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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[११
कुतूहलः, संजातश्रदः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः, समुचन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः, उत्थायोत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय .. .. [भगवती सू, श० १ उ० १ सू , ८ ]
जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहिर लाल जी म. ने भगवती सूत्र के प्रथम शतक पर बहुत सुन्दर व्याख्यान दिये हैं । जो ६ भागों में प्रकाशित हो चुके हैं, पूर्वोक्त पदों का वहां बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है । पाठकों के लाभार्थ हम वहां का प्रसंगानुसारी अंश उद्धृत करते हैं - इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान् के पास संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं; जो कि गौतम गौत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिन का बज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग कमल के रज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्रतपस्वी (साधारण मनुष्य जिस की कल्पना भी नहीं कर सकता उसे उग्र कहते हैं उग्र तप के करने वाले को उग्र तपस्वी कहते हैं ), दीप्ततपस्वी ( अग्नि के समान जाज्वल्यमान को दीप्तकहते हैं, कर्म रूपी गहन बन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले को दीप्त तपस्वी कहते हैं), तप्ततपस्वी (जिस ता से कर्मों को सन्ताप हो-कर्म नष्ट हो जायें, उस तप के करने वाले को तप्ततपस्वी कहते हैं), महातपस्वी ( स्वर्ग प्राप्ति आदि को आशा से रहित निष्काम भावना से किये जाने वाले महान तप के करने वाले को महातपस्वी कहते हैं , जो उदार हैं, जो आत्म शत्रुयों को विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान से तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो दारुण ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वाले हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तु के दहन में समर्थ ऐसी विस्तीर्ण तेजोलेश्या विशिष्ठ-तपोजन्य लब्धिविशेष ) को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो १४ पूर्वा के ज्ञाता है, जो चार ज्ञानों के धारण करने वाले हैं, जिन को समस्त अक्षर-संयोग का ज्ञान है, जिन्हों ने उत्कुटुक नाम का
आसन लगा रखा है, जो अधोमु व हैं, जो धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूा कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरिक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए पात्ल-वृत्तिों को सुरक्षित किये हुए हैं, अर्थात् जो अशुभ वातावरण से रहित हैं, और जो विशुद्ध चित्त वाले हैं ।
यहां पर परमतपस्वी और परमवचस्वी भगवान् गौतमस्वामी के साधुजीवन के साथ आर्य जम्बूस्वामी के जीवन की तुलना कर के उन का उत्कर्ष बतलाना ही सत्रकार को अभिप्रेत है । दूसरे शब्दों में कहें तो जिस प्रकार गौतमस्वामी अपना साधु-जीवन व्यतीत करते थे उसी प्रकार की जीवनचर्या जम्बूस्वामी ने को थी-यह बतलाना इष्ट है ।
(१) जनशास्त्रों में संहनन के छ भेद उपलब्ध होते हैं । उन में सर्वोत्तम वज्रर्षभनाराच संहनन है । ऋषभ का अर्थ पट्टा है और वन का अर्थ कीली है, नाराच का अर्थ है दोनों ओर खींच कर बंधा होना, ये तीनों बातें जहां विद्यमान हो, उसे वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं । जैसे लकड़ी में लकड़ी जोड़ने के लिये पहले लकड़ो की मजबूती देखी जाती है फिर कीली देखी जाती है और फिर पत्ती देखी जाती है। अर्थात् गौतम स्वामी का शरीर हाडों की दृष्टि से सुदृढ़ एवं सबल था।
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