Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 754
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय ९-मनोगुप्ति-श्रातध्यान तथा रौद्रध्यान रूप मानसिक अशुभ व्यापार को रोकने का नाम मनोगुप्ति है। १०-वचनगुप्ति-वाचनिक अशुभ व्यापार को रोकना अर्थात् विकथा न करना, झूठ न बोलना निंदा चुगली अादि दूषित वचनविषयक व्यापार को रोक देना ववन गुप्ति शब्द का अभिप्राय है । ११-कायगुप्ति - कायिक अशुभ व्यागर को रोकना अर्थात् उठने, बैठने, हिलने, चलने, सोने आदि में अविवेक न करने का नाम कायगुपित है। पूर्वोक्त ८ समितियों से, तीन गुप्तियों से युक्त और गुप्त - मन वचन और काया को सावध प्रवृत्तियों से इन्द्रियों को रोकने वाला और 'गुप्तेन्द्रिय -कच्छर को भाँति इन्द्रियों को वश में रखने वाला तथा ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला। प्रश्न-समिति और गुप्ति में क्या अन्तर -भेद है? उत्तर-योगों में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है. और अशुभ योगों से आत्ममंदिर में आने वाले कर्मरज को रोकना गुति कहलाती है । दूसरे शब्दों में मनःसमिति का अर्थ है - कुशल मन की प्रवृत्ति । मनोगुप्ति का अर्थ है-अकुशल मनोयोग का निरोध करना । यही इन में अन्तर है। सारांश यह है कि गुप्से में असत् क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सत् क्रिया का प्रवतन मुखय है । अतः समिति केवल सम्यक् प्रवृत्ति रूप ही होती है और गुप्ति निवृत्तिरूप । .. - प्रश्न-महाराज श्रेणिक ने अोघे और पात्रों का मूल्य दो लाख मोहरें दिया तथा नाई को एक लाख मोहरे मेवकुमार के शिरोमुण्डन के उपलक्ष्य में दी। इस में क्या रहस्य रहा हुआ है। उत्तर-एक साधारण बुद्धि का बालक भी जानता है कि एक पैसे के मूल्य वाली चीज़ एक पैसे में ही खरीदी जा सकती है, दो पैसों में नहीं । नोतिशास्त्र के परम पण्डित, पुरुषों की ७२ कलात्रो में प्रवीण और परम मेवावी मगधेश साधारण मूल्य वाले पदार्थ का अधिक मूल्य कैसे दे सकते हैं ? तब अोघे और पात्रों की अधिक कीमत दो लाख मोहरें देने का अभिप्राय और है जिस की जानकारी के लिये मनन एवं चिन्तन अपेक्षित है। मेघकमार के लिये जिस दुकान से अोधा और पात्र ख़रीदे गये थे, उस दुकान का नाम शास्त्रों में “२कुत्तियावण-कुत्रिकापण" लिखा है । कु नाम पृथिवी का है। त्रिक शब्द से अधोलोक, मध्यलोक (१) –“ गुत्ता गुत्ति दिय त्ति " -गुप्तानि शब्दादिषु रागादि निरोधात् . अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा । (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) (4) "-कुत्तियावण उत्ति" -देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमत्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसम्पादक आपणो - हहः कुत्रिकापणः । (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकार:) इस का भावाथ यह है कि देवता के अधिष्ठाता होने से स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक हुन तीन लोकों में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं की जहां उपलब्धि हो सके उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में कुत्रिकापण की छाया कुत्रिजापण ऐसी भी की है। वहां का स्थल मननीय होने से यहां दिया जाता है कत्रिकापणः-कुरिति पृथिव्याः सज्ञा। कूनां स्वर्गपातालमर्त्यभूमीनां त्रिक तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशः इति कृत्वा लोका अपि कुत्रिकमुच्यते । कुत्रिकमापणायति व्यवहरति यत्र हऽसौ कत्रिकापणः । अथवा धातुमूलजीवलक्षण : त्रिभ्यो जातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः । कौ पृथिव्यां त्रिजमापणायति-व्यवहरति यत्र हऽ सौ कुत्रिजापणः । For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829