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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
उपसंहार]
[ ७११
विल । ३ – व्यवहार २०
४ छेदसूत्र - १ - निशीथ १० श्रायं विल । ४ – दशाश्रुतस्कन्ध २० आयंबिल ।
११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल और ४ छेद ये ३१ सूत्र होते हैं। आवश्यक ३२ वां सूत्र है, उस के लिये ६ श्रायंबिल होते हैं ।
विल । २ - बृहत्कल्प २०
प्रस्तुत में विपाकसूत्र का प्रसंग चालू है । अतः विपाकसूत्र के अध्ययन श्रादि करने वाले महानुभावों के लिये गुरुपरम्परा अनुसार आज की उपलब्ध धारणा से २४ श्रायं विलों का अनुष्ठान अपेक्षित रहता है । इसी बात को संसूचित करने के लिये सूत्रकार ने विपाकसूत्र के अन्त में- सेसं जहा श्रायारस्ल - इन पदों का संकलन किया है । अर्थात् विपाकसूत्र के सम्बन्ध अवशिष्ट उपधान तप का वर्णन आचारांग सूत्र के वर्णन के समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि श्राचारासूत्रगत उपधानतप तपोदृष्ट्या समान है । जैसे श्राचारांग सूत्र के लिये उपधानतप निश्चित है वैसे ही विपाकसूत्र के लिये भी है, फिर भले ही वह भिन्न २ दिनों में सम्पन्न होता हो । दिनगत भिन्नता ऊपर बताई जा चुकी है ।
ऐसा
किसी २ प्रति में ग्रंथाग्रं - १२५०,
उल्लेख देखा जाता 1. यह पुरातन शैली है। उसी के अनुसार यहां भी उस को स्थान दिया गया है। ग्रंथ के अग्र को ग्रन्थाग्र कहते हैं । ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है, और अग्र नाम परिमाण का है। तब ग्रंथ - शास्त्र का अग्र - परिमाण ग्रंथाग्र कहलाता है । तात्पर्य यह है कि ग्रन्थगत गाथा या लोक आदि का परिमाण का सूचक ग्रंथाग्र शब्द है ।
प्रस्तुतसूत्र का परिमाण १२५० लिखा है अर्थात् गद्यरूप में लिखे गये विपाकश्रुत का यदि पद्यात्मक परिमाण किया जाए तो उसको संख्या १२५० होती है । परन्तु यह कहां तक ठीक है ? यह विचारणीय है । क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध विपाकसूत्र की सभी प्रतियों में प्रायः पाठगत भिन्नता सुचारुरूपेण उपलब्ध होती है, फिर भले ही वह अांशिक भी क्यों न हो ।
रहित कहा गया है। जैनागमों की भक्ति लेना चाहिये, क्योंकि व्याख्यागत प्रयुक्त
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उपलब्ध
सूत्रों में विपाकसूत्र का अन्तिम स्थान है तथा प्राप्तोपदिष्ट होने से इस की प्रामणिकता पर भी किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रहता । तथा इस निग्रंथप्रवचन से जो शिक्षा प्राप्त होती है उस का प्रथम ही भिन्न २ स्थानों पर अनेक बार उल्लेख कर दिया गया है और अब इतना ही निवेदन करना है कि मानवभव को प्राप्त कर जीवनप्रदेश में अशुभकर्मों के अनुष्ठान से सदा पराङ्मुख रहना और शुभकर्मों के अनुष्ठान में सदा उद्यत रहना, यही इस निर्मन्थप्रवचन से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं का सार है । अन्त में हम अपने सहृदय पाठकों से पूज्य श्रभयदेवसूरि के वचनों में अपने के हार्द को अभिव्यक्त करते हुए विदा लेते हैं
'हानुयोगे यदयुक्तमुक्तं,
तद्धीधनाः द्राक् परिशोधयन्तु नोपेक्षगं युतिमदत्र येन,
'जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ॥ विपाकसूत्र समाप्त ॥
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(१) अर्थात् श्राचार्य श्री अभयदेवसूरि का कहना है कि मेरी इस व्याख्या में जो अयुक्त - युक्तिमें परायण --लीन मेधावी पुरुषों को उस का शीघ्र ही संशोधन कर युक्तिशून्य स्थलों की उपेक्षा करनी योग्य नहीं है ।
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