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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६७५
सादृश्य, ६-अधिवास -निवास, ७ -योग्य, ८-अाचार, ९-कल्प-शास्त्र, १० - कल्प - राजनीति इत्यादि व्यवहार जिन देवलोकों में हैं वे देवलोक... । इन अर्थों में से प्रकृत में अन्तिम अथ का ग्रहण अभिमत है।
देवलोक २६ माने जाते हैं । १२ कल्प और १४ कल्पातीत । इन में १- सौधर्म, २- ईशान ३सनत्कुमार, ४ --महेन्द्र, ५ - ब्रह्म, ६ -लान्तक, ७ --महाशुक्र, ८-सहस्रार, ९-बानत, १.-प्राणत, ११-श्रारण, १२ - अच्युत, ये बारह कल्पदेव कहलाते हैं । तथा कल्पातीतों में पुरुषाकृतिरूप लोक के ग्रीवास्थान में अवस्थित होने के कारण १-भद्र,२-सुभद्र, ३-सुजात, ४-सुमनस, 1-प्रियदशन, ६ -सुदशन, ७अमोघ, ८-- सुप्रतिवद्ध, ९-यशोधर ये ९ अवेयक कहलाते हैं । सब से उत्तर अर्थात् प्रधान होने से पांच अनुत्तर विमान कहलाते हैं । जैसे कि-१-विजय, २-वैजयंत, ३-जयन्त, ४ - अपराजित, ५-सर्वार्थसिद्ध ।
सौधर्म से अच्युत देवलोक तक के देव, कल्पोपपन्न ओर इन के ऊपर के सभी देव इन्द्रतुल्य होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं । मनुष्य लोक में किसी निमित्त से जाना हुआ तो कल पोपपन्न देव ही जाते आते हैं । कल्पातीत देव अपने स्थान को छोड़ कर नहीं जाते । हमारे सुबाहुकुमार अपनी आयु को पूर्ण कर कल्पोपपन्न देवों के प्रथम विभाग में उत्पन्न हुए, जो कि सौधर्म नाम से प्रसिद्ध है । सारांश यह है कि सुबाहुकुमार मुनि ने जिस लक्ष्य को ले कर राज्यसिंहासन को ठुकराया था तथा संसारी जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी, आज वह अपने लक्ष्य में सफल हो गए ? और साधुवृत्ति का यथाविधि पालन कर आयुपूर्ण होने पर पहले देवलोक में उत्पन्न हो गए और वहां की दवी संपत्ति का यथाकांच उपभोग करने लगे।
श्रमण भगवान् महावीर बोले - गौतम ! सुबाहु मुनि का जीव देवलोक के सुखों का उपभोग करके बहा की आयु. वहां का भव और वहां की स्थिति को पूरी कर के वहां से च्युत हो मनुष्यभव को प्राप्त करेगा अ वहां अनेक वर्षों तक श्रामण्यश्याय का पालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा । तदनन्तर वहां की अायु को समाप्त कर फिर मनुष्यभव को प्राप्त करेगा। वहां भी साधुधर्म को स्वीकार कर के उस का यथाविधि पालन करेगा और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त हो कर पांचवें कल्प-देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य और वहां से सातवें देवलोक में इसो भाँति वहां से फिर मनुष्यभव में, वहां से मृत्यु को प्राप्त हो कर नवमें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर फिर मनुष्य और वहां से ग्यारहवें देवलोक में जायगा। वहां से फिर मनुष्य बनेगा तथा वहां से सर्वार्थ सिद्ध में उत्पन्न होगा। वहां के सुखों का उपभोग कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहां पर तथारूप स्थविरों के समीप मुनिधर्म की दीक्षा को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुअा सम्यगदर्शन और सम्यगजान पूर्वक सम्यकतया भावचारित्र की आराधना से श्रात्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जला कर, कर्मबन्धनों को तोड़ कर अष्टविध कर्मों का क्षय करके परमकल्याणस्वरूप सिद्धपद को प्राप्त करेगा। दूसरे शब्दों में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, और परमात्मपद को प्राप्त कर के आवागमन के चक्र से सदा के लिये मुक्त हो जायेगा, जन्म मरण से रहित हो जायोगा।
-आउखएणं, भवावरणं, ठितिक्वएणं-इन पदों की व्याख्या वृत्ति कार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार हैकल्पिता मयाऽस्याजीविका कृता इत्यर्थः । कचदौपम्ये-यथा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रममि-- न्दुसूर्यकल्पा: साधवः। कविधिवासे-यथा-सौधर्मकल्पवासी शुक्रः सुरेश्वरः । उक्तं च - सामध्ये वर्णनायां छेदने करणे तथा। . औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्दं विदुबुधाः ।। (वृहत्कल्पसूत्रे भाष्यकारः)
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