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दशम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[७०७
-पत्तदोः नित्यसम्बन्ध:-इस न्याय से सम्प्राप्त तहा शब्द से जिन पाठों अथवा जिन बातों का ग्रहण करना अभिमत है, उन के स्पष्टीकरणार्थ हो ये -चिन्ता -आदि पदों का ग्रहण किया गया है। इस में उस समय की लेखनप्रणाली या प्रतिपादनशेली ही कारण कही या मानी जा सकती है।
-सावग्गधम्म चिन्ता जाव पवज्जा-इत्यादि संक्षिप्त पाठों में मूलपाटगत आदि और अन्त के मध्यवर्ती पाठों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है । सूत्रकार की यह शेली रही है कि एक स्थान पर समग्र पाठ का उल्लेख करके अन्यत्र उसके उल्लेख की आवश्यकता होने पर समग्र पाठ का उल्लेख न करके प्रारम्भ के पद के साथ जाव-यावत् पद दे कर अन्त के पद का उल्लेख कर देना, निस मे कि मध्यवर्ती पदों का संग्रह करना सूचित हो सके। इसी शैली का आगमों में प्राय: सर्वत्र अनुसरण किया गया है।
-सावगधम्मं०-यहां के बिन्दु पृष्ठ ५७० पर पढ़े गये-पडिवज्जति २ त्ता तमेव रह-इत्यादि पद का तथा चिन्ता जाव पावज्जा--यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ६४५ पर पढे गये-धन्ने ण ते गामागर. जाव सन्निवेसा-इत्यादि पदों का तथा-ततो जाव सव्वट्ठसिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् से पृष्ठ ६६६ पर पढे गये-देवलोयाउ आउखएण भवखरण-इत्यादि पदों का संसूचक है।
-दिढपइराणे जाव.सिझिहिति-यहां पठित जाव-यावत् पद-ौपपातिक सूत्र में वर्णित दृढपतिज्ञ के जीवन के वर्णक पाठ को ओर संकेत करता है। दृढप्रतिज्ञ का जीवन वृत्तान्त पीछ पृष्ठ ६७७ पर लिखा जा चुका है । तथा-सिजिमाहिति ५-यहां के अंक से भी अभिमत पाठ पृष्ठ ६७७ पर, तथा महावीरेण जाव संपत्तण-यहां पठित जाव-यावत पद से अभिमत-श्राइगरण-इत्यादि पाठ ५४३ से लेकर ५४८ तक के पृष्ठों पर वर्णित हो चुका है।
-सेवं भंते !. सेवं भते ! सुहविवाग-इन पदों से जम्बू स्वामी की विनयसम्पत्ति और श्रद्धासंभार का परिचय मिलता है । गुरुजनों के मुखारविन्द से सुने हुए निर्ग्रन्थप्रवचन पर शिष्य की कितनी आस्था होनी चाहिये ?-यह इन पदों से स्पष्ट भासमान हो रहा है । जम्बू स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया है, यह सर्वया-अक्षरशः यथार्थ है, असंदिग्ध है, सत्य है ।
विपाकश्रुत के सुखविपाक नामक द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में भिन्न भिन्न धार्मिक व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों के वर्णन में एक ही बात की बार २ पुष्टि की गई है । सुपात्रदान और संयमव्रत का सम्यग आराधन मानवजीवन के आध्यात्मिक विकास में कितना उपयोगी है और उस के आचरण से मनुष्य अपने साध्य को कैसे सिद्ध कर लेता है ? इस विषय का इन अध्ययनों में पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता है। विकासगामी साधक के लिये इस में पर्याप्त सामग्री है । सुपात्रदान यह दान के ऐहिक और पारलौकिक फल में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस लिये सुखविपाक के दशों अध्ययनों में इस के महत्त्व को एक से अधिक बार प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया गया है ।
अंगग्रंथों में विपाकसूत्र ग्यारहवां अंगसूत्र है । विपाकसूत्र दु:खविपाक और सुखविपाक इन दो विभागों में विभक्त है । दुःखविपाक में मृगापुत्र आदि दस अध्ययन वर्णित हैं और सुखविपाक में सुबाहुकुमार
आदि दस अध्ययन । प्रस्तुत वरदत्त नामक अध्ययन सुखविगक का दसवां अध्ययन है । इस में श्री वरदत्त कुमार का जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हुश्रा है, जिस का विवरण ऊपर दिया जा चुका है। इस अध्ययन की समाप्ति पर सुखविपाक समाप्त हो जाता है।
॥ दशम अध्याय समाप्त।
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