पद्यन्ते परे तु सचिचे तेजस्कायादौ मूषकादिकत्वेनोत्पद्यन्ते यत्र चाग्निस्तत्र वापुरित्यत - स्तदुद्भवा अपि द्रष्टव्याः, तथा पृथिवीमनुश्रित्य कुन्युपिपीलिकादयो वर्षादावुष्मा संस्वेदजा जायन्ते तथोदके पूतरका डोल्लुणक अमरिका छेदन कादयः समुत्पद्यन्ते, तथा वनस्पतिकाये पनकभ्रमरादयो जायन्ते । तदेवं ते जीवास्तानि स्वयोनिशरीराण्याहारयन्ति इत्येवमाख्यातमिति । साम्प्रतं पश्चेन्द्रियमूत्रपुरीषोद्भवान् प्राणिनः प्रतिपादिवितुमाह ' एवं ' मिस्वादि, यथा सचिचाचिचनिश्रया विकलेन्द्रियाः समुत्पद्यन्ते तथा तत्सम्भवेषु मूत्रपुरीषवान्तादिषु परे जन्तवो 'दुरूवत्ताए ' दुरूपास्तत्सम्भवत्वेन कम्पादिभाषत्वेनोत्पद्यन्ते । ते च तत्र विवादौ देहान्निर्गते अनिर्गते वा समुत्पद्यमाना उत्पन्नाच तदेव विष्ठादिकं स्वयोनिभूत [माहार] माहारयन्ति, शेषं प्राग्वद् । सांप्रतं सचिचशरीराऽऽश्रयाञ्जन्तून् प्रविपादयितुमाह खुरदुगत्ताए' एवमिति यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा तिर्यक्रशरीरेषु ' खुरदुगत्ताए 'सि चर्मकीटतया समुत्पद्यन्ते, इदमुक्तं भवति जीवतामेव गोमहिष्यादिनां चर्म्मणोऽन्तः प्राणिनः संमूच्छर्थन्ते, ते च तन्मांसचर्म्मणी भक्षयन्ति, मायन्त
एवं
1
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्तबर्मणो विवराणि विधति, गलच्छोणितेषु विवरेषु तिष्ठन्तस्तदेव शोणितमाहायन्ति, तथा अचित्तगादिशीरेऽपि, | तथा सचित्ताऽचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि घुणकीटका: सम्पूछन्, र सम्भू रीरमाहारयन्तीति । साम्प्रत. | मकार्य प्रतिषिशदयिषुस्तत्कारणभूतवातप्रतिपादनपूर्वकं प्रतिपादयमाह--- __अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया, +[जाव कम्म० खुरदुगत्ताए एव. मक्खंति, इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया] जाब + कम्मनिदाणेणं तत्थ बुकमा नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा । तं सरीरगं वायसंसिद्धं वा वातसंग. हितं वा वातपरिगतं वा उडवातेसु उहभागी भवति अहेवाएसु अहेभागी भवाति तिरियवातेसु तिरियभागी भवति, तं जहा-उस्सा हिमए महिया करए हरतणूए सुद्धोदए, ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारिति, [ते जीवा आहारिति ] पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य गं तेसिं तसथावरजोणियाणं उस्साणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणा वण्णा । जावमक्खायं ।
+ + नास्त्येतश्चिन्हमध्यगतो मूलपाठः सवृत्तिकमुद्रिवप्रतिषु, परं दीपिकाप्रतिषु सर्वास्वप्यस्ति ।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-प्रशान-नगोतामा 'पुरा' पूर्वमाख्यातं, 'इह' अस्मिञ्जगत्येके सवास्तथाविधकोदयासानाविधकर्मोदया-बानाविषयोनिकाः सन्तो यावत्कर्मनिदानेन 'तत्र' वातयोनिकायकाये व्युत्क्रम्य-आगत्य नानाविधानो दर्दुरप्रभृतीनां प्राणिनां 'स्थावराणां च हरितलवणादीनां सचिसाचित्त मेदभित्रेषु शरीरेषु तद कायशरीरं वायुना निष्पादित वातेनैव सम्पग्गृहीतमभ्रकपरलान्तर्निवसं वायुनैवान्योऽन्यानुगतं, तथोर्द्धगतेषु वातेपूद्ध मागी भवति, अप्कायो हि गमनगतवातवशादिवि सम्मूछते जलं, तथाऽधस्ताद्गतेषु तदशावत्यथोमागी अायः, एवं तिर्यम्मतेषु वातेषु तिर्यम्भागी मवस्यप्कायः, इदमुक्तं भवति-बातयोनिकत्वादकायस्थ यत्र यत्रासो तथाविधारिणामपरिणतो भवति तत्र तत्र तत्कार्यभूतं जलमपि सम्मुर्छते, तस्य चाभिधानपूर्वक दर्शयितुमाह-' ओस 'त्ति अवश्यायः हिमं महिका करकाः 'हरतणूए 'चि तृणाग्रव्यवस्थिता जलबिन्दवः, शुद्धोदकं प्रतीतमिति, इहोदकप्रस्तावे एके सचासत्रोत्पबन्ते स्वकर्मवशमास्तत्रोत्पन्नास्ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्वोसच्याधारभूतानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवास्तच्छरीरमाहारयन्ति, अनाहारका न मवन्तीत्यर्थः, शेपं सुमतम् । तदेवं यातयोनि कमकायं प्रदर्याधुनाऽकायतम्भवमेवाकार्य दर्शयितुमाह
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तस्थ वुकमा तसथावरजोणिएसु उदएसु उदगनाए विउद्घति, ते जीवा तेसिं तसथावरजोणियाणं | उदगाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं ।
व्याख्या - अथापरमाख्यातं इद्द जगति उदकाधिकारे [व] एके सच्चास्तथाविधम्मदियाद्वावसोत्यभत्र सस्थावरशरीराधारमुदकं योनि - रुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तथोदकसम्भवा यावत्कर्मनिदानेन तत्रोत्पित्सवमस्थावरयोनि के [षूदके]. परोदकतया 'विन्ते' समुत्पद्यन्ते, ते च उदकजीवास्तेषां श्रसस्थावर योनिका नामुदकानां नानाविधानि शरीराणि विवर्त्तन्ते । एतदाख्यातं । तदेवं त्रयस्थावरशरीरसम्भवमुदकं योनित्वेन प्रदर्श अधुना निर्विशेषणमष्कायसम्म मेवाकार्य दर्शयितुमाह
अद्दावरं पुरखायं इद्देगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणणं तत्थ वुक्कमा, उद्गजोगिएसु उदगेसु उद्गत्ताए विउद्वंति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं + जीवाणं उदगाणं सिणेहमाहारिंति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसिं उदग
+ ' स्नेहमाहारयति, अन्यान्यपि पृथिव्यादिशरीराण्याहारयन्ति तच्च पृथिव्यादिशरीरमाहारितं सहस्रारूप्यमानीयात्मवा प्रकुर्वन्त्यपराण्यपि तत्र सस्थावरशरीराणि विवर्तन्ते तेषां चोदकयोनिका नामुदकानां ' इति वृत्तौ ।
+ नास्त्येतच्छन्दः सवृत्तिकमुद्रित प्रतिषु ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं ।
व्याख्या-प्रथाऽपरमेतदाख्यातं, इहैके सत्ता सकतनोदयाददायोनि[कपूर के]त्पबन्ने, ते च तेषामुदकसम्मवानासदकजीवानामात्माधारभूतानां शरीरमाहारयन्ति, शे सुगम, याबदारूपातमिति । साम्प्रतपुदकधारानासपूतरकादिका | स्त्रसान् दर्शयितुमाह
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजाणियाणं जाव कम्मनिदाणेणं तत्थ बुकमा उदगजोणिएसु उदएसु तसपाणताए विउद्वति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा आहारिति पुढविसरीरं जाव संत, अवरे वि य णं तेसि उदगजाणियाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं । [ सू०१८]
व्याख्या-सुगमैव । अथाऽग्निकायमधिकृत्याह___ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा ___x“अथापरमेतदारयातं, इहे के सवा उसकेषु उपयोनिषु चोदकेषु प्रमाणितया पूतरकादित्वेन विवर्तन्ते ' समुत्पपन्ते, ते | पोपद्यमानाः समुपसामवेषा-मुरकयोनि कानामुरकानां स्नेहमाहारयन्ति, शे सगमं, यावदारूयातमिति" इति वृत्तौ ।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
| नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए । | विउद्घति, ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारिति, ते जीवा
आहारिति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य गं तेसिं तसथावरजोणियाणं पुढवी( अगणी )णं सरीरा लाणावण्णा जाधमलासा, सेता शिन्नि आलावगा जहा उदगाणं ।
व्याख्या-अथैतदपरमाख्यातं, 'ह' संसारे 'एके' केचन ‘सत्राः ' प्राणिनस्तथाविधकर्मोदयवर्सिनो . नानाविषयोनयः प्राकमन्ता-पूर्वजन्मनि तथाविधं कम्र्मोपादाय तत्कर्मनिदानेन नानाविधाना सस्थावराणां प्राणिनां | शरीरेषु [ सचित्तेषु] अचिचेषु वाऽग्नित्वेन 'विवर्तन्ते ' प्रादुर्भवन्ति, तथाहि-पश्चेन्द्रियतिरश्चां दन्तिमहिषादीनां परस्परं युद्धावसरे x विषाणसंह + सत्यग्निरुत्तिष्ठते, एवमचित्तेष्वपि तदस्थिसंहर्षादग्नेरुत्थानं, तथा द्वीन्द्रियादिशरीरेप्पषि यथासम्भवमायोजनीय, तथा स्थावरेष्वपि वनस्पत्युपलादिषु सचित्ताचित्तेवग्निजीवाः समुत्पद्यन्ते, वे चाग्निजीवास्तत्रोत्पन्नास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्नेहमाहारयन्ति, शेषं सुगमं, यावद्भवन्तीत्येवमाख्यातम् । अपरे प्रयोऽप्यालापकाः |
दसशयोः परिग्रहापेक्षया सचित्ताशयक्तत्वापेक्षया वा अचित्तभेदभिन्नता इति टिप्पणं सवृत्तिकमद्वितप्रती। + "स्पर्धायां तु समः परौ । हर्ष-घर्षों च सलाम-सङ्कमौ दुर्गसश्चरे ॥ ८७॥" इति शब्दरत्नाकरः कां० ६ ।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
i
ST
स् ।
॥
प्राग्वद्रष्टया इति । साम्प्रतं वायुकादिश्याह
अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता नाणाविइजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थ वुक्कमा नाणाविद्वाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु [वा ] अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए विउति, जहा अगणीणं तहा भणियवा चत्तारि गमा [सू० १९]
error - अयमालापकोऽग्निकाय गमेन व्याख्येयः । साम्प्रतमशेषजीवाधारं पृथिवी कायमधिकृत्याह
अहावरं पुरखायं, इहेगतिया सत्ता नाणाविदजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थ वुक्कमा नाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सक्करत्ताए वालुयत्ताए, इमाओ गाहाओ अणुगंतचाओ-पुढवी सक्करा वालु-या य उनले सिलाय लोणूसे । अय-तउय तंब - सीसग - रुप्पसुवपणे य वयरे य ॥ १ ।। हरियाले हिंगुल्लुए, मणोसिलासासगंजणपवाले, अब्भपडलष्भवालय - बायरकाए मणिविणे || २ || गोमेज्जए य रुपए, अंके फलिद्दे य लोहियक्खे य। मरगय-मसाले, भुयमोयग-इंदनीले य ॥ ३ ॥ चंदण- गेरुय हंसगब्भ-पुलए
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोगंधिए य बोधव्वे | चन्द्रपभ-वेरुलिए, जलकंते सूरकंते य ॥ ४ ॥ एयाओ गाहाओ एएस भणियचाओ, जाव सूरकतत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं नाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारिंति, ते जीवा आधारित पुढवसरीरं जाव संत, अवर वि य णं तर्सि तस्थावरजोणियाणं पुढ़वीणं जाव सूरकंताणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं, सेसा सिन्नि आलावा जहा उद्गाणं । [ सू० २० ]
व्याख्या – अथापरमेतत्पूर्वमाख्यातं, इहैके सच्वाः पूर्वं नानाविधयोनिकाः स्वकृतकर्मवशगा नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु सचिचेषु अचित्तेषु वा पृथिवीत्वेनोत्पद्यन्ते, तद्यथा - सर्पशिरस्तु मणयः करिदन्तेषु मौक्तिकानि विकलेन्द्रियेष्वपि शुचयादिषु मौक्तिकानि, स्थावरेष्वपि चेष्वादिषु तान्येवेति एवमचिचेषुषरादिषु लवणभावेनोत्पद्यन्ते, एवं पृथिवी कायिका नानाविधासु पृथिवीषु शर्करा वालुका- उपल-शिला लवणादिभावेन तथा गोमेदकादिरत्नभावेन च वादरमणिविधानतया समुत्पद्यन्ते, शेषं सुगमं यावचत्वारोऽप्यालापका उदकगमेन नेतव्या इति । साम्प्रतं सर्वोपसंहारद्वारेण सर्वजीवान् सामान्यतो विभणिपुराऽह
अहावरं पुरखायं सबे पाणा सबै भूया सवे जीवा सबे सत्ता नाणाविद्दजोणिया नाणाविह
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
=
का
10
संभवा नाणाविहकमा, सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीखुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनिदाना कम्यगईया कम्मट्टिया कम्मणा चैव विपरियासमुर्वेति । से एवमायाणह, से एव मायाणित्ता आहारगुत्ते सद्दिए समिए सया जए तिबेमि । [सू० २१]
ategoriधस्स आहारपरिन्नानाम तईयमज्झयणं समत्तं ॥ ३ ॥
व्याख्या - अथापरमेतदाख्यातं - सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे सच्चाः सर्वे जीवाःX नानाविधयोनिका नारक - तिर्यनरा मरादिगतिषुत्पद्यन्ते यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्र तत्र तच्छरीराहारिणो भवन्ति, तदाहारवन्तश्च तत्रागुप्तास्तद्वारायाचगा नाश्कतिर्यद्धनरामरगतिषु जघन्य मध्यमोत्कष्टस्थितयो भवन्ति, अनेनेदमुक्तं भवति यो याहमिह भवेत् स ताग मुत्राऽपि भवतीत्येतनिरस्तं भवति, अपि तु कम्र्म्मोपगाः कर्मनिदानाः कम्यगतयो भवन्ति तथा तेनैव कर्मणा सुखलिप्सवोऽपि तद्विपर्यासं दुःखमुपगच्छन्तीति । साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुराइ - ' से एवमायाण हे 'त्यादि, यदेतन्मयाऽऽदितः प्रभृत्युक्तं, तद्यथा-यो यत्रोत्पद्यते स तच्छरीराहारको भवति, आहारागुप्तश्च कर्म्मादचे, कर्मणा च नानाविधासु योनिवरघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यटतीत्येवं जानीत यूयं एतद्विपर्यासं दुःखमुपगच्छन्तीति । एतत्परिज्ञाय सदस
X जीवसत्वयोर्व्यत्ययेन निर्देशोऽन ।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विवेकी आहारगुप्तः पञ्चभिः समितिभिः समिता सहितोज्ञानादिमिः 'सदा सर्वकालं-यावदुच्छासं तावद्यतेत-संपमानुष्ठाने | प्रयत्नवान् मवेदिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अबीमीति पूर्ववत् ।
-
-
-
-
-
-
इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छविभूषणपाठकप्रवरश्रीमत्साघुरङ्गगणिवरगुम्फितायां श्रीसूत्रकचाङ्गदीपिकायां द्वितीये श्रुतस्कन्धे समाप्तमाहारपरिवाख्यं तृतीयमध्ययनमिति ।। ३ ।।
अथ प्रत्याख्यानक्रियाख्यं चतुर्थमध्ययनम् ।। अथ तृतीयाध्ययनानन्तरं चतुर्थमारभ्यते, आहारपरिज्ञानन्तरं प्रत्याख्यानक्रियाध्यनमारम्यते, तच्चेदम् ~~
सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पञ्चक्खाणकिरियानाम अज्झयणं, तस्स णं अयमद्धे पन्नत्ते-- ___ व्याख्या-श्रीजम्यूस्वामिनं प्रति श्रीसुधर्मस्वामी कथयति-श्रुतं मया [ आयुष्मता] भगवतेदमारूपात-इह खल प्रत्याख्यानक्रियानामाध्ययनं, तस्यायमों वक्ष्यमाणलक्षणस्तथाहि---
आया अपञ्चक्खाणी आवि भवति, आया अकिरियाकुसले आवि भवति, आया मिच्छासंठिए
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आवि भवति, आया एगंतदंडे आवि भवति, आया एगंतवाले आवि भवति, आया एगंतसुत्ते आवि भवति, आया अवियारमणवयणकायवक्के आवि भवति, आया अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे आवि भवति, एस खलु भगवता अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सति, पावे य से कम्मे कजइ सू. १] लत्य चोपए पनवगं एवं वदासि___व्याख्या--अयमात्मा-जीयः अनादिमिथ्यात्वाचिरतिप्रमादकषाययोगानुगततया स्त्रमावत एवाप्रत्याख्यान्यपि भवति, [अपि शब्दात् ] स एव कृतथिमिमिचात्प्रत्याख्यान्यपि भवति, तथा+अक्रियाकुचलोऽपि भवति, तथाऽऽत्मा मिथ्यात्वोदयसंस्थितोऽपि भवति, तथैकान्तेनापरान्प्राणिनो [दण्डयतीति ] दण्डस्तदेवम्भूतो भवति, तथाऽऽस्मा एकान्तमालय मवति, 7 तथाऽऽत्मा एकान्त सुप्तश्च भवति, यथा द्रव्यमुप्तः शब्दादीन् विषयान जानाति हिताहितप्राप्तिपरिहारविकलश्च भवति । तथाऽऽत्माऽपि भावसुप्तो हिताहित न वेत्ति, तथाऽऽत्माऽप्रत्याख्यानक्रिय: सन् अविचारितमनोवाकायवाक्यचापि भवति, IN
+ " सदनुष्ठान किया, तस्यां कुशलः क्रियाकुशलस्तस्प्रतिषेधात्' इति वृह । x“वाग्ग्रहणेनैव वाक्यस्य गतार्थत्वात्सुनवाक्यमहणं वाग्व्यापारस्य प्राचुर्यज्ञापनार्थम् । " इति हर्ष।
----
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथाऽप्रतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा मनति, एवंविधो जीवो मगत्रता असंयत अविरत अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रिय असंवृत एकान्तबाल एकान्त सुप्त कथितः, तदेवम्भूतच बालसुप्ततया ' अविचाराणि ' अविचारितरमणीयानि परमार्थविचारणया युक्त्या वा विघटमानानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा अविचारितमनोवाक्कायः निर्विवेकतया पडुविज्ञानरहितः स्वमपि न पश्यति, तस्य चाव्यक्तविज्ञानस्य स्वप्रमप्यपश्यतः पापं कर्म बध्यते एतावता यद्वस्तु स्वमेsपि नापाति कदाचिदृष्टमपि न तस्यापि कर्मवन्धो लगति, अव्यक्तविज्ञानेनापि प्राणिना पाप कर्म क्रियत इति
। तत्र चैवं व्यवस्थिते परः प्रज्ञापकमेवमवादीत्[-अत्र चाचार्याभिप्रायं परः प्रतिषेधयति -
असंतपणं मणेणं पावएणं असंतिआए वतीए पावियाए असंतपणं कारणं पावपूर्ण अद्दणंतरल अमण [ख] स अवियारमणवयणकायवक्कस्ल सुमिणमवि अप्पस्सओ पात्रे कम्मे नो कजइ, कस्स णं तं हेउं ? चोयगे एवं बवीति
व्याख्या - अविद्यमानेन असता मनसा तथा अप्रवृतेनाशोभनेन, तथा वाचा कायेन च पापेन असता, तथा सच्चान् अनिनतः, तथाऽमनस्कस्याविचारर्मनोवाक्काय वाक्यस्थ स्वममप्यपश्यतः एवमव्यक्तविज्ञानस्य पापं कर्म न वपते, एवम्भूतविज्ञानेन पापं कर्म न क्रियत इति, तर्हि कथयन्तु पूज्याः १ कथं पाप कर्म षज्यते ? केन हेतुना-केन कारणेन कर्म्मबन्धः स्यात् ? नात्र कचिदव्यक्तविज्ञानत्वात् पापकर्म्म हेतुरिति । अथ पर एव स्वाभिप्रायेण पापकर्मबन्धहेतुमाह
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरीए वतीए पावियाए वतिवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पात्रे कम्मे कज्जति, [ इणंतरस समणक्वस्स सवियारमणवयणकायवक्कस्स सुमिणमवि पासओ एवंगुणजातीयस्स पावे कम्मे कज्जइ । ] पुणरवि चोगे एवं बवीति- तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-असंतपणं मणेणं पावएणं असंतीया वतीए पाविया असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकाय कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जति, [ तत्थ णं ] जे [ ते ] एवमाहंसु तं मिच्छा | तत्थ पन्नव चोयगं एवं वयासी - [ तं सम्मं ]जं मए पुवं वृत्तं असंतपणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए असंतपणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणarrataकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कजइ तं सम्मं । [ कस्ल णं तं हेउं ? । ]
व्याख्या - कर्माभवद्वारभूतैर्मनोवाक्कायकर्मभिः कर्म बद्ध्यत इति दर्शयति-अन्यतरेण क्लिष्टेन प्राणातिपातादिप्रवृत्या मनसा वाचा कायेन च तत्प्रत्ययिकं कर्म वज्यते । तथा मतस्वान्समनस्कस्य सविचार मनोवाक्कायवाक्यस्य स्वमपि पश्यतः प्रस्पष्टविज्ञानस्यैतद्गुणजातीयस्य पापं कर्म बद्ध्यते, न पुनरेकेन्द्रिय विकलेन्द्रियादेः पापकर्मसम्भव इति तेषां घात
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
- कस्य मनोवाकायव्यापारस्यामाधात् , अर्थतन्यापारमन्तरेणापि कर्मबन्ध इष्यते ? एवं च सति मुक्तानामपि कर्मपन्धः |
स्वात् , न चैतदिध्यते, तस्मान्नैवं बन्धा, तत्र यदेवम्भूतैरेव मनोवाकायच्यापारैः कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते । तदेवं व्यवस्थिते । सति ये ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-अविद्यमानैरेवाशुभैयोंगैः पाप कर्म क्रियते, मिथ्या ते एवमुक्तवन्त इति स्थितम् । तदेवं । शिष्येणाचार्यपक्ष क्षयित्वा स्वपक्षे व्यवस्थापिते सत्याचार्य आह-तं सम्म'मित्यादि, यदेतन्मयोक्तं प्राग् यथाऽस्पष्टा- liy ध्यक्तयोगानामपि कर्म बध्यते तत् 'सम्यक्' शोभनं युक्तिसङ्गतं इति । एवमुक्तं पर आह- कस्य हेतोः?' केन कारणेन ? || तत्सम्यगिति चेदाह
तत्थ खल्लु भगवया छज्जीवनिकाया हेऊ पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया, इच्छेतेहिं छहिं जीवनिकाएहिं आया अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे निचं पसढविउवातचित्तदंडे, तं जहा-पाणाइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ____ व्याख्या-आचार्य आह-तत्र खलु भगवता पड्जीवनिकायाः कर्मबन्धहेतुत्वेनोपन्यस्तास्तद्यथा-पृथिवीकायिका | यावत्रसकायिका इति । कथमेते षट्कायाः कर्मवन्धस्य कारणमित्याह-'इचेएहिं' इत्यादि, इत्येतेषु पृथिव्यादिषु षड्. जीवनिकायेषु अप्रतिहतप्रत्याख्यातयापकर्मा प आत्मा जन्तुः 'नित्यं सर्वकालं प्रकर्षेण शठः तथा 'व्यतिपाते' प्राणिध्यपरोपणे चिचं यस्य स व्यतिपातविचा, [स्वपरदण्डहेतुत्वाइण्डः] प्रशठश्चासौ व्यतिपातचित्तदण्डश्चेति आत्मा, तद्यथा-'
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
|
| प्राणातिपाते विधेये प्रशठ[व्यतिपात ]चित्तदण्डः, एवं मृषावादावचादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि याज्यं, यावन्मिध्यादर्शन
शल्यमिति । तेषामिहैकेन्द्रियविकलेन्द्रियादीनामनिवृत्तवान्मिध्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगानुगतता इति द्रष्टव्यं, सद्भावास | ते कथं प्राणातिपातादि दोपवन्तो न भवन्ति ? एतावता एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः प्राणातिपातादिदोपवत्तया अध्यक्तविज्ञाना
अपि सन्तोऽस्वप्नाद्यवस्थायामपि ते कर्मबन्धका एव, तदेवं व्यवस्थिते यत्प्रामुक्तं परेण, यथा-अव्यक्तविज्ञानानामनामतां अमनस्कानां न कर्मबन्ध इत्येतन्मृषा । साम्प्रतमाचार्यः स्वपक्षसिद्धये स्टान्तमाह
तत्थ खल्ल भगवता वहए दिटुंते पन्नत्ते, से नहा नाम, बहर तिका गाहावहार वा गाहावइ । पुत्तस्स वा रन्नो वा रायपुरिसस्त वा खणं निदाय पविसिस्सामि खणं लभृणं वहिस्सामिति) पहारेमाणे से किं नु हु नाम से वहए तस्स गाहावइस्स वा [ तस्स ] गाहावइपुत्तस्स वा तस्स वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं निदाय पविसिस्सामि खणं लणं वहिस्सामि[चि] पहारेमाणे | दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवति ? एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए-हंता भवति ।
व्याख्या-तत्र खलु भगवता वधकदृष्टान्तः प्राप्तस्तद्यथा-वधका कश्चित्स्यादिति, कुतत्रिनिमित्तापितः सन् ।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
कस्यचिद्वषपरिणतः कश्चित्पुरुषो भवति, कीयो का ? ' गाहावहस्से 'त्यादि, गृहपतिर्गृहपतिपुत्रो वा तस्योपरि कविद्वषकः संवृत्तः स च बधपरिणामपरिणतोऽपि कस्मिँश्चित्क्षणे पापकारिणमेनं धातयिष्यामीति । तथा राज्ञः राजपुरुषस्य वोपरि कुपित एतत्कुर्यादित्याह - ' खणं निदाय' इत्यादि, क्षण - मत्रसरं 'निवाय'ति प्राप्य लब्ध्वा [ वध्यस्य ] पुरे गृहे वा प्रवेक्ष्यामीति तदध्यवसायी भवति, तथा क्षणमवसरं छिद्रादिकं बध[वध्य ] स्य लब्ध्वा तं वच्यं इनिष्यामीत्येषं सम्प्र वारयति तथा गृहपते राज्ञो वा कचित्कारण कोपाद्वघपरिणतोऽध्यात्मनोऽवसरं लब्ध्वा इनिष्यामीत्यवसरं-छिद्रमपेक्ष माणस्तदवसरापेक्षी, कश्चित् कालमुदास्ते, स च तत्रदासीन्यं कुत्रणः अपरेण कार्यादिना व्यप्रचेतास्तस्मिन्नवसरे व[]ध्यं प्रत्यस्पष्टविज्ञानो भवति स चैवम्भूतोऽपि यथा तं वध्यं प्रति नित्यमेव प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति, एवमविद्यमानैरवि प्रज्य के रशुमैर्योगंरे केन्द्रिथविकलेन्द्रियादयोऽस्पष्टविज्ञाना अपि मिध्यात्वाविरतिप्रमादकषाय योगानुगतत्वात्प्राणातिपातादिदोषवन्तो भवन्तीति न च तेऽवसरं अपेक्षमाणा उदासीना अपि अवैरिण इति, एवमस्पष्टविज्ञाना अपि वैरिणो भवन्तीति । साम्प्रतमाचार्य एवं स्वाभिप्रेतमर्थं परप्रश्नपूर्वकमाविर्भावयन्नाह - ' से किं नु हु' इत्यादि, आचार्यः स्वतो निर्णीतार्थोऽसूयया परं पृच्छति - किमसौ बधक पुरुषो[हनना ]saसरापेक्षी छिद्रं सम्प्रधारयन् ' चिन्तयन् अहर्निशं सुप्तो जाग्रदवस्थो वा 'तस्य' गृहपते राज्ञो वा वध्यस्यामित्रभूतो वा मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डो भवति ? आहोस्विनेत्येवं पृष्टः परः समतया माध्यस्थ्यमवलम्बमानो यथाऽवस्थितमेव व्यागृणीयात्, यथा-इन्द आचार्य ! भवत्यसावमित्रभूत इत्यादि । तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकमाह-
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य आह-अहा से वहए तस्स गाहावइस्स[ वा ]तस्स गाहावइपुत्तस्स[ वा ]तस्स वा रन्नो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं निदाय पविसिस्सामि खणं लट्टणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा आमित्तभूते मिच्छासंठिए निचं पसढविउवायचित्तदंडे [भवइ ] एकामेव वाले वि सन्वेसिं पाणाणं जाव सोसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे [ भवइ ], तं जहापाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवता अक्खाए-असंजए अविरए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते आवि भवति, से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमविण पस्सति पावे य से कम्मे कजति । ___व्याख्या-'जहा से पहए' इत्यादि, यथाऽसौ वधक इत्यादिना दृष्टान्तमनूध दान्तिकमर्थ दर्शयितुमाह
एवामेवे इत्यादि, यथाऽसौ वषकोऽवसरापेक्षितया वध्यस्य व्यापत्तिमकुर्वाणोऽप्यमित्रभूतो भवत्येवमसावपि वालोऽस्पष्टविज्ञानो निवृत्तेरमावात्सर्वेषां प्राणिनां व्यापादको भवति यावन्मिध्यादर्शनशल्योपेतो भवति, पबप्युस्थानादिकं विनय कृतश्विनिमिचादसौ विधत्ते तथाप्युदायिनूपमारकवदन्ताईट एवेति नित्यं प्रचठव्यतिपातचित्रदण्डम यथा परशुरामः
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
1 कृतवीर्य व्यापाद्यापि तदुत्तरकालं सप्तवारानिक्षत्रां पृथिवीं चकार, एवमसात्रमित्रभूतो मिथ्याविनीतश्च भवति । एवं IN
स्खलु भगवया' इत्यादि, यथाऽसौ यधकोऽवसरापेक्षी न साबद्घातयति [अथ च] अनिवृत्तत्वादोयदुष्ट एव, एवमसावयेकेन्द्रियादिकोऽस्पष्टविज्ञानोऽप्यविरतत्वाचथाभूत एव-अविरताप्रतिहताप्रत्याख्याताऽसक्रियादिदोषदुष्ट एवेति, शेष सुगम, यावत्पापं कर्म क्रियत इति ।
जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स वा[ जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं[ पत्तेयं चित्त| समादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमितभूते मिच्छासंठिए[ निच्चं पसढविउवातचित्तदंडे भवति, एवामेव बाले सवेसि पाणाणं जाव सबेसि सत्ताणं पत्तेयं[ पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निचं पसढविउवातचित्तदंडे भवति ॥ [ सू० २]
व्याख्या-यथाऽसौ वधको वध्यस्य विनाशं चिन्तयन् अनिम्नबपि अमित्रभृतः कथ्यते, तदनु तस्य वधमकुर्वतोऽपि पापकर्म जायते, एवं बाल एकेन्द्रियादिरपि सर्वेषां प्राणिनाममित्रभूतः कथ्यते, अविस्तत्वात् , एकेन्द्रियादेरप्यकुर्वतोऽपि बन्धो भवति पापकर्मण इति । एवमाचार्येण प्रतिपादिते सति शिष्यः कथयति
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो इणमट्ठे समट्टे [ चोदकः ] । इह खलु बहवे पाणा० जे इमेणं सरीरस मुस्सएणं नो दिट्ठा वा सुया वा नाभिमता वा, विनाया वा जेसिं णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविउवातचित्तदंडे, तं जहापाणाइवाए जाव मिच्छादंसणस ॥ [ सू० ३]
व्याख्या- 'नो इणमङ्के समट्टे' नायमर्थः समर्थः यदकुतोऽञ्जतः अमनस्कस्यापि पापकर्म्म लगति, नायमर्थः समर्थ:- प्रतिपत्तुं न योग्य इति । तत्र शिष्यः कारणमाह-' इह खलु' चतुर्दशरज्ज्ञात्मके लोके 'बहवो 'ऽनन्ताः प्राणिनः सन्ति देशकालविप्रकृष्टास्तथाभूता बहवः सन्ति ये अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण न कदाचिदृष्टाश्चक्षुषा न श्रुताः श्रवणाभ्यां विशेषतो नाभिमता - इष्टा, न च विज्ञाताः स्वयमेवेत्यतः कथं तद्विषयस्तस्यामिश्रभावः स्यात् १, अतस्तेषां कदाचिदप्यविज्ञान कथं प्रत्येकं वधं प्रति चिरासमादानं मवति ? न चासौ तान् प्रति नित्यं प्रशउव्यतिपातचितदण्डो भवतीति । एवं च व्यवस्थिते न सर्वविषयं प्रत्याख्यानं युज्यते, इत्येवं प्रतिपादिते सति परेण आचार्य आद
तत्थ खलु भगवया दुवे दिट्ठता पन्नत्ता, तं जहा - सन्निदिते य असन्निदिट्ठते य, से किं तं सन्निदिते?, २ जे इमे सन्निपंचिंदिया पज्जत्तगा, एतेसि णं छज्जीवनिकाए पहुच, तं० - पुढविकार्य
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाव तसकार्य से एगतिओ [ पइन्नं कुज्जा ] पुढविकाएणं किच्चं करेइ[वि] कारवेइ [वि], तस्स एवं भवइ - एवं खलु अहं पुढविकाएणं किच्चं करेमि वि कारवमि वि, णो चेवणं से एवं भवइइमेण वा [ इमेण वा ], से य तेणं पुढविकाएणं किन्यं करेति विकारखेति वि, से णं ताओ पुढविकायाओ अस्संजयाविरयअप्पडियपञ्चकखायपावकम्मे यावि भवति, एवं जाब तसकाएत्ति भाणियां । से एगतिओ छहिं जीवनिकाएहिं किच्चं करेति विकारवेति वि, तस्स णं एवं भवतिएवं खलु अहं छज्जीवनिकाएहिं किच्चं करेमि चि कारवेामे वि, णो चेव गं से एवं भवति - इमेहिं
[ इमेहिं वा सेय तेहिं छाहें जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि ], से य तेहिं छहिं जीवनिकापि असंजय अविरय अप्पाडियपच्चक्खाय पापकम्मे, तं जहा - पाणातिवाए जाव मिच्छादंसणस, एस खलु भगवता अक्खाए - असंजए अविरए अप्पडियपच्चखायपावकस्मे सुविणमवि अपस्तो पावे च से कम्मे कज्जति, से तं सन्निदिते ।
व्याख्या -- पद्यपि सर्वेषु जीवेषु देशकालस्वभावविप्रकृष्टेषु बधकचिचं नोत्पद्यते तथाप्यसावविशविप्रत्ययत्वासेध्वमुक्तवैर
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
TRY एक कथ्यते, अस्य चार्थस्य सुखप्रतिषचये भगवता द्वौ दृष्टान्तौ प्रजप्तौ, तद्यथा-संजिष्टान्तोऽसंशिष्टान्तश्च । अथ कोऽयं |
