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श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध
[पञ्चम अध्याय
महाचन्द्र की । अरहदत्ता-अहंदत्ता । भारिया-भार्या थी । जिणदासो - जिनदास । पुत्तो-पुत्र था । तित्थगरागमणं-तीर्थकर भगवान का आगमन हुा । जिणदासपुश्वभवो - जिनदास का पूर्वभव पूछना । मज्झिमया-माध्यमिका । रणगरी-नगरी थी। मेहरहे-मेघरथ । राया-राजा था। सुधम्मे-सुधर्मा । अणगारे-अनगार। पडिलाभिते-प्रतिलंभित किये गए । जाव -यावत् । सिद्ध-सिद्ध हुआ । निक्खयो-निक्षेप अर्थात् उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये । पंचम-पांचवां । अज्झयणं-अध्ययन । समत्त- सम्पूर्ण हुआ।
___ मूलार्थ-श्चम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिये । जम्बू ! सौगन्धिका नाम की नगरी थी। वहां नीलाशोक नाम का उद्यान था उस में सुकाल नामक यक्ष का यक्षायतन था। नगरी में महाराज अप्रतिहत राज्य किया करते थे, उन की रानी का नाम सुकृष्णा देवी था
और पुत्र का नाम महाचन्द्र कुमार था। उस की अर्हदत्ता भार्या थी, इन का जिनदास नाम का एक पुत्र था । उस समय तीर्थकर भगवान का आगमन हुआ--श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । जिनदास का भगवान से पंचायुवतिक गृहस्थवर्म स्वीकार करना, गणधर देव श्री गौतम स्वामी द्वारा उस का पूर्वभव पूछना और श्रमण भगवान महावीर स्वामी प्रतिपादन करने लगे
गौतम ! माध्यमिका नाम की नगरी थी। महाराज मेघरथ वहां के राजा थे । सुधर्मा अनगार को महाराज मेघरथ ने आहार दिया, उस से मनुष्य आयु का बन्ध किया और यहां पर जन्म लेकर यावत् इसी जन्म में सिद्ध हुआ । निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिये।
॥पञ्चम अध्ययन समाप्त ।। टीका-प्रस्तुत अध्ययन में जिनदास का जीवनवृत्तान्त सकलित किया गया है । जिनदास महाचन्द्र का पुत्र और अर्हदत्ता का आत्मज था । इस के पितामह का नाम अप्रतिहत और पितामही का सुकृष्णादेवी था । इस को जन्मभूमि सौगन्धिका नगरी थो। जिनदास पूर्वभव में मेघरथ नाम का राजा था। इस की राजधानी का नाम माध्यमिका था। मेघरथ नरेश प्रजापालक होने के अतिरिक्त धर्म में भी पूरी अभिरुचि रखता था। एक दिन उस के पूर्वपुण्योदय से उस के घर में सधर्मा नाम के एक परम तपस्वी मुनि का आगमन हुअा। मुनि को देख कर मेघरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई, उस ने बड़े भक्तिभाव से मुनि को अपने हाथ से आहार दिया । विशुद्ध भाव और विशुद्ध श्राहार से उक्त मुनिराज को प्रतिलाभित करने से मेघरथ ने मनुष्य आयु का बन्ध किया और समय आने पर मृत्युधर्म को प्राप्त करने के अनन्तर वह इसी सौगन्धिका नगरी में जिनदास के रूप में उत्पन्न हुअा।।
किसी समय नीलाशोक उद्यान में तीर्थकर भगवान् महावीर का पधारना हुआ । उस समय यह जिनदास भी जनता के साथ भगवान् का दर्शन करने और धर्मश्रवण करने के लिये अाया। धर्मदेशना को सुनकर उस के हृदय में धर्म के आचरण की अभिरुचि उत्पन्न हुई और उस ने भगवान् से गृहस्थधर्म की दीक्षा प्रदान करने की अभ्यर्थना की । भगवान् ने भी उसे श्रावकधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। तब से जिनदास श्रमणोपासक बन गया। इस के अनन्तर उस के श्रमणधर्म में दीक्षित होने से लेकर मोक्षगमन पर्यन्त सारी जीवनचर्या श्री सुबाहुकुमार की तरह ही है। -" यह है पांचवें अध्ययन का पदार्थ जिस की जिज्ञासा श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से की थी।
इस पांचवें अध्ययन के कथासन्दर्भ का तात्पर्य भी मानवभव प्राप्त प्राणियों को दानधर्म और विशेष कर सपात्रदान में प्रवृत्त कराना है । शास्त्रकारों ने जो सुपात्रदान का फल मनुष्य आयु का बन्ध यावत् मोक्ष को
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