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६९.]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रु तस्कन्ध
[चतुर्थ अध्याय
अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो भावन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुर्खावपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है । इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं सुहविवागाणं च उत्थस्स अज्झयणस्त अयमठे पराणत्त । त्ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-इन भावों का परिचायक है।
-पाणिग्रहणं जाव पठवभवे-यहां पठित जाव-यावत पद-सवासवकमार का अपने महलों में भद्राप्रमुख ५०० राजकुमारियों के साथ आनंदोपभोग करना, भगवान् महावीर स्वामी का विजयपुर नगर में पधारना । राजा, सुवासवकुमार तथा नागरिकों का धर्मोपदेश सुनने के लिये प्रभु के चरणों में उपस्थित होना, धर्मकथा श्रवण करने के अनन्तर राजा तथा जनता के चले जाने पर सवासवकुमार का साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता बतलाते हुए श्रावकधर्म को ग्रहण करना और वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर वापिस अपने नगर को चले जाना, आदि भावों का तथा सुवासवकुमार के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, भगवान् का उसे सुनाना, अन्त में विजयपुर में अवतरित होना, इन भावों का परिचायक है ।
-उप्पन्ने जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद सुवासवकुमार के सम्बन्ध में भगवान् से गौतम का “यह साधु बनेगा या नहीं ?, ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान् का-हां, बनेगा, ऐसा उत्तर देना । तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, इधर सुवासवकुमार का तेलापौषध में साधु होने का निश्चय करना, अन्त में भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होना तथा संयमाराधन द्वारा अधिकाधिक आत्मविकास करके केवलज्ञान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है । सबाहुकुमार और सुवासवकमार के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार पहले देवलोक से मनुष्य भव करके इसी भाँति अन्य अनेकों भव करके अन्त में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो सिद्ध बनेगा, जब कि श्री सवासवकुमार ने इसी जन्म में सिद्ध पद को उपलब्ध कर लिया ।
प्रस्तुत अध्ययन भी सुपात्रदान के महत्त्व का बोधक है। इस से भी उस की महिमा प्रदर्शित होती है। लोक में जैसे -नदियों में गंगा, पशुओं में गाय और पक्षियों में गरुड़ तथा वन्य जीवों में सिंह आदि महान् और प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के दानों में सुपात्रदान सर्वोत्तम, महान् तथा प्रधान होता है । तब भावपुरस्सर किया गया सुपात्रदान कितना उत्तम फल देता है ? यह इस अध्ययन से स्पष्ट ही है।
॥ चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण ॥
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