संझिदृष्टान्तः ? ये केचन इमे संजिनः पंचेन्द्रियाः पर्याप्तकाः, एषां च मध्ये कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्येवम्भूतां E-N'प्रतिक्षा' नियम कुर्यात् , यथाऽहं षड्जीवनिकायमध्ये पृथिवीकायेनकेन वालुकाशिलोपललवणादिस्वरूपेण 'कुत्य'
| कार्य काँ, सचैवं कृतप्रतिस्तेन तस्मिंस्तस्माच्च तं करोति कारयति च, शेषकायेभ्योऽहं विनिवृत्तः, तस्य च कृतनियमस्यैवम्भूतो भवत्यच्यवसाय:-खल्बई पृथिवीकायेन कृत्यं करोमि कारयामि [च], तस्य च सामान्य कृतप्रतिज्ञस्य विशेषामिसन्धि व भवति, यथाऽहं कृष्णन वा श्वेतेन वा पृथिवी कायेन कार्य करोमि [ कारयामि च], सामान्येन वचसाऽहं । पृथिवी कायारम्भ करिष्यामि एवं स सर्वस्मात्पृथ्वीकायादनियत्तोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा भवति, तत्र सर्वत्र पृथिवीकाये खननस्थाननिषीदनत्वग्वर्सनोचारप्रश्रवणादि[करण ]क्रियासद्भावात्सर्वस्मात्पृथिवीकायादनिवृत्तवात, एवमोजोवायुवनस्पसिष्वपि वाच्यं, तत्राप्कायेन स्नानपानावमाहनभाण्डोपकरणधारनादिषूपयोगा, तेजस्कायेनापि [ पचनपाचनवितापनप्रकाशनादिपु, वायुनाऽपि ] व्यजनतालवृन्तोत्पादितव्यापारादिषु प्रयोजनं, वनस्पबिनाऽपि-कन्दमूलफलपत्रवशाखायुप- योग, एवं विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियेष्वप्यायोज्यम् । तथैका कश्चित् पदस्वपि जीवनिकायेनविरतोऽसंयतत्वाच्च तैरसौ 'कार्य' सावद्यानुष्ठानं स्वयं करोति कारयति च परस्तस्य च क्वचिदपि नित्तेरभावादेवम्भूतोऽयवसायो भवति, तद्यथा-एवं स्वस्वहं
पभिरपि जीवनिकायैः सामान्येन कृत्यं रोमि, न पुनस्तद्विशेष प्रतिक्षेति, स च तेषु षट्स्वपि जीवनिकायेष्वसंयतोऽप्रति. । हतप्रत्याऽख्यातपापकर्मा भवति । एवमष्टादशपापस्थानकेन्वयायोज्यम् । तदेवमसौ हिंसादीन्यकुर्वमपि अविरतत्वाच
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
| प्रत्ययिकं कर्म बनाति । एवं देशकालस्वभावविप्रकष्टेष्वपि जन्तुषु अविरतत्वादमित्रभूतो भवति तत्प्रस्पयिकं च कर्माऽचि. नोति, सोऽयं संजिदृष्टान्तो भिहितः, स च कदाचिदेकमेव पृथ्वीकार्य न्यापादयति शेषेषु नित्तः, कदाचिद् द्वावेवं त्रिकादिकाः संयोगा भणनीयाः, पावत्सर्वानपि व्यापादयतीति । स सर्वेषां व्यापादकत्वेन व्यवस्थाप्यते, सर्व विषयारम्मप्रवृतः, यथा कश्चिद्वामघाताय प्रवृत्तः, यद्यपि च तेन विवक्षितकाले केचन पुरुषा न शास्तथाप्यसो ततोऽनिवृचत्वात्तद्घातक | इत्युच्यते, एवं जीवोऽप्यविरतत्वात् प्राणातिपातमृषावादादसमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमागालोमादिकमकुर्वन्नपि तत्कर्माऽचिनोति, अष्टादशपापस्थानान्यकुर्वतोऽपि कर्मबन्धः स्यादविरतत्वादिति भावः । इति संनिदृष्टान्तः, अधुना असंझिदृष्टान्तः कथ्यते--
से किं तं असन्निदिéते ? जे इमे असन्निणो पाणा, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा वेगतिया तसा पाणा, जेसिं णो तकाइ वा सन्नाति वा पन्नाति वा मणेति वा वईति वा सयं वा करणाए अन्नहिं वा कारावित्तए करतं वा समणुजाणित्तए, तेवि णं बाला सव्वोर्सि पाणाणं जाव सम्बेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ता वा जागरमाणा वा अमित्तभूता मिच्छासंठिया निचं पसढविउवातचित्तदंडा, तं० पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले । इच्चेवं [ जइवि] जाव (1) नो चेवणं मणे नो चेव गं धई [तहवि ] पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
जूरणया तिष्पणयाए पिणयाए परितप्पणयाए ते दुक्खण- सोयण जाव परितप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरता भवति ।
व्याख्या -' से किं तं असन्निदिते' इत्यादि, 'असंज्ञिनो' मनोत्रिकलाः सुसमचमूच्छितादिवत्, ये हमे अ संज्ञिनः पृथिवी कायिकाः यावद्वनस्पतिकायिकास्तथा षष्ठा अप्येके साः प्राणिनो विकलेन्द्रियाः यावत्सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियास्ते सर्वेऽप्यसंज्ञिनो येषां नो 'तर्कों' विचारो मीमांसाविशिष्टविमर्शो विद्यते, यथा- कस्यचित्संज्ञिनो मन्दमन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमयं १ स्थाणुरुत पुरुष इत्येवमात्मक ऊह-स्वकी सम्भवति नैवं तेषामसंज्ञिनां तर्कः सम्भवतीति । तथा ' संज्ञा ' पूर्वोपलब्धेऽर्थे तदुचरकालपर्यालोचनं, सा संज्ञा येषां नास्ति, तथा 'प्रज्ञा' बुद्धिः साऽपि नास्ति, तथा मनस्तथा वाक्वचनं, साऽपि न विद्यते, तथा स्वयं करोमि अन्यैव कारयामीत्येवम्भूतोऽध्यवसायो नास्ति तेऽप्यसंज्ञिनो बालबद्धाला दिवा रात्रौ [बा] सुप्ता जाग्रदवस्था वा सर्वजीवानाममित्रभूता उच्पन्ते, विस्तेरभावात् । एवमष्टादशपापस्थानकेष्वयायोज्यन्ते । असंज्ञिनो हि विरतेरभावादविरताः, अविरतत्वाश्च कर्म्मणां बन्बका एवेति । यद्यप्यसंझिनो [ विशिष्ट ] मनोव्यापाररहितास्तथाऽपि सर्वप्राणिनां दुःखोत्पादनतया तथा शोचनतया - शोकोत्पादनतया तथा जूरणतया - वयोहा निरूपया तथा 'तिष्पणयाए ' त्रिभ्यो मनोवाक्कायरूपेभ्यः पावनं त्रिपातनं, वृद्धावस्तथा, यदि वा 'तिप्पणयाए'चि परिदेवनतया तथा 'पिट्टणयाए ' मुष्टिलोष्टादिप्रहारेण तथा [ तथाविध ] परितापनतया - पहिरन्तत्र पीडया, ते चासंज्ञिनो
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
यद्यपि देशकालस्वभावविप्रकृष्टाना, न सर्वेषां दुःखमुत्पादयन्ति तथापि विरतेरभावाचत्प्रत्ययिकेन कर्मणा वध्यन्ते, तदेवं ।। विप्रकृष्टविषयेऽपि बन्धकाः स्युरविसरका । अथोपसंमिहीसा इति
इति खल्ल ते असनिणो वि सत्ता अहोनिसं पाणातिवाए उवक्खाइजंति, जाव अहोनिसं परिग्गहे उक्खाइजति जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति । ____ व्याख्या-' इति खलु' इह खलु ये इमे पृथिवीकायादयोऽसंज्ञिनः प्राणिनस्तेषां न तों न संज्ञा न प्रज्ञा न मनो 10 न बाक् [न] स्वयं कत्तुं नान्येन कारयितुं न कुर्वन्तमनुमन्तुं वा प्रत्तिरस्ति, ते चाहर्निशममित्रभूता मिथ्यासंस्थिता नित्यं
प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा दुःखोत्पादनं यावत् परितापनपरिक्लेशादप्रतिविरता, असंझिनोऽपि सन्तोऽहनिशं प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसम्प्राप्तावपि प्रामघातकबदुपाख्यायन्ते-कथयन्ते, याबन्मिथ्यादर्शनमुल्ये उपाख्यायन्ते, एतावता असंझिनामपि प्राणिनां किमप्यकुर्वतामपि अविरतत्वापापकर्मबन्धो जायत इति भावः । तदेवं दृष्टान्तवयं प्रदर्य तत्पतिबद्धमेवाऽयशेष प्रतिपादयितुं शिष्यः प्रश्नं करोतिकिमेते सत्ताः संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च मन्यामध्यत्त्ववानियतरूपा एवाहोस्थित् ।। | संजिनो भूत्वा असंज्ञित्वं प्रतिपद्यन्ते असंज्ञिनोऽपि संज्ञित्वमित्येवं शिष्येण प्रतिपादिते सत्याहाचार्य:
सम्बजोणिया वि खल्ल सत्ता सन्निणो हुन्छा असन्निणो हुंति असनिणो हुन्चा सनिणो इंति । होचा सन्नी अदुवा असन्नी।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
यू ।
व्याख्या - ये वेदान्तवादिनो वादिनस्ते एवं प्रतिपादयन्ति 'पुरुषः पुरुषत्वमेवाश्नुते पशुरपि पशुत्वमेवेति, तदत्रापि संज्ञिनः संज्ञिन एव भविष्यन्ति असंज्ञिनोऽपि असंज्ञिन इति वावगच्छेदार्थमाह-' सब्बजोणिया घी 'त्यादि, यदि वा किं संज्ञिनोऽसंज्ञिकर्मसम्बन्धं प्राक्तने कर्मणि सत्येव कुर्वन्ति १ किंवा नेत्येवमसंज्ञिनोऽपि संज्ञिकर्मबन्धनं प्राक्तने सत्येव कुर्वन्त्याहोस्विन्नेत्येतदाशङ्कयाह -- ' सव्वजोणिया वी 'त्यादि, सर्वा योनयो येषां ते सर्वयोनयः, संवसत्रिवृत्तोभय-शीतोष्णोभय-सचित्ताचित्तोभयरूपयोनय इत्यर्थः । सर्व योनयोऽपि खलु वः पर्याप्यपेक्षया यावन्मनःपर्यासनं निष्पद्यते तावदसंज्ञिनः करणतः सन्तः पश्चात्संज्ञिनो भवन्ति एकस्मिमेव जन्मनि, अन्यजन्मापेक्षया स्वकेन्द्रियादयोपि सन्तः पश्चान्मनुष्यादयो भवन्तीति तथाभूतकर्मपरिणामात्, न पुनर्मव्या भव्यत्यवव्यवस्थानियमो मध्यामव्यत्वे हिं न कर्मायचे, अतो नानयोर्व्यभिचारः । ये पुनः कर्मवशगास्ते संज्ञिनो भूत्वाऽन्यत्रा संझिनो भवन्ति, असंज्ञिनश्च भूत्वा संज्ञिन इति । वेदान्तवादिमतस्य तु प्रत्यक्षेणैव व्यभिचारः समुपलभ्यते, तथाहि -संज्ञयपि कश्विन्मृच्छयवस्थायामसंज्ञित्वं प्रतिपद्यते
पगमे पुनः संज्ञित्वमिति, जन्मान्तरे तु सुतरां व्यभिचारः, तथा प्रबुद्धो निद्रोदयात्स्वपिति सुप्तश्च प्रतिबुध्यते, एवं पोपावस्था एकस्मिन्नेव भवे जीवस्य जायते, एवं संज्ञित्वमसंज्ञित्वमप्येकस्मिन्नेव भवे जन्तोरविरुद्धमिति । एवं परमवेऽपि संश्यसंज्ञी स्यादसंज्ञी च संज्ञी स्यात् । तथा पुरुषो देवत्वं देवख पुरुषत्वमित्येवं सर्वत्र योज्यम् ।
तत्थ से अविवि[वि]त्ता अविधूणित्ता असंमुच्छित्ता अणणुतावित्ता असन्निकायाओ [वा]
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ऽसंझिकायात् ) सनिकायं संकर्मिति ( संक्रान्ति ) १, सन्निकायाओ [वा ] असन्निकार्य संकर्मिति २, सनिकायाओ [ वा ] सन्निकायं संकर्मिति ३, असनिकायाओ [वा ] असन्निकार्य संकर्मिति ४ । ___ व्याख्या-तत्र प्राक्तनं कर्म यदुदीर्ण यच्च बद्धभास्ते, तस्मिन् सत्येव तत्कर्म 'अविविच्य ' अपृथक्कृत्य तथाऽविधूया- | ऽसमुच्छिद्याननुताप्य तदेवमपरित्यक्तकर्माणोऽसंझिकायात्संशिकायं सङ्कामन्ति तथा संत्रिकायादसंज्ञिकायमिति [ संज्ञिकायात्संज्ञिकार्य असंझिकायादसंज्ञिकायं ] । तय]या नारका:-सावशेषकर्माण एव नरकावृत्य प्रतनुवेदनेषु तिर्यक्षुत्पद्यन्ते, एवं देवा अपि प्रायस्तरकमशेषतया शुभस्थानेषूत्पद्यन्त इत्यवमन्तव्यम् । अत्र चतुर्मनिका सूत्रेणैव दर्शिता ।
जे एए सन्नी वा असन्नी वा सवे ते मिच्छायारा निच्चं ] पसढविउवातचित्तदंडा, तं जहाWI पाणातिवाते वा जाव मिच्छादसणसल्ले ।
___ व्याख्या-सर्वेऽप्येते संजिनोऽसंझिनो वा मिथ्याचारा, अप्रत्याख्यानिवादित्यभिप्रायः, सर्वजीवेष्वपि नित्यं प्रशठ व्यतिपातचित्तदण्डा भवन्तीत्येवम्भूताश्च प्राणातिपातायेषु सर्वेष्वप्यावद्वारेषु वर्तन्त इति । तदेवं व्यवस्थिते यदुक्तं परेम तग्रथा-'इहाविद्यमानाऽशुभयोगसम्मवे कथं पापकर्म बध्यते ?' इत्येतनिरस्तं, विरतेरभावादकृर्वतामपि पाप लगत्येवेति मावः।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं खलु भगवया अक्खाए-असंजए अविरए अप्पडिहयपश्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंखुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमवि ण
पासइ पावे य से कम्मे कज्जति । [ सू० ४] या व्याख्या एवं 'भगवता' तीर्थकताऽऽख्यातमित्यादि यत्प्राक्प्रतिज्ञातं तदेवास्मिन् सूत्रालापके दर्शितं, व्याख्यान |
प्राग्वत् ज्ञेयमिति, पापं च कर्म लगत्येव । तदेवमप्रत्याख्यानिनः कर्मसम्मत्रात्तत्सम्म च नारकतिर्यनरामरगतिKI लक्षणं संसारमवगम्य संजातवैराग्यः शिष्यः आचार्य प्रति प्रवणचेताः प्रश्नयितुमाह
चोयगः-से किं कुवं किं कारवं कहं संजयविरयपडियपच्चक्खायपावकम्मे भवति ? । व्याख्या-शिष्यः प्राह-भगवन् ! किमनुष्ठानं स्वतः कुर्वन् ? किं वा परं कारयन् ? केन प्रकारेण संयतविरतपतिहसप्रत्याख्यातपापकर्मा जन्तुर्भवति ? इत्येवं पृष्टे सत्याचार्य आह
तत्थ खल्लु भगवया छज्जीवनिकाया हेऊ पन्नत्ता, [तं जहा-] पुढविकाइया जाव तसकाइया, से जहा नामए ममं अस्तातं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूएण वा कवालेण वा आतालिज्जमाणस्स वा जाव उद्दविजमाणस्स वा लोमुक्खणणमायमावि हिंसाकारगं दुक्खं भयं
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडिसंवेदेमि, इञ्चेवं जाण सवे पाणा जाव सवे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आताडिजमाणा वा उवहम्ममाणा वा तजिजमाणा वा ताडिजमाणा जाव उबद्दविजमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारकं दुक्खं भयं पडिसंवेदिति । एवं नचा सवे पाणा [जाव सवे सत्ता] ना इंतवा जाव न उद्दवेयबा, एस धम्मे सुद्धे धुवे नितिए सासए समिच लोगं खेदन्नहिं पवेइए । ____ व्याख्या-तत्र खलु भगवता षड्जीवनिकायाः संयमसद्भावे हेतुत्वेनोपन्यस्तार, यथा प्रत्याख्यानरहितस्य षद्जीवनिकायाः संसारगतिनिबन्धनत्वेन कथिताः एवं त एवं प्रत्याख्यानिनो मोक्षाय भवन्तीति, तथा चोक्तम्-"xजे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे । गणाणाईचा लोगा, दोण्हवि पुण्णा भवे तुल्ला ॥१॥" इदमुक्तं भवति-यथाऽऽत्मनो दण्डाद्युपत्राते दुःखमुत्पद्यते एवं सर्वेषामपि प्राणिनामित्यात्मोपमया तदुपघाताभिवर्सते, एष। धर्मः सर्वापायताणलक्षणो ध्रुवो नित्यः शाश्वतः परैः क्वचिदप्यस्खलितो युक्तिसङ्गतत्वात् । अयं च धर्मः सम्यकशुद ( इत्यवमभ्य लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं खेदः प्रवेदितः।
एवं से भिक्खू विरते पाणाइवायाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खा४ ये यावन्तश्च हेतवो भवस्य ते तावन्तश्चैव मोक्षस्य । गणनातिगा लोका द्वयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥ १ ॥
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
लणेणं देते पक्खालेज्जा, नो अंजणं नो वमणं नो धू[ वणिचं ]मणत्तं पि आ[इते दत्ते, से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे जाव अलोभे उपसंते परिनिव्वुडे, एस खल्लु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे, अकिरिए संबुडे एगंतपंडिए यावि भवति चिवमि । [सू० ५] । बीयसुयक्खंधस्स चउत्थं पच्चक्खाणकिरियानाम अज्झयणं, समत्तं । . व्याख्या एवं स मिक्षु-निवृत्तः सर्वाश्रवद्वारेभ्यो दन्तप्रशासनादिकाः क्रिया अकुर्वन् सावधक्रियाया अभावादक्रियोऽक्रियत्वास प्राणिनामक्षकोऽव्यापादको यावदेकान्तेनैत्रासौ पण्डितो भवति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ।
-
इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छविभूषण पाठकप्रवरश्रीमत्साधुरङ्गगणिररगुम्फितायां श्रीसूत्रकताङ्ग
दीपिकायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे समाप्तं प्रत्याख्यानक्रियाख्यं चतुर्थमध्ययनमिति ॥ ४ ॥
Ratn.svems
0
99999
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ पञ्चममाचारश्रुताध्ययनम्
साम्प्रतं पश्चममारभ्यते, तत्रेयमादिगाथा
1
+
आदाय बंभवेरं च, आसुपने इमं वयं । अस्ति धम्मे अणायारं, नायरेज कयाइ वि ॥ १ ॥ व्याख्या --- ' आदाय गृहीत्वा किं तद् ? ब्रह्मचर्य - सत्य-भूतदया-तप-इन्द्रियनिरोधलक्षणं एतन्मौनीन्द्र प्रवचने ब्रह्मचर्यमित्युच्यते, तदादाय 6 'आशुप्रज्ञः सदसद्विवेकज्ञः 'इमां समस्ताध्ययनेनाभिधीयमानां वाचं[] इदं जगत् ] शाश्वतमेवमेव वा इत्यादिकां कदाचिदपि 'नाचरेत् ' न कथयेत् तथाऽस्मिन्धम्र्मे सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थितः सन् अनाचारं - सात्रद्यानुष्ठानरूपं न समाचरेत् ' न विदध्यात् यदि वा केवलिप्रणीते धर्मे व्यवस्थितः 'इम' वक्ष्यमाण याच मनाचारं च कदाचिदपि नाचरेदिति श्लोकार्थः ॥ १ ॥
अथाचार्योऽनाचारं दर्शयितुं यथावस्थित लोकस्वरूपप्रकटन पूर्वकमाह
अणादीयं परिन्नाथ, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसासए वा, इति दिट्ठि न धारए ॥ २ ॥ व्याख्या - चतुर्दशरणात्मकं लोकमनादिकमनचद[- अनन्तं ] परिज्ञाय-अपर्यवसानं च ज्ञात्वा शाश्वतमशाश्वतं इत्येकान्तेन न वदेत्, इत्येवम्भूतां दृष्टिं न धारयेत् पण्डितस्त्वेकान्तेन शाश्वतमेवाश्शाश्वतमेव लोकं न वदेदिति गाथाऽर्थः ॥ ३ ॥
१८
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
किमित्येकान्तेन न षदेदित्याह
एएहिं दोहिं ठाणेहि, ववहारो ण विजई। एएहिं दोहि ठाणोहिं, अणायारंतु जाणए ॥३॥ व्याख्या-अयं लोको नित्य एवानित्य एव बा, अथवा सर्व वस्तु नित्यमेवानित्यमेव वा, एताभ्यां स्थानाम्यामभ्युपगम्यमानाभ्या अनयोर्वा पक्षयोर्व्यवहारो लोकस्यै हिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृचिनिवृत्तिलक्षणो न विद्यते, एतावता एकान्तपक्षं नाश्रयेत् , एकान्तपक्षामयणं स्वनाचार:, स्याद्वादपक्षाश्रयणं त्वाचार इति । अत्र हेतुयुक्तयो वृहट्टीकातोऽव. | सेया, अत्र तु संक्षेपेण सूत्रार्थस्यैव प्रकाशनमिति माथार्थः ॥ ३ ॥ INI तथाऽन्यमप्यनाचार निपे काम आह| समुच्छिहिंति सत्थारो, सव्वे पाणा अणेलिसा। गंठिगा वा भविस्संति, सासयंति व णो वए ॥४॥ ___व्याख्या-सम्यनिरवशेषतया 'उच्छेत्स्यन्ति' उच्छेदं यास्यन्ति-क्षयं यास्यन्ति यदिवोच्छेत्स्यन्ति-सिद्धि यास्यन्ति, के ते शास्तार-स्तीर्थरास्तच्छासनप्रतिपमा वा 'सर्च' निरवशेषाः सिद्धिगमनयोग्या मन्याः, ततश्चोत्सबभन्यं जगत्स्या
दिति, अत्र शुष्कतर्काभिमानग्रहगृहीता युक्ति प्रकाशयन्ति-जीवसद्भावे सत्यप्यपूर्वोत्पादामावात् अभव्यस्य च सिद्भिगमना4 सम्मवात् कालस्य चानन्त्यात् निरन्तरं सिद्धिगमनसम्मवेन तदधयोपपत्तेपूर्वमन्यजीवोत्पत्रमावाल्योच्छेद इत्येवं नो
वदेव , तथा सर्वेऽपि प्रागिनः ' अनीदृशाः' न साम्राकाराः सन्तीत्येवमपि नो वदेत् । तथा प्रन्धिकाः सचा:-सर्वेऽपि
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
| प्राणिनः कर्मग्रन्थोपेता एव भविष्यन्तीत्येवमपि नो वदेत् । इदमुक्तं भवति-सर्वेऽपि प्राणिनः सेत्स्यन्त्येव फर्माता वा सर्वे भविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्षमेकान्तिकं नो वदेत् । यदि पा 'ग्रन्थिका' इति अधिभेदं कर्तुमसमर्था भविष्यन्तीत्येवं । प नो वदेद , तथा शाश्वताः]स्तारः सर्वकालस्थायिनस्तीर्थकरा भविष्यन्ति, नोच्छेनं यास्यन्ति इत्येवमपि नो वदेत् ॥ ४ ॥
तदेवं दर्शनाचारवादनिषेधं वाङ्मात्रेण प्रदर्याधुना युक्तिं दर्शयितुमाह-~-- एएहि दाहिं ठाणेहि, धवहारो ण विजती। एएहिं दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ५॥ ___ व्याख्या-सर्वे शास्तारः क्षयं यास्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्तीति, यदि वा सर्वे शास्तारस्तदर्शनअपना का] से
स्यन्ति, शाश्वता का भविष्यन्ति, यदि वा सर्वे प्राणिनो विसदृशाः सदृशा बा, तथा प्रन्थिकसवास्तद्रहिता वा भविष्यन्ती| त्येवमनयोयोः स्थानयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाहि-' सर्वे शास्तारः क्षयं यास्वन्ती'त्येतदयुक्तं, क्षयनिवन्धनस्य कर्म णोऽभावात् सिद्धानां क्षयामावः, [अथामवस्थ केवल्पपेक्षया चेदभिधीयते तदप्ययुक्तं, यतोऽनाधनन्ताना केवलिना सद्भावाद , IN मरतेषु केवलिना विरहे महाविदेहेषु सर्वदा केवलिसद्भावः । तथा सर्वेऽपि मन्याः सेत्स्यन्तीत्येतदपि न स्यात् , यतः श्रीभग| क्त्यां जयन्तीप्रश्नाधिकारे "सब्वे विणं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति ?" भगवानाह -"हंता जयंती ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति xxx भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सही नो इणम सम" इत्यादि. भगवदुक्कवचनप्रामाण्याच्यजीवविरहितं जगम भविष्यति, युक्तिश्चात्र भगवतीहत्तितोऽनसेया, तथा च "जाया होही
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
पुच्छा, जिणंदपामि उत्तरं तहया । इक्कस्स निगोयस्स, अनंतभागो य सिद्धिगओ ॥ १ ॥ " इति वचनात् सर्वेऽपि न सेत्स्यन्ति, न मध्यजीवविरहितं जगद्भविष्यति । न सिद्धिक्षेत्रं पूर्णं भविष्यति । सिद्धिं च निरन्तरमेव प्रयास्यन्ति, अतो " तमेव स नी संकं, जं जिणेहि पवेइयं " इति वचनादेकान्तपक्ष नाथयेत् । अथ शाश्वतत्वमपि शास्गांन प्ररूपयेत् यतस्तेषामपि सिद्विगमनसद्भावादशाश्ववत्वमिति, अव एकान्तेनाश्वाश्वतत्वमपि न श्रयेत् । तथा सर्वेऽपि प्राणिनः चित्रकर्मसद्धावान्नानागति जातिशरीराङ्गोपाङ्गादिभिर्भिन्नत्वात् विशुद्यास्तथोप योगा सख्ये यप्रदेशत्वामू र्त्तखादिधर्मैः कथञ्चित् सदृशा इति । तथोसिसद्वीर्यंत या केचिद्भिन्नग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद्रन्थि कस्वा एव मवन्तीस्येवं व्यवस्थिते नैकान्तपक्षी भवतीति निषिद्धः, तदेवमेतयोरेव द्वयोः स्थानयोरुक्तनीत्याऽनाचारं विजानीयादिति स्थितम् । अपि चागमेऽनन्तानन्तास्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु भव्यानामनन्तभाग एवं सिद्ध्यतीत्ययमर्थः प्रतिपाद्यते यदा चैवम्भूतं तदानन्त्यं तत्कथं तेषां क्षयः १ युक्तिरप्यत्र - सम्बन्धिशब्दावेसी, मुक्तिः संसारं विना न भवति संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरेण ततश्च मच्योच्छेदे संसारस्याप्यभावः स्यादतोऽभिधीयते- नानयोर्व्यवहारो युज्यत इति ॥ ५ ॥
अधुना चारित्राचारमङ्गीकृत्याह---
जे केइ खुड्डगा पाणा, अदुवा संति महालया । सरिसं तेहिं वेरंति, असरिसंती य नो वदे ॥ ६ ॥
व्याख्या -- ये केचन क्षुद्राः प्राणिनः एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादयोऽश्वकाया वा पञ्चेन्द्रिया, अथवा 'महालया ' महाकावा
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
हस्त्यश्वादयः अल्पकायाः- कुन्थ्वादयः तेषां व्यापादने सदृशं (विसदृशं वा ) वैरमिति एवं (एकान्तेन ) नो वदेत्, यतः बन्धोऽपि अध्यवसायवशाद्भवति, तीव्राध्यवसायिनोऽल्पका यस व्यापादनेऽपि महान् बन्धः, अकामस्य जनाभोगादिना महाकाय वापादनेऽपि स्वस्पमिति गाथार्थः ॥ ६ ॥
एहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो न विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाण ॥ ७ ॥
व्याख्या - आभ्यामेव स्थानाभ्यां अनयोर्वा स्थानयोर्महाकायालय कायव्यापादने कर्मबन्धः सदृशः असदृशो वा एतयोः स्थानयोर्व्यवहारो न विद्यते, निर्मुक्तिकत्वाम युज्यते । एतयोरेव स्थानयोः प्रवृत्तस्थानाचारं विजानीयात् यतो नहि जीवव्यापत्या हिंसते, जीवस्य शाश्वतत्वेन व्यापादयितुमशक्यत्वात् अपि विन्द्रियादिव्यापच्या हिंसा स्यात् तथा चोतं" पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छासनिश्वासमयान्यदायुः । प्राणा वशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ अपि च हिंसा चतुर्धा, एका द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि १, एका द्रव्यतो न भावतः २, एका मानतो हिंसा न द्रव्यतः ३, एका न द्रव्यतो न भावनः ४, अयमेको भङ्गः शुद्धः, अवन्धकत्वाद्, द्वितीयो मङ्गः नातेऽपि द्रव्यतः प्राणिवघे स्वल्पः कर्मबन्धः, भावतः परिणामस्य शुद्धत्वात् । भावसहितस्यैव कन्धोऽभिहितः, तथाहिवैद्यस्यागमानुसारेण सम्यक्रियां कुर्व्वतोऽपि यधातुविपत्तिमत्रति तथापि न वैरानुषो भवेदोपाभावात् । अपररूप सु सर्प रज्जुमपि तो मावदोषात् कर्मबन्धः, यतः -" उचालियंमि पाए, हरियासमियरस संकमट्ठाए। बावज्जेज्ज कूलिंगी,
97
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
. मरिन तहोगमामज ॥१॥ न य तस्म सन्निमित्तो, पंधो सुहुमो वि देसिओ समए | अणबजे य पओगे, |ण सधभावेण सो जम्हा ॥ २ ॥ अज्झस्थविसोहिए, जीवनिकाएहि संघ(डे)डो लोए। देसियमहिंसयत्तं, जिणेहि तेलोकसीहिं ॥ ३॥ नाणी कम्मरस खयट्ठ-मुट्टिओ नोठिओ य हिंसाए । जयइ असद अहिंसा (स्थ)-मुट्टिओ अवहओ सो उ ॥ ४ ॥ तस्स असंचयओ सं-चयओ(य) जाई सत्ताई । जोगं पप्प विणस्संति, नथि हिंसाफलं तस्स ॥ ५॥ जो ध पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पड्डुच जे सत्ता । वाविनंते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ ॥ ६ ॥ जे विन वाविनंती, नियमा तेसि पि हिंसओ होई । सावजो य पओगेण, सव्यभावेण सो जम्हा ।। ७॥ आया चेव अहिंसा, आया हिंसत्ति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो,
अहिंसओ हिंसओ इयरो ।। ८॥ जो घ पओगं झुंजइ, हिंसस्थं जो य अन्नभावेण | अमणोय जो पउंजह, IN | इत्थ विसेसो महं बुत्तो ॥ ९॥ हिंसत्धं जुजतो, सुमहं दोसो अ[प्पणत्तरं इयरो। अमणो य अप्पदोसो,
| जोगनिमित्तं च विन्नेओ ॥ १० ॥ रत्तो वा मूढो वा, जो पउंजह पओगं । हिंसा वि तत्थ जायइ, तम्हा IA IN सो हिंसओ बुत्तो ।। ११ ।। न य हिंसामित्तेणं, सावल्लेणावि हिंसओ होई । सुद्धस्स य संपत्ती, अफला NA
भणिया जिणवरेहिं ॥ १२ ॥ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निजरफला, अन्त्य विसोहिजुत्तस्स ॥ १३ ॥" अत्र पूर्वोक्तचतुर्भलिकामध्ये प्रथमतृतीयभावशुद्धौ, शेषौ शुद्धौ, इत्यलं विस्तरेण । एतावता महत्प्राणीवचे अल्पकायसवव्यापादने च सहयं वैरं सदृशः कर्मबन्धः इत्येवं नो वदेत् इति गाथार्थः॥७॥
क
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ पुनरपि चारित्रमधिकृत्याहारमधिकृत्या चारानाचारौ प्रतिपादयितुकाम आइ
अहाकम्माणि भुंजंति, अन्नमन्ने सकम्मुणा । उवलित्तेति जाणिजा, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥ ८ ॥
व्याख्या -- साधुमाश्रित्य कर्माणि - आधाकम्र्माणि तानि च वस्त्रभोजनवसत्यादीनि, एतान्याषाकर्माणि खन्तेएतैरुपभोगं ये कुर्वन्ति अन्योऽन्यं परस्परं तान्स्वकीयेन कर्म्मणोपलिप्तान् विजानीयादित्येवं नो वदेत् [ तथाऽनुपलिप्सानिति वा नो वदेत् ]। एतदुक्तं भवति अवाकम्र्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा सुजानः कर्मणा नोपलिप्यते तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाऽऽहारगृड्या आधाकमै भुञ्जानस्य तनिमित्तकर्म्मबन्धसद्भावात्, अतोऽनुपलिप्तानपि नो वदेत् यथावस्थितमौनीन्द्रागमज्ञस्य त्वेवं युज्यते वक्तुं -आधाकम्मोपभोगेन स्यात्कर्म्मबन्धः स्यान्नेति उक्तं च-" किश्चिच्छुद्धं क य-मकल्पयं वा स्यादकल्य्यमपि कल्पम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं, पात्रं वा भेषजायं वा ॥ १ ॥ " अतः आधाकर्मणोपलिप्तान् वा अनुपलिप्तान् वा इत्येकान्तेन नो वदेत् ॥ ८ ॥ किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यते : इत्याहएते दोहिं ठाणेहिं, ववहारो न विजई । एतेहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ९ ॥
व्याख्या—आभ्यां स्थानाभ्यामनयोर्वा स्थानयोराधाकर्मोपभोगेन कर्मबन्ध[यात्रा]] भावभूतयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाहि श्रुते हि कदापि कस्यामप्यवस्थायामा पाकर्मग्रहण मध्यनुज्ञातमस्ति । सव्वत्थ संजमं सं-जमाओ अप्पाणमेव रक्खिला | मुबइ अवायाओ, पुणो वि सोही न(त) या (१) विरई ॥ १ ॥ " तथा " संधरणंमि असु
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
तुन्हविचतामह बारविहणं वेव हियं असंधरणे ॥ २ ॥ तथा च श्रीभगवत्य"तहावं भंते ! समणं या माहणं वा फासूयएसणिलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला भे माणस किं कजति ? गोमा ! एगंतसो निज्जरा कज्जति । तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुरणं असणलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पहिला मेमाणस्स किं कजह १ गोयमा ! बहुतरिया निज्जरा कज्जह अप्पतरे पावे कम्मे कज्ज । " इत्यादिप्रकारेणावाकमप्यनुज्ञातमस्ति, अतः आवाकम्मोपभोगेन कर्मणा लिप्यते इत्येकान्तेन नो वदेत् नापि तदुपभोगे कर्म्मबन्धाभाव इत्यपि वदेत्, यतः - आवाकर्म्मणि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीतः कर्मबन्ध हत्य[तोऽ]नयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयोर्व्यवहारो न युज्यते, तथाऽऽस्यामेव स्थानाभ्या माश्रिताभ्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितं ॥ ९ ॥ पुनरन्यथा दर्शनं प्रति वागनाचारं दर्शयितुमाह
जमिदं ओरालमाहारं, कम्मगं च त[मेव तं ] देव य । सवत्थ वीरियं अस्थि, नत्थि सवत्थ वीरियं ॥ १०॥
व्याख्या - औदारिकं शरीरं १, तथाऽऽहारकं २, वैक्रियं ३, काणं ४, तैजसं ५, एवं पञ्च शरीराणि तत्र कश्विदेवंजानाति - यदेवौदारिकं तदेव कार्म्मणं तैजसं च यदेव तैजसं कार्म्मणं तदेवौदारिकं तदेवाहारकं तदेव वैक्रियं च एवं विधां संज्ञां न धारयेत् एतेषां शरीराणां ऐक्थं न गणयेत्, तथा मिथः पार्थक्यमपि न गणयेत्, कथञ्चिदेकत्रोपलब्धेर मेदः कथच संज्ञाभेदाद्भेद इति स्थितं तदेवमौदारिकादीनां शरीराणां मेदाभेदौ प्रदर्श्य सर्वस्यैव द्रव्यस्य मेदामेदौ प्रदर्शयितु
