Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 795
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [७०५ पुश्वभवो--पर्वभव की पृच्छा की गई । सयदुवारे--शतद्वार नामक । णगरे--नगर था। विमलवाहणे राया-विमलवाहन नामक राजा था.। धम्मरुई--धर्मरुचि । अणगारे--अनगार को । पडिलाभिते--प्रतिलाभित किया. गया, तथा । मणुस्साउए-मनुष्य आयु का । बद्धे-बन्ध किया । इहं-यहां पर । उप्पन्ने-उत्पन्न हुआ। सेसं-शेष वर्णन । जहा-जैसे । सुवाहुस्स-सुबाहु । कुमारस्स-कुमार का है, वैसे ही जानना चाहिये। चिन्ता-चिन्ता अर्थात् पौषध में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होने का विचार । जाव-यावत् । पव्वज्जा--प्रव्रज्या--साधुवृत्ति का ग्रहण करना । कप्पंतरे-कल्यान्तर में--अन्यान्य देवलोकों में उत्पन्न होगा। ततो--वहां से | जाव--यावत् । सव्वसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा । ततो--वहां से । महाविदेहे--महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा । जहा--जैसे । दिढपतिराणे-दृढप्रतिज्ञ । जावयावत् । सिज्झिहिति ५--सिद्ध होगा, ५ । एवं खलु-इस प्रकार निश्रय ही । जंबू !-हे जम्बू ! । समणेणंश्रमण । भगवया-भगवान् । महावीरेण --महावीर । जाव--यावत् । संपत गां--मोक्ष प्राप्त ने। सुहविवागाणं--सुखविपाक के । दसमस्स--दशम । अज्झयणस्त--अध्ययन का। अयय?—यह अर्थ । पराणत्त-प्रतिपादन किया है। सेवं भंते!-भगवन् ! ऐसा ही है। सेवं भंते !-भगवन् ! ऐसा ही है । सुहविवागा-सुखविपाकविषयक कथन । दसमं--दशम । अज्झयणं-अध्ययन । समत्त-सम्पूण हुआ। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-जम्बू स्वामी-भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने यदि सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ वर्णन किया है तो भदन्त ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने सुखविपाक के दशम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? सुधर्मा स्वामी-जम्बू ! उस काल और उस समय साकेत नाम का सुप्रसिद्ध नगर था। वहां उत्तरकुरु नामक उद्यान था, उस में पाशामृग नाम के यक्ष का यक्षायतन-स्थान था। साकेत नगर में महाराज मित्रनन्दी का राज्य था। उस की रानी का नाम श्रीकान्ता और पुत्र का नाम वरदत्त था। कुमार का वरसेनाप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-विवाह हुआ था। तदनन्तर किसी समय उत्तरकुरु उद्यान में तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी का आगमन हुआ । वरदत्त ने भगवान् से श्रावकधर्म को ग्रहण किया। गणधरदेव के, पूछने पर भगवान् महावीर वरदत्त के पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहने लगे कि हे गौतम ! शतद्वार नामक नगर था । उस में विमलवाहन नाम का राजा राज्य किया करता था । उसने धर्मरुचि नाम के अनगार को आहारादि से प्रतिलम्भित किया तथा मनुष्य आयू को बाधा। वहा की भवास्थांत को पूर्ण कर के वह इ साकेतनगर में महाराज मित्रनन्दी की रानी श्रीकान्ता के उदर से वरदत्त के रूप में उत्पन्न हुआ शेष वृत्तान्त सुबाहुकुमार की भाँति समझना अर्थात् पौषधशाला में धर्मध्यान करते हुए उसका विचार करना और तीर्थकर भगवान के आने पर दीक्षा अंगीकार करना। मृत्यधर्म को प्राप्त कर वह अन्यान्य अर्थात सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होगा। वरदत्त कुमार का जीव स्वर्गीय तथा माननीय अनेकों भव धारण करता हुआ अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो दृढप्रतिज्ञ की तरह यावत् सिद्धगति को प्राप्त करेगा । हे जम्ब ! इस प्रकार यावत मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। जम्बूस्वामी-भगवन् ! आप का यह सुखविपाकविषयक कथन जैसा कि आपने फरमाया ॥ दशम अध्ययन समाप्त । For Private And Personal

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