Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 781
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ पञ्चम अध्याय भारतीय धार्मिक वाङमय में दानधर्म का बड़ा महत्त्व पाया जाता है । दान एक सीढी है जो मानव प्राणी को ऊर्ध्वलोक तक पहुँचा देता है । जिस तरह मकान के ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ी की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह मुक्तिरूप विशाल भवन पर आरोहण करने के लिये भी सीढी की आवश्यकता है । वह सीदी शास्त्रीय परिभाषा में दान के नाम से विख्यात है। दान के आश्रयण से मनुष्य ऊर्ध्वगति प्राप्त कर सकता है, परन्तु जिस प्रकार सीढी के द्वारा ऊपर चढने वाले को भी सावधान रहना पडता है, ठीक उसी भाँति मोक्ष के सोपानरूप इस दान के विषय में भी बड़ी सावधानता की ज़रूरत है। वह सावधानता दो प्रकार की होती है। एक पात्रापात्र सम्बन्धी दूसरी आवश्यकता और अनावश्यकता सम्बन्धी । पात्र की विचारणा में दाता को पहले यह देखना होता है कि जिस को मैं जो वस्तु दे रहा हूं. वह उस का अधिकारी भी है या कि नहीं। दूसरे शब्दों में-मेरी दी हुई वस्तु का यहां सदुपयोग होगा या दुरुपयोग । पात्र में डाली हुई वस्तु जैसे अच्छा फल देने वाली होती है वैसे कुपात्र में डालने से उस का विपरीत फल भी होता है। इसी प्रकार ग्रहण करने वाले को उस की आवश्यकता भी है या कि नहीं? इस का विचार करना भी जरूरी है। जैसे समुद्र में वर्षण और तृप्त को भोजन ये दोनों अनावश्यक होने से निष्फल होते हैं, उसी तरह बिना आवश्यकता के दिया गया पदार्थ भी फलप्रद नहीं होता । सारांश यह है कि जहां दाता और प्रतिग्राही- ग्रहण करने वाला दोनों ही शुद्ध हों वहां पर ही देय वस्तु से समुचित लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में दान के महत्त्वप्रदर्शनार्थ जिस जिनदास नामक भावुक व्यक्ति का जीवन अंकित हुआ है, उस में दाता, प्रतिग्रहीता और देय वस्तु तीनों ही निर्दोष हैं, अतएव वहां फल भी समुचित ही हुआ । प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ का उपक्रम निम्नोक्त है - मूल-- 'पञ्चमस्स उक्खेयो । सोगन्धिया णगरी। णीलासोगे उज्जाणे । सुकालो जखो । अपडिहो राया । सुकण्हा देवी । महचंदे कुमारे । तस्स अरहदत्ता भारिया। जिणदासो पुत्तो। तित्थगरागमणं । जिणदासपुरभवो । मज्झमिया णगरी । मेहरहे राया । सुधम्मे अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्ध । निक्खेवो। ॥पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ पदार्थ -पंचमस्स-पंचम अध्ययन का । उक्खेवा-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्व की भाँति जानना चाहिये । सोगन्धिया-सौगन्धिका नामक । णगरी-नगरी थी। णीलासोगे- नीलाशोक नामक । उज्जाणे-उद्यान था। सुकाले-सुकाल नामक । जस्खे -यक्ष – यक्ष का स्थान था। अपडिहओ-अप्रतिहत । राया - राजा था । सुकराहा-सुकृष्णा । देवी-देवी थी। महचंदे--महाचन्द्र । कुमारे - कुमार था। तस्स-उस की (१) छाया-पञ्चमस्योत्क्षेप: । सौगन्धिका नगरी । नीलाशोकमुद्यानम् । सुकालो यक्षः। अप्रतिहतो राजा। सुकृष्णा देवी । महाचन्द्रः कुमारः । तस्य अर्हदत्ता भार्या । जिनदास: पुत्रः । तीर्थकरागमनम् । मिनदासपूर्वभवः । माध्यमिका नगरी । मेघरथो राजा। सुधर्मा अनगारः प्रतिलाभितो यावत् सिद्धः । निक्षेपः। ॥ पंचममध्ययनं समाप्तम् ।। For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829