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६८४]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[द्वितीय अध्याय
है। जहां कहीं कुछ विभिन्नता श्री, उस का उल्लेख मूल में सूत्रकार द्वारा स्वयं ही कर दिया गया है । शेष जीवन, जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त सब सुबाहुकुमार के जीवन के समान ही होने से सूत्रकार ने उसका उल्लेख नहीं किया। इसी लिये विवेचन में भी उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा गया । कारण कि सबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्तों में प्रत्येक बात पर यथाशक्ति पूरा २ प्रकाश डालने का यत्न किया गया है।
सूत्रकार ने पुण्यश्लोक परमपूज्य श्री सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त से स्वनामधन्य श्री भद्रनन्दी के जीवनवृत्तान्तों से अधिकाधिक समानता के दिखलाने लिए ही मात्र-उसभपुरे गरे थूभकरंडगंइत्यादि पद, तथा–पासाद. सावगधम्म- यहां बिन्दु-सुबाहुस्स जाव महाविदेहे -- यहां जावयावत् पद दे कर वर्णित विस्तृत पाठ की ओर संकेत कर दिया है। अतः सम्पूर्ण पाठ के जिज्ञासु पाठकों को सुबाहुकुमार के अध्ययन का अध्ययन अपेक्षित है । नामगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई अन्तर नहीं है ।
-निक्लेवो-का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है। प्रस्तुत में उस से संसूचित सूत्रांश निम्नोक्त है
-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तण सुहविवागाणं वितियस्ल अभयास्स अयम? पराणत्त । तिबेमि । अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कथन किया है । मैंने जैसा भगवान् से सुना था, वैसा तुम्हें सना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है।
प्रस्तुत अध्ययन में भी प्रथम अध्ययन की तरह सुपात्रदान का महत्त्व वर्णित हुश्रा है । स पात्रदान से मानव प्राणी की जीवननौका संसारसागर से अवश्य पार हो जाती है। यह बात हस अध्ययन की अर्थविचारणा से स्पष्टतया प्रमाणित हो जाती है। इसलिये मुमुक्षु जीवों के लिये उस का अनुसरण कितना श्रावश्यक है ? यह बतलाने की विशेष आवश्यकता नहीं रहती।
॥ द्वितीय अभ्याय सम्पूर्ण ॥
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