Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 755
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। और ऊर्श्वलोक का ग्रहण होता है । अथवा पृथिवी शब्द से अधः, मध्य और ऊर्ध्व इन तीनों भागों का ग्रहण करना इष्ट है । तात्पर्य यह है कि जिस दुकान में भूमि के निम्नभाग तथा ऊर्श्वभाग (पर्वतादि) एवं मध्य भाग (सम भूमि) इन तीनों भागों में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो सके उसे कुत्रिकापण कहते हैं । इस दुकान में एक ऐसा भी विभाग होता था जहां धार्मिक उपकरण होते थे जो सब के काम आते थे। वे उपकरण धार्मिक प्रभावना के लिये बिना मूल्य भी वितरण किये जाते थे । मूल्य देने वाला मूल्य देकर भी ले जा सकता था और उस मूल्य से फिर वही सामग्री तैयार हो जाती थी, जो कि धार्मिक कार्यों के उपयोग में पा जाया करती थी। इस के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी दान दे कर उस में वृद्धि की जा सकती थी। महाराज श्रेणिक ने दो लाख मोहरें देकर रजोहरण और पात्रों का मूल्य देने के साथ २ धर्मप्रभावना के लिये उस धर्मोपकरणविभाग में दीक्षामहोत्सव के सुअवसर में अवशिष्ट मोहरें दान में दे डाली जो कि उन का दानभावना एवं धर्मप्रभावना का एक उज्ज्वल प्रतीक था, तथा अन्य धनी मानी गृहस्थों के सामने उन के कर्तव्य को उन्हें स्मरण कराने के लिये एक आदर्श प्रेरणा थी । ऐसा हमारा विचार है | रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। दीक्षा' -एक महान् पावन कृत्य है । महानता का प्रथम अंक है । इसीलिये यह उत्सव बड़े हर्ष से मनाया जाता है । इस उत्सव में विवाह की भाँति आनन्द की सर्वतोमुखी लहर दौड़ जाती है । अन्तर मात्र इतना ही होता है कि विवाह में सांसारिक जीवन की भावना प्रधान होती है, जब कि इस में आत्मकल्याण की एवं परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करने की मंगलमय भावना ही प्रधान रहा करती है। इसीलिये इस में सभी लोग सम्मिलित हो कर धर्मप्रभावना का अधिकाधिक प्रसार करके पुण्योपार्जन करते हैं और यथाशक्ति दानादि सत्कार्यों में अपने धन का सदुपयोग करते हैं । इसी भाव से प्रेरित हो कर महाराज श्रेणिक ने नाई को एक लाख मोहरें दे डाली । लाख मोहरें दे कर उन्हों ने यह आदर्श उपस्थित किया है कि पुण्यकार्यों में जितना भी प्रभावनाप्रसारक एवं पुण्योत्पादक लाभ उठाया जा सके उतना ही कम है। इस के अतिरिक्त भागमों में वर्णन मिलता है कि जिस समय भगवान् महावीर चम्पानगरी में पधारते हैं, उस समय उन के पधारने की सूचना देने वाले राजसेवक को महाराज कोणिक ने लाखों का पारितोषिक दिया। यदि पुत्रदीक्षामहोत्सव के समय खुशी में आकर मगधेश श्रेणिक ने नाई को पारितोषिक के रूप में एक लाख मोहर दे दी तो कौन सी आश्चर्य की बात है ? महाराज श्रेणिक ने जो कुछ किया वह अपने वैभव के अनुसार ही किया है, ऐसा करने से व्यवहारसम्बन्धी अकुशलता की कोई बात नहीं है। बड़ों की खुशी में छोटों को खुशी का अवसर न मिले तो बड़ों की खुशी का तथा उन के बड़े होने का क्या अर्थ ? कुछ नहीं । संभव है इसी लिए आज कल भी दीक्षार्थी के केशों को थाली में रख कर नाई सभी उपस्थित लोगों से दान देने के लिये प्रेरणा करता है और लोग भी यथाशक्ति उस की थाली में धनादि का दान देते है। धार्मिक हर्ष में दानादि सत्कार्यों का पोषित होना स्वाभाविक ही हैं । इस में विसंवाद वाली कोई बात नहीं है । प्रश्न - मेवकुमार की दीक्षा से पूर्व ही उसके माता पिता वहां से चले गये ? दीक्षा के समय वहां उपस्थित क्यों नहीं रहे ? उत्तर-माता पिता का हृदय अपनी संतति के लिये बड़ा कोमल होता है । जिस सन्तति को अपने सामने सर्वोत्तम वेषभूषा से सुसज्जित देखने का उन्हें मोह है, उसे वे समस्त वेषभूषा को उतार कर और (१) संस्कार विशेष या किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये आत्मसमर्पण करना ही दीक्षा का भावार्थ है। For Private And Personal

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