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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
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हुए श्रावधर्म का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है ।
८ - अन्तकृद्दशांग - इस में गजसुकुमाल आदि महान् जितेन्द्रिय महापुरुषों के तथा पद्मावती आदि महासतियों के मोक्ष जाने तक के कृत्यों का वर्णन किया गया है ।
९- श्रनुचरोपपातिकदशांग- -इस में जाली आदि महातपस्वियों के एवं धन्ना आदि महापुरुषों के विजय, वैजयन्त, आदि अनुत्तर विमानों में जन्म लेने आदि का वर्णन किया गया है ।
१० - प्रश्नव्याकरण - इस में अंगुष्टादि प्रश्नविद्या का निरूपण तथा पांच श्राश्रवों और पांच संवरों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया था, परन्तु समयगति की विचित्रता के कारण वर्तमान में मात्र पांच आश्रवों और पांच संवरों का ही वर्णन उपलब्ध होता है । अंगुष्टादि प्रश्नविद्या का वर्णन इस में उपलब्ध नहीं होता।
[प्रथम अध्याय
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११ - विपाकश्रुत इस में मृगापुत्र आदि के पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का अशुभ परिणाम तथा सुबाहुकुमार आदि के पूर्वसंचित शुभ कर्मों के शुभ विपाक का वर्णन किया गया है ।
कालदोषकृत बुद्धिबल और आयु की कमी को देख कर सर्वसाधारण के हित के लिये अंगों में से भिन्न २ विषयों पर गणधरों के पश्चाद्वर्ती श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों ने जो शास्त्र रचे हैं वे उपांग कहलाते हैं । उपांग १२ होते हैं । उन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
१ - श्रपपातिकसूत्र - यह पहले अङ्ग आचाराङ्ग का माना जाता है । इस में चंपा नगरी, पूर्णभद्र यक्ष, पूर्णभद्र चैत्य, अशोकवृक्ष, पृथ्वी शिला, कोणिक राजा, राणी धारिणी, भगवान् महावीर तथा भगवान् के साधुओं का वर्णन करने के साथ २ तप का, गौतमस्वामी के गुणों, सशयों, प्रश्नों तथा सिद्धों के विषय में किये प्रश्नोत्तरों का वर्णन किया गया है।
२ - राजप्रश्नीय - यह सूत्रकृतांग का उपाङ्ग है । सूत्रकतांग से क्रियावादी अक्रियावादी आदि ६३३ मतों का वर्णन है । राजा प्रदेशी क्रियावादी था, इसी कारण उसने श्री केशी श्रमण से जीवविषयक प्रश्न किये थे । क्रियावाद का वर्णन सूत्रकृतांग में है । उसी का दृष्टान्तों द्वारा विशेष वर्णन राजप्रभीयसूत्र में है । ३ - जीवाजीवाभिगम - यह तीसरे अंग स्थानांग का उपांग है । इस में जीवों के २४ स्थान, अवगाहना, आयुष्य, अबहुत्व, मुख्यरूप से अढाई द्वीप तथा सामान्यरूप से सभी द्वीप समुद्रों का वर्णन है । स्थानांगसूत्र में संक्षेप से कही गई बहुत सी वस्तुर इस में विस्तारपूर्वक बताई गई हैं।
४ - प्रज्ञापना - यह समवायांगसूत्र का उपांग है। समवायांग में जीव, जीव, स्वसमय, परसमय, लोक, लोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। एक २ पदार्थ की वृद्धि करते हुए सौ पदार्थों तक का वर्णेन समवायांगसूत्र में है। इन्हीं विषयों का वर्णन विशेषरूप से प्रज्ञापना सूत्र में किया गया है । इस में ३६ पद हैं । एक २ पद में एक २ विषय का वर्णन है ।
५ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - इस में जम्बूद्वीप के अन्दर रहे हुए भरत आदि क्षेत्र, वैताढ्य आदि पर्वत, पद्म आदि द्रह, गंगा आदि नदियां, ऋषभ आदि कूट तथा ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती का वर्णन विस्तार से किया गया है। ज्योतिषी देव तथा उन के सुख आदि भी बताए गये हैं । इस में दस अधिकार हैं ।
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६ - चन्द्र प्रज्ञप्ति - चन्द्र की ऋद्धि, मंडल, गति, गमन, संवत्सर, वर्ष, पक्ष, महीने, तिथि, नक्षत्र का कालमान, कुल और उपकुल के नक्षत्र, ज्योतिषियों के सुख आदि का वर्णन इस सूत्र में बड़े विस्तार से है । इस सूत्र का विषय गणितानुयोग है । बहुत गहन होने के कारण यह सरलतापूर्वक समझना कठिन है । ७ - सूर्यप्रज्ञति - यह उत्कालिक उपांग सूत्र है । इस में सूर्य की गति, स्वरूप, प्रकाश,
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आदि