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामः पूर्वपक्षं श्लोकपथान दर्शयितुमाह-सम्वत्थ नीरिंग' मिशाति'सर्वद्रलाली सर्वद्रव्येषु विद्यते ' अयं | साँख्याभिप्रायः, साँख्याना हि सचरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यैकत्वात्तस्य च सर्वस्यैव कारणत्वात् , अत: ' सर्व सर्वात्मक'. मित्येवं व्यवस्थिते सर्वत्र घटपटादावपरस्य व्यक्तस्य [कार्यस्य ] 'वीर्य' शक्तिर्विद्यते, सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वाकार्यकारणयोचकत्वात् , अतः 'सर्व सर्वात्मक 'मित्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , तथा " सर्वे भावाः स्वभावेन, स्वस्वभावे व्यवस्थिताः", अतः प्रतिनियतशक्तिवान सर्वत्र सर्वस्य 'वीर्य' शक्तिरित्येवमपि संशा नो निवेशयेत् , अत्रैकान्तनिषेधेन स्याद्वादभाषया वदेदिति गाथार्थः ॥ १०॥ एतेहिं दोहि ठाणहिं, ववहारो न विजई। एएहिं दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥ ११ ॥ ____ सुगमाx, व्याख्या पूर्ववत् । तथानस्थि लोए अलोए वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ १२ ॥ ___व्याख्या-पश्चास्तिकायात्मकश्चतुर्दश्चरवात्मको वा लोको नास्ति, एवं संज्ञा नो निवेशयेव-न धारयेत् , तथा केवलाकाशात्मकोऽलोकोऽपि नास्तीत्येवमपि संज्ञा न निवेशयेत्-न निवेदयेत् , किन्तु ' अस्थि लोए' इत्यादि, किन्तु अस्ति लोकः
X" द्वाभ्यामेताभ्यां शक्तिरस्ति नास्ति वेति, अथवा शरीराणां सर्वेषां भेवोऽभेदो वेति द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते, युक्तयो न सलगच्छन्ति इत्यर्थः । एतयो: स्थानयोः प्रवृत्तस्यानापार जानीयात्" इति हर्षकुलीयदीपिकायां ।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ऊ पस्तिर्यगरूपो वैशाखस्थानस्थित कटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषसदृशः पश्चास्तिकायात्मको वा, युक्तिश्चाऽत्र-यदि सर्व नास्ति ततः सर्वान्तःपातित्वालोकनिषेधक पुरोगी मारित, एतावता लोकाभावे प्रतिषेधकपुरुषामावा, पुरुषाभावात्प्रतिषेधस्याप्यमावः, तदेवं व्यवस्थिते लोकोऽप्यस्ति तत्प्रतिपक्षभूतः अलोकोऽप्यस्ति इत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ नत्थि जीवा अजीवा वा, नेवं सन्नं निवेसए। अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ १३ ॥ ___ व्याख्या--उपयोगलक्षणा: संमारिणो मुक्ता वा जीवा न विद्यन्ते, तथा अजीवाश्च धर्माधर्माकाशकालपुद्गलात्मका गतिस्थित्यवगाहदानछायातपोद्द्योतादिवर्तनालक्षणा न विद्यन्ते। प्रत्यक्षेणानुपलम्पमानत्वाञ्जीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि भूतान्येव धावनवल्गनादिकां क्रियां कुईन्तीति । अजीया अपि न विद्यन्ते, एवंविधां संज्ञा नो निवेशयेत् , नास्तिवादी तु सर्व नास्तीति प्ररूपयति । ' अस्थि जीचे 'त्यादि, अस्ति जीवः अस्त्यजीवः एवंविधां संज्ञां निवेशयेत् । तस्मान्नैकान्तेन जीवाजीवयोरभावः, अपितु सर्वपदार्थानां स्थाद्वादाश्रयणाजीवाजीवयोरस्तित्वं नास्तित्वं च (स्यात् ) केनापि प्रकारेणेति । अत्र जीवाजीवयोरस्तित्वे नास्तित्वे च युक्तयोः ग्रन्थान्तरादव से या इति गाथार्थः ॥ १३ ॥ नरिथ धम्मे अहम्मे वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि धम्मे अहम्मे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ १४ ॥ ___व्याख्या-धर्मः श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणामोऽस्ति धर्म कर्मक्षय कारणं, अधर्मोऽपि मिथ्यात्वाविरति. प्रमादकषाययोगरूपः कर्मवन्धकारम, धोऽपि नास्ति अधोऽपि नास्ति नैवं संवां निवेशयेत् नैवं प्ररूपयेदित्यर्थः ।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
कथं रूपयेत् ? अस्थि धम्मेत्यादि, अस्ति धर्मः - अधम्मौध्यस्ति, यतो धम्र्माधर्ममन्तरेण संसारवैचित्र्यं न स्यात्, यतः - " प्रत्यक्ष एव विश्वेऽस्मिन् प्रपञ्चः पुण्यपापयोः । द्विभिन्नं (वि) जगत्सर्व, सुखदुःखव्यवस्थया ॥ १ ॥ एके दधति साम्राज्यं, परे दधति दासताम् । " हत्यादिवचनात्, अतो धर्मः सम्यग्दर्शनादिकोऽस्ति अधम्र्मोऽपि मिथ्यात्वादिकोsस्ति इत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ १४ ॥
स्थिबंधे व मुक्खे वा नेवं सन्नं नित्रेसए । अस्थि बंधे व सुक्खे वा, एवं सन्नं निबेस ॥ १५ ॥
व्याख्या - बन्धः कर्मणां 'नास्ति' न विद्यते, अमूर्त्तत्वादात्मनो गगनस्येव न कर्मणां बन्धः इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, तथा बन्धाभावाच्च मोक्षस्याप्यभात्र इत्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत्, किन्तु 'अस्थि यंत्रे व सुक्खे वा' अस्त्यात्मनो बन्धः कर्मणां अमूर्तस्याप्यात्मनो मूर्त्तः कर्मपुद्गलैः सह सम्बन्धो बन्धः, स तु विद्यत एव आत्मनः सक्रियत्वात्, सक्रियस्य स्यादेव बन्धः, यदा खात्माऽक्रियस्तदा न कर्म्मबन्धः, बन्धाभावाच्च मोक्ष एव, अतो बन्धोऽप्यस्ति मोक्षोऽप्यस्तीत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः || १५ |
अथ बन्धसद्भावे पुण्यपापयोरपि सद्भात्रः । तर्हि -
I
नत्थ पुत्रे व पावे वा नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पुन्ने व पावे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १६ ॥ व्याख्या -' नास्ति ' न विद्यते 'पुण्यं शुभकर्मप्रकृतिलक्षणं तथा पाप-मशुभकर्मप्रकृतिलक्षणं 'नास्ति ' न विद्यते,
'
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत्, पतः - पुण्यपापयोर्विना जगद्वैचित्र्यं न स्यात् । केषांचिन्मते जगद्वैचित्र्यं नियतिक्रतं, नियत्या जगद्वैचित्र्यं स्यात् तदप्ययुक्तम्, यदि नियत्या स्वभावेन वा जगद्वैचित्र्यं स्यात् तदा सकलक्रियावैयर्थ्यं स्यात् । सकल क्रियात एव सकलकार्योत्पत्तिः । यतः - शुभक्रियातः पुण्यं पुण्याच्च सुखं अशुभक्रियातः पापं पापाच्च दुःखमित्यतः 'अस्थि नं व पावत्यादि, अस्ति पुण्यं पापं नाति एवं ज्ञः ॥ १६ ॥
नत्थि आसवे संवरे वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि आसवे संवरे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १७ ॥ व्याख्या - आषत्रः प्राणातिपातादिरूपः कर्मोपादानकारणं, तनिषेधः संवरः एतौ द्वावपि न स्तः इत्येवं संज्ञां न निवेशयेत् किन्त्वस्त्यात्रः संवस्थ, इत्येवंविधां संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ १७ ॥
+
नत्थि वेयणा निज्जरा वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि वेयणा निजरा वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १८ ॥
व्याख्या- 'वेदना' कर्मानुभवलक्षणा तथा 'निर्जरा' कर्मपुङ्गलशाटनलक्षणा, एते द्वे अपि न विद्येते इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, यतः - पल्योपमसागरोपमशताऽनुभवनीयं कर्म अन्तर्मुहुनेनैव क्षयमुपयातीत्यभ्युपगमात्तदुक्तं - * जं अन्नाणी कम्मं ववे वयाहिं वासकोडीहि । तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेद ऊसासमित्तेणं ॥ १ ॥ " इत्यादि । पकश्रेण्यां तु झटित्येव कर्मणो भस्मीकरणाद्यथाक्रमबद्धस्य चानुभवनामावेन वेदनाया अभाव:, तदभावाभिर्जशया अध्य
* यदज्ञानी कर्म यति बहुकाभिवर्ष कोटीभिः । राज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥ १ ॥
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावः इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । किमिति १ यतः - कस्यचिदेव कर्म्मण एवमनन्तरोक्तया नीत्या क्षपणात्तपसा प्रदेशानुभवेन चापरस्य दयोदीरणाभ्यामनुमवनमित्यतोऽस्ति वेदना, आगमोऽध्येवम्भूत एव तद्यथा-" x पुवि दुचित्राणंदुपडिकंताणं वेत्ता मोखो, नत्थि अवेत्ता " इत्यादि । वेदनासिद्धौ च निर्जराऽपि सिद्धैवेत्यतोऽस्ति वेदना निर्जरा चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ १८ ॥
वेदना निर्जरा च क्रियाक्रियायते, ततस्तद्भावं प्रतिपेधपूर्वकं दर्शयितुमाह-
नत्थि किरिया अकिरिया बा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेस ॥१९॥
I
व्याख्या- 'क्रिया' वरिस्पन्दमा वर्ष लक्रिया के द्वे अपि न स्तो-न विद्येते, इत्येवंविधां संज्ञां नो निवेशयेत्, यतः -- शरीरात्मनोर्देशादेशान्तरावाप्तिनिमित्ता परिस्पन्दात्मिका क्रिया प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यते, सर्वथा निष्क्रियत्वे चात्मनोऽभ्युपगम्यमाने गगनस्यैव चन्धमोक्षाद्यभावः, स च दृष्टेष्टबाधितः अपि चैकान्तेन क्रियाऽभावे संसारमोक्षाभावः स्या दिव्यतोऽस्ति क्रिया तद्विपचभूता चाक्रियाऽप्यस्ति इत्येवंविधां संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ १९ ॥
अथ सक्रिये आत्मनि सति क्रोषादिसद्भाव इत्येतद्दर्शयितुमाह---
थि कोहे व माणे वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ २० ॥ X पूर्वं दुखीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां ( कर्मणां ) वेदयित्वा मोक्षो, नास्त्यवेदयित्वा ।
१९
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
व्याख्या - स्वपरात्मनोरप्रीतिलक्षणः क्रोधः स चानन्तानुवन्ध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणसज्वलनभेदेन चतुaissa पते तथैताद्भेद एव ' मानो' गर्वः, तौ द्वावपि न स्तो' न विद्येते, इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् यतःकपायकम्मदियवर्त्ती दौष्ठः कृतभृकुटीको रक्तकोषाध्मातः समुपलभ्यते, केपाञ्चिन्मतेन क्रोधो मानांश एवेत्येतदप्ययुक्तं क्षपक श्रेण्यां तु भेदेन श्रवणात् क्रोषक्षये न मानस्य यः पृथक् पृथक् क्षयो द्वयोरपि, तदुभयस्य च नरसिंहव][] स्त्वन्तरत्वादित्यतोऽस्ति क्रोधः, मानोऽप्यस्ति चेत्येवं संज्ञां निवेशयदिति गाथार्थः ॥ २० ॥ नथ माया व लोभे वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि माया व लोभे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ २१ ॥
व्याख्या - त्रापि प्राग्वन्मायालो भयोरभाववादिनं निराकृत्यास्तित्वं प्रतिपादनीयमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतमेषामेव क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयचाह ---
नस्थि पेजे व दोसे वा, नेवं सन्नं निवेलए । अस्थि पेजे व दोसे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ २२ ॥
I
व्याख्या -- प्रीतिलक्षणं प्रेम, पुत्रकलत्रधनधान्याद्यात्मीयेषु रागस्तद्विपरीतस्त्वात्मीयोप्रघातकारिणि द्वेषस्तावेतौ द्वावपि न विद्येते इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । प्रेमाप्यस्ति द्वेषोऽप्यस्ति यतः " को दुःखं पाविज्जा ?, कस्स व सुक्खे हि चिम्हओ हुआ १ । को व न लहिज्ज ? सुक्खं, रागदोसा जड़ न हुजा ॥ १ ॥ तो बहुगुणनासाणं, समत्तचरितगुणविणासाणं । नहुषसमागतव्यं, रागद्दोसाण पावाणं ॥ २ ॥ " इत्यादिवचनप्रामाण्यात्र तदभावः,
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
NI अतः प्रेमाप्यस्ति द्वेषोऽप्यस्ति इत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ।। २२ ॥x
नस्थि चाउरते संसारे, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि चाउरते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥ २३ ॥ ___ठमाण चत्तान्त गतिले गाएकार्य करा मरलक्षणा यस्य संसारस्यासौ चातुरन्तः, संसार एव कान्तारो मयैकः ।। हेतुस्त्रात्स चतुर्विधो न विद्यते, अपि तु सर्वेषां संसृतिरूपत्वात् कर्मबन्धात्मकतया च दुःखैकहेतुत्वादेकविध एव, अथवा [. नारकदेवयोरनुपलभ्यमानत्वातिर्यमनुष्ययोरेव सुखदुःखोत्कर्पतया तद्ध्ययस्थानाद् द्विविधः संसारः, पर्यापनयाश्रयणावे. कविधः, अतश्चातुर्विध्यं न कथञ्चिद्घटत इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत , अपि त्वस्ति चातुरन्तः संसार इत्येवं संत्रा निवेशयेत् । यदुक्तमेकविधः संसारस्तन्न घटते, यतोऽध्यक्षेण तिर्य मनुष्ययोर्भेदः समुपलभ्यते, तथा [ सम्भवानुमानेन ] नारकदेवा
नामप्यस्तित्वाभ्युपगमाद [वैविध्यमपि न विद्यते ], एवं चातुर्गतिक एव संसार इत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ २३॥ 10 नरिथ देवो व देवी वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि देवो व देवी वा, एवं सन्नं निवेसए ।। २४ ॥ ___व्याख्या-मश्नपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा न सन्ति तथा देवाभावाद्देश्योऽपि न सन्ति इत्येवं संज्ञां नो
. इतोऽनन्तरं निम्नोधृतः श्लोकः सवृत्तिका समुपलभ्यते हर्षकुलीयायां-" नस्थि रागे व दोसे वा, नेवं सत्रं निवेसए । अस्थि रागे व दोसे वा, एवं सन्नं निवेमए ।। २३॥ दी-रागद्वेषौ न स्तः इति न स्वीकार्य, तौ विद्येते इति मतिः काया, युतिः पूर्वोक्ता । (पुनरुक एवायम् )
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
IF निवेशयेत् , किन्तु देवा देव्यश्च सन्ति, अईतां पञ्चसु कल्याणकेषु समागमनदर्शनात् " जिणपंचसु कल्लाणएसुचेव
महरिसितवाणु भावाओ । जम्मतरनेहेल ग, आगन्ती स ह ॥ १॥" अन्यथा नायान्ति, (यत:-) "चत्तारि पंच जोयण-सवाई गंधो उमणुयलोयस्स। उड्डे वञ्चहजेणं, नहु देवा तेण आविति ॥१॥" तथा च
ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वमनुमानेन माध्यते, अतो देवा देव्यश्च सन्तीत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥२४॥ - नस्थि सिद्धी असिद्धी वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि सिद्धी असिद्धी वा, एवं सन्नं निवेसए ॥२५॥ ____ व्याख्या-अशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धिस्तद्विपर्ययभूता चासिद्धिनास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् , अस्ति सिद्धिरित्येवं । संज्ञा निवेशयेत् । सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकम्य मोक्षमार्गस्य सद्भावात् कर्मक्षयम्य च पीडोपशमनादिना प्रत्यक्षेण- 10 दर्शनात् , अतः कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिद्धरस्ति सिद्धिरिति गाथार्थः ।। २५ ॥ नस्थि सिद्धी नियं ठाणं, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेसए ॥ २६ ॥
व्याख्या--सिद्धेश्शेषकर्मक्षयलक्षणाया निजं स्थानमीषत्मागमाराख्यं व्यवहारतो, निश्चयतस्तु तदुपरि योजन[चतुर्थ]| क्रोशषड्भागः, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात्म नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , किन्तु सिद्धानामवस्थानस्थानं सिद्धाश्च
सन्तीत्येवं संडा निवेशयेत् , यतः-अयोगिचरमसमये त्रयोदश प्रकृतीः "क्षयं नीत्वा स लोकान्तं, तत्रैव समये : Ni व्रजेत् । लब्धसिद्धत्वपर्यायः, परमेष्ठी सनातनः ॥ १ ॥ पूर्वप्रयोगतोऽस-भावान्धविमोक्षतः । स्वभाव
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिणामाच, सिद्धस्योदयगतिर्भवेत् ॥ २॥ कुलालचक्रदोलेषु, मुख्याणां हि यथा गतिः। पूर्वप्रयोगतः। सिद्धा, सिद्धस्यो गतिस्तथा ।। ३ ।। मूल्लेपसङ्गनिर्मोक्षा-द्यथा दृष्टाऽऽश्वलाबुनः । पूर्वसङ्गविनिर्मोक्षा-तथा || सिद्धिगतिः स्मृता ॥ ४ ॥ एरण्डफलबीजादे-बन्धच्छेदाधा गतिः। कर्मवन्धनविच्छेदात्, सिद्धस्यापि तथा भवेत् ॥ ५ ॥ यथाऽधस्तिर्यगूद्धं च, लोष्टवाय्वग्निपीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते, तथोर्द्धगतिरात्मनः ॥ ६ ॥ न चाधो गौरवाभावा-न तिर्यक् प्रेरकं यिना । न च धर्मास्त्रि कायस्या-भावाल्लोकोपरि ब्रजेत् । | || ७ || मनोज्ञा सुरभिस्तन्वी, पुण्या परमभासुरा। प्राग्मारा नाम वसुधा, लोकमूनि व्यवस्थिता ॥ ८॥ नृलोकतुल्यविष्कम्भा, सितच्छम्रनिभाशभा । ऊ तस्याः क्षितेः सिद्धा. लोकान्ते समवस्थिताः॥९॥ इसीपम्भाराए, उरि खल जोयणमि जो कोसो। कोसस्स य छन्माए, सिद्धाणोगाहणा भणिया ।।१०॥" इति सिद्धानां स्थानम् । अथ सिद्धास्तु-"नो किण्हे नोनीले नो लोहिए नो हालिद्दे नो सुकिल्ले नो सुरभिगंधे नो दुरभिगंधे नो तित्ते नो कडुए नो कसाए नो अंषिले नो महुरे (नो लवणे )मो बट्टे नो तंसे नो चउरंसे - नो परिमंडले नो वीहे नो हस्से नो गुरुए नो लहुए नो सीए नो उण्हे नो कक्वडे नो मउए नो इत्थी नो | पुरिसे नो अन्नहा" एवं सिद्धाः लोकाग्रपदसंस्थिताः सदाऽव्ययाः अनन्ता अजरामसः सदानन्दमया अबतिष्ठन्ते । एवं सिद्धास्तथा सिद्धानां च स्थानं विद्यते, एवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ।। २६ ।। नस्थि साह असाह वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि साहू असाहू वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २७ ॥
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्याख्या--' नास्ति' न विद्यते यथोक्तगुणोपेतः साधुस्तदभावाच्च तत्प्रतिपक्षभूतस्यासाधोरप्यभावः, यतः " केवलमणोहिचउदस-दसनवपुल्वीहि संपर्य रहिए। सुद्धमसुद्धं घरणं, को जाणइ १ कबभावं च ॥ १॥" इत्येवम्भूता संज्ञां नो निवेशयेत् "कालाइदोसवसओ, कहवि दीसंति तारिसा न जइ । सव्वत्थ तहवि नस्थित्ति, नेव कुज्जा अणासासं ॥१॥ कालोचियजयणाए, मच्छररहियाण उनमंताणं । जणजत्तारहियाणं, होइ जइत्तं | जईण सया ॥२॥ अनाणनिरंतरतिमिर-पूरपूरियमि भवभवणे । को पयडइ ? पयन्थे, जइ गुरुदीवा न विपंति ॥ ३ || पलए महागुणाण, जयंति सेवारिहा हहशुमा चियलिए दिणमाहे, अहिलसह जणो पई पि ॥ ४ ॥ अट्ठ गुणाणं मझे, इक्केण गुणेण संघपचक्वं । तित्थुम्नयं कुणतो, जुगपवरो सो इहं नेओ ॥५॥ दुप्पसहंतं चरणं, जं भणियं भगवया इह खित्ते । आणाजुत्ताणं पुण, न होइ अहुणत्ति वामोहो ॥६॥" श्रीभगवत्यां-" केवइयं कालं तु देवाणुपियाणं तित्थे अणुसज्जिस्सइ १, गोयमा! इकवीसवास
सहस्साई ममं तित्थे अणुसजिस्सइ, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो-समणा समणीओ सावया | । सावियाओ" इत्यादिभगवदचनप्रामाण्यातीर्थ यावत् साधनः सन्ति तद्विपरीताश्चासाधवोऽपि सन्तीत्येवं संज्ञा
निवेशयेदिति गाथार्थः ।। २७ ॥ K नस्थि कल्याण पावे वा, नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि कल्लाण पावे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २८ ॥
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याल्या-यथेष्टार्थफलसम्प्राप्तिः कल्याणं तम विद्यते तथा पापं पापवान्वा न कश्चिविद्यते, तदेवमुमयोरप्यभावः, | इत्येवं रूपां संज्ञा नी निवेशयद , यतः-कल्याणपापयोपिना सुखी दुःखी सरोगी निरोगी सुरूपः कुरूपो दुर्भगः सुमगो धनी दरिद्रो मूर्खः पण्डितो वेत्यादिको जगद्वैचित्र्य मावोऽध्यक्षसिद्धोऽपि न स्यात्तस्मादस्ति कल्याणं पापं चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति गाथार्थः ॥ २८ ।।।
न चैकान्तेन[ कल्याण ]कल्याणमेव, यतः कैवलिनां प्रक्षीणधनवातिकर्मचतुष्टयानां सातासातोदयसद्भावाचवा नारकाणामपि पञ्चेन्द्रियस्वविशिष्टज्ञानादिसावाकान्तेन ते पापबन्त इति, तस्मात्कथञ्चित्कल्याणं कथञ्चित्यापमिति | स्थितं । तदेवं कल्याणपापयोरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्य एकान्त दूयितुकाम आह
कल्लाणे पावए वा वि, ववहारो न विजई। जं वरं तं न जाणंति, समणा बालपंडिया ॥ २९ ॥
व्याख्या-सर्वथा कल्याणवानेवायं तथा पापवानेवायमित्येवम्भूतो व्यवहारो न विद्यते, एकान्तस्यार्थस्याभावात , | अनेकान्तवादस्यैवाश्रयणात्सर्ववस्तूनामनेकान्ताश्रयणेन[प्राक] प्रसाधितत्वात् , एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते कुत्रापि वस्तु. विषये इति मावः। यः पुरुष एकान्तेन पुण्यवान् दृश्यते सोऽप्यन्त्यावस्थायां परिणामपरावर्तादुर्गतौ प्रयाति यः पापी सोऽपि परिणामवशात्मुगतिगामी स्पात , अत एकान्तवचनं न ब्रूयात् । तथा वैरं कर्मविरोधो वा वैरं, तोन च परोप
x" तदभावे कल्याणवांश्च न कश्चिद्विद्यते" इति बृहदयत्तिः ।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारदिशातासमाश्रयणे या मवति, तते 'श्रमणा'स्तीथिकाः 'चाला' रागद्वेषकलिताः 'पण्डित्ता' अभिमानिनः शुष्कतर्कदध्माता न जानन्ति, परमार्थभूतस्याहिमालक्षणस्य धर्मस्थानेकान्तपक्षस्य वाऽनाश्रयणात् । यदि वा यद्वैरं तत्ते श्रमणा बालाः पण्डिता न जानन्तीत्येवं वाचं न निसृजेत् , तत्तेषां कोषोत्पना, यच्चैवम्भूतं वचस्तन्न चान्यं, यता"+अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज वा परो । सम्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहियगामिणि ॥१॥" इति माथार्थः॥ २९ ।। अपरमपि वाइसंयममधिकृत्याह--- असेसं अक्खयं वा वि, सबदुक्खेति वा पुणो। वज्झा पाणा न वज्झत्ति, इति वायं न नीसिरे ॥३०॥ ___ व्याख्या-इह जगति सर्वेऽपि घटपटादयः पदार्था एकान्तेन नित्याः-शाश्वताः, सर्व जगदकृतं नित्यं एवं न ब्रूयात् । सर्वेषां पदार्थानां प्रतिममयं चान्यथा मावदर्शनात् , सर्वथा क्षणिकमेवमपि न ब्रूयात् । तथा सर्व जगदुःखात्मकमेवमपि | न वदेत् , सुखात्मकस्यापि सम्यग्दर्शनादिभावेन दर्शनाव , यतः-" x तणसंधारनिसन्नोऽवि, मुणिवरो भट्टरागमय मोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो ? तं धक्कवद्दीवि ॥१॥" इत्यादि, तथा वध्याचौरपारदारिकादयोऽवध्या वा, तत्कर्मानुमतिप्रसङ्गात् , इत्येवम्भूतां वाचं स्वानुष्ठानपरायणः साधुः परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत् । तथाहि-सिंहव्याघ्र |
+ अप्रीतिकं यया स्यादाशु कुष्येद्वा परः । सर्वथा तो न भाषेत भाषामहितगामिनीम् ॥ १ ॥ ४ तृणसंस्तारकनिषष्णोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तबक्रवर्त्यपि ॥१॥ * वध्यकथने हिंसाविकमेणामवध्यकथने च चौर्यादिकर्मणाम् ।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्जारादीन परमत्वव्यापादनपरायणान् दृष्ट्या माध्यस्थ्यमवलम्बयेत् । तथाऽमी गवादयो वाया न वाना वा तथाऽमी पक्षाग्छेद्या अछेद्या वा इत्यादिकं बचो न वाच्यं साधुनेति गाथार्थः ॥ ३०॥
अथायमपरो बाकसंयमप्रकारोऽन्तःकरणशुद्धिमाश्रितः प्रदश्यते-- दीसंति समियाचारा, भिक्खुणो साहुजीविणो । एए मिच्छोवजीवित्ति, इति दिढेि न धारए ॥३१॥
व्याख्या-जगत्येके दृश्यन्ते । समियाचार [त्ति समिताचाराः सिद्धान्तोक्ताबारे प्रवर्त्तमाना भिक्षवो दोषरहिताहारगवेषिणस्तथा साधुनीविनः, न कस्यचिदपराधविधायिनः, वान्ता दान्ता जितेन्द्रिया जितक्रोषा ईशोधका युगमात्रा न्तरदृष्टयः सत्यसन्धा दृढव्रताः परिपूतोदकपायिनो मौनिनः सदा तायिनो विविक्तकान्तध्यानाध्यासिनोकोत्कृच्यास्तानेत्रम्भ तानवधार्यापि सरागा अपिवीतरागा इव चेष्टन्ते' इति मत्ा एते मिथ्योपजीविन इत्येवं दृष्टिं न धारयेत्-नैवम्भूतमध्यवसायं कुर्यामाप्येवम्भूतां वाचं निसृजेत-यथैते मिथ्योपाचारप्रवृत्ता मायाविन इति, छमस्थेन ह्यर्वाग्दर्शिना एवम्भूतस्य निश्चयम्प | कर्तुमशक्यवादित्यभिप्रायः, ते च स्वयूथ्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया बा, तावुभावपि न वक्तव्यौ साधुनेति ॥३१.। किश्व
दक्खिणाए पडिलंभो, अस्थि वा नस्थि वा पुणो। न वियागरेज मेहावी, संतिमग्गं च वूहए ॥३२॥ ___ व्याख्या-दानं दक्षिणा, तस्याः 'प्रतिलम्मः' प्राप्तिा, स दानलामोऽस्मादहस्थादेः सकाशादस्ति नास्ति वेत्येवं | व्यागृणीयात् 'मेधावी' मर्यादावान् स्वयूथ्यस्य तीर्थान्तरीयस्य वा एकान्तेन दान-दाननिषेधं वा न कुर्यात् । तथाहि
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
तद्दाननिषेधेऽन्तरायसम्भवः, तद्दानानुमतावप्यधिकरणोद्भवः इत्यतोऽस्ति दानं न चेत्येकान्तेन न ब्रूयात् । कथं तर्हि ब्रूयात् ? इति दर्शयति-— शान्ति' मोक्ष[ स्वस्य ] मार्गस्तं ' उपश्रुंइयेत्' वर्द्धयेत् यथा मोक्षमार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा वदे दित्यर्थः । एतावता यथा सावधं स्यात्तथा न वदेदिति गाथार्थः ॥ ३२ ॥
इच्चे ठाणेहिं, जिणदिट्ठेहिं संजए। चारयंते उ अप्पार्ण, आमक्खाए परिवज्जासि तिबेमि ॥ ३३ ॥ सुखंधस्स अणायारनामं पंचमज्झयणं समन्तं ॥ ५ ॥
व्याख्या --- इत्येते रे कान्वनिषेधद्वारेणाने कान्तविधायिभिः स्थानैवक्संयमप्रधानैः समस्वाध्ययनोकैः रागद्वेषरहितैर्जिन: दृष्टैरुपलब्धैर्न स्वमतिविकल्पोत्थापितैः ' संगतः संयमवानात्मानं धारयन्, एभिः स्थानैरात्मानं वर्त्तयन् आमोक्षाय [अ]शेष कर्मक्षयार्थं 'परि' समन्तात्संयमानुष्ठाने 'व्रजेः' गच्छेत्वमिति विनेयस्योपदेशः । इतिः परिसमाध्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ।
इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छवि भूषण पाठक प्रवर श्री मत्साधुरङ्गमणिरसन्न्धायां श्रीपूत्रकृताङ्गदीपिकार्य समाप्तमाचारश्रुताख्यं पञ्चममध्ययनमिति ।। ५ ।।
SHAGODA
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ षष्ठमार्द्रकीयमध्ययनम् ।
040
उक्त पश्चममध्ययनं साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते इदमाईककुमाराध्ययनम् ।
अत्र आर्द्रककुमारोत्पत्तिः प्राग्भवस्वरूपप्रतिमादर्शनोत्पन्नजातिस्मरणादिकं सर्वं बृहट्टीकातोऽवसेयं, अत्र तु सूत्रार्थ एव प्रतन्यते, तथाहि
पुरे कडं अद्द ! इमं सुणेह, एगंतचारी समणे पुरासी । सेभिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, आइक्खतिपिंह पुढो वित्थरेणं ॥ १ ॥
P
व्याख्या—यथा गोशालकेन समं वादोऽभूदाईककुमारस्य तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते तं च राजपुत्रमाईककुमारं प्रत्येकबुद्धं भगवत्समीपमागच्छन्तं गोशालकोऽब्रवीद्, यथा- मो आर्द्रक ! यदहं ब्रवीमि तच्छृणु, 'पुरा पूर्वं यदनेन भवता कृतं तच्चेदमिति दर्शयति-पुरा एकान्त प्रदेशचारी - श्रमणः पुराऽसीपश्वरणोद्युक्तः, साम्प्रतं तूयैस्तपश्चरणनो विहाय देवादिमध्यगतोऽसौ धम्मं कथयति । बहून् भिक्षूनुपनीय-प्रभूतशिष्यपरिवारं कृत्वा मवद्विघानां मुग्ध नानामिदानीं धर्ममाचष्टे पृथक् पृथक् विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १ ॥
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
साऽऽजीविया पविताऽथिरेणं, सभागओ गणओ भिक्खुमज्झे ।
आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं न संघयाती अवरेण पुवं ॥ २ ॥
=
व्याख्या-येयं बहुजनमध्यगतेन पुष्मगुरुणा धर्मदेशना प्रारब्धा सा आजीविका प्रस्थापिता, एकाकी विहरन् पामरैः परिभूयत इति मत्वा महान् परिकरः कृतः, तदनेन दम्मप्रधानेन आजीविकार्थमिदमारब्धं अस्थिरेण, पूर्वमयं मया सार्द्धमेकाक्यन्त प्रान्ताशनेन शून्यारामदेव कुलादौ वृतिं कल्पितवान् न च तथाभूतानं सिकताकालवनिरास्त्रादं यावजीवं कर्तुम, अतो मां विहाय बहून् शिष्यान् प्रतार्य एवम्भूतेन स्फटाटोपेन विहरतीत्यतो अनवस्थितचित्तः पूर्वचर्यापरित्या नाराचारसमाश्रयणात् । ' सभागतः पर्षदि व्यवस्थितः ' गणओ 'ति ' गणशो ' बहुशो भिक्षूणां मध्यगतो ( बहुजन्यमर्थ - ) बहुजन हितमर्थ कथयन् विहरति एतच्चास्यानुष्ठानं [ पूर्वापरं न सन्दधाति - ] पूर्वापरविरुद्धं, यदि साम्प्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रयसिंहासनाशोकवृक्षमामण्डलछत्रचामरादिकं मोक्षाङ्गमभविष्यत्ततो या प्राक्तना चर्या क्लेशबहुलाऽनेन कृता सा क्लेशाय केवलं, अथ निर्जराहेतुका परमार्थभूता ततः साम्प्रतावस्था परप्रतारकत्वाद्दम्भकल्पा, ततः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठानयोर्मौनव्रतधर्मदेशनयोः परस्परतो विशेष इति गाथार्थः ॥ २ ॥ अपि च-
एतमेवं अदुवा
इहि, दोपणमन्नं न समेति जम्हा । पुचि इहि च अणागयं च, एगंतमेवं पडिसंधयाति ॥ ३ ॥
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-योकान्त चारित्वमेव श्लोमन, पूर्वमाश्रितत्वात्ततः सर्वदाऽन्यनिरपेक्षेस्तदेव कर्त्तव्यं, अथ चेदं महापरिवारवृतं साधुतया मन्यसे ततस्तदेवादावयाचरणीयमासीत् , अपि च द्वे अप्येते छायाऽऽतपवदत्यन्तविरोधिनी वृत्ते नैकत्र समवायं गच्छतः । तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रबन्धन धर्मदेशना ? अथानयैर धर्मस्ततः किमिति पूर्व | ममित्रतमनेनाललम्बे । तदेव गोशालकेनोक्त सत्याका श्लोकपश्चार्दुनोत्तरदानायाह- पुचि चे 'त्यादि, 'पूर्व ' पूर्व स्मिन् काले चन्मौनवतिकत्र या चैकचर्या तच्छमस्थत्वाद् घातिकर्मचतुष्ट पक्षयार्थ, साम्प्रतं यद्धर्मदेशनादीनां दानं नत्तीर्थकरनाम्नो वेदनार्थं " +तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाई हिं" इति वचनात् , अपरामा चोचैर्गोत्रशुभायुनामादीनां शुभप्रकृतीनां वेदनार्थमिति, यदिया पूर्व साम्प्रतं चानागते काले [च ] रागद्वेषरद्वितत्वादेकत्वमावनाऽनति
क्रमणाकत्वमेवाशेषजनहितं धर्म कथयन् सन्दधाति, न तस्य पूर्वोत्तस्योरवस्थ पोराशंमारहितत्वादेदोऽस्ति । यदुच्यते* पूर्वोत्तरयोरवस्थयो दस्तन्न किश्चित् ।। ३ ॥ अथ धर्मदेशनपा श्रोतृणां कश्चिदुपकारोऽपि स्यादत आह
समिच लोयं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा ।
आइक्खमाणो वि सहस्समझे, एगंतयं सारयई तहच्चे ॥ ४ ॥ व्याख्या-' समेत्य ' ज्ञात्वा लोकं त्रसस्थावराणां जन्तूनां 'क्षेम ' शान्ति:-रक्षा, तत्करणशीलः क्षेमकरः श्रमणो +तच कथं वेद्यते । अग्लान्या धर्मदेशनादिभिः ।
२.
