Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 773
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६८३ रेख के कारण उचित शिक्षा में निपुणता प्राप्त कर ली। यौवनप्राप्त श्री भद्रनन्दी के माता पिता ने उस का एक साथ श्रीदेवीप्रमुख ५०० राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और सब को पृथक् २ दहेज दिया। तदनन्तर उन राजकन्याओं के साथ उन्नत प्रासादों में रह कर सांसारिक कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ भद्रनन्दी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। किसी समय भूषभपुर नगर में चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे और शिष्यपरिवार के साथ स्तूपकरंडक उद्यान में विराजमान हो गए । नगर की भावुक जनता उन के दर्शन और धर्मोपदेश श्रवण करने के लिये उद्यान में आई । भगवान् ने सब की उपस्थिति में धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुन कर जनता अपने २ स्थानों को वापिस लौट गई। सब के चले जाने के बाद वहां धर्मश्रवणार्थ आये हुए भद्रनन्दी ने भगवान् के सम्मुख उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार की भांति साधुवृत्ति के ग्रहण में असमर्थता प्रकट करते । उन से पञ्चागतिक गृहस्थधर्म का ग्रहण किया। जब गृहस्थधर्म का नियम ग्रहण करके भद्रनन्दी अपने स्थान को चला गया, तब गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार की तरह भद्रनन्दी के रूप, लावण्य और गुणसम्पत्ति की प्रशंसा करते हुए उस के पूर्वभव के सम्बन्ध में भगवान से पूछा कि भदन्त ! यह भद्रनन्दी पूर्वभव में कौन था। तथा किस पुण्य के आचरण से इसने इस प्रकार की मानवी गुणसमृद्धि प्राप्त की है। इत्यादि । गोतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने जो फरमाया, वह निम्नोक्त है गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरी किनी नाम की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। वहां के शासक के पुत्र का नाम विजयकुमार था। विजयकुमार प्रतिभाशालो और त्यागशील साधु महात्माश्रों का बड़ा अनुरागी था । एक वार उस नगरी में युगबाहु नाम के तीर्थंकर महाराज पधारे । विजयकुमार ने बड़ी विशुद्ध भावना से उन्हें आहार दिया। आहार का दान करने से उस ने उसी समय मनुष्य की आयु का बन्ध किया। तथा वहां की भवस्थिति पूरी करने के बाद उस सुपात्रदान के प्रभाव से वह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में अवतरित हुश्रा। तब भद्रनन्दी को इस समय जो मानवी ऋद्धि सम्प्राप्त हुई है, वह विशद्ध भावों से किये गये उसी आहारदानरूप पुण्याचरण का विशिष्ट फल है । तदनन्तर गौतम स्वामी के-भदन्त ! क्या यह भद्रनन्दी मुनिधर्म में भी प्रवेश करेगा ? अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा लेगा कि नहीं। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् बोलेहां गौतम १, लेगा ? तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहां से अन्यत्र विहार कर गये एक दिन श्रमणोपासक भद्रनन्दी पौषधशाला में जा कर पौषधोपवास करता है । वहां तेले की तपस्या से आत्मचिन्तन करते हुए भद्रनन्दी को सुबाहुकुमार की तरह विचार उत्पन्न हुअा कि धन्य है वे नगर और प्रामादिक, जहां श्रमण भगवान महावीर स्वामी भ्रमण करते है, धन्य हैं वे राजा महाराज और सेठ साहुकार जो उन के चरणों में दीक्षित होते है और वे भी धन्य हैं कि जिन्हों ने भगवान् महावीर से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है । तब यदि अब कि भगवान् यहां पधारेंगे तो मैं भी उन के पास मुनिदीक्षा को धारण करूगा-इत्यादि । तदनन्तर अपने उक्त विचार को निश्चित रूप देने की भावना के साथ २ गृहीतव्रत की अवधि समाप्त होने पर भद्रनन्दी ने व्रत का पारणा किया और वह भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा में समय बिताने लगा। कुछ समय के बाद भगवान महावीर स्वामी जब वहां पधारे तो भद्रनन्दी ने उन के चरणों में मुनिवृत्ति को धारण करके अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण करके अपने शभ विचार को सफल किया, तथा गृहीत संयमव्रत के सम्यग आराधन से आत्मशुद्धि द्वारा विकास को भी सम्प्राप्त किया। इस के अतिरिक्त निर्वाण पद प्राप्ति तक भद्रनन्दी का सम्पूर्ण इतिवृत्त सबाहुकुमार की भांति ही जान लेना चाहिये। प्रथम अध्याय में सुबाहुकुमार के जीवन का जो विकासक्रम वर्णित हुआ है, वही सब भद्रनन्दी का For Private And Personal

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