Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 753
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ६६३ १ - ईर्यासमिति' - युगप्रमाणपूर्वक भूमि को एकाग्र चित्त से देख कर जीवों को बचाते हुए यतापूर्वक गमन करने का नाम ईर्यासमिति है । २- भाषासमिति सदोष वाणी को छोड़ कर निर्दोष वाली अर्थात् हित, मित, सत्य एवं स्पष्ट वचन बोलने का नाम भाषासमिति है । ३ - एषणासमिति - श्रहार के ४२ दोषों को टाल कर, शुद्ध श्राहार तथा वस्त्र, पात्र आदि उपविका ग्रहण करना । अर्थात् एषणा - गवेषणा द्वारा भिक्षा एवं वस्त्र पात्रादि का ग्रहण करने का नाम एषणासमिति है । ४ - श्रादानभांडमात्र निक्षेपणासमिति - श्रासन, संस्तारक, पॉट, वस्त्र, पात्रादि उपकरणों को उपयोगपूर्वक देख कर एवं रजोहरण से पोंछ कर लेना एवं उपयोगपूर्वक देखी और प्रतिलेखित भूमि पर रखने का नाम श्रादानभाण्डमात्र निक्षेपणासमिति है। 1 प्रस्रवण-मूत्र, ५ - उच्चारप्रवणखेल सिंघाण जल्लप रिष्ठापनिकासमिति - उच्चार - मल, खेल - थूक, सिंघाण - नाक का मल, जल्ल-शरीर का मल इन की परिष्ठापना - परित्याग में सम्यक प्रवृत्ति का नाम उच्चारप्रवणखेल सिंघाण जल्ल परिष्ठा पनिकासमिति है । ६ - मनः समिति - पापों से निवृत्त रहने के लिए एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त मानसिक प्रवृत्ति का नाम मनः समिति है । ७ - वचः समिति - पापों से बचने के लिये एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त वाचनिक प्रवृत्ति का नाम वचःसमिति है । ८- कायसमिति - पापों से सुरक्षित रहने के लिये एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली श्रागमोक्त सम्यक एवं प्रशस्त कायिक प्रवृत्ति का नाम कायसमिति है। (१) ईर्ष्या नाम गति या गमन का है । विवेकयुक्त हो कर प्रवृत्ति करने का नाम समिति है । ठीक प्रवचन के अनुसार श्रात्मा की गमनरूप जो चेष्टा है उसे ईर्ष्यासमिति कहते हैं। यह इस का शाब्दिक अर्थ है । ईयसमिति के श्रालम्बन, काल, मार्ग और यतना ये चार भेद होते हैं। जिस को प्राश्रित करके गमन किया जाए वह श्रालम्बन कहलाता है। दिन या रात्रि का नाम काल है । रास्ते को मार्ग कहते हैं और सावधानी का दूसरा नाम यतना है । श्रालम्बन के तीन भेद होते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । पदार्थों के सम्यग बोध का नाम ज्ञान है। तत्राभिरुचि को दर्शन और सम्यक आचरण को चारित्र कहते हैं । काल से यहां पर मात्र दिन का ग्रहण है । साधु के लिये गमनागमन का जो समय है, वह दिवस है । रात्रि में आलोक का अभाव होने से चक्षुत्रों का पदार्थों से साक्षात्कार नहीं हो सकता । अतएव साधुयों के लिये रात्रि में विहार करने की आज्ञा नहीं है । मार्गशब्द उत्पथरहित पथ का बोधक है । उसी में गमन करना शास्त्रसम्मत अथच युक्तियुक्त है । उत्पथ में गमन करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना संभवित है । यतना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद हैं। जीव, अजीव आदि द्रव्यों को नेत्रों से देख कर चलना द्रव्य यतना है । साढ़े तीन हाथ प्रमाण भूमि को आगे से देख कर चलना क्षेत्र यतना है। जब तक चले तब तक देखे यह काल यतना है । उपयोग सावधानता पूर्वक गमन करना भाव यतना है । तात्पर्य यह है कि चलने के समय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि जो इन्द्रियों के विषय है उन को छोड़ देना चाहिये और चलते हुए वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा और अनुप्र ेक्षा इन पांच प्रकार के स्वाध्यायों का भी परित्याग कर देना चाहिये । For Private And Personal

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