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
माइनो वा, स एवम्भूतो निर्ममो रागद्वेपरहितः प्राणिहितार्थ, न लाभपूजाख्यात्यर्थ, धर्ममाचक्षाणोऽपि प्राग्वच्छमस्थाव. सायां मौनव्रतिक इवोत्पन्नदिव्यज्ञानोऽपि देवासुरनरतिर्यक्रसहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पवाधारपङ्कजवत्तदोषव्यासगा- | (संयोगा भावान्ममत्वविरहादाशंसादोषविकलवादेकान्तमेव [ मारयति-] साधयति । अस्य भगवतः पूर्वावस्थासाम्प्रत. कालीनावस्थयोस्त्यिन्तरं, रागद्वेषाभावात् । तथा प्रावदर्चा -लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य, अष्टमहाप्रातिहार्यः पूज्य. मानोऽपि नोच्छे[ नोत्से ];-गवं विदधाति, जितरागद्वेपत्यात । तथा चोक्तं-" रागद्वेषो विनिर्जित्य, किमरण्ये | करिष्यसि । अथ नो निर्जितावेती, किमरण्ये करिष्यसि ।।१॥" तथा बाह्यमनङ्गमान्तरं कषायजयादिकं | प्रधानं कारणमिति गाथार्थः ।। ४॥ __ अथ भगावानने कैलोंकः परिवृतोऽपि गगद्वेषामावादेकान्तचार्येवासो मन्तव्यः, निरीहः मन् धर्म कथयत्रापि न दोषभामिति दर्शयति
धम्म कहतस्स उ नस्थि दोसो, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स ।
भासाइ दोसे य विवज्जगस्स, गुणे य भासाइ निसेवगस्त ॥ ५॥ म्याख्या-तस्य भगवतोऽपगतघनघातिकलङ्कस्योत्पन्नमकलपदार्थावि विज्ञानस्य जगदभ्युद्धरणप्रातस्यैकान्तपरNI हितकारिणः स्वकार्यनिरपेक्षस्य शान्तस्य दान्तस्य जितेन्द्रियस्य माषादोषत्रिवर्जकस्य कर्कशासभ्यवचोवर्जकस्य तथा
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाषाया ये गुणा हितमित देशकाला सन्दिग्धभाषणादयस्तनिषेवकस्य सतो धम्मं कथयतोऽपि नास्ति दोषः छवस्थस्य हि [बाहुल्येन ] मौनमेव श्रेयः समुत्पन्न केवलस्य हि भाषणमपि गुणायेति माथार्थः ॥ ५ ॥ किम्भूतं धर्ममसौ कथयतीत्याह -
महए पंच अणुवए य, तहेव पंचासव संवरे य ।
त्रिरई इस्लामणियमि पत्रे, लवावसकी समणे तिमि ।। ६ ।।
,
,
व्याख्या - पश्च महाव्रतानि तथा पञ्चवाणुव्रतानि श्रावकानुद्दिश्य प्रज्ञापितवान् तथा पश्चाश्रवसंवरं च तथा सप्तदशप्रकारं संयमं च प्रतिपादितवान् संगमवतो हि विरत्तिमंत्रत्यतो विरतिं च प्रतिपादितवान् च शब्दात्तत्फलभूतौ निर्जरा. मोक्षौ च कथितवान् । कथम्भूतः ? श्रामण्ये प्राप्तः प्राज्ञो वा एतत्प्रतिपादितवान् कथम्भूतो ? ' लवावसकी ' लवंकर्म्म, तस्मादवमर्पति, एवंविधः श्रमणस्तपस्वी, स्वयमेव हि भगवान् पञ्चमहाव्रतोपपण इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तो विश्तो ara[क] स सन्द, ततोऽन्येषामपि तथाभूतमुपदेशं दत्तवान्। तत आर्द्रककुमारवचनमाकर्ण्य गोशालकस्तत्प्रतिपक्षभूतमधे वक्तुकाम इदमाह- इत्येतद्वक्ष्यमाणं यदहं ब्रवीमि तच्छृणु स्वमिति गाथार्थः || ६ | अथाह गोशालक :सीओदगं सेवर वीकायं, अहायकम्मं तह इस्थियाओ । एतचारिस्सिह अम्द धम्मे, तवस्णिो णाभिसमेति पात्रं ॥ ७ ॥
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या--- भो आर्द्रकुमार ! वया प्रतिपादितं परार्थं प्रवृत्तस्याष्टमहाप्राप्तिद्दादिपरिग्रहस्तथा शिष्यादिपरिग्रहो धर्मदेशना च न दोषाय यथा, तथाहि शीतोदक 'मप्रासुकोदकं तत्परि भोगेन दोषस्तथा बीज कायपरिभोगमा धाकश्रयणं स्त्रीम च विदधातु, अस्मदीये धम्मै प्रवृत्तस्य 'एकान्तचारिणः ' आरामोद्यानादिष्वेका किविहारोद्यतस्य तपस्विनः पाएं नाभिममेति न लगतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-श्रीतोदकखी प्रसङ्गादिकं यद्यपीत्कर्म्मबन्धाय तथापि धर्माधारं शरीरं प्रतिपालयत एकान्तचारिणस्तपस्विनो न बन्धाय भवतीति माथार्थः ॥ ७ ॥ अथ आईक उवाच -
सीओदगं वा तह बीकार्य, अहायकम्मं तह इत्थियाओ ।
एया जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवति ॥ ८ ॥
व्याख्या - भो गोशालक ! शीतोदकादीन्येतानि प्रागुपन्यस्तान्यप्रा सुकोदकपरिभोगादीनि प्रतिसेवन्तः ' अगारिणो ' गृहस्थास्ते भवन्ति, अश्रमणाथ अग्रवजिताश्चेत्रं स्वं जानीहि यतः - " अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलुब्धता " । इत्येतच्छुमणलक्षणं तच्चैषां शीतोदकबीजाचाकर्मी परियोगकारिणां नास्ति, अवस्ते नामाकाराभ्यां श्रमणाः, न परमार्थत इति गाथार्थः ॥ ८ ॥ पुनरप्यार्द्धक एवैतदपणापाह -
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिया य बीओदगइत्थियाओ, पडिसेवमाणा समणा भवंति ।
अगारिणो विसमणा भवंतु, सेवेति उ तेवि तहगारं ॥ ९ ॥
'व्याख्या - अहो गोशालक ! स्यादेतद्भवदीयं मतं यथा ते एकान्तचारिणः क्षुत्पिपासादिप्रधानतपश्चरणपीडिताय, तत्कथं ते न तपस्विन इति एतदाशङ्कयाक आहे - यदि बोजाद्युपभोगिनोऽपि श्रमणा इत्येवं भवताऽभ्युपगम्यते एवं तर्प गारिणोऽपि गृहस्थाः श्रमणा भवन्तु तेषामपि देशि [पथि] कावस्थायामा मावतामपि निष्काञ्चनतया एकाकी बिहारित्वं - क्षुत्पिपासादिपीडनं च सम्भाव्यते (अव) अगारिणोऽपि श्रमणा मंत्रन्तु यतस्तेऽपि तथाप्रकारं स्त्रीपरिभोगादिकं सेवन्त्येवेति गाथार्थ: ।। ९ ।। नार्द्रको बीजोदकादिभोजिनां दोपाध्य---
यावि बीओदगभोति भिक्खू, भिक्खं विहिं जायति जीवियट्ठी । ते णातिसंजोगमविष्पहाय, कायोत्रगा गंडतकरा भवति ॥ १० ॥
व्याख्या- येचापि मित्रः प्रब्रजिता बीजोदकभोजिनः सन्तो द्रव्यतो ब्रह्मचारिणोऽपि आजीविका मिक्षामन्ति ते हातिसंयोगं 'विग्रहाय ' त्यक्त्वा 'कायोपमाः ' पदकायारम्भिणः संसारसागरस्य नान्तकरा भवन्ति ते गृहस्थकल्पा एत्र ते यत्तु भिक्षाटनं तु केषाञ्चिद्गृहस्थानामपि सम्भाव्यते, नेतावता श्रमणभाव इति गाथार्थः ।। १० ।।
अथैतदाकर्ण्य गोशालकोऽपरमुत्तरं दातुमसमर्थोऽभ्यतीर्थिकान् महायान् वित्राय सोल्लुण्ठममारं वक्तुकाम आइ
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
इमं वयं तु तुमं पाउकुवं, पावाइणो गरिहसि सब एव ।
पावाइणो पुढो कियंता, सयं सयं दिदि करिति पाउ ॥ ११ ॥ व्याख्या-अहो आईकुमार ! हमा' र्मोन का 'शाकुन् ' प्रकाशयन् सर्वान् प्रावादकान् गईसि, यस्मात्सर्वेऽपि तीथिका बीजोदकादिभोजिनोऽपि संसारोच्छेदनाय प्रवसन्ते, ते तु भवता नाभ्युपगम्यन्ते, ते तु प्रावादकाः पृथक पृथक स्त्रीयां स्त्रीयां दृष्टिं प्रत्येकं स्वदर्शनं की यन्तः 'प्रादुकुर्वन्ति' प्रकाशयन्ति, यदिवा लोकपथार्द्धमाककुमार आइ-सर्वेऽपि प्रावादुका यथावस्थितं स्वदर्शनं प्रादुष्कुर्वन्ति, तत्मामाण्याच वयमपि स्वदर्शनाविर्भावनं कर्मः, तथाहिअप्रासुकेन बीजोदकादिपरिभोगेन कर्मचन्ध एव केवलं, न संमारोच्छेदः, इतीदमस्मदीयं दर्शनं, एवं च व्यवस्थिते कात्रपरनिन्दा १ को वाऽऽत्मोत्कर्ष ? इति गाथार्थः ॥ ११ ।। किञ्च
ते अन्नमन्नस्स तु गरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य ।
सतो य अस्थी असतो य जत्थी, गरहामो दिट्ठीं ण गरहामो किंचि ॥ १२ ॥ व्याख्या-'ते' प्रावादकाः · अन्योन्यस्य ' परस्परेण तु स्वदर्शनस्थापनेन पग्दर्शनं गहमाणाः बदर्शन गुणान् कथयन्ति, ते श्रमणा ब्राह्मणाः स्वपक्षमेव समर्थयन्ति परकीयं च दूषयन्ति । तदेव पवार्द्धन दर्शयति-स्वकीये पक्षे स्थायमानेऽस्ति पुण्यं तत्कार्य च स्वर्गापवर्गादिकमस्ति, 'अस्थत 'पराभ्युपगमाच नास्ति पुण्यादिकभित्येवं मऽपि तीथिकाः
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
परस्परम्याघातेन प्रवृत्ताः, अतो वयमपि यथावस्थिततच्च प्ररूपणतो युक्तिविकलत्वा देकान्तदृष्टिं गमो नापरं किमपि गर्दामः, सत्ये उक्तेन काऽपि गर्दा X, एकान्तवादं निशकुर्मः, न परवादिनो, रागद्वेषविरहात्र कमपि गहम इति गाथार्थः ॥ १२ ॥ एतदेव स्पष्टतरमाह -
न किंचि रूत्रेणऽभिघारयामो, सदिट्टिमम्गं तु करेमो पाउं । इमे किए रिएहि, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥ १३ ॥
66
व्याख्या -- मो गोशालक ? वयं न कञ्चन भ्रमणं ब्राह्मणं वा 'रूपेण ' जुगुपिताङ्गोपाङ्गो बनेन जात्यादिममंत्रकाशनेन [वा] गर्हामः, केवलं स्वदृष्टिमार्ग प्रादुष्कर्मः स्वदर्शनं प्रकाशयामः, अथवाऽन्यदर्शनप्ररूपितं मार्ग दर्शयामः, यथा - ब्रह्मा शिरा हरिदृशि सरु व्याप्तशिनो हरः, सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक् सोमः कलङ्काङ्कितः । स्वथोपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः, सन्मार्ग्यस्खलनाद्भवन्ति विपदा प्रायः प्रभूणामपि ॥ १ ॥ " इत्यादि, एतच तैरेव स्वागमे पठ्यते, वयं तु श्रोतारः परं न कस्याप्यपवादं कुर्मः । अयमस्मदीयो मार्गः ' अनुत्तरः ' प्रधानः 'आर्यै: ' सर्वत्रैः [ कीर्त्तितः ] प्ररूपितः अत एवं अंजू' इति व्यक्तो, निर्दोषत्वात्प्रकटः
+
*" नेत्रैर्निरीक्ष्य बिलकण्टककीटसर्पान् सम्यग्यथा व्रजत तान्परिहृत्य सर्वान् ।
ज्ञानकुश्रुतिकुमार्ग कुदृष्टिदोषान्, सम्यग् विचारयत कोऽत्र परापवादः १ ॥ १ ॥ " इति हर्ष ०
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
TNI [अजुर्वा अकृतिक इनि मानी : १३ : पुरपि स्वधर्मप्ररूपणाया
उज्ञ अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा ।
भूयाहिसंकाइ दुगुंछमाणा, णो गरहती बुसिमं किंचि लोए ॥ १४ ॥ व्याख्या---ऊर्ध्वाधस्तिर्यदिनु ये त्रमाः स्थावराश्य ये प्राणिनस्तेषां पालक: 'भूताभिशङ्कगा' प्राण्युपमर्दशकूया सर्व सायद्यमनुष्ठानं जुगुप्यमानी नेत्रापरं लोकं कश्चन गईते' निन्दति, का! 'बुसिम 'ति संयमवानिति, तदेवं रागद्वेष- 1
रहितस्य वस्तुस्वरूपाविर्मात्रने न काऽयि गर्दा भवति, तत्रापि चेद्गर्दा स्थान उष्णोऽग्निः शीतमुदकं विषं मारणात्मकINI मित्येवमादिन किनिस्तम्वरूपमाविर्भावनीयमिति गाथार्थः ॥ १४ ॥ स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिको निराकृतोऽपि पुनरन्येन प्रकारेणाह
आगंतऽगारे आरामगारे, समणे उ भीते ण उबेति वासं ।
दक्खा हु संती बहवे मणूसा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥ १५ ॥ व्याख्या-भो आर्द्रकुमार ! मवरसम्बन्धी योऽसौ तीर्थङ्कर स रागद्वेषभययुक्तः, तथाहि-असौ मबत्तीर्थकर आगन्ताघा गारं-कार्पटिकादीनां स्थानं धर्मशालाऽऽदिकं, आरामामारं उद्यानादिकं, तत्रासौ न वसति-न तत्र तिष्ठति मयेन । किं तक का भयकारणं । तत्र यागन्तुकाः बहवो 'दक्षा' प्रभूतशामविशारदाः मनुष्यास्तिष्ठन्ति, तद्वीतो न तत्र चासं इरुते ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
। यतस्ते स्वतोऽवमा:-हीना जात्या[दि]भिस्तः पराजितस्य महांश्छायाभ्रंश इति भयेन न धर्मशालाऽऽदिषु वासं विधत्ते ।।
| कथम्भूताम्ते पण्डिताः ? लान्तीति 'लपाः' वाचाला घोषितानेकतर्कविचित्रदण्डकाः, तथा-न[१] लपा-मौनव्रतिका IN निष्ठितयोगाः गुटिकादियुक्ता चा, यवशात्सरवादिनामभिधेयविषया वागेव न प्रवतें, ततस्तयेन युपत्तीर्थकर आगन्ता| गारादौ न व्रजतीति माथार्थः ॥ १५ ॥ पुनरपि गोशालक एवाह--
मेहाविणो सिखियबुद्धिमंता, सुत्तेहि अत्येहि य निच्छयन्ना।
पुञ्छिसु मा + अणगार अन्ने, इति संकमाणो न उवेति तत्थ ॥ १६ ॥ ___ व्याख्या-भो आर्द्रकुमार ! भवत्सम्बन्धी तीर्थक एवं जानाति-यद्यहं धर्मशालादिषु स्थास्यामि तदा तत्र बहवो || विशारदा मेधाविनो-ग्रहणधारणाममर्थाः, आचार्यादेः समीपे गृहीतशिक्षाः, तथौत्ययादिचतुर्विधयुयुपेताः, तथा सूत्रार्थविषये विनिश्चयज्ञा:-यथावस्थितसूत्रार्थवेदिनस्ते चैवम्भूनाः सूत्रार्थविषयं मा प्रश्नं कार्परित्येचं शङ्कमान-स्तेभ्यो विभ्यन् ।
धर्मशालादिषु न तिष्ठति । अहं तैः पृष्टः सन्नुत्तरं दातुमममर्थस्ततो मम छायानंशो भविष्यती भिया न तेषु मध्ये | .ा आयाति, तेम्योदरत एवं तिष्ठति, अन एवासी न जुमार्गः, मययुक्तत्वात्तस्य, तथा म्लेच्छविश्यं गत्वा न कदाचिदमः । | देशनां चकार, आर्यदेशेऽपि न सर्वत्रापि[ ? अपितु ]कुत्रचित , अतो विषम दृष्टित्वाद्रागद्वेषवर्थसौ इति ॥ १६ ॥
+ णे' इति पादपूनविव्ययम् ।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ एतद्] [] गोशालकमतं परिहर्तुकाम आर्द्रक आह
गोकाकच्चा ण य बालकिञ्चा, रायाभिओगेण कुओ भएणं ।
aerat परिणं नवारि, म कामकिणिह आरियाणं ॥ १७ ॥
व्याख्या–मो गोशालक सहि भगवान् प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामकृत्यो भवति, एतावता अनिच्छाकारी न भवति । कारिता भवति सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनो निरर्थकमपि कृत्यं कुर्वीत, भगवांस्तु सर्वज्ञः सर्वदर्शी परहित करतः [ कथं ] स्वपरयोर्निरुपकारकमेवं कुर्यात् । तथा न चासौ बालकृत्यः - बालवदनालोचितकारी न पराऽनुरोधान्नाऽपि गौरवदुर्मदेशनादिकं विधत्ते, अपितु यदि कस्यचिद्भव्यत्वस्योपकाराय तद्भाषितं भवति तेन प्रवृत्तिर्भवति नान्यथा, तथा न राजाभियोगेनासौ धर्मदेशनादौ कथञ्चित्प्रवर्त्तते ततः कुतस्तस्य भयेन प्रवृत्तिः १ स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचिद् कचित्संशयकृतं प्रश्नं व्यागृह्णीयाद् यदि तस्योपकारो भवति, उपकारमन्तरेण न व्यागृह्णीयाद्, पदिवा अनुत्तरसुराणां मन:पर्ययज्ञानिनां च द्रव्यमनसैव तन्निर्णयसम्मवादतो न व्याग्रणीयादित्युच्यते यद्भवता कथ्यते - जीतरागोऽसौ किमिति धर्म करोतीति ? चेदित्याशङ्क्याह- 'स्वकामकत्येन ' स्वेच्छा [चारि] कारितयाऽसावपि तीर्थकनामकर्म्मणः क्षरणाय, न यथाकथञ्चिद् असोsसावग्लान 'इ' अस्मिन् संसारे आय्र्यक्षेत्रे चोपकारयोग्ये आर्याणामुपकाराय धर्मदेशनां व्याग्रणीयादसाविति माथार्थः || १७ || किश्वान्यत् --
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंता व तस्था अदुवा अगंता, वियागरेजा समियासुपन्ने ।
अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥ १८ ॥ व्याख्या--स हिमगवान् परहित करतो गत्वाऽपि विनेयासन, अथवाऽध्यगत्वा यथा यथा मध्यसनोपकारो भवति तथा तथाऽईन्तो धर्मदेशनां विदधति । उपकारे सति गत्वाऽपि कथयन्ति, असति तु स्थिता अपि न कथयन्त्यतो न तेषां रागद्वेषसम्भव इति । केवलमाशुपज्ञा समतया चक्रवातंद्रनकादिषु [ पृष्टोऽjपृष्टो वा धम्म म्यागृणीयात् । “जहा पुण्णस्स कत्थहतहा तुच्छस्स कत्थइ" इति वचनान रामद्वेषवान, यस्पनरनार्यदेशमसौ न व्रजति तत्रेदमाह-अनार्याः । दर्शनतोऽपि 'परि' समन्तादिता' गताः-प्रश्रष्टा इति यावत् , तदेवमसौ भगवान् [तेषु] सम्पग्दर्शनमात्रमपि न भवतीत्या. शकमानस्तत्र न बजतीति । यदिवा विपरीतदर्शनाः साम्प्रतक्षिणो बनास्तेि हि वर्तमानसुखमेवैकमङ्गीकृत्य प्रवर्तन्ते, न पारलोकिकमङ्गीकुर्वन्यतः सद्धर्मपराङ्मुखेषु तेषु भगवान याति, न पुनस्तद्वेषादिबुब्येति । यदुच्यते त्वया-यथाऽनेकशास्त्रविशारदगुटिकादिसिद्धविद्यासिद्धादितीथिकपराभवभयेन न तत्समाजे गच्छत्तीत्येतदपि पालप्रलपितप्रायं, पत:-सर्वत्रस्य भगवतः समस्तैः प्राचादुर्मुखमप्पवलोकयितुं न शक्यते, वादस्तु द्रोत्सादिन एवेत्यतः कृतस्तस्परामवः ? भगवास्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरोपकारं पश्यति तत्रैव गत्वापि धर्मदेशनां विधते इति गाथार्थः ॥ १८ ॥
पुनरन्येन प्रकारेण गोशालक आह
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हेउं पगति संगं ।
सओवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होति मती वियका ॥ १९ ॥ व्याख्या-भो आर्द्रकुमार ! यथा कश्चिद्वणिक ' उदयार्थी' लाभार्थी 'पण्यं ' व्यवहारयोग्य माण्ड कर्परागुरुकस्तूरिकाऽम्बरादिकं मत्वा देशान्तरं विक्रीणाति, तथा ' आयस्य ' लाभस्य 'हेतोः' कारणान्महाजनमहं विधत्ते, तदु | पमोऽयमपि भवत्तीर्थकरः 'श्रमणो' जातपुत्रः इत्येवं में मतिर्मत्रति वितर्को-मीमांसा वेति गाथार्थः ॥ १९ ।। एवमुक्त गोशालकेन आईक आह-- __णवंण कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई ता[इ]य इ(?)साह एवं ।
प(ता)न्ना [एचो]त्रया बंभवतित्ति वुत्ता, तस्सोदयट्ठी समणे त्तिवेमि ॥ २०॥ ध्याख्या-भो गोशालक ! योऽयं वणिग्दृष्टान्तो दर्शितः, स किं सर्वतो देशतो वा सक्षा ? यदि देशवस्ततो न न . NI ( अस्माकं) क्षतिमावहति, यतो वणिग्यत्रैव लाभ पश्यति तत्रैव क्रियां व्यापारयति, न यथाकथश्चिदिति, एतावता | साधर्म्यमस्त्येव । अथ मर्वसाधयेण, तन्न युज्यते, यतो भगवान् विदितवेद्यतया साम्रानुष्ठानरहितो नवं कर्म न कुर्यात् ,
था निधूनय-त्यपनयति पुरातनं गोषमाहिकर्म बद्धं, तथा त्यक्त्वा 'अमति' विमति प्रायो' भगवान् ‘तायी या मोक्षं प्रति गमनशीलो भवतीति, एतावता च सन्दर्भण 'ब्रह्मणो' मोक्षस्य व्रतं ब्रह्मव्रतमित्येतदुक्तं, तस्मिञ्चोक्ते तदर्थे व
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुष्ठाने क्रियमाणे तस्योदयस्वार्थी - लाभार्थी भ्रमण इति ब्रवीम्यहमिति ॥ २० ॥ न चैवम्भूता वणिज इति पुनरार्द्रकुमारो दर्शयितुमाह---
समारभते वणिया भूयगामं, परिग्गदं वेव ममायमाणा । ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेडं पकरेंति संगं ॥ २१ ॥
व्याख्या - ते हि वणिजचतुर्दशप्रकारमपि भूतग्रामं समारभन्ते, तदुपमर्दकाः क्रियाः प्रवर्त्तयन्ति कपविक्रयार्थं शकटमण्डलिका (वाना) दिभिरनुष्ठानैरिति तथा परिग्रहं द्विपदचतुष्पदादिकं ममीकुर्वन्ति, ते हि वणिजो ब्रातिभिः सह संयोगं ' अविप्रहाय ' अपरित्यज्य ' आयस्य' लामस्य हेतोरपरेण सार्द्ध ' सङ्ग सम्बन्धं कुर्वन्ति । भगवांस्तु-पजीवरथापरोऽपरिग्रहरत्यक्तस्वजनपक्षः सर्वत्राप्रतिवद्धो धर्माऽऽयमन्येषयन् गत्वाऽपि धर्मदेशनां विषये, अतो मगत्रतो वणिग्मिः सार्द्धं न सर्वसाधर्म्यमस्तीति गाथार्थ || २१ || पुनरपि वणिजां दोषमुद्भावयन्नाह -
वित्तसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्ठा वणिया वयंति ।
वयं तु कामेदि अज्झोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धा ॥
२२ ॥
व्याख्या --- वणिजो विचैषिणस्तथा ' मैथुने ' श्रीसम्पर्के 'सम्प्रगाढा' अभ्युपपन्नास्तथा ते भोजनार्थ- माहारार्थं वणिज इतश्वेतच व्रजन्ति वदन्ति वा साँस्तु वणिजो वयमेवं ब्रूमो - यथैते कामेष्वध्युपपन्नाः- गृद्धाः, अनाय रखेषु च खाता
२१
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
| पौत्रादिषु 'गृद्धा' मूर्षिछता, न स्वेपम्भूता भमनन्तोऽन्तः, कथं तेषां से सह साधर्म्यमिति दूरत एव निरस्तैषा कथेति । गाथार्थः ॥ २२ ॥ किन--
आरंभगं चेव परितगहं च, अनिसास्सिमा णिमिसग आयंदडा ।
तेसिं च से उदए जं वयासी, चउरंतणताय दुहाय ह ।। २३ ॥ व्याख्या-आरम्भं परिग्रहं च 'अन्युत्सृज्य ' अपरित्यज्य तस्मिमेवारम्भे परिग्रहे च निश्चयेन 'मृता' बदानिस्वा बणिजो भवन्ति । तथा आत्मदण्डा असदाचारप्रवृत्तेरिति, भावोऽपि च ते वणिजां परिग्रहारम्भवतां स 'उदयो' | लाभो यदथे ते प्रवृत्तार यं च त्वं लाभ वदसि, स तेषां 'चतुरन्ता' चतुर्गतिको यः संसारोऽनन्तस्तस्मै-तदर्थ मातीति, तथा दुःखाप च भवति । अतस्त्वमहेता पणिजो साम्यं मा कुर्विति गाथार्थः ।। २३॥ एतदेव दर्शयितुमाह
गतिएऽणश्चंतिय उदए से, वयंति ते दो वि गुणोदयमि।
से उदए सातिमणंतपत्ते, तमुदयं साहयइ ताइ णाई ॥ २४ ॥ च्यारूया-अहो गोशालक! स वणिजा लामो नैकान्तिका, लामा धावतामलामोऽपि स्थात् , स तु लाम
आत्यन्तिकोऽपि न-अवश्यं सर्वकालमाव्यपि न, कदाचित्स्यात् कदाचिति व्यापारविदो वदन्ति । तो च द्वावपि भादौ IN विगतगुणोदयौ, किमुक्तं भवति । किं तेनोदयेन-लाभेन ? यो नैकान्तिको नात्यन्तिकश्च अनर्थाय च प्रत्युत स्यात् । तथा
HA
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवतः सर्वज्ञस्य यो लामः स केवल
१
निर्वएव स तु साधनन्तो लाभ इति, एवंविधलामसहितो भगवान् अन्येषामपि तादृग्विधमेव लाभं ददाति । कथम्भूतो भगवान् ! प्रायी, आममसिद्धिगमनानां त्राणकरणात् था' ज्ञाती' क्षत्रियवंशोद्भवः अथवा ' ज्ञाती' त्रिदितसमस्तवेद्य इत्यर्थः । तदेवम्भूतेन भगवता तेषां वणिजां निर्विवेकिनां कथं सर्वसाधर्म्य १ कथं वा तैः सह भगवतः उपमानं दीपत १ इति गाथार्थः ॥ २४ ॥
साम्प्रतं देवकृत सम्बरण पद्मा वलीदेवच्छन्द कसिंहासनादिकोपभोगं कुर्वअप्या धाकर्म कृत व स विनिषेवक प्राधुवत्कथं तदनुमति तेन कर्मणाऽसौ न लिप्यत इत्येवगोशालकमतमाशङ्काइ आर्द्रकुमारः---
अहिंसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे ठितं कम्मविवेगहेडं ।
तमायदंडेहिं समायरंसा, अबोहीए ते पडिरूवमेयं ॥ २५ ॥
व्याख्या -मो गोशालक ! असौ भगवान् समवसरणायुपभोगं कुर्वनप्यहिंसन्तुपभोगं करोति, एतदुक्तं भवति नहि तत्र भगतो मनाप्याशंसा प्रतिबन्धो वा विद्यते समतृणमणिलोष्टुकाञ्चनतया तदुपभोगप्रवृतेदेवाः प्रवचनप्रभावना देतो। सम्यक्त्वनिर्मलीकरणार्थ मर्दन किमाविताः सन्तः प्रवर्त्तन्ते, अतोऽसौ भगवानपिकः, तथा सर्वप्रजाऽनुकम्पकः । एवम्भूतं भगवन्तं धर्मे व्यवस्थितं कर्म्मविवेकहेतुभूतं भवद्विश्वा आत्मदण्डै। समाचरन्त आत्मकल्पं कुर्वन्ति वणिगादिभिरुदाहरणैरेखामोघे - रविज्ञानस्य प्रतिरूपं वर्तते । एकं तावदिदमज्ञानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तनं द्वितीयं च यद्भगवतामपि जग
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
दन्यानां सर्वातिशयनिधानभूतानामितरैः समत्वापादनमिति गाथार्थः ॥ २५ ॥
साम्प्रतमाईकुमारम पहस्तिगोशालकं ततो भगवदभिमुखं गच्छन्तं दृष्ट्वाऽपान्यराले शाक्यपुत्रीया मिश्रव इदमुचुर्यदेत गोशालोकं त्वया दूषितं तच्छोमनं कृतं भवता यतो बाह्यमनुष्ठानं शून्यप्रायं अन्तरक्रमनुष्ठानमेव प्रधानं मोक्षानं ज्ञातव्यम् । अस्मत्सिद्धान्तेऽप्येवमेव व्यावर्ण्यते, मो आर्द्रककुमार ! एवं सावधानतया मदुक्तमवधारयेति मणिश्वा वे भिक्षुषः आन्तरानुष्ठानसमर्थकमात्मीय सिद्धान्त। विर्भावनायेदमाहुः ।
पिनाग पिंडी मवि विडु सूले, केइ पपज्जा पुरिसे इमेोते । अलाउयं वावि कुमारएत्ति, स लिप्पती पाणिवण अहं ॥
२६ ॥
व्याख्या—' पिण्याकः ' खलस्तस्य 'पिण्डि' भिषकं खलश कलम वेतनमपि कापि स्थाने पतितं दृष्ट्रा तदुपरि केनचित्रश्यता प्रावरणं (वस्त्रं ) खलोपरि प्रक्षितं तच म्लेच्छेन केनाप्यन्वेष्टुं प्रवृशेन पुरुषोऽयमिति मत्वा खलपिचा सह गृहीतं, raise ग्लेन्ट समेटियां तां स्खलपिष्टि पुरुषा शुले प्रोतां पावके पचेत्, तथा 'अलाबुकं' तुम्बकं कुमारकोऽयमिति मत्वा अग्नावेव पपाच स चैवं चिचस्य दुष्टत्वात्प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यते, अस्मत्सिद्धान्ते चिचमूलत्वामामनन्यस्य, अशुभ परिणामेन बन्धः, अशुभचितप्रामाण्याददुर्वमपि प्राणातिपाठं प्राणिघात फलेन युज्यत इति गाथार्थः ।। २६ ।। अमेव दृष्टान्तं वैपरीत्ये बाह
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहवा वि विभ्रूण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्वीइ नरं पएजा।
कुमारगं वाति आलाउगति, निपाइ हाशियझेश अम्हं ॥ २७॥ व्याख्या-अथवाऽपि सत्यपुरुषं खलबुद्ध्या कश्चिम्लेच्छः शूले प्रोतमग्नौ पचेत् , तथा कुमारकमलाबुबुख्याऽग्नावेवKe पचेत् , न चासो प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यतेऽस्माकमिति गाथार्थः ॥ २७ ॥ किश्चान्यत्
पुरिसं च विभ्रूण कुमारगं वा, सूलंमि केइ पयए जायतेए ।
पिन्नायपिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए ॥ २८ ॥ व्याख्या-पुरुष वा कुमारक वा शूले विद्धा कश्चित्पवेत् बद्धौ खलपिण्डीयमिति मत्वा 'सती' शोमना, तदेतत् | बुद्धानामपि पारणाय कल्पते-योग्यं भवति, किमुतापरेषाम् ! एवं मनमा असङ्कल्पितं कर्म न लगतीति गाथार्थः ॥ २८ ॥ पुनः शाक्य एवं दानफलमधिकृत्याह
सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए निति[णिय]ए भिक्खुयाणं ।
ते पुन्नखंधे सुमहाजिणित्ता, भवंति आरोप महंतसत्ता ॥ २९ ॥ व्याख्या-स्नातका बौद्धमते प्रधाना दर्शनिनस्तेपा मिक्षुकाणां सहस्रदयं निजे ' शाक्यपुत्रीये धर्मे व्यवस्थितः |
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
कश्चिदुपासका पचनपाचनाधपि कृत्वा मोजयेत् सांसगुडदाडिमेन इष्टेन मोजनेन, ते महासचाः पुरुषाः श्रद्धालत्रः पुण्यस्कन्ध [स]महान्तं समावर्थ-अर्जयित्वा तेन च पुण्यस्कन्धेनाऽऽरोप्याख्या देश भवन्ति, सर्बोचमा देवगति गच्छन्तीत्यर्थः ॥ २९ ॥ ____ तदेवं बुद्धेन दानमूला शीलमूलच धर्मः प्रवेदितः, तदेवा-गच्छ बौद्धसिद्धान्तं प्रपद्यस्वेत्येवं मिक्षुकैरभिहितः समाकोऽनाकलया दृष्ट्या तान् वीक्ष्योचाचेदं वक्ष्पमाणमित्याह
अजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं ।
