________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६७१
विषयों का वर्णन है । इस में २० प्राभृत हैं ।
८-निरयावलिका - यह अाठवां उपांग है, इस के दस अध्ययन हैं और यह कालिक है । ९-कल्पावतंसिका - यह नौवां उपांग है, इस के दस अध्ययन हैं और यह कालिक है। १०-पुष्पिका- यह सूत्र कालिक है और इस के दस अध्ययन हैं । ११-पुष्पचूलिका-यह सूत्र कालिक है, इस के दस अध्ययन हैं। १२-वृष्णिदशा-यह सूत्र कालिक है और इस के बारह अध्ययन है । मूलसूत्र ४ हैं, जिन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
१-उत्तराभ्ययन - इस में विनयश्रत आदि ३६ उत्तर-प्रधान अध्ययन होने से यह उत्तराभ्ययन कहलाता है ।
२-दशवकालिक - यह सूत्र दश अध्ययनों और दो चू लिकाओं में विभक्त है। इस में प्रधानतया साधु के ५ महाव्रतो तथा अन्य प्राचारसम्बन्धी विषयों का वर्णन किया गया है, और यह उत्कालिक है ।
३-नन्दीसूत्र-इस में प्रधानतया मविज्ञान, तज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों का वर्णन किया गया है और यह उत्कालिक (जिस का कोई समय न हो) सूत्र है ।
४-अनुयोगद्वार-अनुयोग का अर्थ है -व्याख्यान करने की विधि । उपक्रम, निक्षेप. अनुगम और नय इन चार अनुयोगों का जिस में वर्णन हो उसे अनुयोगद्वार कहते हैं ।
छेदसूत्र भी ४ हैं । इन का नामपूर्वक संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
१-दशाश्रु तस्कंध-इस सूत्र में दश अध्ययन होने से इस का नाम दशाश्रु तस्कंध है और यह कालिक (जिस के पढ़ने का काल नियत हो) है।
२-वृहत्कल्प-कल्प शब्द का अर्थ मर्यादा होता है । साधुधर्म की मर्यादा का विस्तारपूर्वक प्रतिपादक होने से यह सूत्र वृहत्कल्प कहलाता है।
___३-निशीथ-इस सूत्र में बीस उद्देश में हैं । इस में गुरुमासिक, लघुमासिक तथा गुरु चातुर्मासिक लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन है।
४- व्यवहारसूत्र-जिसे जो प्रायश्चित्त अाता है उसे वह प्रायश्चित्त देना व्यवहार है । इस सूत्र में प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है । इस लिये इसे व्यवहारसूत्र कहते हैं ।
ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद ये सब ३१ सूत्र होते हैं। इन में आवश्यक सूत्र के संयोजन करने से इन की संख्या ३२ हो जाती है । साधु और गृहस्थ को प्रतिदिन दो बार करने योग्य आवश्यक अनुष्ठान या प्रतिक्रमण आवश्यक कहलाता है।
सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र, श्रावक का नवम व्रत आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक हैं। प्रकृत में सामायिक का अर्थ-आचारांग--यह ग्रहण करना अभिमत है। कारण कि मूल में-सामाइयमाइयाई-सामायिकादीनि-यह उल्लेख है। यह – एकारस अंगाई-एकादशांगानि-इस का विशेषण है। अर्थात् सामायिक है आदि में जिन के ऐसे ग्यारह अंग।
प्रश्न-सुबाहुकुमार को ग्यारह अंग पढाए गए - यह वर्णन तो मिलता है परन्तु उसे श्री आवश्यकसूत्र पढ़ाने का वर्णन क्यों नहीं मिलता, जो कि साधुजीवन के लिये नितान्त आवश्यक होता है ?
उत्तर-श्री आवश्यक सूत्र-, यह संज्ञा ही सूचित करती है कि साधुजीवन के लिये यह अवश्य
For Private And Personal