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६८६]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध -
तृतीय अध्याय
मूलार्थ-तृतीय अध्ययन का उत्क्षेप पूर्व की भाँति जान लेना चाहिये। जम्बू ! वीरपुर नामक नगर था । वहां मनोरम नाम का उद्यान था। महाराज वीरकृष्णमित्र राज्य किया करते थे। उन की रानी का नाम श्रीदेवी था । सुजात नाम का कुमार था । बलश्रीप्रधान पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ उस का-सुजात कुमार का पाणिग्रहण हुआ । श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । सुजात कुमार का गृहस्थधर्म स्वीकार करना, भगवान् गौतम द्वारा उस का पूर्वभव पूछना । भगवान् का प्रतिपादन करना कि इनुसार नगर था। वहां ऋषभदत्त गाथापति निवास किया करता था। उसने पष्पदत्त अनगार को प्रतिलम्भित किया-आहारदान दिया। मनष्य की आय को बान्धा। आयु पूर्ण होने पर यहां सुजातकुमार के रूप में वीरपुर नामक नगर में उत्पन्न हुआ । यावत् महाविदेह क्षेत्र में चारित्र ग्रहण कर सिद्धपद प्राप्त करेगासिद्ध होगा । निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये।
॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ टीका-प्रस्तावना तथा उपसंहार ये दोनों पदार्थवर्णनशैली के मुख्य अंग हैं । इस सम्बन्ध में पहले भी कहा जा चुका है । प्रस्तुत में सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तणं सुहविवगाण वितियस्स अज्झय एस्स अयमठे पणत्त । ततियस्स ण भंते ! अज्झयणस्स सुदविवागाण समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तलं के अह पएणते? - इस प्रकार है । अर्थात् भदन्त ! यदि यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?
इसी प्रकार तीसरे अध्ययन का वर्णन करने के अनन्तर सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्त गा सुहविवागाण तच्चस्त अज्क्रयणस्स अयमझें पराणत्त । त्ति बेमि । अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रकार मैं कहता हूं-यह कह कर निक्षेप या उपसंहार संसूचित कर दिया है। सूत्रकार ने एक स्थान पर इन दोनों का निरूपण करके अन्यत्र इन के उपक्रम और उपसंहार के) सूचक क्रमश उक्खेवो उत्तेपः, और निक्खेवो-निक्षपः ये दो पद दे दिये हैं। जिन में उक्त अर्थ का ही समा
तीसरे अध्ययन का पदार्थ भी प्रथम अध्ययन के समान ही है। केवल नाम और स्थानादि का भेद है। प्रथम अध्ययन का मुख्य नायक सुबाहुकुमार है जब कि तीसरे का सुजातकुमार । इस के अतिरिक्त पूर्वभव में ये दोनो सुमुख बार ऋषभदत्त गाथापति के नाम से विख्यात थे । अर्थात् सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के नाम से प्रसिद्ध था और सुजात ऋषभदत्त के नाम से प्रख्यात था। इसी तरह सुबाहुकुमार को तारने वाले सुदत्तमुनि और सुजात के उद्धारक पुष्पदत्त हुए । इस के सिवा माता पिता के नाम को छोड़ कर बाका सारा जीवनवृत्तान्त दोनों का जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त एक ही जैसा है । अर्थात् - गर्भ में आने पर माता का स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखना, जन्म के बाद बालक का शिक्षण प्राप्त करना. युवा होने पर राजकन्याओं से विवाह करना । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर उन से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म की दीक्षा लेना । उन के विहार के करने के अनन्तर पौषधशाला में धर्माराधन करते हुए मन में शुभ विचारों का उद्गम होना और फलस्वरूप भगवान् के दोवारा पधारने पर मुनिधर्म की दीक्षा लेना और संयम का यथाविधि पालन करने के अनन्तर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होना तथा वहां से च्यव कर फर मनुष्य भव को प्राप्त
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