अबोहिए दोण्ह वितं असाह, वयंति जेआवि पडिस्सुणंति ॥ ३० ॥ __ व्याख्या-अहो शाक्यपुत्रीयाः ! 'ह' अस्मिन् भवदीये शाक्यमते 'संयतान' मिथुगां यदुक्तं मोननं तदयो[ग्यरूप-मयोग्यं, तथाहि-अहिंसाथमुत्थितस्य विगुप्तिगुप्तस्य पश्चसमितिसमितस्य सतः प्रबजितस्य सम्यग्ज्ञानपूर्विका क्रियां कुर्वतो मानशुद्धिः फलवती माति, तद्विपर्यस्तमतेस्त्वज्ञानामृतस्य महामोहालीकतान्तरात्मतया खलपुरुषपोरपि विवेकमज्ञानतः कुतस्त्या माव शुद्धिः १ अवोऽत्यन्तमयुक्तमेतद्धमतानुमारिगां यस्खलबुद्ध्या पुरुषस्य शलपोतनपचनादिक, सथा बुद्धस्य चाम[पिण्याक]बुख्या पिशित(मांसभक्षणानुमत्यादिकमित्येतदाह 'प्राणाना 'मिन्द्रियादीनामपगमनेन तु पापमेव कृत्वा रससावगौरवादिगृद्धास्तदभावं पावर्पयन्ति, एतच्च तेषां पापामावष्पावर्णनमयोध्यै-अबोधिलामार्थ तयो ।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवन् पोयोरित्याइ ये वदन्ति पिण्याकबुद्ध्या पुरुषषाकेऽपि पावकामानं ये च तेभ्यः भवन्ति तयोर्द्वयोरपि वर्गयोरसाध्वेतदिति । अपिच नाज्ञानामृतमूढजने भावशुद्ध्या शुद्धिर्भवति, यदि स्यात्संसारमोचकादीनामपि तहिं कर्मविमोक्षः स्यात्, तथा भावशुद्धिमेव केवलामभ्युपगच्छतां मत शिरस्तुण्डमुण्डनपिण्डपातादिकं चैत्यकम्र्मादिकं चानुष्ठानमनर्थकमापद्यते, तस्माचैवंविधया भावशुद्धयर शुद्धिरुवजायत इति स्थितमिति गाथार्थः ॥ ३० ॥ अथार्द्रक: स्त्रपक्षाविर्भावनायाह
उ अयं तिरियं दिसासु, विन्नाय लिंगं तसथावराणं ।
भूयाभिसंकाइ दुछमाणे, वदे करेजा त्रि कओ त्रित्थि ॥ ३१ ॥
,,
व्याख्या -- ऊर्द्धमधस्तिर्यक् सर्वासु दिक्षु त्रयानां स्थावराणां च लिङ्गं चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवच्छेदम्लानादिकं विज्ञाप भूताभिशङ्कया- जीवोपमर्दोऽत्र भविष्यतीत्येवं बुद्ध्या सर्वमनुष्ठानं जुगुप्यमानस्तदुपमई परिहरन् ' वदेत् ' धर्म कथयेत्कुर्या - दप्यतः कृतोऽस्तास्मि नेत्रम्भूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वाऽस्मत्पक्षे युष्मदापादितो दोष इति गाथा र्थः ॥ ३१ ॥ अथ खले पुरुषबुद्धया असम्भवमेव दर्शयितुमाह
पुरिसेति पिन्नंति [विन्नत्ति ] न एय अस्थि, अणारिए से पुरिसे तहा हु । को संभवो ? पिन्नगपिंडियाए, वाया कि एसा बुझ्या असच्चा ॥ ३२ ॥
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
व्याख्या - तस्यां पिण्यापिण्डयां पुरुषोऽयमित्येवं महामूर्खस्यापि [विशशिरेव नास्ति ] मतिरीदृशी न जायते, तथा वलेsपि यः पुरुषमति मन्यते स अनार्य एवासौ यः पुरुषमेत्र स्खलोऽयमिति मत्वा इतेऽपि नास्ति दोषः इत्येवं वदेत्, तथाहि कः सम्भवः ? पिण्याकपिण्डयां पुरुषबुद्धेरित्यतो वागपीयमसत्या ईग्भाषाया भाषकोऽपि निर्विवेक अशुभं कर्म बध्नाति अनन्तं च संसारं रुलतीति गाथार्थः ।। ३२ ।। किञ्च
वायाभिओपण जमावहेजा, णो तारिसं वायमुदाहरिज्वा ।
अद्वाणमेचं वयणं गुणाणं, णो दिक्खिए बूय सुरालमेयं ॥ ३३ ॥
व्याख्या - वाचाऽभियोगो - वागभियोगस्तेनापि यस्मात्पापमावहेत्, अतो विवेकी भाषा गुणदोषज्ञो न तारशीं 'वाचं ' भाषामुदाहरेत् न वदेत् । यत एवं ततोऽस्थानमेतद्वचनं गुणानां, अतो यः प्रब्रजितः [ उदारं- सुष्ठु परिस्थूरं ] ईशमसारं वचनं न ब्रूयात् । तद्यथा-पिण्याकोऽपि पुरुषः पुरुषोऽपि पिण्याकः तथाऽलाबुकमेव बालको बालक एन अलाबुकमिति गाथार्थः ।। ३३ ।।
सामाईक एवं तं भिक्षुकं युक्तिपराजितं सन्तं सोल्लुण्ठं विमणिषुग्रह
ल (हु) अट्ठे अहो !! एव तुब्भे, जीवाणुभागे सुविचितिए य ।
पुवं समुदं अवरं च पुढं ओलोइए पाणितलट्ठिए वा ॥ ३४ ॥
"
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - अहो भिक्षवः । एवंविधाभ्युपगमे युष्माभिरेत्र लब्धः ' अर्थो' विज्ञानं यथावस्थितं तत्व मिति तथाज्यगतः सुचिन्तितो भवद्भिर्जीवानामनुभागः कर्मविपाकस्तत्पीडा इति, तथा एवम्भूतेन विज्ञानेन भवतां पद्यः पूर्व समुद्रमपरं समुद्रं च स्पृष्टं गतमित्यर्थः तथा भत्रद्भिरेवं [विष] विज्ञानावलो केनावलोकितः पाणितलस्थित इवायं लोक इति अहो ! मत्रतां विज्ञानातिशयो !! यहुत-पिण्याकपुरुषयोरला बुकवाल कयोत्र बाते [ पापस्य ] कर्म्मणो भावाभावं श्राक् कल्पितवन्तो भवन्स वि गाथार्थः ॥ २४ ॥
अथार्द्रकः परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षस्थापनायाह
जीवाणुभागं सुविचिंतयंता, आहारिया अन्नविहीइ सोहिं ।
न वियागरे छन्नपओपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ३५ ॥
,
व्याख्या - जिनश्रायनप्रतिपन्नाः [ सर्वज्ञोक्तमार्गानुसारिणो ] जीवानामनुभाग-मत्रस्थाविशेषं तदुपमर्हेन पीडां वा सुष्ठु ' विचिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तः अन्नविधौ शुद्धिं 'आहूतवन्तः स्वीकृतवन्तो द्विचत्वारिंशदोपहितेन शुद्धेनाहारेणादारं कृतवन्तो, नतु यथा मत्रतां पिशिताद्यपि पात्रपतितं न दोषायेति, एवंविधं वचोऽपि जैना महर्षयो न माषन्ते । भवन्तः कीदृशाः ? छमपदोपजीविनः, हिंसास्थानोपजीविन इत्यर्थः, न तादृशा जैना मुनयः तेषां हि सुनीनां निर्दोषाहारग्रहणेन काय प्रतिपालनेन तीर्थकुशनुयायी घम्मों ज्ञेय इति गाथार्थः || ३५ || पुनरार्द्रकुमारः कथयति
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिणा गाणं तु दुबे सहस्से, जे भोयए निइ[निय ] ए भिक्खुषाणं । असंजय लोहियपाणि से ऊ, नियच्छती गरिहमिहेव लोए ॥ ३६ ॥
व्याख्या--' स्नातकानां ' बौद्धभिक्षूणां नित्यं यः सहस्रद्वयं भोजयेदित्युक्तं प्राक् तस्य यो लामं चक्ति सोऽसंयतो 'लोहितपाणिः' रुधिरार्द्रपाणिरना इव 'निन्दां ' जुगुप्सापदवीं इहलोक एव निश्येन गच्छति परलोके चानार्थगम्यां गति गच्छति, एवं तावत्थावद्यानुष्ठानानुमन्तृणामात्र भूतानां दानं वरकन्याय केवलं न लाभायेति गाथार्थः || ३६॥ किञ्च - थूलं उरब्भं इद्द मारियाणं, उद्दिट्ठभत्तं च पगप्पइता |
तं लोणतेल्लेण उवक्खाडित्ता, सपिप्पलीयं पगरांत मंसं ॥ ३७ ॥
-
व्याख्या - 'स्थूल' महाकाय मुपचितमांसशोणितं 'उरभ्रं' ऊरणकं 'इह' शाक्यशासने भिक्षुकसवोदेशेन व्यापायघातयित्वा यथोद्दिष्टमक्तं च प्रकल्पयित्वा [विक्रर्थ्य वा तं ] उ तन्मांसं वा लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य पाचयित्वा सपिपली कं समरिचं अपरसँस्कारकद्रव्यसमन्वितं प्रकर्षेण मक्षणयोग्यं माँसं कुर्वन्तीति गाथार्थः ॥ ३७ ॥
सँस्कृत्य च यत्कुर्वन्ति तद्दर्शयितुमाह
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
तं भुंजमाणा पिसित पभूतं, नो उवलिप्पामो वयं रएणं ।
इच्चेवमाइंसु अणजधम्मा, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा ॥ ३८॥ व्याख्या- तत् ' पिशितं शुक्रशोणितसम्भूतमनार्या इच भुआना आँप प्रभूतं तद्रजमा-पापेन कर्मणा न वयमुपलिप्यामहे इत्येवं बायोपेताः प्रोचुरनार्या 'बाला' विवेकरहिताः 'रसेषु 'मांसादिषु 'गृद्धाः' मूञ्छितात, इत्येतच तेषा महते अनायति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ एतदेव दर्शयति
जे यावि मुंजति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा ।
मणं न एयं कुसला करिती, वाया वि एसा बुइया उ मिच्छा ॥ ३९॥ व्याख्या-ये चापि रसगारवगृक्षाः शाक्योपदेशवर्तिनस्तथाप्रकारं स्थूलोस्भ्रमम्भूतं घृतलरणमरिचादिसंस्कृतं पित्रित NI सुअन्ने पापमजानाना निर्विवेकिनः सेवन्ते तदेवं महादोष मांस भक्षणमिति मत्वा यद्विधेयं तदर्शयति-तदेवम्भूतं मामाद
* " यदुरूं-हिमामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य गैद्रस्य य-श्रीमत्सं रुधिराविलं छमिगृहं दुर्गन्धिप्याविलम् । शुक्रामुक्प्रभवं नितान्तमलिनं मद्भिः सदा निन्दितं, को मुळे नरकाय राक्षमसमो मांसं वदामगुहः॥ १॥ तथा-मांस मक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहायहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ २ ॥ (वधा)-योनि यस्य च मांससभयोः पश्यतान्तरम् | एकस्य क्षणिका तृप्ति-स्न्यः प्रागेवियज्यते ॥ ३॥" इति हर्ष.
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाभिलाषरूपं मनो ऽन्तःकरणं ' कुशला ' निपुणा न कुर्वन्ति, महापापहेतुत्वा [चदभिलाषा]न्मनो निवर्त्तपन्ती त्यर्थःX | बास्तां भक्षणं वागप्येषा " न मांस भक्षणे दो+ष० " इत्यादिका वाजयुक्ता महते पातकायेति मत्वा वचोऽपि न वाच्यमिति गाथार्थः || ३९ || न केवलं मांसादनमेव त्याज्यमन्यदपि सुमुक्षूणां परिहर्तव्यमिति दर्शयितुमाह
वाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता ।
तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिट्ठभत्तं परिवज्जयंति ॥ ४० ॥
व्याख्या - सर्वेषां जीवानां सुखाभिलाषिणां दुःखद्विषां न केवलं पञ्चेन्द्रियाणामेवेति सर्व ग्रहणं, 'दयार्थ ' दया. निमित्तं सावद्यारम्भं महासदोष मत्वा तं परिवर्जयन्तः [ तच्छकिनो-दोषशङ्किनः ] साधवो ज्ञातपुत्रीया महर्षयः ' उद्दिष्टं ' साधुदानाय कल्पितं यद्भक्तपानादिकं तत् परिवर्जयन्तीति गाश्रार्थः ॥ ४० ॥ किश्व-भूयाभिसंकाइ दुछमाणा, सवेसि पाणाण निहाय दंडं ।
तम्हा ण भुंजंति तहष्पगार, एसोऽणु धम्मो इह संजयाणं ॥ ४१ ॥
x" निवृत्तिस्तु महागुणाय, यदुक्तं श्रुत्वा दुःखपरम्परामत्तिघृणां मांसाशिन दुर्गविं, ये कुर्वन्ति शुभोदयेन विरति मांसादनस्यादरात् । सद्दीर्घायुरदूषितं गदरुवा सम्मान्य यास्यन्ति तं मध्येषूद्भटभोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु च ॥ १ ॥ " इति हर्ष० । + "बो, न मधे न च मैथुने प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।। १ ।। "
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
.
व्याख्या-'भूताभिशक्कया' भूतोपमईशङ्कया सावधमनुष्ठानं 'जुगुप्ममानाः' परिहरन्तस्तथा सर्वेषां प्राणिनां 'दण्डः' समुपतापस्तं 'नि[धाय हाय ' त्यक्तश सम्पगुस्थानेनोत्थाय सत्साधवो यतयस्ततो न भुञ्जन्ते तथाप्रकारमशुद्ध| जातीयमाहारमिति, एषोऽनुधम्मः इह प्रवचने संयतानां-यतीनां तीर्थंकराचरणादनु-पश्चादाचयत इत्यनुना विशेष्यते ], यथा तीर्थकरैनिदोषाहारग्रहणं कुन तथा तदनुसारिभिः माधुमिरपि तथैव विधेयं, यद्वाऽणुरिति स्तोकेनाप्यतिचारेण बाध्यते शिरीषपुष्पमिव सुकुमारोऽयं धर्म इति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ किश्चान्यत्
निग्गंथधम्ममि इमं समाहि, अस्सिं सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा ।
बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अचरथ ओत पाउणती सिलोगं ॥ ४२ ॥ व्याख्या-निर्ग्रन्थधर्मे-श्रुत चारिग्ररूपे क्षान्त्यादिक वा सर्वज्ञोके व्यवस्थितः 'इम' पूर्वोक्तं समाधिमनुप्राप्तोऽस्मिश्वाशुद्धाहारपरिहाररूपे समाधौ सुस्थि[त्वा]: ' अनिहो' मायारहितोऽस्नेहो वा साधुः संयमानुष्ठानं चरेत , तथा बुद्धोऽवगतचो 'मुनिः ' कालत्रयवेदी, तथा शीलेन क्रोधायुपशमरूपेण गुणैश्व-मूलीनरगुणभूतैरुपेनो-युक्तः इत्येवं गुण कलितोऽत्यर्थ संतोषत्मिका ' श्लाघां' प्रशंसा लो के लोकोत्तरे चावाप्नोति, तश चोक्तम्-" राजानं तृणतुल्यमेव मनुते शक्रेऽपि नैवादरः, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः। संसारान्तरवपीह लभते शं मुक्तवन्निभयः, सन्तोषात्पुरुषोऽमृतत्वमचिरायायात्सुरेन्द्रार्चितः ॥१॥” इत्यादि ।। ४२ 11
२२
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
____ तदेवमाककुमार निराकृतगोशालकाजीवकबौद्धमतममिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयः प्रोचुस्तद्यथा-भो आर्द्रककुमार ! | | शोभनमकारि भवता यदेते वेदबाह्ये द्वे अपि मते निरस्ते, तत्साम्प्रतमेतदप्याहनं वेदराम मेवातस्तदपि नाश्रयमाई |
भत्रद्विधानां, तथाहि-भवान् क्षत्रियः, क्षत्रियाणां च सर्ववर्णोनमा ब्राह्मणा एवोपास्याः, न शूद्राः, अतो यागादिविधिना व ब्राह्मणसेवैध युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादयन्नाह
सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णि[यए]लिए माहणाणं ।
ते पुन्नखंधं सुमहऽजणित्ता, भवंति देवा इति धेयवाओ ॥ ४३ ॥ __ व्याख्या-षट्कर्माभिरताः वेदाध्यापकाः शौचाचारपरतथा नित्यस्नायिनो ब्रह्मचारिणो द्विजाः स्नातका उच्यन्ते, । तेषां नित्यं सहस्रद्वयं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण, ते सापार्जितपुण्यस्कन्धाः सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो मवन्तीत्येवम्भूतो वेदचाद इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ अथाईक एतद्पयितुमाह
सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णि[यएतिए कुलालयाणं ।
से गच्छति लोल्लयसंपगाढे, तिवाहितावी णरगाभिसेवी ॥ ४४ ॥ ध्याख्या-स्नातकानां सहस्रद्वयमपि नित्यं ये भोजयन्ति, किम्भूतानां ? 'कुलालया:' मार्जास्तित्सदृशाः द्विजा:सातव्याः, यता-सावद्याहारवाञ्छया सर्वदा सर्वगृहेषु मार्जारा इस भ्रमन्ति, एवंविधानां निन्यजीविकाजीवनानां सहस्त्र
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
IN द्वयं यो भोजयेत्सोऽसस्पात्रनिक्षिप्तदानस्तैः स्नातकैबिगः सह नरके बहुवेदने [गच्छति] एतावता त्रयस्त्रिंशत्सानरायनारको जायते इति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ अपि च
दयावरं धम्म दुगुंछमाणे, वहावहं धम्म पसंसमाणे।।
एगंपि जे भोजयति असीलं, नियो णिसं जाति कोऽसुरेहि ? ॥ ४५ ॥ व्याख्या-[दयया वर]दयावरं धर्म 'जुगुप्समानो' निन्दन तथा 'वधात्मक' प्राण्युपमहत्मिकं धर्म प्रशंसन् एकमपि ! 'अशील' विरतिरहितं पट्कायोपमर्दैन यो भोजयेत् , एकमपि, किम्पुनः प्रभृतान् ? 'नृपो' राजाऽन्यो वा यः कश्चिन्मूढमति
र्धार्मिकमात्मानं मन्यमानः, स वराको निशे नित्यान्धकार वाभिमा-गरकमिस्त थाति, कुतस्तस्यासुरेवण्यघमदेवेषु । प्राप्तिरिति गाथार्थः ॥ ४५।।।
. तदेवमार्द्रकुमारं निराकृतब्राह्मणवाद भगवदन्तिकं गच्छन्तं दृष्ट्वा एकदण्डिनोऽन्तराल एवोचुस्तद्यथा-भो आईककुमार! | शोमनं कृतं भवता, यदेते सर्वारम्भप्रवृता गृहस्थाः शब्दादिविषयपरायणा मामाशिनो राक्षसकल्पा द्विजातयो निसकृताः, साम्प्रतमस्मसिद्धान्तं शृणु, श्रुत्वा चावधारय, अस्मत्मिद्धान्तमवसिद्धान्तयोर्न कोऽपि भेदोऽस्ति, इत्येतदर्शयितुमाइ
दुहओ वि धम्ममि समुट्ठियामो, अस्सि सुठिच्चा तह एसकालं । आयारसीले बुइएऽह णाणे, ण संपरायम्मि विसेसमस्थि ॥ १६ ॥
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-योऽयमस्मद्धम्मो मत्रदीयवाहतः स उभयरूपोऽपि कश्चित्सदृशः, यतः युष्माकं मते जीवास्तित्वे पुण्यपापबन्धमोक्षानामपि सद्भावः, अस्माकमपीस्थ मेवाऽस्ति । अस्माकमपि पश्च यमाः अहिंसाचाः, भवतां च त एव पश्च महा. व्रतरूपाः, तथेन्द्रियनोइन्द्रियनिगमोऽप्यावयोस्तुल्य एव, तदेवमुभयस्मिन्नपि धर्मे बहुममाने सम्पगुस्थानोस्थिता यं | वयं च तस्माद्धम्म सुष्टु स्थिताः, पूर्वस्मिन्काले बचैमाने एध्ये च यथागृहीतप्रतिज्ञानिाद्वारो, न पुनरये, यथावतेश्वरयागविधानेन प्रव्रज्यां मुक्तवन्तो मुश्चन्ति मोक्ष्यन्ति चेति, तथाऽऽचारप्रधानं शीलमुक्तं यमनियमलक्षणं, न फस्कल्ककुहकाजीवनरूपं, अथानन्तरं ज्ञानं च मोक्षाङ्गतयाऽभिहितं, तच श्रुतज्ञानं केवलारूपं च, यथास्वमात्रयोदर्शने प्रसिद्धं, तथाप्राणिनो पत्र स्वकर्मभिर्धाम्यन्ते म 'मम्पराय: ' संसारस्तस्मिञ्चावयोर्न विशेषोऽस्तीति गाथार्थः ॥ ४६॥ पुनरप्येकदण्डिनः प्रोचुः
अवत्तरूवं पुरिसं महंत, सणातणं अक्खयमवयं च ।
ससु भूतेसु वि सबतो सो, चंदो व ताराहि समत्तरूवे ॥ १७ ॥ व्याख्या-'पुरुष' जीयं यथा भवन्तोऽभ्युपगतवन्तस्तथा वयमपि, कथम्भूतं जीवं ? अमूर्तस्वादब्यक्तरूपं करचरण-13 शिरोनीवाद्यवयवतया न लक्ष्यते, तथा 'महान्तं ' लोकव्यापिनं तथा 'सनातनं ' शाश्वतं-द्रध्यार्थतया नित्यं, नाना-14 M] विधतिसम्मवेऽपि चैतन्य लक्षणात्मस्वरूपस्याप्रच्युतेस्तथा'ते' केनचित्रप्रदेशानां खण्डशः कर्तुमशक्पत्वात्तथा'ऽन्ययं'
-
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
G
अनन्त नापि काले कालागि प्रदेशा ध्ययामावात् , तथा सर्वेषपि भूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिशरीरं । सर्वतः | सामस्त्याभिरंशत्वादमावात्मा सम्भवति, किमि[? कइ ? 'चन्द्र इन ' अशीव, ताराभिरश्विन्यादिभिर्नक्षत्रैर्यधा 'समस्वरूप:' सम्पूर्णः सम्बन्धहरयात्येक्रममावण्यात्मा प्रत्येक शरीरैः सह सम्पूर्ण सम्बन्धपगाति । तदेवमेकदण्डि | मिर्दानसाम्यापादनेन सामवादपूर्वकं स्वदर्भ नारोपणार्थ माद्रेककुमारोऽभिहितो, यतानि सम्पूर्णानि निरूपचरितानि पूर्वोक्तानि विशेषणानि धर्मसंमारयोविद्यन्ते स एव पक्ष मश्रुतिकेन समाश्रयितव्यो भवति, एतानि चास्मदीय एव दर्शने यथोक्तानि सन्ति, नाऽऽते. अती भवताप्यमदीयमेव दर्शनमभ्युपगन्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ४७॥ अथाईककुमारस्तदुचरदानायाह
एवं ण मिज्जति न संसरति, न माहणा खत्तिय वेस पेसा ।
कीडा य पक्खी य सरीसिवा य, नरा य सबै तह देवलोगा ॥ ४८॥ न्यारूपा-यदिवा प्राक्तनः श्लोकः 'अश्वत्तरूवामित्यादिको वेदान्तवाद्यात्माऽद्वैतमतेन व्याख्यातव्यस्तथाहि-ते एकमेवाव्यक्तं पुरुषमात्मानं महान्तमा का शमिव सर्वव्यापिने सनातन[मनन्त]मक्षयमव्ययं सर्वेष्वपि भूतेषु सर्वनः' सर्वात्मतयाऽसौ स्थित इत्येवमभ्युपगनयन्तो, यथा मर्यास्वपि तागस्वेक एव चन्द्रः सम्बन्धमुपधात्येवमपावपीति, अत्य चोचरदानायाह-'एव'मित्यादि-यथा भवनां दर्शने एकान्तेनैव नित्योऽविकारी चारमाऽम्पुपगम्यते इत्येवं पदार्थाः
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वेऽपि नित्यास्तथा च सति कुतो बन्धमोशपद्भात ! बधामावाच न नारकतिर्यनरामरलक्षणचतुर्गतिकः संसारो, मोक्षाभावाच निरर्थक व्रतग्रहणं भरतां पश्चरात्रीपदिष्ट यमनियमप्रतिपत्तिथ, एवं च यदुच्यते माता-प्रथा 'आवयोस्तुल्यो धर्म' इति तयुक्तमुक्तं, यतो न कथञ्चिदारयोः साम्य, किश्व-सर्वव्यापित्वे सत्यात्मनो विकारित्वे चात्माद्वैते चाम्यु:18 पगम्यमाने नरकतिर्यनरामरभेदेन बालकुमारसुमगदुर्भमाचदरिद्रादिभेदेन वा न मोयेन्-न परिच्छिद्येस्न, नापि स्व. | कर्मप्रेरिता नानामतिषु संमरन्ति, सर्वव्यापित्वादे कत्याद्वा, तथा न ब्राह्मगा न क्षत्रिया न वैश्या न प्रेष्या न शूद्रा नापि कीटपक्षिसरीसृपाश्च भवेयुः, तया राम सपि देवलोकाय नानामसिमेन न मिोरन्, अतो न सर्वव्याप्यात्मा तथा नाप्यात्माऽद्वैतवादो ज्यायान् , यतः प्रत्येक सुखदुःखानुभवः सापलम्यते, तथा शरीरलपर्यन्तमात्र एवात्मा, तत्रत्र तद्गुणवित्रानोपलब्धेरिति स्थित, तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमो यथार्थाभिधायी न भवति, असर्वत्रप्रणीतता, असर्वत्रप्रणीतत्वं चैकान्तपश्वसमाश्रयणादिति ॥ ४८॥ एवममर्वत्रस्य मार्गो द्रावने दोषमाविर्भावयन्नाइ--
लोयं अजाणितिह केवलेणं, कहति जे धम्ममजाणमाणा।
णासंति अप्पाण परं च नट्ठा, संसारघोरम्मि अणोरपारे ॥१९॥ व्याख्या-लोकं चतुर्दशरचनात्मक घराचर वा लोकमावा केवलेन' दिव्यज्ञानावभासेन 'इ' अस्मिन् । जगति ये तीथिका ' अजानाना ' अविद्वांसो धम्म दुर्मतिगमनमार्गार्गलाभूतं 'कथयन्ति ' प्रतिपादयन्ति ते स्वतो नष्टा
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपरानपि नाशयन्ति, क ? 'घोरे' भयानके संसारसागरे 'अणोरपारे अमानवरमागविवर्जिते अनाद्यनन्ते, इत्येवम्भूते संसारार्णवे आत्मानं प्रक्षिपन्तीति गाथार्थः ॥ ४९ ॥
साम्प्रतं सम्यग्ज्ञानवतामुपदेष्टृणां गुणानाविर्मावियन्नाह -
लोयं विजाणंति केवलेणं, पुन्त्रेण नाणेण समाहिजुचा ।
धम्मं समतं च कति जे उ, तारंति अध्याण परं च तिष्णा ॥ ५० ॥
व्याख्या -- लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केत्रलालोकेन केवलिनो विविध-सनेकप्रकारं जानन्ति इह जमति प्रकर्षेण 'जानाति प्रज्ञः पुण्यहेतुत्वाद्वा पुण्यं तेन तथाभूतेन ज्ञानेन समाधिना च युक्ताः समस्तं वर्म चारित्ररूपं ये तु परहितैषिणः ' कपयन्ति' प्रतिपादयन्ति ते महापुरुषाः स्वतः संसारसागरं तीर्थाः परं च तारयन्ति सदुपदेवदानव इति यथादेशकः - सम्यमार्ग आत्मानं परं च तदुपदेशवर्तिनं महाकान्ताराद्विवक्षित देशप्रापणेन निस्तारयति, एवं केवलिनोऽप्यात्माने परं च संसारकान्ताराभिस्तारयन्तीति गाधार्थः ॥ ५० ॥ पुनरप्यार्द्रकुमार एवमाह -
जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया ।
उदाइतं तु समं मतीए, अहाउसो विष्परियासमेव ॥ ५१ ॥
व्याख्या- - अपरूपणमेवम्भूतं मति, तद्यथा- ये केचित्संसारान्तर्वर्चिनोऽशुम क्रमणोपपेताः - समन्विताः 'यर्दित'
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
$
निन्दितं जुगुप्सितं निर्विवेकिजनाचरितं स्थानं कर्मानुष्ठानरूपं 'ह' जगति आ[वसन्ति ]सेवन्ति आजीविका हेतुमात्रपन्ति ये च सदुपदेशवार्जुनोऽस्मिलोके 'चरणेन' विरविपरिणामरूपेणोपेताः समन्वितास्तेषानुभयेषामपि यदनुष्ठानं [शोभना ] शोभनरूपमपि सर्वज्ञैः समं तुल्यं ' उदाहृतं ' उपन्यस्तं ' स्वमत्या' स्वाभिप्रायेण मो एकदण्डिन् । तं विपरीतमति [ए] जानीहि सम्यग्मम्यधम्र्मयोः कथं साम्यं स्यादिति गाथार्थः ।। ५१ ।। तदेवमेकदण्डिनो निराकृत्याककुमारी यावद्भगवदन्तिकं व्रजति वावद्धस्तितापसाः परिवृत्य तस्थुरिदं च प्रोचुरित्याह
संवछरेणात्रि य एगमेगं, बाणेण मारेड महागयं तु ।
सेसाण जीवाण दयट्टयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ ५२ ॥
व्याख्या - हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्ति कल्पयन्तीति दस्तितापसास्तेषां मध्ये कश्चिद्धतम एतदुवाच तद्यथाभो आर्द्रकुमार ! सश्रुति केनाल्पबहुत्वमालोचनीयं तत्र येऽमी तापसाः कन्दमूलफलाशिनस्ते बहूनां सच्चानां स्थावराणां तदाश्रितानां चोदुम्बरादिषु जङ्गमानामुपघाते वर्त्तन्ते, येऽपि च भैक्ष्येणात्मानं वर्त्तयन्ति तेऽप्याशंसाशेषदूषिता इततथाटायमानाः पिपीलिकादिजन्तूनामुपघाते वर्त्तन्ते वयं च संवत्सरेण अपिशब्दात् षण्मासेन चैकैकं दस्तिनं महाकार्य बाणप्रहारेण व्यापाद्य शेपसच्चानां दयार्थमात्मनो वृत्ति [ वर्षमेकं यावत् ] कल्पयामः । तदेवं वयमल्पसच्योपघातेन प्रभूततरसानां रक्षां कुर्म इति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ साम्प्रतमेतदाद्रकुमारो हस्तितापसतं दूषयितुमाह-
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
संच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणिअत्तदोसा |
सेसाण जीवाण वहेण लग्गा सिया य थोवं गिहिणो वि तम्हा ॥ ५३ ॥
व्याख्या—क शाणितं मन्योनी जातिवावादनिवृत्तदोषास्ते भवन्ति एतावता धर्मबुद्ध्या शेषजीवरक्षार्थमेकैकं प्राणिनं मामपि प्राणिवधो लगत्येव, आशंसादोषश्च भवतां पञ्चेन्द्रियमहाकायमुत्रवधपरायणानामतिदृष्टो भवति, साधून सूर्यरश्मिप्रकाशितवीथिषु युगमात्रदृश्वा गच्छतामीर्या [ समिति ]पमिवानां द्विचत्वारिंशदोष[ रहित ] माहारमन्वेषयतां लाभालाभसमवृतीनां कृत आशंसादोपः १ पिपीलिकादिसत्रोपघातो वा ? तथा ( यदि ) स्वोकसपत्रोपघातेन दोषाभावोऽभ्युपगम्यते तदा गृहस्था अपि आजीविकार्थमारम्भं कुर्वन्तः स्वक्षेत्रे आरम्भं कुर्वन्ति, न परत्र क्वापि, तेऽपि स्तोकजीववधकारिणोऽपर सर्व जन्तूनां क्षेत्रकालव्यवहितानां रक्षणाद गृहिणोऽपि निर्दोषा एव, स्तोकजीववधकारिणः प्रभूतसवरक्षकाः, ततस्तेऽपि भवदभिप्रायेण गृहस्था अपि दोषरहिता एवेति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ साम्प्रतमार्द्रकुमारो हस्तितापसान् दूषयित्वा तदुपदेष्टारं दूषयितुमाह
संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं वदंता समणवतेसु ।
आवाहिते से पुरिले अणजे, नो तारिसे केवलिणो भवति ॥ ५४ ॥
व्याख्या - भो हस्तितापसाः । भवन्मते श्रमणवते व्यवस्थिताः सन्तः एकैकं संवत्सरेणापि ये मन्ति ये चोपदिशन्ति
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
ते ना, असत्कर्मानुष्ठामिलाइ तथा आत्मनः परेषां चाहितास्ते पुरुषाः केवलिनो न भवन्ति तथा एकदम प्राणिनः संवत्सरेणापि धाते येऽन्ये पिशिताश्रितास्तत्संस्कारे च क्रियमाणे स्थावरजङ्गमा विनश्यन्ति ते तैः प्राणिघातोपदेशकै दृष्टा, न च तैर्निश्वद्योपायो माधुकर्या वृच्या यो भवति स दृष्टः, अवस्ते न केवल मलिनो विशिष्टविवेकरहिताश्रेति । तदेवं हस्तितापसान्निराकृत्य भगवदन्तिकं गच्छन्तमार्द्रकुमारं महता कलकलेन लोकेनाभिष्ट्रयमानं तं समुपलम्पाभित्र गृहीतः सर्वलक्षणसम्पूर्णो वनवस्ती समुत्पन्नतयाविधविवेकोऽचिन्तयत्, यथा- प्रवमाकुमारोऽयावाशेष वीर्थिको निष्प्रत्यूहं सर्वज्ञपादपद्मान्तिकं वन्दनाय व्रजति, ततोऽहमपि यद्यदताशेषबन्धनः स्यां तत एनं महापुरुषमा कुमारं प्रबुद्वतस्करपञ्चशतोपेतं तथा प्रबोधितानेकवादिगणसमन्वितं परमया भक्यैतदन्तिकं गत्वा बदामीत्येवं यावदसौ हस्ती कृतमकल्पस्वावस्त्रदत्त्र (टदितित्रु) टितसमस्वबन्धनः सन्नार्द्रकुमारं प्रति प्रदच कर्णेतालस्तथोर्द्ध प्रसारित दीर्घकरः प्रधावितः, तदनन्तरं लोकेन कृताहारवम कलकलेन पूत्कृतं यथा-धिक ! इतोऽयमाकुमारी महर्षिमहापुरुषस्तदेवं प्रलयन्तो लोका इवथेतथ प्रपलानाः असावपि वनहस्ती समागत्यार्द्रकुमारसमीपं भक्तिसम्मानतायता (मा) गोतमाङ्गो निभृत कर्णतालखि प्रदक्षिणीकृत्य निहितवरणीतलदन्ताग्रमामः स्पृष्टकशग्रतच्चरणयुगलः सुप्रणिहितमनाः प्रणिपत्य महर्षि वर भिमुखं यथाविति । तदेवमाकुमार तपोऽनुभावाद्बन्धनान्मुक्तं महागजमुपलभ्य सपौरजानपदः श्रेणिकराजस्व माईकुमारं महर्षिं तत्तपःप्रभावं चामिनन्य अभिवन्द्य च प्रोवाच भगवन् । आचर्यमिदं यदसौ वनइस्त्री वाघडो. च्छेद्याच्छृङ्खलाबन्धनाद्युष्मत्तपःप्रभावान्मुक्त इत्येवदतिदुष्करमित्येवमभिहिते आर्द्रकुमारः प्रत्याह-यो श्रेणिक महाराज !
