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निवेदन |
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भगवान् श्री महावीर स्वामिजी के मुख से " उपने वा " " विगमेइ वा २ " " धुवेद वा ३ करके गणधरों ने द्वादशाङ्गी की रचना करते समय प्रथम पवत्तणे पढाए संसार अंगाई एक्काइस अणुपुत्र
इस प्रकार त्रिपदी सुण आधाराङ्ग सूत्र की रचना की कारण की "सध्धेसि आयारो दित्यस्स ( खाचा० नि० सा. ८ ) तीर्थकर भगवान् अपने अपने तीर्थं प्रवर्तन के समय आदि में आचार को हि प्रधानता देते है। आत्मकल्याणार्थ जीवों के लिए तो " " चरण करण ही मोक्षप्राप्ति का प्रधान साधन है ।
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प्रस्तुत सूत्रकृताङ्ग दुसरे नम्बर का सूत्र है, सूत्रकृताङ्ग का आचाराङ्ग सूत्र के साथ सम्बंध बतलाते हुवे नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामि कहते है " जीवो छकाय परूवणाय तेसिं बहेण बंधोति " ( ० नि० गा, ३५ )
चपरोक्त पाठसे स्पष्ट है की आचाराङ्ग सूत्र में बताए हुए पृथ्वीकाय आदि षट् जीव निकाय प्राणियों के वधसे याने हिंसी से उत्पन्न होने वाले कर्मों का " बंध" उसको समझों और समझने के बाद ज्ञानपूर्वक किया द्वारा त्याग करो " बुझिजति तिउद्विजा बंघणं परिजाणिया " इत्यादि उपरोक्त सूत्रकवाङ्ग के आदिम सूत्र में ( सू. १ ) श्री गणधर सुधर्मास्वामि बतलाते है कि कर्म
१ भगवान महावीर ने अपनी दीर्घकालिक साधना के बाद जो अनुभव रत्न प्राप्त किया उसके एक अंश में सूचित किया गया है कि कोई भी पुरुष