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श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध
[अष्टम अध्याय
धर्मघोष नामक गाथापति रहता था। उसने धर्मसिंह नामक अनगार को प्रतिलाभित किया और मनुष्य श्रायु का बन्ध करके वह यहां पर उत्पन्न स्था। यावत उस ने सिद्धगति को उपलब्ध किया । निक्षप का कल्पना पूर्व को भाँति कर लेनी चाहिये।।
॥ अष्टम अध्याय समाप्त । टीका-प्रस्तुत अध्ययन के चरितनायक का नाम भद्रनन्दी है। भद्रनन्दी का जन्म सुघोष नगर में हुआ। पिता का नाम महाराज अजुन और माता का नाम श्रीतत्त्ववती देवी था। भद्रनन्दी का पालन पोषण बड़ी सावधानी से हुआ । योग्य कलाचार्य के पास इस ने विद्याध्ययन किया। माता पिता द्वारा युवक भद्रनन्दी का श्रीदेवीप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ और भद्रनन्दी भी उन राजकुमारियों के साथ अपने महलों में सांसारिक सुखोपभोग करता हुआ सानन्द जीवन व्यतीत करने लगा।
___एक दिन चरम तीर्थकर पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी संसार में अहिंसा का ध्वज फहराते हुए सुघोष नगर के देवरमण नामक उद्यान में विराजमान हो जाते है । भगवान् के पधारने की सूचना नागरिको को मिलने की ही देर थी, नागरिक बड़े समारोह के साथ वहां जाने लगे । गजा, भद्रनन्दी कुमार तथा नागरिकों के यथास्थान उपस्थित हो जाने पर भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । उपदेश सुन कर लोग, राजा तथा नागरिक अपने २ स्थान को वापिस चले गये, तब भद्र नन्दो कुमार ने साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमथता प्रकट करते हुए भगवान् से श्रावकव्रतों को ग्रहण किया और तदनन्तर वह जिस रथ से आया था उस पर बैठ कर अपने स्थान को वापिस चला गया ।
भद्रनन्दी के चले जाने पर गौतमस्वामी ने भद्रनन्दी की मानवी ऋद्धि के मूल कारण को जानने की इच्छा से भगवान् महावीर के चरणों में उस के पूर्वभव को बतलाने का निवेदन किया । गौतम स्वामी के विनीत निवेदन का उत्तर देते हुए भगवान् कहने लगे कि गौतम ! यह पूर्वभव में महाघोष नगर का प्रतिष्ठित गृहपति था। इस का नाम धर्मघोष था। इस ने धर्मसिंह नाम के एक तपस्वी मुनिराज को श्रद्धापूर्वक आहार देने से जिस विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया, उसी के फलस्वरूप वह यहां आकर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न हुआ और उसे सर्व प्रकार की मानवी संपत्ति प्राप्त हुई।
श्रावकधर्म और तदनन्तर साधुधर्म का ययाविधि अनुष्ठान करके श्री भद्रनन्दी अनगार ने बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्षपट को प्राप्त किया। इस का समस्त जीवनवृत्तान्त प्रायः सुबाहुकुमार के समान ही है, जो अन्तर है वह सूत्रकार ने स्वयं ही अपनी भाषा में स्पष्ट कर दिया है ।
- उक्खेवो- उत्क्षेप पद प्रस्तावना का संसूचक है । सूत्रकार के शब्दों में प्रस्तावना-जइ ण भंते ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण सुहविवागाणसत्तमस्स अज्झयणस्त अयमझे परणत, अट्ठमस्स ण भन्ते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण के अटे पराणत्ते', अर्थात् यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवन महावीर स्वामी ने सुखविपाक के सप्तम अध्ययन का यह (पोत) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्माप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है । इस प्रकार है । तथा-निक्खेवो—निक्षेप शन्द से अभिमत पाठ निम्नोक्त है
एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्ते ण सुह विवागाण अहमस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत्ते, ति बेमि--अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा वीर प्रभु
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