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैतदुष्करं पदसौ वनहस्ती बन्धनान्मुक्त, अपि त्वेतदुदुष्करं यत्स्नेहपाशमोचनं । एतच प्राग्नियुक्तिगाथया दर्शितम् सायं" + न बुकरं षा णरपासमोवणं, गुयस्स मत्तस्स वर्णमि रायं । जहा उ वत्तावलिएण तंतुणा, सुदुकरं मे feat मोयणं ॥ १ ॥ एवमाकुमारी राजानं प्रतिबोध्य भगवदन्तिकं गत्वाऽभिवन्द्य च भगवन्तं भक्ति परनिर्भर आसाच के । भगवानपि तानि पञ्चापि शतानि प्रम्राज्य वच्छिष्यत्वेनोपनिन्ये इति गाथार्थः ॥ ५४ ॥
"
साम्प्रतं समस्ताध्ययनोपसंहारार्थमाह
बुद्धस्स आणाइ इमं समाहिं, अस्लि सुठिचा तिविद्देण ताई ।
तरिडं समुदं च महाभवोघं, आयाण बंधं समुदाहरिजा तिबेमि ॥ ५५ ॥
अद्दजं छ अज्झयणं समत्तं ।
व्याख्या—' बुद्ध ' अवततः सर्वज्ञो वर्द्धमानसामी, तस्याजया-तम मेने मं समाधिं सद्धम्मविलक्षण मवाप्याविमा सुष्ठु स्थित्वा मनोवाक्कायैश्व प्रणिहितेन्द्रियः स एवम्भूतः आत्मनः परेषां च ' त्रायी' त्राणशीलस्तायी वा + नरमेधरपात्तवारणस्य विमोचनं वने राजन् ! एतत्तु मे प्रतिभाति दुष्करं यच चत्रादितेन दन्तुरा मम प्रतिमोचनमिति "बृहति ।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
गमनशीलो मोक्षं प्रति, स एवम्भूतस्तरीतुमतिलङ्घय समुद्रमित्र दुस्तर महाभवौध मोक्षार्थमादीयत इत्यादानं-सम्पग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं, वद्विद्यते यस्यासावादानवान् साधुः, स च सम्यग्दर्शनेन सता परतीर्थिकतपस्समृद्धिदर्शनेन मौनीन्द्रदर्शनान प्रध्यवते, सम्यग्ज्ञानेन तु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तप्रावादुकवाद निराकरणेनापरेषां यथास्थितमोक्षमार्गमाविर्मावयतीति, सम्यकचारिश तु ममवतमामहितविलयः निरु श्रद्वारः संस्तपोविशेषाचानेकमयोपार्जितं कर्म निर्जरयति स्वतोऽन्येषां चैवं प्रकारमेव धर्ममुदाहरव्यागृणीयादाविर्भावयेदित्यर्थः ॥ ५५ ॥ इतिः परिसमाप्त्यर्थे, त्रीमीति पूर्ववत् ।
MNAKENICKISEMESAPNAXKANKSKARENAWENLAINEESEXKAMACHAR द इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छविभ्यणपाठप्रवर श्रीमत्साधुरङ्गमणि सन्न्धायां श्रीसूत्रकृताङ्गदीपिकायां
K समाप्तश्चेदमाईकमाराध्य यनं षष्ठमिति । RAKARSENIEREITEMIERESTRICIRIKIMEXERESEREAKINEARE
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
+ अपरिभूए । से गं लेवे नाम गाहावई समणोवासए आवि होत्था । अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । [निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निकंखिए निवितिगिच्छे लट्ठ गहियढे पुच्छियढे
| विणिच्छियढे अभिगहियट्टे अट्रिमिनापेमाणुगगरने, शरामाउसो । निग्गंथे पावयणे अयं अद्वे ENM अयं परमटे सेसे अणटे, उस्लियफलिहे अप्पाव(अवंगु)यदुवारे चियत्तंतेउरप्पवेसे चाउद्दसऽट्ठमु.।।
| विठ्ठपुण्णमासीणीसु पडिपुषणं पोसह सम्मं अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिजेणं
असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे बहूर्हि सीलबयगुणविरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासहि | अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ॥ सू० २]
तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स तीए नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं + 'जाब ' इत्यत्र “ विच्छिन्नविपूलभवणसयणासजवायचाहणाहण्ये बहुधणबहुजातरूवरजते आओगपओगसंपउने यिच्छवियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसमवेलमप्पभूते बहुजणस्स " इति पाठः प्रत्यंतरे ।
x[ ] एतचिहान्तर्गतः पाठो नास्ति सर्वेधपि दीपिकादशेषु ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
NI सेसदवियानामं उदगसाला होत्था। अणेगखंभसयसंनिविट्ठा पासादीया जाव पडिरूबा, तीसे गं | सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एस्थ णं हस्थिजामे नाम वणसंडे होत्था,
किण्हे वएणओ वणसंडस्स [सू०३] ___व्याख्या-शेषद्रव्याभिधाना-गृहोपयुक्त शेषद्रव्येण कृता, एवंविधा — उदकशाला' पानीयशाला 'तुस्य ' लेपस्य गाथायतेरासीन ।
तस्सि च णं गिहपदेसंसि भयवं गोयमे विहरति, भगवं च णं अहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं]पासावञ्चिजे नियंठे मेतज्जे गोतेणं, जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता भयवं गोयम एवं वयासी___ व्याख्या-सुगमैवेति । भगवान् श्रीगौतमः साधुभिः परिवृतस्तस्मिन् वनपण्डे स्थित आसीत् । स उदको गौतमस्वामिसमीपं समागत्य भगवन्तमेवमवादी
आउसंतो गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पएसे पुच्छियवे, तं च मे आउसो! अहासुयं अहादरिसियं मे वियागरेजाहि सवायं । भयवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-अवियाई
न
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आउसो! सोचा निसम्म जाणिस्तामो । सवायं उदए पेढालपुत्वे भगवं गोयम एवं वयासी
व्याख्या-आयुष्मन् गौतम ! ' अस्ति' विद्यते मम कश्रिप्रदेशा-प्रभा पृष्टव्यः, तत्र सन्देवान, तं च प्रदेश मम । यथाश्रुतं भवता यथा च भगवता सन्दर्शितं तथैव मम- व्यागृणीहि' प्रतिपादय एवं पृथः, स चायं भगवान् सवाद चा शोमनमारतीकं वा प्रश्नं पृष्टस्तमुदकं पेढालपुत्रमेवमादीत्तद्यथा-अपि चायुष्मन्नुदक । 'श्रुत्वा' भवदीयं प्रश्नं निश्चम्य-पावधार्य च गुणहोपविचारणतः सम्यगई सास्। नदुन्यतां विश्रब्धं भवता स्वामिप्रायः। सवादसुद( क )य: पेढालपुत्रो मंगवन्तं गौतममेवमवादीत्तद्यथा---
आउसो गोयमा! अस्थि खल्लु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हाणं पत्रयणं पवNयमाणा गाहावर्ति समणोवासगं उपसंपन्नं एवं पञ्चक्खारिति-णण्णत्थ अभिओएणं, गाहावती
चोरग्गहणविमोक्खणताए तसेहिं पाणेहि निहाय दंडं । एवं हूं पञ्चक्खंताणं दुप्पचक्खायं भवइ। एवं हं पञ्चक्खावेमाणाणं दुप्पचक्खावियं भवइ । एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं। पतिण्णं, कस्स णं तं हेउं ?।।
व्याख्या-भो गौतम ! अस्तीति-विद्यन्ते सन्ति कुमारपुत्रा नाम निर्गन्या युष्मदीयं प्रवचनं प्रवदन्तस्तद्यथा-गृहपनि
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
श्रमणोपासकमुपसम्प-नियमायोस्थित मेवं प्रत्याख्यापयन्ति' प्रत्याख्यानं कारयन्ति-स्थूलेषु प्राणिषु ' दण्डं ' विनाशं परित्यज्य प्राणातिपातनिवृतिं कुर्वन्ति एतावता स्थूलप्राणातिपातनिवृति कुर्वन्ति, अन्यत्र राजाद्यभियोगेन यः प्राभ्युपघात न तत्र निवृत्तिरिति, राजाद्यभियोगं त्रिना स्थूलप्राणिवधनिवृत्तिः परमन्येषां स्थूलव्यतिरिक्तानां प्राणिनां वधानुमतिप्रत्ययो दोषः स्यात् । एतावता त्रसप्राणित्रधनिवृत्तौ कृतायामन्येषां प्राणिनामनुमतिदोषो लगतीति भावः, इत्याश [कावानाद]]ङ्कां ज्ञात्वा ग्राह
[' गाहाव' इत्यादि, ] अस्य चार्थमुत्तरत्राविर्भावयिष्यामः - अग्रे कथयिष्यामः । एवं ह्र 'मित्यादि, एवमेव त्रम प्राणिविशेषणत्वेनापरत्रसभूतविशेषणरहितत्वेन प्रत्याख्यातं गृह्णतां भावकाणां दुष्प्रत्याख्यातं भवति, प्रत्याख्यानभङ्गपद्भावात् प्रत्याख्यापयितामपि साधूनां दुष्टं प्रत्याख्यानदानं भवति, किमिति ? अत आह— एवं ते साधवः प्रत्या रूपानं कारयन्तः श्रावकाय प्रत्याख्यानं गृहन्तः स्वां प्रतिज्ञामतिचरन्ति - अतिलक्ष्यन्ति, एवं कुर्वतामेवं च कारयतां प्रत्याख्यानं भज्यते । + कस्स णं तं हे ' केन कारणेन प्रतिज्ञामविचरन्ति प्रतिज्ञामो भवति ? उद(क)य उवाच
संसारिया खलु पाणा, थावरा विपाणा तसत्ताए पञ्चायति तसा विपाणा थावरचाए पञ्चायति, थावरकायाओ विष्पमुच्चमाणा तसकायांस उबवज्जंति तसकायाओ विमुञ्चमाणा थावर कार्यसि उवज्जति । तेसिं चणं यावर कार्यसि उवचन्नाणं ठाणमेयं धत्तं । [ सू० ४]
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-सांसारिकाः खलु 'प्राणा' अन्तः स्थावराय पश्चापि प्राणिना सन्तोऽपि तथाविधकर्मोदयात्रपतया' असत्वेन 'प्रत्यापान्ति ' उत्पद्यन्ते, तथा प्रसा अपि स्थावस्तयोत्पद्यन्ते, एवं च परस्परगमने व्यवस्थिते सत्यवश्यम्भावी प्रतिज्ञाविलोपस्तथाहि-नागरिको मया न हन्तव्य एवम्भूना प्रतित्रा येन गृहीता स यदा बहिरारामादी व्यवस्थितं नागरिक व्यापादयेत् किमेतावता तस्य न भवेत्प्रतिज्ञालोपः १ एवमत्रापि येन सरधनिवृत्तिः कृता स यदा तमेव वसं प्राणिनं स्थावरकायस्थितं व्यापादयेत् किं तस्य न भवेत्प्रतिज्ञाभागः १ अपि तु भवत्येवेत्यर्थः । एवमपि स्थावरकाये समुत्पन्नानां त्रसानां यदि तथाभूत किश्चिदसाधारणं लिङ्गं स्शततस्ते प्रमाः स्थावरत्वेऽप्युत्पन्नाः शान्ले परिहत्त, न च तदस्तीत्येतदर्शयितुमाह- थायरकाचाओ' इत्यादि, स्थावर कायाप्रविमुपमाना:-स्थावरकायायुगा विग्रमूक्तास्त(योग्यैथ) अपरैः कर्मभिः सर्वात्मना त्रसकाये समुत्पद्यन्ते, तथा त्रमकायादपि सर्वात्मना विप्रध्यमानाः (तस्कर्मभिः) स्थावरकाये समुल. द्यन्ते, तत्र चोत्पन्नानां तथाभूतत्रसलिङ्गाभावात्प्रतिज्ञालोप इत्येतत्वेष दर्शयति 'तेमि च ण ' मित्यादि, तेषां-त्रमानां स्थावस्काये समुत्पन्नानां गृहीतत्रमप्रागातिरानविस्तः श्रामस्याप्यारमप्रवृत्तत्वेनैतन्त्रमा स्थावरा] ख्यं स्थानं घात्यं भवति, पतः स्थावरवधादनिवृत्तवम स्थावरोत्पनं घातपति, एवं कृतामात्यारूपानस्य श्रावकस्य प्रतिज्ञामङ्गः स्यात् ।
एवं पहं पच्चखंताणं सुप्पचक्खायं भवइ, एवं पहं पञ्चक्खावेमाणाणं सुप्पचक्खावियं भवइ, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा नाइयरंति सयं पइन्न ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - नागरिकदृष्टान्तेन त्रयमेव स्थावरत्वेनायातं व्यापादयतोऽवश्यं प्रतिज्ञामङ्गः, यतस्तत एव मदुक्कया [क्ष्यमाण] नीत्या प्रत्याख्यानं कुर्वतां सुप्रत्यारूपानं भवति । एवमेव च प्रत्याख्यायां सुरत्याख्यातं भवति, एवं च प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः कारयन्तश्च नातिचरन्ति स्त्रीयां प्रतिज्ञामित्येतदर्शयितुमाह
नन्नत्थ अभिओगेणं गाहावई वोरग्गहणविमोक्षणयाए तलभूतेहिं पाणेहिं निहाय दंड, एवमेव सइ भासाए परकमे बिजमाणे जे ते कोहा का लोहा वा परं पञ्चकखाविति अपि नो उसे भे किं णेयाउए भवति ? अवियाई आउसो गोयमा ! तुम्भषि एवं रोयति ? । [सू० ५ ]
व्याख्या तत्र गृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृह्णाति तद्यथा--त्रमभूतेषु वर्त्तमानकाले त्रयत्वेनोत्पश्रेषु ' दण्ड: ' प्राप्यु मस्त निहाय - परित्यज्य प्रत्याख्यानं करोति, वtिs भूतत्वविशेषणात्स्यावर पर्यायानवधेऽपि न प्रत्याख्यानमङ्गः, गृहपतिचौर विमोक्षणन्यायेन, एतदपि युक्तमेव सभ्यमुकं तदेतदपि श्रमकाये भूतत्वविशेषणमम्युपमम्पत एतदम्प गमे हि पथा क्षीरविकृतिप्रत्याख्यायिनो दावे मक्षणेऽपि न प्रतिज्ञाविलोपस्तथा भूताः सदा न इन्तव्या इत्येवं प्रतिज्ञानतः स्थावर हिंसायामपि न प्रत्याख्यानासिवाः, तदेवं विद्यमाने सति भाषायाः प्रत्याख्यानवाचः ' पराक्रमे ' भूतविशेषणाद्दोष परिहारसामध्ये एवं पूर्वोकया नीत्या सति दोषपरिहरणोपाये ये कंचन क्रोधाद्रा लोमाद्वा ' परं श्रावकादिकं भूतशब्दनिर्विशेषणमेव प्रत्याख्यापयन्ति तेषामेवं प्रत्याख्यानं ददतां मृषावादशे भवति गृहतां चावश्यंभावी व्रतलोप इति,
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
+
>
देवमपि नः अस्मदीयोपदेापगमों भूतत्वविशेषणविशिष्टः पक्षः किं भवतां नैव नैयायिको न्यायोपपसो भवति । इदमुक्तं भवति भूतत्वविशेषणेन हि स्थावरोत्पन्नान् हिंसतोऽपि न प्रतिज्ञाऽतिचार इति । अपि च आयुष्मन् गौतम ! तुम्यमपि रोचते एवमेतद्यथा मया व्याख्यातं । एवमभिहितो गौतमः सद्वाचं सवाद वा तमुदकं पेढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमवादीद्यथा
सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो ! उदगा ! नो खलु अहं एवं एवं रोयति, जे ते समणा वा माहना वा एवमाइक्खति जान परुर्विति, नो खलु ते समणा वा निग्गंथा वा भासं भासांत, अणुतात्रियं खलु ते भासं भासति ।
व्याख्या -- आयुष्मन् उदक ! नो खलु अस्मभ्यमेतदेवं यद्यथा स्वयोच्यते, तद्रोचते, इदमुक्तं भवति-यदिदं श्रमकायविरतौ भूतत्वविशेषणं क्रियते तनिरर्थकतयाऽस्मभ्यं न रोचत इति । तदेवं व्यवस्थिते भो उदक! ये ते श्रमणाः वा ब्राह्मणा वा एवं भृतशब्दविशेषणत्वेन प्रत्याख्यानमात्रचते परैः पृष्टास्तथैव भाषन्ते प्रत्याख्यानं स्वतः कुर्वन्त स्तत्कारयन्तश्चैवमिति सविशेषणं प्रत्याख्यानं भाषन्ते, एवमेव सामान्येन प्ररूपयन्तो न खलु ते श्रपणा वा निर्ग्रन्था वा यथार्थी भाषां भाषन्ते, अपि तु अनुवापिकां मात्रां भाषन्ते, अन्यथाप्ररूपणे श्रोतुरनुतापो भवति, तेनानुताविकेत्युच्यते । तथा पुनरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यानत्रतामुल्वण ( प्रकट ) दोषपाद -
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
अम्भाइक्खंति खल्ल ते समणे समणोवासए वा, जेहिं वि अन्नहिं पाणेहिं भूतेहिं जीवेहि | सत्तेहि संजमयंति, ताण वि ते अब्भाइक्खति, कस्स णं तं हेउं ? । ___ व्याख्या-तेहि सविशेषणप्रत्याख्यामवादिनो यथास्थितप्रत्याख्यानं ददतः साधून गृहतच श्रावकान् अभ्याख्यान्ति' अभृतदोषोद्भावनतोऽभ्याख्यानं ददति । किश्चान्यत्-येपच्यन्येषु प्राणिषु भूतेषु जीवेषु सच्चेषु ये 'संयमपन्ति' संयमं कुर्वन्ति, तद्यथा-वामणो न मया हन्तव्य इत्युक्ते स यदा वर्णान्तरे तिर्यक्षु वा व्यवस्थितस्तदा सदधे ब्राह्मणवध आपद्यते, भूत शब्दाविशेषणाव, एवं ते भूतशब्दविशेषणवादिनोऽन्यान् 'अभ्याख्यान्ति ' श्यन्ति । 'कस्स णं तं हे' कस्माद्धेतोस्तदसद्भूतं दूषणं भवति ? यस्मात्
संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पञ्चायति थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति, थावरकायाओ विष्पमुच्चमाणा तसकार्यसि उववज्जति, तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं । [ सू०६]
व्याख्या-सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्परं जातिसङ्गमणमाजो भवन्ति, यतनसाः प्राणाः स्थावरत्वेन प्रत्यायान्ति स्थावराच असत्वेनेति, प्रसकाया सर्वात्मना वसायुकं परित्यज्य स्थावरकाये योग्यकर्मोपादानादुत्पद्यन्ते तथास्थावस्कायाच तदापुकादिना कर्मणा विमुच्यमानानसंकाये समुत्पद्यन्ते, वेषां च स्थावर[स] काये समुत्पमानां स्यान
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैतत्यामाया रूपमा पाई मति, यमापन श्रावकेग सानुद्दिश्य प्रत्यारूपानं कृतमस्ति, तस्य तीबाध्यवसायो । त्पादकत्वाल्लोकार्पितत्वाचेति, तत्रासौ स्थूलप्राणातिपातानिवृत्तस्तनित्या च त्रसस्थानमधात्यं प्रवर्तने, स्थावरेपविरत |
इति, तद्योग्यतया तत्स्थानं घात्यमिति । स्थावरकाये समुत्पन्नस्य असप्राणस्य पर्यायान्तरमापनस्य स्थावरकायवक्षेऽपि | 1. कर्म न लगति, न प्रत्याख्यान भङ्ग इति । तदेवं स भवदभिप्रायेण विशिष्टसच्चोद्देशेनापि प्राणातिपातनिवृत्तो कृतायामपर
पर्यायापत्रं प्राणिनं व्यापादयतो व्रतभङ्गो भवति, ततश्च न कस्यचित्सम्यम् व्रतपालनं स्यात् इति । एवमभ्याख्यानमभूत, दोषोनावनं भवन्तो वदन्ति । यद्यपि भवद्भिर्वर्तमानकालविशेषणत्वेन किलायं भूतशम्द उपादीयतेऽमावषि व्यामोहानकेवलं भ्रान्तिरेवेयं, तथाहि-भूनशब्दोऽयमुपमानेऽपि वर्तते, तद्यथा देवलोकभूतं नमरमिदं, न देवलोक एप, तथाऽत्रापि त्रसभूतानां-त्रससरवानामेव प्राणिनां प्राणातिपातनिवृतिः कृता स्थात, न तु बसानामिति । अथवा तादर्थे भूतशब्दोऽयं, यथा शीवीभूतमूदकं शीतमित्यर्थः, एवं समृतास्त्रसत्वं प्राप्ताः, तथा च सति सशब्देनैव गतार्थत्वात्पोनरुक्यं स्यात् । अथैवमपि स्थिते भूतशब्दोपादानं क्रिपते तन्निरर्थकमतिप्रसङ्गः स्यात् । तदेवं निरस्ते भूताब्दे सति उदक आह
__ सवाय उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयम एवं वदासी-कयरे खलु ते आउसंतो गोयमा ! तुब्भे N| वयह तसा पाणा तसा अह अन्नहा ? सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं क्यासी-आउ. १] संतो उदगा ! जे तुम्भे वयह तसभूता पाणा तसा ते वयं वदामो तसा पाणा, जे वयं वदामो
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा, एते सति दुवे ठाणा तुल्ला एनट्ठा, किमाउसो! इमे । भे ( भवता ) सुप्पणीततराए भवति तसभूता पाणा [तता], इमे मे दुप्पणीततराए भवति-तसा पाणा [तसा], ततो एगमाउसो! पडिकोसह एवं अभिणंदह, अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवति ।
व्याख्या---'सवाय 'मित्यादि, सद्वाचं सवाद वा उदक:-पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीन् , तद्यथा-हे आयु. मन् गौतम ! कतरान् प्राणिनो यूयं वदथ ? वसा एव प्राणाः-प्राणिनस्त एक साः प्राणा:-उनान्यथेत्येवं पृष्टो भगवान् गौतमस्तमुदकं पेढालपुत्रं एवमवादी आयुस्मन्नुदक! यान् प्रागिनो यूयं वदय त्रसभूतानपत्वेनाविभूताः प्राणिनो, नातीताः नाप्येष्याः, किन्तु वर्तमानकाल एवं प्रसाः प्राणा इति, ताने। वयं वदामनसाः-त्रसत्वं प्राप्तास्तत्कालवर्तिन एष त्रसाः प्राणाः 'जे वय' मित्यादि, यान् वयं वदामनमा एव प्रामाखसाः प्रापास्तान यूयमेयं वदथ-त्राभूता एवं प्राणा, एवं च व्यवस्थिते किमायुष्मन् ? युष्माकमयं पक्षः सुष्टु 'प्रणीततरो' युक्तियुक्तः प्रतिभासते ? तथा सा एव प्राणास्त्रपाः | इत्ययं तु पश्चो दुष्प्रणीततरो भवति' प्रतिभासते भवतां । तद्यथा-सभूताः प्राणास्त्रमाः, प्रसाः प्रामात्रसाः, कोऽयं भेदः ।
एकाथिका एते, एकाथिकत्वेन भवतां कोऽयं व्यामोहो? येन शन्नामेदावमाधिस्य एक पश्चमाक्रोशथ द्वितीयं त्वभिनन्दथ | इति, उदयमपि तुरयेऽप्यर्थे सत्येकस्य पक्षस्याकोशनमपरस्पामिनन्दनमित्युपदेशाम्पुपगमो भवतां नो नैयायिको-नन्यायोपपन्नो भवति, उभयोरपि पक्षयोः समानत्वात् , केवलं साविशेषणपक्षे भूतब्दोगदान मोहमावहतीनि ! पुनर्पदुक्तं भावा
।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसानां वधनिवृत्तौ कारितायां साधोरनुमतिदोषः स्थाघरपाणिविषयो लगति, भूतसन्दाकथनेऽनन्तरमेव सं स्थावरपर्यायापन - व्यापादयतो व्रतभङ्ग इत्येतदपि न किश्चित् , तत्परिहर्नुकाम आह
भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणूसा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवति-नो खल्ल वयं संचाएमो मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं पहं अणुपुवेणं गोत्तस्स लिसिस्सामो, ति एवं संखं सार्वति त एवं संख ठवयंति, नन्नत्थ अभिओएणं। . . ____ व्याख्या--भगरान् गौतमम्वामी पुनराइ-सन्त्ये के केचन लघुकर्माणो मनुष्पाः प्रत्रज्यां कर्तुमममर्थाः प्रवज्या विना घर्म चिकीर्षक: साधोधम्मोपदेशदानोद्यतस्याग्रत दतपूर्व भवति, तथाहि-भोः साधो!न खल वयं अनमो मुण्डा भवितुं-प्रवज्यां गृहीतुं अगारादनगारतां-साधुमावं प्रतिपत्तुं.. वयं त्वाऽनुपूर्पण-क्रमशो ' गोत्रं ' साधुत्वं, तस्य साधुभावस्य ' पर्यायेण ' परिपाटयास्मानमनुश्लेषयिष्यामः । इसमुक्तं भवति-पूर्व देशविरतिरूपं श्रावकधर्म अनुपालयामस्ततोऽनुक्रमेण पश्चाच्छुमणधर्ममिति । तत एवं ते ' संख्या' व्यवस्था श्रावयन्ति । एवं व्यवस्था प्रत्याख्याने कुर्वन्तः । 'स्थापयन्ति प्रकाशयन्ति नान्यत्र अभियोगेन, स च "रायाभिओगो गणाभिओगो देवयाभिओगो बलाभिओगो गुरुनिग्गहो" इत्येवमादिनाऽभियोगेन व्यापादयतोऽपि वसं न व्रतमङ्गः । एवं साधूपदेशेन प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति । । ।
गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणताए ।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्यापमर्थ:-रत्नपुरे नगरे रत्नशेखरो नाम राजा, तेन च परितुष्टेन रत्नमालाऽप्रमहिषी प्रमुखाऽन्तःपुरस्य कौमुदी | महोत्सवे नगरस्यान्तः स्वेच्छाप्रचारोऽनुज्ञातः। तदवगम्य नागरलोकेनापि राजाऽनुमत्या स्वकीयस्प खीवनस्य तथैव । क्रीडनमनुमतं, राज्ञा च नगरे सडिडिमशब्दमाघोषितं. तद्यथा-अस्तमनोपरि कौमुदीमहोत्सवे प्रवृते यः कश्चित्पुरुषो नगरमध्ये स्थितः प्रच्छन्नमुपलब्धश्च तदा तस्य शरीरनिग्रहं करिष्यामि न केनाप्यस्मिन्नर्थे विज्ञप्तिः कार्या नाहं तं मोक्ष्यामि, इत्येवं व्यवस्थिने सत्येकस्य वणिजः पटपुत्राः, ते च कौमुदीदिने क्रयविक्रयन्यात या तावस्थिताः यावत्सूर्योऽस्तंगतः, तदनन्तरमेव स्थगितानि च नगरद्वाराणि, तेषां च व्यग्रतया न निर्गमनमभूत् । ततस्ते भयसम्भ्रान्ता: नगरमध्प एवा. ऽऽस्मानं मोपयित्वा स्थिताः । ततोऽतिकान्ते कौमदीप्रकारे राजाऽऽरक्षकाः समाहूयादिष्टाः, यथा-सम्पग्निरूपयत यूयमत्र कौमुदीप्रचारे नगरान्तः कश्चित्पुरुषो व्यवस्थित इति । तैरप्यारक्षकैः सम्यक् निरूपयद्भिरूपलम्प षड्वणिक्प्रवृत्तान्तो राजे निवेदितः । राजाप्याज्ञामकृषितन तेपो षण्णामपि वधः समादिष्टः । ततस्तपिता पुत्रवधसमाकर्णनगुरुशोकविह्वलोऽ. कालापतितकुलक्षयोद्धान्तलोचनः किंकर्तव्यतामूढनयाऽगणितविधेयाधेयविशेषो राजानमुपस्थितोऽवादीच गद्दया गिरा, यथा-मा कृथा देव! कुलक्ष यमस्माकं, गृह्यतामिदमस्मदीयं कुलमायात स्वभुजोशर्जितं न प्रभूनं द्रविण जातं, मुच्यता. ममी पदपुत्राः, क्रियतामयमस्माकमनुग्रहः इत्येवमभिहितो राजा तद्ववनमाकये विशेष पुनरपि वधमादिदेश । अमात्रपि वणिक सर्वरधाशकी समस्तमो चनानभिप्राय राजानमवेत्य पश्चाना मोचनं याचितवान् , तानध्य मौ राजा न मोक्तुमना | इत्येवमवगम्य चतुर्मोचनकते सादरं विसवान् , स्थाऽपि राजा तमनादृत्य ऋषितवदन. एव स्थितः । ततस्त्रयाणां विमोचने
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
कृतादरस्तत्पिताऽभूतानप्यमुञ्चन्तं राजानं ज्ञात्वा गणितस्त्रापराधो द्वयोर्तिमोचनं पार्थिवान् तथाप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिभवगम्य ततः पौरमइचरसमेतो राजानमेवं विश्वान् देव ! अस्माकमयं कुलञ्चयः समुपस्थितः तस्माच भवन्त एव प्राणायालं, अतः क्रियतामेकपुत्रविमोचनेन महाप्रसाद इति भणित्वा पादयोः सपौरमचमः पतितः, उतो राज्ञावि सञ्जातानुकम्पेन मुक्तस्तदेको ज्येष्ठपुत्र इति । तत्रमस्य दृष्टान्तस्य दार्शन्तिकयोजनेयं तद्यथा-माधुनाऽभ्युपगत सम्यग्दर्शनमरगम्य श्रावकमखिलप्राणातिपात विरतिग्रहणायाभ्यर्थितः परं श्रावकः पटुकायरक्षणेऽनमर्यतया चदा न सर्वप्राणातिपातविरतिं प्रतिपद्यते, यथाऽसौ राजा वणिजोऽत्यर्थं विलपतोऽपि न पडपि पुत्रान् मुमुक्षविनाऽपि पञ्चचतुखिद्विसंख्यानिति, तत एक विमोक्षणेनात्मानं कृतार्थमित्र मन्यमानः स्थितोऽसौ एवं साधोरपि श्रावकस्य यथाशक्ति वतं गृह्णनस्तदनुरूपमेवादानमविरुद्धं यथा च तस्य वणिजो न शेषपुत्रवधानुमतिलेशोऽप्यस्ति एवं साधोरपि न शेष प्राणिधानुमतिप्रत्ययजनितः कर्मबन्धो भवति, किं तर्हि ? यदेव व्रतं गृहीत्वा यानेव सम्मान् वादरान् सङ्कल्पजप्राणातिपातनिरुपा रक्षति तनिमित्तः कुशलानुबन्ध एवं इत्येतत्स्येनेच दर्शयितुमाह
तसेहिं पाणेहिं निहाय दंडं, तंपि तेसिं कुसलमेव भवति । [ सू० ७ ]
व्याख्या -- त्रसेषु द्वीन्द्रियादि निहाय ' परित्यज्य श्रसेषु प्राणाविपाठविरतिं गृहीत्वेत्यर्थः, तदपि वसप्राणातिपातविरमणव्रतं तेषां देशविरतिघारिणां कुशलमेव भवति । पच प्रागभिहितं तद्यथा – वमेव व स्थानश्वर्याबां
?
