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३२] श्री विपाक सुत्र
[प्रथम अध्याय जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर परिषद वापिस अपने २ स्थान में लौट गई, परन्तु वह जन्मांध वृद्ध व्यक्ति अभी तक अपने स्थान से नहीं उठा । ऐसा मालुम होता है कि भगवान् के द्वारा वर्णन किये गये कर्म जन्य सुखों एवं दुःखों के विपाक पर विचार करते हुए निज की दयनीय दशा का ख्याल करके अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों के भार से भारी हई अपनी आत्मा को धिक्कार रहा हो। उस समय चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता इन्द्रभूति नामा अनगार ने उसे देखा और देखते ही वे बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। उन को उस वृद्ध व्यक्ति पर बड़ी करुणा आई, जिस के फल स्वरूप उन्हों ने भगवान् से प्रश्न किया।
"जायसड्ढे-जातश्रद्ध" यह पद सूचित करता है कि उस जन्मांधपुरुष के विषय में गौतमस्वामी ने जो भगवान् से प्रश्न किया है उस में उस व्यक्ति की वर्तमान दयाजनक अवस्था की ही बलवती प्रेरणा है। वस्तुतः महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे दूसरों के जोवन में उपस्थित होने वाले दुःखों को देख कर उन के मूल कारण को ढूढते हैं तथा स्वयं अधिक रूप में द्रवित होते हैं, अर्थात् उन का हृदय करुणा से एक दम भर जाता है।
"जायसडढे जाव एवं" इस पाठ में दिये गये "जाव-यावत्' पद से भगवतीसत्र १ । १ । ७ । का आंशिक पाठ अभिप्रेत है । जिस की व्याख्या इसी अध्याय के पिछले पृष्ठों पर की जा चुकी है । प्रस्तुत प्रकरण में जो संशय का अभिप्राय है वह गौतमस्वामी ने स्वयं स्पष्ट करदिया है।
कर्मों की विचित्रता से विस्मित हुए गौतमस्वामी ने श्रमणा भगवान् महावीर स्वामी से जन्मांध और जन्मांधरूप के जानने की इच्छा प्रकट की थी, उस के विषय में भगवान् ने उस का जो अनुरूप उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हुए इस प्रकार कहते हैं। __मूल-'एवं खलु गोतमा! इहेब मियग्गामे णगरे विजयस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियाउत्ते णामं दारए जातिअंधे जातअंधारूवे णत्थि णं तस्स दारगस जाव अगितिमित्ते, तते णं मियादेवी जाव पड़िजागरमाणी २ विहरति । तते णं से भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते !, अहं तुम्भेहिं अब्भणुएणाते (समाणे) मियापुत्री दास्यं पासित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! तते णं से भगवं गोतमे समणेणं भगवया अन्मगुण्णाते समाणे हट्टतुट्ठ समणस्स भगवो अंतितातो पडिनिकाखमइ पडिनिक्खमित्ता अतुरियं जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियग्गामे णगरे तेणेव उवागच्छति। उवागांच्छत्ता, मियग्गामं नगरं मझमज्भेणं अणुपविस्सइ । अणुप्पविस्सत्ता जेणेव मियाए देवीए गि हे तेणेव उवागच्छति । तते णं सा मियादेवी भगवं गोतमं एज्जमाणं पासति
(१) छाया - एवं खलु गौतम ! इहैव मृगाग्रामे नगरे विजयस्य पुत्रः मृगादेव्या आत्मजो मृगापुत्रो नाम दारकः जात्यंधो जातान्धकरूपः, स्तस्तस्य दारकस्य यावदाकतिमात्र, ततः सा मृगादेवी यावत् प्रतिजागरयीन्त २ विहरति। ततः स भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् इच्छामि भदन्त ! अहं युष्माभिरभ्यनुज्ञातो मृगापुत्रं दारकं द्रष्टुम् । यथासुखं देवानुप्रिय !, ततः स भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवताऽभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः श्रमणस्य भगवतोऽन्तिकात् प्रतिनिष्कामति,
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