Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 788
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९८] श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [सप्रम अध्याय महाबल कुमार का भगवान् से श्रावकधर्म का अंगीकार करना आदि सुबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित विस्तृत कथासन्दर्भ का तथा"-पडिलाभिते जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-नागदत्त गाथापति का इन्द्रदत्त मुनि का पारणा कराने के अनन्तर मनुष्य आयु का बांधना, संसार को परिमित करना और वहां से मृत्यु को प्राप्त हो जाने के अनन्तर महापुर नगर में महाराज बल के घर में महाबल के रूप में उत्पन्न होना और भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होना आदि सबाहुकुमार के अध्ययन में वर्णित वृत्तान्त का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना ही है कि सुबाहुकमार देवलोक तथा मनुष्य लोक में कई एक जन्म ले कर अन्त में महाविदेह क्षेत्र में साधु हो कर मुकिलाभ करेंगे जब कि महाबल कुमार प्रभु वीर के चरणों में दीक्षित हो कर इसी जन्म में सिद्ध हो गए। ऊपर के कथासन्दर्भ से यह भलीभाँति प्रमाणित हो जाता है कि सुपात्र को दिया गया भावनापूर्वक निर्दोष आहार जीवन के विकास कर कारण बनता है और परम्परा से इस मानव प्राणी को जन्म मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलवाकर परमसाध्य निवार्णपद को उपलब्ध कराने में महान सहायता प्रदान करता है । अत: मुमुक्षु प्राणियों को सुपात्रदान का अनुसरण एवं आचरण करना चाहिए, यही इस अध्याय में वर्णित जीवनवृत्तान्त से ग्रहणीय सार है । ॥ सप्तम अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal

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