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
नागरिकमित्र बहिःस्थं व्यापादयतोऽवश्यं मात्री व्रतभङ्ग इत्येतत्परिहर्तुकाम आइ
तसा वि दुश्चति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा नामं च णं अब्भुवगतं भवति तसाउयं च णं पलिखीणं भवति, तसकायद्वितीया ते ततो आउयं विष्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहित्ता थावरत्ताए पच्चायति । थावरा वि वुचंति थावरा थारसंसार कामु णामं च णं अब्भुवगतं भवति, थावरआउं च णं पलिखीणं भवति, थावरकायद्वितीया तो आउगं विष्वजति, ततोआउगं विप्पजहित्ता भुज्जो पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि दुच्चंति ते तसा वि वुञ्चति, ते महाकाया चिरद्वितीया [सू० ८ ]
व्याख्या- ' सा' द्वीन्द्रियादयोऽपि श्रमा उच्यन्ते, ते च त्रसाससम्भारकतेन कर्मणा भवति, सम्मारो नाम अवश्यतया कर्मणो विपाकानुभवेन वेदनं, एवं प्रसनामकर्म्मणा प्रसा अभिधीयन्ते त्रसत्वेन यत्प्रतिपद्मायुष्कं तद्यदोदपप्रा भवति, तदा ससम्भारकृतेन कर्मणा सा इति व्यपदिशन्ते । यदा [ च ] श्रसायुः परिक्षीणं भवति, त्रसकाय स्थितिकं च कर्म यदा परिक्षीणं भवति, तच जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतः सातिरेकसामरोपमसहस्रद्वयपरिमाणं तदा, ततस्त्र सकाय स्थितेरभावात्चदायुष्कं ते परित्यजन्ति, अपराभ्यपि तत्मइचरितानि कर्माणि परित्यज्य स्थात्ररत्वेन प्रत्या
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
| यान्ति, स्थावरादि नाम च तत्राभ्युपगतं भवति, अपराण्यांप तत्सहचरितानि सर्वात्मना सत्वं परित्यज्य स्थावरत्वेनोदयं IA | यान्ति इति, एवं व्यवस्थिते कथं स्थावरकायं व्यापादयतो गृहीतकमकायप्राणातिपातनिवृत्तेः श्रावकस्य व्रत भङ्ग ? इति । किश्चान्यत् 'थाचराउयं च ण 'मित्यादि, यदा तदपि स्थावगयुष्क परिक्षीणं भवति [ तथा ] स्थावरकायस्थितिच, मा जघन्यतोऽन्तहर्च मुत्कृष्टतोऽनन्तकालमसङ्खयेयपुद्गलपगवा इति, ततस्तत्कायस्थितेरमात्रात्तदायक परित्यज्य भ्यः | पारलौकिकत्वेन स्थावरकायस्थितेरभावाप्रसत्वेन प्रत्यायान्ति । 'से पाणा वि बुचंति ' ते ममम्मारकतेन कर्मणा समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसंज्ञया प्राणा अप्युच्यन्ते, त्रमा अप्युच्यन्ते, ते महाकाया योजनलक्षप्रमाणवार्षिकुवगाव, तथा | | चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, भवस्थित्यपेक्षया त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुकसद्भावात् । ततखमपर्यायव्यवस्थिताना मेव प्रत्याख्यान - तेन गृहीत, न तु स्थावरकायच्यवस्थितानामपीति, यस्तु नागरिकदृष्टान्तो भवतोपन्यस्तोऽसावपि दृष्टान्तदान्तिकयो। रसाम्यारकेवलं भवतोऽनुपासितगुरुकूलवासित्वमाविष्करोति, तथाहि-नगरधर्युक्तो नागरिका, स च मया न हन्तथयः, इति प्रतिज्ञा गृहीत्वा यदा तमेव व्यापादयति बहिःस्थितं पर्यायापनं तदा तस्य किल व्रतम इति मवतः पञ्चः, स च न घटते, यतो-यो हि नगरधम्मरुपेतः स बहिःस्थितोऽपि नागरिक एव, अतः पर्यायापम इत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते । अथ
सामस्त्वेन परित्यज्य नगरधानसौ वर्चते ? ततस्तमेवेत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, तदेवमत्र प्रसः सर्वात्मना असत्वं ।। Nपरित्यज्य यदा स्थावरः समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्यायपरित्यागादपरपर्यायापनत्वात्रस एवासौ न भवति, [य]या-नागरिक M पत्यो प्रविष्टस्तद्धम्मोपेतत्तापूर्वधर्मपरित्यागानागरिक प्रवासी न भवति । पुनरप्यन्यथोदका पूर्वपक्षमारचयितुमाह
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
दवात्य-मपाताई, तत्र विरतिसद्भावात् । ते च सा नारकतिर्यनरामरगतिभाजः सामान्य संज्ञया प्राणिनोऽप्यभिधीयन्ते | । विशेषसंज्ञया त्रसा[अपि अभिधीयन्त तथा महाकाया, क्रियशरोरस्य योजनलवप्रमाणत्वादिति । तथा चिरस्थितिकात्रयः | विंशत्सागरोपमपरिमाणवाद्भरस्थिते, तथाच] प्राणिनो बहुतमाः यैः श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, सानुद्दिश्य । तेन प्रत्याख्याना । मायो सस्थायरामा असरवेलोपतातस्तेऽल्पतरकाः प्राणिनो, यः श्रावकस्य अप्रत्याख्यान भवति । इदमुक्तं भवति-अपशब्दस्याभावानिवान्न सन्त्येव ते येवप्रत्याख्यानमिति । इत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या 'से' वस्य श्रमणोपासकस्य महतवसकायादपशान्तस्योपरतस्थ प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्यारूपातं भवतीति । तदेवं व्यवस्थिते 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, यद्यूयं वदथ अन्यो वा कश्चित् , यथा-नास्ति कोऽपि पर्यायो यत्र श्रावस्य प्राणातिपात. प्रत्याख्यानं भवति, अपमपि भवत्पशो नो नैयायिको-न युक्त इत्यर्थः। अथ श्रीगौतमलमानां स्थावरपर्यायापमानां व्यापादनेऽपि न व्रतभङ्गो भवतीत्यस्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तत्रयमाह
भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो नियंठा! इह खलु संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुत्वं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइया, एएसि च णं आमरणंताए दंडे निखित्ते, जे इमे अगारमावसंति एतेसि णं आमरणंताए दंडे नो निखित्ते, केई च णं ( केचित् ) समणा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाणि अप्पयरो वा भुजयरो वा दे ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थावरविनाशे स्थावरमध्ये उत्पमाना सानामपि विनाशो जायते, एवं कृतसत्रधात्याख्यानस्य श्रावकस्य व्रतमाः स्यात् । एवमुक्त्वा स्थित्ते उदके गौतमस्वाम्याह
सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-नो खल्लु आउसो! अस्माकं+ वत्तब(एणं)याए तुम्भं चेव अणुप्पवादेणं अस्थि णं से परियाए जेणं समणोवासगस्स सबपाणेहिं सबभूएहि । सवजीवहिं सव्वसत्तेहिं दंडे निखित्ते [भवइ], कस्स णं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा, तसा विपाणा थावरत्ताए पञ्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तेतसकायाओ विप्पमुच्चमाणासवे थावरकायंसि उववज्बंति, थावरकायाओ विष्पमुच्चमाणासवे तसकायंसि उपयजति, तेसिं चणं तसकार्यसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया ते] चिरद्वितीया, AM ते बहतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्त सुपचक्खायं भवति, ते अप्पतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपञ्चश्वायं भवति, से मह्या तसकायाओ उत्रसंतस्त उबट्टियस्त पडिविरयस्स, जन्नं तुम्भे वा अन्नो वा एवं वदह-नस्थि णं से केइपरियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणा-M
+ अस्माकमित्येतन्मगवशे भागोपालानाप्रसिद्ध संस्कृत मेबोधार्यते, बदिशापि तथैवोबारितमिति " चित्रारमिमाः ।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
(इवा)ए वि दंडे निक्खित्ते, अयंपि भेदे से नो णेआउए भवति । [ सू०९] ___ व्याख्या-गौतम उदकं पेढालपुत्र प्रत्यवादी-नो खलु आयुष्मन् उदक ! अस्माकं सम्बन्धिना वक्तधेन एतदस्ति, M यत्सर्वेऽपि प्रसाः स्थावरत्वेन प्रत्यायान्ति स्थावराः सर्वेऽपि त्रसत्वेन प्रत्यायान्ति नैतदस्मद्वक्तव्यतायामस्ति, तथाहि-नैतद्भूतं । न च भवति न कदाचिद्भविष्यति, यदुन सर्वेऽपि स्थानियतया मात्र प्रतिपद्यन्ते, स्थायराणामानन्त्यामानां पा. संख्येयत्वेन तदाधारस्वानुपपत्तिःx तथा प्रसा अपि मऽपि न स्थावरत्वं प्रतिपना न प्रतिपद्यन्ते नापि प्रतिषत्स्यन्ते, इदमुक्तं | भवति-यद्यपि विवक्षित कालवर्तिनखसाः कालपर्यायण स्थावरकायत्वेन यास्यन्ति तथाप्यपरापरत्रसोत्पच्या सत्राला त्यनुच्छेदाम्न कदाचिदपि त्रसकाय शून्यः संसारो भवतीति सर्वथा नियुक्तिकं भवद्वचः। भवदीयं पशुं भवदभिप्रायेणेव 2 निराक्रियते तदेव पराभिप्रायेण परिहरति-अस्त्यमा पर्यायः, स चाय-भवदभिप्रायेण यदा सर्वेऽपि स्थावरानसत्वं प्रति. पद्यन्ते यस्मिन् पर्याये-वस्थाविशेरे श्रमणोपासकस्य कुतत्रमाणातिपातनिवृत्तेः सतनसत्वेन [च] भवदम्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पचेस्तैश्च सर्वप्राणिभिनसत्वेन भौ-रुत्पत्रैः करणभूतस्तेषु [वा] विषयभूतेषु दण्डो 'निक्षिप्तः' परित्यक्तः । इदमुक्त भवति-यदा सर्वेऽपि स्थावरा भवदभिप्रायेण सत्येनोत्पद्यन्ते नदा सर्वप्राणविषयं प्रत्याख्यानं श्रमयोपासकस्य भवतीति । एतदेव प्रसर्वक दर्शयितुमाह-कस्स णं तं हे ?' इत्यादि सुगम, यावत्तमकाये समुत्पवानां स्थावराणां स्थान मेव
-
-
-
-
४ अनन्ताः स्थावरा असंख्यातानां प्रसानां मध्ये क समान्ति !।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
दयात्य-मपाताई, तत्र विरतिसद्भावात् । ते च सा नारकतिर्यनरामरगतिभाजा सामान्य संज्ञया प्राणिनोऽप्यभिधीयन्ते । विशेषसंज्ञया त्रसा[अपि] अमिधीयन्ते तथा] महाकायाः, वैक्रियभरोरस्य योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । तथा चिरस्थितिकालयविंशत्सागरोपमपरिमाणत्वाइनस्थिते, तथा[च]ने प्राणिनो बहतमाः यः श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, सानुद्दिश्य तेन प्रत्याख्यानग्रहणात् । भवन्मते सर्वस्थावराणां त्रसत्वेनोत्पत्तेरतस्तेऽस्तरकाः प्राणिनो, यः श्रावकस्य अपत्याख्यानं भवति । इदमुक्तं भवति-अपशब्दस्याभाबाचित्वान्न सन्त्येव ते येषप्रत्याख्यानमिति । इत्येवं पूर्वोक्तया नीन्या 'से' तस्य श्रमणोपासकस्य महतत्रसकायादुपशान्तस्योपरतस्य प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्याख्यातं भवतीति । तदेवं व्यवस्थित 'ण' मिति वाक्पालङ्कारे, यद्यूयं वदथ अन्यो वा कश्चित् , यथा-नास्ति कोऽपि पर्यायो यत्र श्रावस्य प्राणातिपात. प्रत्याख्यानं भवति, अयमपि भवत्पक्षो नो नैयायिको-न युक्त इत्यर्थः । अथ श्रीगौतमन्नसानां स्थावरपर्यायापमानां व्यापादनेऽपि न व्रतमङ्गो भवतीत्यस्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तत्रयमाइ
भगवं चणं उदाहु नियंठा खल्ल पुच्छियवा-आउसंतो नियंठा! इह खल्लु संगतिया मणुस्सा भवति, तसिं च णं एवं वृत्तपुर भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइया, एएसिं | च णं आमरणंताए दंडे निखित्ते, जे इमे अगारमावसंति एतेसि णं आमरणंताए दंडे नो निखित्ते, केई च णं ( केचित् ) समणा जाव वासाइं चउपंचमाइं छहप्तमाणि अप्पयरो वा भुजयरो वा देसं
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा दुइजिता अगारमावसेज्जा ? हंता वसेजा, तस्स णं तं गारस्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भग्गे भवति ? नो इणमटे समढे, एवामेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे निखित्ते थावरेहिं पाणहि दंडे नो निखित्ते, तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे नो भग्गे भवति । से एवमायाणह ? नियंठा !, एवमायाणियत्वं । | एको दृष्टान्तः, भगवान् गौतमलामी अपरामपि त स्वपिसन साक्षिनः कर्तुमिदमाह___भो उदक ! निर्घन्धाः [युष्मत्स्थविराः ] खलु प्रध्यास्तद्यथा-भो निग्रन्था ! युष्माकमप्येतद्वक्ष्यमाणमभिमतं | माहोस्विम ? युष्माकमप्येतदभिप्रेतं यदहं वच्मि, तथाहि-सन्त्ये के मनुष्याः ये मुण्डा भूत्वाऽगाराव-गृहान्निर्गत्यानगारतां | प्रतिपन्नाः, प्रव्रजिता इत्यर्थः, तेषापरि यावजीमामरणान्तं मया दण्डो ‘निक्षिप्तः ' परित्यक्तो भवति, कोऽर्थः ? कश्चित्तथाविधो मनुष्यो यदीनुद्दिश्य व्रतं गृहाति, तद्यथा-न मया यावजीवं यतयो हन्तव्या, एतावता यारजीवं यतीन हनिष्यामि, गृहस्थानुद्दिश्य नियमो नास्ति, एवं च सति केवन मनुष्याः प्रवज्यां गृहीत्वा श्रमणा जाताः कियन्तमपि । कालं प्रव्रज्यापर्यायं प्रतिपाल्य यावद्वर्षाणि चत्वारि पश्च वा षड् दश वा अल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं तथा देशं 'दूइजित 'ति विहत्य कृतश्चित् कर्मोदयात्तथाविधपरिणतेरगार-गृहमावसे यु:-गृहस्था भवेयुस्त्येिवम्भूतः पर्यायः किं सम्भाव्यते ? उत नेति, इत्येवं पृष्टा निर्मन्थाः प्रत्युचुः इन्त गृहवासं बजेयुः, 'तस्प च' श्रावकस्य यतिवधगृहीतव्रतस्य
1
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
'तं ' गृहस्थं व्यापादयतः किं व्रतमङ्गो भवेद्रुत नेति । ततस्ते निर्मन्था आहुर्न व्रतमङ्ग इति । एवमेव श्रमणोपासकस्यापि त्रसेषु दण्डो निक्षिप्तो न स्थावरेध्विति, अवस्रसं स्थावरपर्यावापनं व्यापादयतस्तत्प्रत्याख्यानमङ्गो न भवतीति । साम्प्रतं द्वितीयं दृष्टान्तं दर्शयितुकाम आह
भगवं च णं उदाहु-नियंठा खल्लु पुच्छियवा - आउसंतो नियंठा ! [ इह ] खलु गाहावई वा गाहावइपुत्तो वा तहष्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मसवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ? हंता उवसंकमेजा, तेर्सि चणं तहष्पगाराणं धम्मे आइक्खियवे ? हंता आइक्खियवे, किं ते तहप्पगारं धम्मं सोचा निसम्म एवं वदेजा - इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं संसुद्धं नेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमगं निजाणमगं निवाणमग्गं अवितमसंदिद्धं सहदुक्खपहीणमग्गं, इत्थं ठिया जीवा सिज्यंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिवायंति सब दुक्कखाणमंत करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा निसियामो तहा तुम्हामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुमोतहा उट्ठाए उट्ठेमो ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो ति वदेज्जा ? हंता एज्जा, किं ते तपगारा कप्पंति पञ्चावित्तए ? हंता कप्पंति, किं ते तपगारा कप्पंति मुंडावित्तए ?
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
हंता कप्पति, किं ते तहप्पगारा कप्पति सिक्खावित्तए ? हंता कप्पति, किं ते तहप्पगारा कम्पति | उबट्टावित्तए ? हंता कप्पंति, तेति च णं तहप्पगाराणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे निखिते ?
हंता निखित्ते, से णं एयारूबण विहारणं विहरमाणा जाव वासाई चउपवमाइं छद्दसमाणि वा | अप्पतरो वा भुजतरो वा देसं दुइज्जित्ता अगारं वइज्जा ? हंता वएजा, तस्स णं सबपाणेहि जाव, सबसत्तेहिं दंडे निखित्ते ? णो तिणट्रे समटे, से जे से जीवे जस्स परणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे नो निखित्ते, से जे से जीवे जस्स आरेणं सबपाणेहि जाव सवसत्तेहिं दंडे निखिते, से जे से जीवे जस्स इदाणि सवपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे नो निखित्ते भवइ, परेणं अतंजए | आरेणं संजए, इदाणिं असंजए, असंजयस्स णं सबपाणेहिं जाव सबसचेहिं दंडे नो निखिते | भवति, से एवमायाणह ?, नियंठा !, से एवमायाणियत्वं । ____ पाख्या-भगवानेव गौतमस्त्राम्याइ-गृहस्था यतीनामन्ति के [ममागत्प] धर्म श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तदत्तरकालं सञ्जातवैराग्याः प्रव्रज्या गृहीत्वा पुनस्तथाविवर्मोदयात्प्रवज्यां त्यजन्ति, ते च पूर्व गृहस्थाः सर्वाम्मप्रवृत्तास्तदारता प्रजिताः सन्तो जीवोपमई परित्यक्तदण्डाः पुनः प्रव्रज्यापरित्यागे सति नो परित्यक्तदण्डाः, तदेव प्रत्यारूयातॄणां यथाव
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थात्रयेऽप्यन्यथास्वं भवत्येवं सस्थावरयोरपि द्रष्टव्यम् । एतच 'भगवं च णं उदाहु' इत्यादिग्रन्थस्य से एकमायाणियव्यं' इत्येतत्पर्यवमानस्य तात्पर्यम् , अक्षरघटना तु सुगमेति स्वबुद्धया कार्या । तदेवं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रदाधुना तृतीयं दृष्टान्तं परतीथिकोदेशेन दर्शयितुमाह
भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियबा-आउसंतो नियंठा ! केइ खल्ल परिवायगा [वा] परिवाइयाओ वा अन्नयरेहितो तित्थाययणेहितो आगम्म धम्मसवाणवत्तियं उबसंकमज्जा ? हंता । उपसंकमज्जा। ___ व्याख्या-मगवान् गौतमस्वामी कथयति निर्धन्थाः पृष्टव्याः निम्रन्थानुद्दिश्य पृच्छति-भो आयुष्मन्तो निर्ग्रन्था ! १] इह जगति कश्चित् परिव्राजकः परिम्राजिका वा अन्यतीर्थायतनादागत्य साधुसमीपे धर्म श्रोतुमुपसलमते ? निर्ग्रन्था वदन्ति १ उपसमते, तादृशस्य परिव्राजकस्य कथ्यते धर्म: १ हन्त कथ्यते, तमुपस्थापयितुं कल्पते ? हन्त कल्पते ।
कि तेसिं तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियवे ? हंता आइक्खियो, तं चेव जाव उबट्टावित्तए, 1 [कप्पति ? हंता कप्पति] किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभंजित्तए ? हंता कप्पति, तेणं एयारूवेणं ||
| विहारेणं विहरमाणा तं चेव जाव अगारंवएज्जा ? हंता वएज्जा, ते णं तहप्पगारा कप्पति संभुंजित्तए? |
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
तए ? णो तिणमटे समढे, से जे से जीवे जे परेणं नो कप्पइ संभुंजित्तए, से जे से जीवे आरेणं | कप्पइ संभुंजित्तए, से जे से जीवे जे इदाणिं णो कम्पति संभुंजित्तए, परेणं अस्समणे आरेणं समणे, इदाणिं अस्समणे, अस्लमणेणं सा नो कप्पति समणाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तए, से पवमायाणह नियंठा! से एवमायाणियत्वं [सू० १०]
व्याख्या-ते परिवाजकाः साधुत्वं प्राप्ताः सन्तः उपविशन्ति ? हन्त उपविशन्ति, को दोपः १ पुनस्तथाविधकर्मो. दयारसाधुमार्ग त्यक्त्वा गृहवासमझीकुर्वन्ति ? हन्त कुर्वन्ति, ततः मण्डल्यामूपवेशयितुं कल्पते ? निर्यन्या ऊचुः
'नो तिणढे समढे' इत्यादि सर्व सुगमम् । तात्पर्यार्थस्वयं पूर्व परियाजकादया सन्तोऽसम्भोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याश्च साधूनां सम्मोग्याः संकृत्ताः, पुनः प्रव्रज्यात्यागादसम्भोग्या इत्येवं पर्यायान्यथात्वं प्रसस्थावराणामप्यायोजनीयमिति । यदा सः स्थावरेत्पमस्तदा स्थावर एव, न त्रसः, यदा पूर्व त्रसोऽभूत्तदा तस्य वधः प्रत्याख्यातोऽभव श्रावकेण, यदा स एव सः स्थावरतयोत्पमस्तदान प्रत्याख्यानं स्थावरघाते, यदा पुनः स्थावरकायानित्य सोऽजनि बदा पुनः प्रत्याख्यानमिति, तदेवं निर्दोषां देशविरतिं प्रसाध्य पुनरपि तद्गतमेव विचारं कर्तुकाम आह
भगवं चणं उदाहु संतेगतिया समणोवासगा भवति, तेसिं चणं एवं वृत्तपुवं भवइ नो खलु वयं
Pr
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
संचाएमो मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउदसटुमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पञ्चक्खाइस्सामो, एवं थूलगं मुसावायं थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिग्गह पञ्चश्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, माखनुभम अट्ठार किचिंवि करेह वा करावेह वा, तत्थ वि | पच्चक्खाइस्सामो, ते णं-अभोचा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहिता, ते तहा कालगता किं वत्तवं सिया ? सम्मं कालगतत्ति बत्तवं सिया, ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि वुच्चंति ते महाकाया ते चिरद्वितीया ते बहुतरगा पाणा जहिं समणोवासगस्स सुप्पच्चक्खायं भवति, ते अप्पतरगा पाणा जेहिं समणोबासगस्स अप्पच्चक्खायं भवति, इति से महपाओ जण्णं तुब्भे वदह तं चेव, जाय अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवति । __ व्याख्या-पुनरपि गौतमस्वाम्युदकं प्रतीदमाह, तथाहि-बहुभिः प्रकारखससद्भावः सम्माव्यते, ततश्वाशून्यस्तैः ।। संसारः, तदशून्यत्वे च [ननिर्विषयं श्रावकस्य प्रसवनिचिरूपं प्रत्याख्यानं, तदधुना बहुप्रकारत्रससम्भूत्याऽभून्यतां | | संसारस्य दर्शयति, भगवानाह-सन्ति एके केचन श्रमणोपासका भवन्ति, तेयां चेदमुक्तपूर्व भववि-सम्माम्यते श्रावकाणा
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेरम्भूतस्य बचमा सम्मव इति, तद्यथा-- खलु वयं अस्नुमः प्रवज्यां गृहीतुं, किन्तु वयं चतुर्दश्यष्टमीपूर्णमासीषु सम्पूर्ण ॥
लयन्तो विहरिष्यामस्तथा स्थलग्राणातिपातम्चावादादत्तमैथनपरिग्रह प्रत्यारुयास्यामो द्विविध'मिति कृतकारितप्रकारद्वयेन, अनुमतेः श्रावस्याप्रतिषिद्धत्वाचा 'त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन च तथा 'मा' इति रिपेये, खरु निशि औपष्टपथ पवनपाचनादिकं मम मा कार्टी, तथा परेण मा कारयत तत्राऽनुमतावपि सर्वथा । यदमम्मवि तत्प्रत्याख्यास्यामः, ते एवं कृतप्रतिज्ञाः सन्तः श्रावकाः अभुक्ता अपीत्वा अस्नात्वा च पौषधोपेतत्वादासन्दीपीठिकातः प्रत्याऽस्माऽवतीर्य सम्पक पौषधं गृहीत्वा कालं कृतवन्तस्ते तथा प्रकारेण कृतकालाः सन्तः सम्यकृतकाला || उच्यन्ते ? किंश असम्यक् ? कथं च वक्तव्यं स्यात् । इत्येवं पृष्टर्निग्रन्थैरवश्यभेत्रं वक्तव्यं स्यात्-सम्यकालगता इति एवं च || कालगतानामवश्यं भावी देवलोकेषुत्पादस्तदुत्पन्नाश्च ते असा एव, ततश्च कथं निर्विषयता प्रत्याख्यानस्योपासकस्येति ।। एवं च बहवो जीवाः येषां श्रावकस्य प्रत्याख्यानं स्यात् , ते स्तोका येषु विषये न प्रत्याख्यानं, एवं श्रावस्य महतनस. कायाद्विरतिरस्ति, त्रसरक्षणे महान् यत्नः श्रावकस्य विराधनायाश्च विरतिः। एवंविधस्य श्रावकस्य मवद्भिरुच्यते-नास्ति म कोऽपि पर्यायो यत्र श्रावकस्य प्राणातिपातप्रत्यारूयानं स्यात्, एतद्भवदचो न न्यायोपपत्रमिति । पुनरन्पया थावकोद्देशेन प्रत्याख्यानस्य विषयं प्रदर्शयितुमाह--
+" साहारशरीरसरकारनवर्याब्यापाररूपम्" इति वृत्तिकाराः।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
___ भगवं च णं उदाहु संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुत्वं भवइ नो | | खल्लु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पवइत्तए, नो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्रमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु जात्र अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाझुसणाझुसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया जाव कालं अणवखमाणा विहरिस्लामो, सवं पाणाइ. वायं पञ्चक्खाइस्सामो जाव सवं परिग्गरं पञ्चक्खाइस्तामोतिविहं तिविहेणं मा खलु मम अटाए । किंचि वि जाव आसंदीए पेढियाओ पच्चोरुहिता ते तहा कालगता किं वत्तवं सिया ? सम्म कालगता इति वत्तवं सिया, ते पाणा वि वुच्चंति जाव अयंपि भेदे से णो नेयाउए भवइ ।
व्याख्या-गौतमस्वाम्याह, तद्यथा 'सन्ति' विद्यन्ते 'एके' केचन श्रमणोपासका, तेषां चैतदुक्तपूर्व भवति, तथाहिखलु न सक्नुमो वयं प्रत्रज्यां गृहीतुं नापि चतुर्दश्यादिषु सम्यक् पौषधं पालयितुं, वयं चापश्चिमया संलेखनाक्षपणया | क्षपितकायाः सन्तो भक्तपानं प्रत्यारन्याय 'कालं' दीर्घकालमनवकालमाणा विहरिभ्यामः । इदमुक्तपूर्व भवति, तद्यथा
न खलु वयं दीर्घकालं पोपधादिकं व्रतं पालयितुं समर्थाः, किन्तु वयं सर्वमपि प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याय संलेखनासंलि. N खितकायाश्चतुर्विधाहारपरित्यागेन जीवितं परित्यक्तुमलमिति, एतत्वत्रेणैव दर्शयति-"सव्वं पाणाइवाय 'मित्यादि।
M
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुगमम् । यावते तथाकालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्यात्-सभ्यर ते कालगताः ? इति, एवं पृष्टा निर्गन्था एतदचुर्यथा ते । सन्मनस:-शोमनमनसस्ते कालगता इति. ते च सम्यक संलेखनया यदा कालं कुर्वन्ति तदावश्यमन्यतमेषु देवलोकधुत्पद्यन्ते, तत्र चोत्पन्ना यद्यपि च्यापादयितुं न शक्यन्ते तथापि त्रसवात्ते श्रावकस्य[स] पनिवृत्तस्य विषयत्ता प्रतिपद्यन्ते ।। पुनरप्यन्यथा प्रत्यारण्यानस्य विषयमुपदर्शयितुमाह___भगवं च णं उदाहु संतेगतिया मणुस्सा भवति तं जहा-महेच्छा महारंभा महापरिग्गहा
अहम्मिया जाव दुप्पडियाणदा जाव सबाओ परिग्गहाओ अपडिविरता, जावजीवाए, जेहिं समणो| वासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते, ते ततो आउगं विप्पजहंति, ते तओ भुजो- ||
सगमादाए दोग्गतिगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति ते तसा वि वुच्चति । ते महाकाया [ते] || | चिरद्वितीया, ते बहुतरगा पाणा, जाव जणं तुम्भे वदह तं चेव, अयंपि भेदे से णो नेयाउए भवति।
व्याख्या-मगवानाह-' एके' केचन मनुष्या एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा-महेच्छा महारम्मा महापरिग्रहा इत्यादि | सुगम, यर्येषु वा श्रमणोपासकस्य 'आदानं ' प्रथमवतग्रहणं, तत आरभ्याऽऽमरणान्तं दण्डो - निक्षिप्तः' परित्यक्तो । 9 भवति, ते च ताग्विधास्तस्माद्भवाकालात्यये स्वायुषं त्यजन्ति, त्यक्त्वा प्रमजीवितं ते भूयः ' स्वकर्म 'स्वकृतं किरिखप-
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
मादाय गृहीत्वा दुर्गतिगामिनो मवन्ति । एतदुकं भवति महारथमपरिग्रहत्वा मृताः पुनरन्यतरपृथिव्यां नारकत्र सत्वेनोस्पद्यन्ते ते च सामान्यसंज्ञया प्राणिनो विशेपज्ञया श्रमाः महाकायाश्चिरस्थितिका इत्यादि पूर्ववत्, यात्रत् 'नो आ. उपत्ति' । पुनरप्यन्येन प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह
भगवं च णं उदाहु संगतिया मणुस्सा भवति [तं जहा ] अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माया जाव सवाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावजीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयासो आमरणंताए दंडे निखिचे, ते तओ आउयं विप्पजइति, ते तओ भुज्जोसगमादाए सोग्गतिगामिणो भवति, ते पाणा वि वुच्छंति जाव णो णेयाउए भवति ।
