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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन
[प्रथम अध्याय
है उस को सफल करने के लिए पूरा २ उद्योग करना और पूरी सफलता प्राप्त करनी । तुम क्षत्रियकुमार हो, इस लिये संयमव्रत के सम्यक अनुष्ठान से कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में पूरी २
आत्मशक्ति का प्रयोग करना और अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद को कभी स्थान न देना । उस से हर समय सावधान रहना । हम भी उसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब तेरी ही तरह संयमशील बन कर कर्मरूपी शत्रओं के साथ युद्ध करने के लिए अपने आप को प्रस्तुत करेंगे। इस प्रकार पुत्र को समझा कर महाराज श्रेणिक ओर महारानी धारिणी भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के अपनी राजधानी की ओर स्थित हुए
माता पिता के चले जाने के बाद मेषकुमार ने पंचमुष्टि लोच कर के भगवान् के पास आकर विधिपूर्वक वन्दन किया और हाथ जोड़ इस प्रकार प्रार्थना की
प्रभो ! यह संसार जरामरणरूप अनि से जल रहा है। जिस तरह जलते हुए घर में से . सर्वप्रथम बहुमूल्य पदार्थों को निकालने का यान किया जाता है, उसी प्रकार मैं भी अपनो अमूल्य आत्मा को संसार की
मि से निकालना चाहता हूँ। मेरी उत्कट इच्छा यही है कि मुझे इस अग्नि में न जलना पड़े । इसी लिये मैं आपश्री के चरणों में दीक्षित होना चाहता हूं। कृपया मेरी इस कामना को पूरा करो।
मेघकुमार की इस प्रार्थना पर भगवान् ने उसे मुनिधम की दोक्षा प्रदान की और मुनिधर्मोचित शिक्षाय देकर उसे मुनिधर्म की सारी चर्या समझा दी तथा मेघकुमार भी भगवान् वीर के आदेशानुसार संयमव्रत का यथाविधि पालन करते हुए समय व्यतीत करने लगे।
.. यह है मेधकुमार का दीक्षा तक का जोवनवृत्तान्त, जिस से श्री सुबाहुकुमार की दीक्षा तक को चर्या को उपमित किया गया है । तात्पर्य यह है कि जिस तरह मेबकुमार के हृदय में दीक्षा लेने के भाव उत्पन्न हुए तथा माता पिता से आज्ञा प्राप्त करने का उद्योग किया और माता पिता ने परीक्षा लेने के अनन्तर उन्हें सहर्ष श्राज्ञा प्रदान की और अपने हाथ से समारोहपूर्वक निष्कमणाभिषेक कर के उन्हें भगवान् को समर्पित किया उसी तरह श्री सुबाहुकुमार के विषय में भी जान लेना चाहिये। यहां पर केवल नामों का अन्तर है और कुछ नहीं। मेघकुमार के पिता का नाम अणिक है और सुबाहुकुमार के पिता का नाम अदीनशत्रु है । दोनों की माताए एक नाम की थीं। मेवकुमार राजगृह नगर में पत्ला और उस ने गुणशिलक नामक उद्यान में दीक्षा ली, जब कि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर में पला और उस ने दीक्षा पुष्पकरण्डक नामक उद्यान में ली । शेष, वृत्तान्त एक जैसा है।
-हतु०-यहां के बिन्दु से - समणं भगवं महावोरं- इत्यादि पाठ का ग्रहण है। समग्रपाठ के लिये 'श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्याय के २३वे सूत्र से ले कर २६वें सूत्र तक के पाठ को देखना चाहिये। इतने पाठ में श्री मेघकुमार का समस्त वर्णन विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है।
निष्क्रमण नाम दीक्षा का है और अभिषेक का अर्थ है - दीक्षासम्बन्धी पहिली तैयारी । तात्पर्य यह है कि दीक्षा की प्रारंभिक क्रियासम्पत्ति को निष्क्रमणाभिषेक कहा जाता है। जिस ने घर, बार आदि का सर्वथा परित्याग कर दिया हो, वह. अनगार कहलाता है । तथा इरियासमिते जाव बंभयारीयहां पठित जाव-यावत् पद से -भासासमिते, एसणासमिते, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिते, उच्चारपासवणखेलसिंघाण जल्लपरिठ्ठावणियास मिते, म समिते. वयसमिते, कायसमिते, मणगुत्त, वयगुत्ते, कायगुत्त, गुत्ते, गुत्तिदिये, गुत्तभयारी-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का अर्थ इस प्रकार है
(१) भागमोदयसमिति पृष्ठ ४६ से ले कर पृष्ठ ६० तक का सूत्रपाठ देखना चाहिये। (२) न विद्यते अगारादिकं द्रव्यजातं यस्यासौ अनगारः । (वृत्तिकार:)
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