व्याख्या--~भगवानाह सन्त्येके मनुष्याः महारम्भपरिग्रहादिभ्यो विपर्यस्ताः सुशीलाः सुत्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधव इत्यादि सुगमं यावत् 'नो पोयाउए भवति ' एते च सामान्ययात्रकास्तेऽपि सेवेवान्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते अतोऽपि न निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति । किञ्चान्यत् --
भगवं च णं उदाहु संगतिया मणुस्सा भवति, तंजा - अपिच्छा अप्पारंभा अपपरिग्गहा धम्मिया धमाणुया जात्र एगच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया, जेहिं समणोवासगस्स आया
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
Tणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते । ते तओ आउ[ग] विप्पजहंति, आउयं विप्पजाहित्ता भुज्जोसग
मादाए सुग्गइगामिणो भवति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव नो णेयाउए भवति । ___ व्याख्या-एतेऽपि अल्पलोमा अल्पपरिग्रहा असारम्मा धाम्मिकाः प्राणातिपातादेकस्मिन् पसे विरता एकतो अविरता अतो विरताविरता उभ्यन्ते, श्रमणोपासकस्य येषामामरणान्ताहण्डो निपिद्धोऽस्ति, ते विस्ताविस्ताः स्वमायुस्त्यक्वा सद्गसिगामिनो शायदे-देवेत यन्ते । वे संस्थाः प्रागसिया मा महाकायाचिरस्थितिकाचोच्यन्ते ते तानपि । न ध्वन्ति । अतो यद्भवतोच्यते नास्ति स कोऽपि पर्यायो यत्र भावस्य प्राणातिपातविरतिः स्यातन्मृषा । 'अयं भेदेर से नो णेयाउए'इत्यादि सर्वत्र योज्यम् ।
भगवं च णं उदाहु संतेगतिया मणुस्सा भवंति, आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्ल आयाणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते, ते नो बहुसंजया नो बहुपतिविरता पाणभूयजीवसत्तेहि अविरया, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवेदेति- अहं न हंतव्बो अन्ने हंतव्वा, जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराइं आसुरियाई किविसियाइं जात्र उत्रवत्तारो हवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुजो एलमूयचाए तमोरूवत्ताए पच्चा
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
यंति, ते पाणा वि वुचंति जाव नो याउए भवति । ___ व्यारूया-गौतमस्वाम्मेव प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह--' एके 'केचन मनुष्याः एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा- | आरण्यकास्तीर्थिक विशेपास्तथा आवमधिकास्तीर्थिकविशेषा एव तथा ग्रामनिमन्त्रि कास्तथा 'कर्लई रहस्सिय' त्ति क्वचित्कार्ये रहस्यकाः एते सर्वेऽपि तीथि कविशेषास्ते च नो बहुसंपताः हस्तपादादिक्रियासु, तथा जानावरणीयास्तत्वान बहुविस्ताः सर्वप्राणभूतजीयसत्वेभ्यस्तत्स्वरूपापारजानात्तद्वधादावरता इत्यर्थः। ते तीर्थे कविशेषा बहुसंयताः स्वतोऽविरताः आत्मना सत्यामृषाणि वाक्यान्येवमिति वक्ष्यमाणनीत्या 'वियुद्धन्ति' प्रयुञ्जन्ति ' एवं विप्पडिवेदेति' + एवं विविध प्रकारेण परेषां प्रतिवेदयन्ति-ज्ञापयन्ति, तानि पुनरेवम्भूनानि वाक्यानि दर्शयति, तद्यथा-अहं न हन्तव्योऽन्ये पुनर्हन्तव्यास्तथाऽई नाज्ञापषितव्योऽन्ये पुनरात्रापयितम्या इत्यादीन्युपदेशवाक्यानि ददति, ते चेत्रमेवोपदेशदायिनः स्त्रीकामेषु मूर्च्छिताः गृद्धा यात्रद्वर्षाणि चतुःपञ्चमानि षड्दशमानि चाऽतोऽप्यल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं युक्त्वा उत्कट[1 भोगा]. मोगभोगा[स्ताँस्ते तथाभूताः किश्चिानतपःकारिणः कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु आसुरीयेषु स्थानेषु किस्विषिकेषसुरदेवाधमेषूपपत्तारो भवन्ति, यदिशा प्राण्युपधातोपदेशदायिनो भोगामिलाषुकाः 'असूयर्थेषु' नित्यान्धकारेपु किल्बिषप्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यन्ते, ते चदेवा नारका वा प्रसत्वं न व्यभिचरन्ति, तेषु च यद्यपि दून्यप्राणातिपातो न ।
+ " कचिस्पाठोऽस्यायमर्थः" इतिवृत्ती।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्मवति तथापि ते भावतो यः प्राणातिपातस्तद्विरतेर्विषयता प्रतिपद्यन्ते, ततोऽपि च देवलोकास्पुता नरकाद्वा निर्गताः * क्लिष्टपश्चेन्द्रियतिर्यक्षु तथाविधमनुष्येषु वा एडमुकतया समुत्पधन्ते, तथा 'तमोरूवत्ताए'त्ति अन्धवधिरतया प्रत्या
यान्ति, ते चोम्योरप्यवस्थयोवसत्वं न व्यभिचरन्ति, अतो न निर्विषयं प्रत्याख्यानं एतेषु च द्रव्यतोऽपि प्राणातिपातः | Hi सम्भवतीति । साम्प्रतं प्रत्यक्षसिद्धमेव विरतषियं दर्शयितुमाह
भगवं च णं उदाह संतेगतिया पाणा दीहाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो [आमरणंताए ] जाब दिंडे] निक्खित्ते [भवइ ] ते पुवामेव कालं करिति, करिता पारलोइयताए पञ्चायंति, ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि [बुच्चंति ] ते महाकाया ते चिरद्वितिया ते दीहाउया ते बहुतरगा जेहिं समणोवासगस्स [ सुपच्चखायं भवइ ] जाव णो णेयाउए भवति । ____ व्याख्या-यो हि प्रत्याख्यानं गृह्णाति सम्माद्दीर्घायुष्काः 'प्राणाः' प्राणिनस्ते च नारकमनुष्पदेवा द्वित्रिचतु. पञ्चेन्द्रियतिर्यवश्व सम्पयन्ति, ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति ? शेष सुगमं यावत् ' णो णेयाउए भवइ 'ति ।
भगवं च णं उदाहु संतेगतिया पाणा भवंति समाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो [आमरणंताए] जाव दंडे निक्खित्ते भवइ, ते (पाणा) सममेव कालं करित करित्ता पारलोइयत्ताए
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चायति, ते पाणा वि [दुच्चंति] ते तसा [वि दुच्यंति] ते महाकाया ते समाउया [ते बहुतरगा, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ] जाव नो णेआउए भवति ।
व्याख्या—यः श्रावकख्रसवधप्रत्याख्यानं गृहनस्ति ते न समायुक्का एके प्राणिनः सन्ति ते सममेत्र कालं कुर्वन्ति सममेव परलोकगतयो भवन्ति, ते समायुष्का अपि त्रसा एव तेषां श्रावकस्य प्रत्यारूपानं सुप्रत्याख्यानं भवति, यदुच्यते त्वया - नास्ति स कोऽपि पर्यायो यत्र श्रावकस्य प्रत्याख्यातं स्यादपि मुचेति अपि भेदे से नो आउए ।
भगवं चणं उदाहु संगतिया पाणा अप्पाडगा, जेहिं समणावासगस्स आयाणतो आमरणंता दंडे [निक्खिते भवइ ], ते पुव्वाक्षेत्र कालं करिति, करिता पारलोइयत्ताए पञ्चायति, ते पाणा ते तसा ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुतरगा पाणा, जेहिं समणोवासगस्त सुपञ्चखायं हवइ ते अप्परगा जेहिं समणोवासगस्स दुपच्चक्रवायं हवइ इति से महया जात्र नो वाउए भवइ ।
व्याख्या -- एके प्राणिनः अल्पायुषः सन्ति तेऽपि त्रसा उच्यन्ते, कृतप्रस्थारूपानाच्छुमणोपासकात्पूर्वं त्रियन्ते तद्विषयं प्रत्याख्यानं स्यात्, एतावता बहुतरप्राणविषयं प्रत्याख्यानं अल्पतरप्राणिविषये अप्रत्याख्यानं, अथवा यस्मात् श्राक्कादल्पायुषः प्राणिनः सन्ति ते यावन्न त्रियन्ते तावत्रमुविषयं प्रत्याख्यानं स्यात्, ते तु मृत्वा पुनखसेष्वेवोत्पद्यन्ते तदाऽब्रवोऽपि
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्याख्यानं स्यात्, अतः श्रावकस्य निर्विषयं प्रत्याख्यानं कथं कथ्यते । विमेदेति
।
भगवं च णं उदाहु संतेगतिया समणोवालगा भवति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुत्रं भवइ-नो खलु वयं संचाएमो मुंडे भवित्ता जाव पवइत्तए, नो खलु वयं संवाएमो चाउदसमुद्दिपुण्णमासिणी पडणं पोसहं अणुपालित्तए, नो खलु वयं संचाएमो अपच्छिम जाव विहरितए, वयं णं सामाइयं देसावगासियं पुरस्थापाईणं वा पढीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावता जाव सव्वपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे निखित्ते, सव्वपाणभूयजीवसत्चेहिं खेमंकरे अहमंसि ।
व्याख्या - भगवानाह इत्यादि सुगमम् । यावत् 'वयं णं सामाइयं देसावगासिय' ति देशात्र का शिकं पूर्वगृहीतस्प दिव्रतस्य योजनशतादिकस्य त[य]प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजनगन्यूनपचन गृहमर्यादादिकं परिमाणं विधत्ते तदेशात्र काशिकमिस्युच्यते, तदेव दर्शयति 'पुरस्थापाईण' मित्यादि, प्रातरेव प्रत्याख्यानात्रसरे दिनावितमेवम्भूतं प्रत्याख्यानं करोति, तथाहि - ' प्राचीनं ' पूर्वाभिमुखं प्राच्यां दिश्येतावन्मयाऽद्य गन्तव्यं, तथा ' प्रतीचीनं ' प्रतीच्यां परस्यां दिशि तथा दक्षिणाभिमुखं दक्षिणस्यां तथोदीच्यामुत्तरस्यां वा दिश्येतावन्मयाऽद्य गन्तव्यमित्येवम्भूतं स प्रतिदिवं प्रत्याख्यानं वि तेन च गृहीतदेशावकाशिकेन श्रवण सर्वप्राणिभ्यो गृहीतपरिमाणात्परेण दण्डो 'विचिप्तः ' परित्यको पति, तवासौश्रावका सर्वप्राणभूतजीवसच्चेषु क्षेमङ्करोऽहमस्मीत्येत्र मध्यवसायी भवति ।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्य आरेणंजे तसा पापण जेहि समगोवा आयोगालो आमरणताए दंडे निखित्वे, तेततो | आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स, आयाणसो (दंडे निखित्ते) जाव तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति । ते पाणा वि बुच्चति ते तसा० महाकाया ते चिराद्वितीया जाव अयंपि भेदे से नो णेयाउए ॥१॥ [सू० ११]
___ व्याख्या-'तत्र' गृहीतपरिमाणे देशे ये आरेण त्रसाः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्य आदान इत्यादेशरम्याऽऽमरणान्तो II दण्डो 'निक्षिप्तः 'परित्यक्तो भवति, ते च त्रसाः प्राणा: स्वायुष्कं परित्यज्य
भ्यन्तर एवं प्रसाः प्राणास्तेषु प्रत्यायान्ति, इदमुक्तं भवति-गृहीतपरिमाणे देशे वसायुष्कं परित्यज्य सेवेवोत्पयन्ते, ततश्च तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, उभयथापि त्रसत्वसद्मावाद, शेपं सुगम, यावत् 'नो णेआऊए भवतिति एवमन्यान्यप्यष्टौ सूत्राणि दृष्टव्यानि, नत्र प्रथमे सूत्रे तदेव यद् व्याख्यातं, तक्षेत्रम्भूतं, तद्यथा-गृहीतपरिमाणे देशे ये वसास्ते गृहीतपरिमाणदेशा[देशस्था]स्तेष्वेव त्रसेपूत्पद्यन्ते । अथाग्रेतनानि तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासमस्स आपाणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते, ते ततो आउं विप्पजइति ते ततो आउं वि० चा तत्थ आरेण चेव जे थारा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणद्वाए दंडे निखित्ते तेस पचायति, तेहि समणोवासगस्स अद्वार दंडे अणिरिखते। अणडाए दंडे लिखित्ते, ते पाणा वि वुचंति ते तसा वि० ते चिरद्विइया. जाव अयंपि मेरे से० ॥ २॥ अयं द्वितीयो मनकः।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्य जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए जाव आउं । विष्पजहंति [विप्पजहिता] तत्थ परेणं जे तसा-थावरा पागा जाह समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते, तेसु पञ्चायति, तेहिं समणोवासगस्ल सुपच्चक्खायं भवइ । ते पाणा वि जाव, अयं पि भेदे से णो नेयाउए ॥ ३॥ तत्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो अटाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए निक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहति ।।
विप्पजहिता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए. । तेसु पञ्चायति, जेहिं [तेसु] समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवति, ते पाणा वि वुचंति जाव | अपि भेदे नो णेयाउए ॥ ४॥ तत्थ जे ते आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए | दंडे अणिक्खित्ते अणट्राए णिक्खित्ते ते तओ आउं विप्पजहति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चे
जे थावरा पाणा, जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे निखित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवाIN सगस्स xसुपच्चक्खायं भवति ते पाणा वि० जाव अयंपि भेदे से नो० ॥ ५॥ तत्थ णं जे ते
४ एचिन्हान्तर्गत पाठस्थाने " अट्टाए अणद्वाए" इत्येवं रूपः प्रत्यन्तरे। ....
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
परेण थावरा पाणा, जेहिं समणेोवासगस्स अट्ठाए दंडे आणिक्खिते, अणट्टाए णिक्खित्ते, ते तओ आउं विष्पजति विष्पजादित्ता ते तत्थ आरेणं चैत्र जे तस्थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताएं० तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चत्रस्वायं हवइ, ते पाणा वि० जात्र अपि भेदे से णो णेयाउए भवति ॥ ६ ॥ तत्थ जे ते परेणं तस्थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए अट्ठाए अणट्टाए दंडे निक्खित्ते हवइ, ते तओ आउं विष्पजइंति विष्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समगोत्रासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निखित्ते ते पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं हवइ, ते पाणा वि० जात्र अपि भेदे से णो णयाउए भवति ।। ७ ।। तत्थ जे ते परेणं तस्थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए अट्ठाए अणट्टाए दंडे निक्खिते, ते ततो आउं विष्वजति विष्पजहित्ता तत्थ आरेण जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिखिने अणढाए दंडे निखिते तेसु पचायति तेहिं समणोवासगस्ल सुपञ्चकखायं भवइ, ते पाणावि० जाव अयंपि
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
RI
TAM भेदे से णो णेयाउए भवति । ॥८॥तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्त | आयाणलो आमरणंताए अट्टाए अणढाए दंडे निक्खत्ते, ते ततो आउं विप्पजहंति विप्पजहिता ।।
ते तत्थ परेणं चेव जे तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए दंडे। निक्खित्वे तेसु पच्चायति जे(ते)हिं समणोवासगस्त सुपच्चक्खायं भवई, ते पाणा वि. जात्र अयंपि भेदे से नो गेयाउए भवति ॥ ९॥ ___व्याख्या--गृहीतपरिमाणे देशे ये त्रसास्ने [गृहीतपरिमाणदेशस्थाशा सेवेत प्रोप्रायन्ते इति प्रथमो भा॥१॥ द्वितीय सूत्रं त्वारादेशर्मिनलमा आरादेशवाचिषु स्थावरेत्पयन्ते (हति) द्वितीयः ॥२॥ तृतीये त्वाराद्देशनिखमा गृहीतपरिमाणादेशादहिये त्रमा स्थावराश तेपूत्पद्यन्ते अयं तृतीयः ॥ ३ ॥ चतुर्थे वाराद्देशवर्तिनो ये स्थावरास्ते तद्देशवर्तिम्वेव सत्पद्यन्ते अयं (चतुर्थः) तुर्यः॥४॥ पनमस्तु आरादेशतिनो ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणस्थेषु तदेववर्तिषु स्थावेरपुत्पद्यन्ते अयं पश्चमः ।। ५ ।। षष्ठसूत्रं तु परदेशवलिनी ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणस्धेषु बसस्थावरेत्पद्यन्ते अपं पष्टः॥ ६ ॥ सप्तमसूत्रं विद- परदेशवत्तिनो ये प्रसाः स्थावरास्ते पारादेवसिंधु त्रसेप्पयन्ते अयं सप्तमः ॥ ७॥ अष्टम| सूत्रं तु परदेशतिनो ये असा स्थावस्ते आराद्देशतिषु स्थावरेत्पद्यन्ते अष्टमः ॥ ८॥ नवमसूत्रे परदेशवर्तिनो ये साः स्थान रास्ते परदेशवर्तिष्वेव बसस्थावरेत्पद्यन्ते नवमोऽयम् ।। ९ ।। (एवमनया प्रक्रियया वापि वाणि भवनीयानि)
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्र यत्र [यत्र] मास्तत्रादानशः आदेशरम्य श्रमणोपासकेनामरणान्तो दण्डस्त्यक्त हत्येवं योजनीयं, यत्र तु स्थावरास्तत्रार्थाय दण्डो न निक्षिप्तो-न परित्यक्तः, अनर्थाय च दण्डः परित्यक्त इति । शेपाक्षरघटना तु स्वबुद्ध्या विधेयेति ।
भगवं च णं उदाहुणा एगभग हर अहंा पगं भविस्संति जपणं तसा पाणा वोच्छिजिहिति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा [वि] वोच्छिजिहिति तसा पाणा भविस्संति, अबोछिन्नेहिं तस-थावरेहिं पाणहि जणं तुम्भे वा अन्नो वा एवं वदह-णस्थि णं से केइ परियाए जाव नो णेआउए भवति । [ सू० १२ ] ___व्याख्या--भगवान् गौतमस्याम्पुदकं प्रत्येतदाह तद्यथा-मो उदक ! नतद्भूतमनादिक काले प्रागतिक्रान्ते नाप्यमामिनि " D काले चैतद्भविष्यति नाप्येतद्वर्तमाने काले भवति पत्रमाः सर्वथा निलेपतया स्वजात्युच्छेदे नो छेत्स्यन्ति-विच्छेदं यास्यन्ति,
सर्वे स्थावरा एव भविष्यन्ति, स्थावराश्च प्राणिनः कालत्रयेऽपि न भविष्यन्ति-विच्छेदं यास्यन्ति, सर्वेऽपि सा भविष्यन्ति । यद्यपि तेषां परस्परसङ्कमेण गमनमस्ति तथापि न सर्वप्रकारेण निर्लेपत या प्रसाः सर्वे स्थावरा भवन्ति स्थावराश्च सर्वेऽपि निर्लपतया असा जायन्ते, नैतद्भवति कदाचिदपि, यदत-प्रत्याख्पानिनमेकं विहाय परेषां नारकाणां दीन्द्रियादीनां तिरथी मनुष्यदेवानां च सर्वथाऽप्यभावः, एवं च त्रसविषयं प्रत्याख्यानं निर्विषयं भवति यदि तस्य प्रत्याख्यानिनो जीवत एव सर्व नारकादयनसाः समुच्छिद्यन्ते, नायं भाषः सम्भवति, स्थावरास्वनन्ता न बसेषु सम्मान्ति प्रसास्वसंख्यातास्ते
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वनन्ताः अनन्ताः कथमस कुख्यातेषु सम्मान्ति ? सुप्रतीतमिदं तदेवमव्यवच्छिन्नैखसैः स्थावरैव प्राणिभिर्यद्वदत यूगमन्यो दिति यन्त्रासौ कश्चित्पर्यायो यच्छ्राजकस्यैकत्रसविषयोऽपि दण्डः परित्यक्तो भवति, तदेतत्सर्वमप्ययुक्तमिव प्रतिभासते । साम्प्रतं उपसंजिघृक्षुराद -
भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासे इमित्ति मन्नंति + आगमित्ता नाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पात्राणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोय -- पलिमंथनाए चिट्ठति, जे खलु समणं वा माहणं वा नो परिभासइ मिि मनमाणे x आगमेत्ता नाणं आगमेत्ता दंसणं आगमेत्ता चारितं पात्राणं कम्माणं अकरणत्ताए से खलु परलोय विसुद्धीए चिट्ठति ।
व्याख्या -- श्री गौतमस्वाम्युदकं प्रत्युवाच । आयुष्मन्नुदक । खलु श्रमणं वा माहनं वा सह्रह्मचर्योपेतं ' परिभाषते ' निन्दति मैत्रीं मन्यमानोऽपि तथा सम्यग्ज्ञानमागम्य तथा दर्शनं चारित्रं च पापानां कर्मणामकरणाय समुत्थितः [म]खलु लघुप्रकृतिः पण्डितंमन्यः परलोकस्य सुगतिलचणस्य स [त]त्कारणस्य वा सत्संयमस्य वा 'पलिमन्याय' विधाताय तिष्ठति, यस्तु पुनर्महासच्च रत्नाकर गम्भीरो न श्रमणादीन् परिभाषते तेषु च परमां मैत्रीं मन्यते सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यनुगम्यते
+ " मनमाणे " इत्यर्थसङ्गत्या युक्तमाभाति | X" मन्नंति " इति बहुध्यादर्शेषु ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
| तथा पापानां कर्मणां अकरणाय समुस्थितः स खलु परलोकविशुस अतिष्ठते, म परलोकसाधनाय तिष्ठतीति भावः । एतावता ||
यो बहुश्रुतान् गीतार्थान् पूर्वाचार्याभिन्दति स परलोकस्य संयमस्य विराधका यस्तु तादृशान्महागीतार्थान् पूर्वाधार्यावर निन्दति स परलोकस्य संयमस्य चाराधक इति तचम् । मो उदक! इति ज्ञात्वा तयाऽपि संयमसाधनाय यत्नो विधेयः।।।
भगवं च णं उदाहु-तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोतम अगाढायमाणे जामेव दिसं पाउम्भूते तामेव दिसं संपहारस्थ गमणाए ।
व्याख्या-तदेवं यथावस्थितमर्थ गौतमस्वामिनाऽवगमितोऽप्युदकः पेदालपुत्रो यदा मगन्तं-मौतममनाद्रियमाणो । यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं गमनाय सम्प्रधारितवान् । तं च गम्छन्नं दृष्ट्वा भगवान् गौतमस्वाम्याह--
आउस्संतो उदगा! जे खलु तहाभूतस्स] रूवस्त समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एग. मवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म अप्पणो चेव सुहमाते पडिलेहाय अणुत्तरं जोग- | खेमपयं लंभिए समाणे सोवि ताव तं आढाति परिजाणति वंदति नमसति सकारेति सम्माति (जाव) कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं पज्जुवासति ।
व्याख्या-आयुष्मन्नुदक! यः खलु तथाभूतस्य श्रमणस्य ब्राह्मणस्य वाऽन्तिके-समीपे एकपपि योगक्षेमाय आर्य
mantra
IAL
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
धार्मिक तथा शोभनवचनं श्रुत्वा निशम्याऽऽत्मन एव तदनुत्तरं योगक्षेमपदमित्येवमगम्य 'सूक्ष्मया'-कुशाग्री यया बुदद्या 'प्रत्युपेक्ष्य'-पर्यालोच्य तद्यथा-अहमनेनैवम्भूतमर्थपदं 'लम्भितः' प्रापितः सनपावपि ताबल्लौकिकस्तमुपदेशदातार• | माद्रियते पूज्योऽयमित्येत्वं जानाति तथा कल्याणं मलं देवतामित्र स्तौति पर्युपास्ते च यद्यप्यसौ पूजनीयः किमपि नेच्छति तथापि तेन [तस्य] परमार्थोपकारिणो यथाशक्ति विधेयमिति । तदेव गौतमस्वामिनाऽभिहित उदक इदमाइ
तए णं से उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयमं एवं क्यासी-एतेसि णं भंते ! पदाणं पुर्वि अन्नाणयाए असवणयाए अहिए अभिगमेणं अदिवाणं अस्सुयाणं अमुणयाणं अविनायाणं अनि- TA
गृढाणं अबोगडाणं अवोच्छिन्नाणं अणिसिट्ठाणं अणिवूढाणं अणुवहारियाणं एयमटुं नो सद्दहियं | नो पत्तियं नो रोइयं एतेसिणं भंते ! पदाणं इहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए
एयमद्रं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव जयं तुब्भे वदह । तएणं भगवं गोतमे उदयं । | पेढालपुत्तं एवं वयासि-सदहाहि णं अज्जे ! पत्तियाहिणं अज्जे ! रोएहि णं अज्बे ! एवमेयं जहा णं । अम्हे वदामो । तए णं से उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयमं एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भ || अंतिए चाऊज्जामाओ धम्माओ पंचमहबइयं सपडिकमणं घम्मं उपसंपजित्ताणं विहरितए। तए णं
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता तते णं से उदय पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आग्राहिणं पयाहिणं करेइ करेत्ता वंदइ नमसs, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! तु[ब्भं] भा[तुम्हा ]णं अंतिए चाउजमाओ धम्माओ पंचमहवइयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपजित्ता णं विहरितए । [ तरणं समणे भगवं महावीरे उदयं (पेढालपुत्तं) एवं व्यासी--] अहासुहं देवाणुनिया मा पार्डबंध करेहि । तते णं से उदए पेढालपुत्रे समस्त भगनओ महावीरस्स अंतिए चाउनामाओ धम्माओ पंचमहवइयं पडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरति त्ति बेमि । नालिन्दिज्जऽज्झयणं समत्तम्। व्याख्या — इद्द व्याख्यानं सर्वं सुगमं विशेषवस्तु वृत्तितोऽवसेगमिति ।
-
समाप्ता चेयं द्वितीयाङ्गस्य दीपिका |
जयति जिनशासनमिर्द, परतीर्थिकतिमिरजालवत्तरणिम् । भचजलधियानपात्रं, पात्रं सज्झानरत्नानाम् ॥ १ ॥ यस्य जिनेन्दोः शासन-पानीयपथावरत्नमारुह्य । कुशलेन के न चापु-मंत्र जलमुलुंड शिवनगरम् स जयति चीर जिनेन्द्र - त्रिभुवनचूडामणिः कृतोद्योतः । कुमुदोल्लासं कुर्वन् मदनखपूर्यांशुभिर्विततैः
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
॥ ७ ॥
वर्द्धमानजिनो जीवा - जगदानन्ददायकः । द्वादशाङ्गी विधातारी, जयन्तु व गणाधिपाः जयन्तु गुरवः पूज्या ये सदा मयि वत्सलाः । परोपकारप्रवणाः, जयन्तु स्वजना अपि श्री जिनदेवसूरीणा-मादेशेन चिरायुषाम् । उपजीव्य बृहद्वृत्ति, कृत्वा नामान्तरं पुनः श्री साघुरो ध्यायें - द्वितीयाङ्गस्य दीपिका संक्षेपरुचिजोवानां हिताय सुखबोधिनी लिलिखे लूग्रामे, निधि नन्दश रैक के (१५९९) वत्सरे कार्त्तिके मासि चतुर्मासिकपर्वणि [त्रिभिः सम्बन्धः ] ।। ८ ।। ज्ञानदर्शनचारित्र - रत्नत्रितयदीपिका । मिध्यात्वस्यान्तविध्वंसदीपिकेयं समर्थिता मनो मत्सरमुत्सृज्याऽऽहत्य सौ जन्यमुतमम् । व्यापार्या वाचनीया च विधायानुग्रहं मयि लिखता लिखितं किञ्चिद्यदि-न्यूनाधिकं भवेत् । विषाय सम्यक् तत्सर्वं वाचनीयं विवेकिभिः स्तोकाः कर्पूरवरवः, स्तोकाय मणिभूमयः । परोपकारप्रवणाः स्तोकाः प्रायेण सज्जनाः
॥ ९ ॥
न मे कोऽप्यभिमानोऽस्ति न मे पण्डितमानिता । न कला न च चातुर्य, मन्दमे वाऽस्मि सर्वथा दीपिकायाः स्वभावेन, प्रशस्तिर्निर्मिता मया । क्षूणं तदत्र नो चिन्त्यं नावमान्यो स्वयं जनः न चात्मीया मतिः कापि प्रयुक्तास्त्यत्र केवलम् । संक्षेप्य वृत्तेरेत्राऽयं सूत्रार्थी लिखितोऽस्त्यहो अन्यथाऽहं जडप्रायो, वृद्धिं कर्तुं कुतः श्रमः । किंनाम पतुरारोढुं शक्तः स्यान्मेरुमूर्द्धनि म्याख्यानं वृत्तिमध्यस्थं, निर्युक्तेरपसार्य च । मूलसूत्रेण संयुक्ता, पुस्तके च निवेशिता
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६ ॥
॥
१० ॥
॥ ११ ॥
॥ १२ ॥
॥
१३ ॥
॥ १४ ॥
॥
१५ ॥
१६ ।।
१७ ॥
।।
॥
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
TE
-
मया सदाचारसामगेन, बिना पा सरसनेम। . यदर्जि पुण्यं सुकृतानुगन्धि, सेनास्तु लोको बिमधर्मरक्तः
॥१८॥ धमोपदेशदानेन, दीपिकालेखनेन च । सुखी भवतु लोकोऽयं, तेन पुण्येन भूयमा यदर्जितं मया पुण्यं, विमलाचलयात्रया । उजायन्ते च श्रीनेमेः, पदपङ्कजसेवया
॥२०॥ तेन पुण्येन मे भूया-बोधिलामो भवे भये । यतः सम्यक्त्वसम्प्राप्नि-बिना पुण्येने लम्यते ।
॥२१॥ श्रीमत्खरतरगच्छे, श्रीमञ्जिनदेवरिसाम्राज्ये । श्री सुबनसोममद्गुरु-शिष्यैः श्रीमाधुराख्या ॥ २२॥ लन्धोपाध्यायपदैः, कुशलेनारोपिसा प्रमाणपदम् । आचन्द्राऽर्क नन्दत, गीतार्थाच्यमानेयम् २३॥ (युग्मम्), पिनीतविनयेनेयं, धर्मसुन्दरसाधुना । लिखिता प्रथमादशे, वाचनाय स्वपुस्तके
॥२४॥ इति प्रशस्तिः । श्रेयोऽस्तु सपरिवारस्य । यादशं पुस्तकं दृष्ट, तादृशं लिखितं मया। यदि शुमशुद्ध वा, मा दोषो न दीयते ॥ १॥
-
-
--
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________ - इतिश्री परमसुविहित-खरतरगच्छविभूषण-पाठकवर-श्रीमत्साधुरङ्गगणिकर-गुम्फितायां श्री स्त्रकता दीपिकायां समाप्तमिदं नालिन्दीयाख्यं सप्तममध्ययनं तत्समाप्तौ च समाप्तमिदं सूत्रकतारूयं द्वितीयमङ्गायत्रं दीपिकान्वितम् // // श्रीकल्याणं भूयात् //