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१५८)
श्री विपाक सूत्र
[दूसरा अध्याय
से उज्झियर - वह उज्झितक । दारप. - बालक । पंचधातीपरिगहिते-पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा । तंजहा-जैसे कि अर्थात् उन धायमाताओं के नाम ये हैं- । खीरधातीए-क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली। मज्जण. - स्नान धात्री-स्नान कराने वाली । मंडण-मंडनधात्री-वस्त्राभूषण से अलंकृत कराने वाली । कीलावण. - क्रीडापनधात्री-क्रीड़ा कराने वाली । अकधातीए-अकधात्री गोद में खिलाने वाली, इन धायमाताओं के द्वारा । जहा-जिस प्रकार । दड्ढपतिराणे-दृढ़-प्रतिज्ञ का , जाव-यावत् , वर्णन किया है, उसी प्रकार । निस्वाय-निर्वात-वायुरहित । निव्वाघाय
आघात से रहित । गिरिकंदरमल्लीणे -पर्वतीय कन्दरा में अवस्थित । चंपयपायवे--चम्पक वृक्ष की तरह। सुहंसुहेण-सुख पूर्वक। परिवड्ढइ - वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
मलार्थ-तदनन्तर विजयमित्र सार्थवाद को सुभद्रा नाम की भार्या जो कि जातनिद्का थी अर्थात् जन्म लेते ही मरजाने वाले बच्चों को जन्म देने वाली थी । अतएव उसके उत्पन्न होते ही बाजक विनाश को प्राप्त हो जाते थे । तदनन्तर वह कूटग्राह गोत्रास का जीव दूसरी नरक से निकल कर सीधा इसी याणिजग्राम नगर के विजामत्र सार्थवाह की सुभद्रा भार्या के उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ-गों में आया । तदनन्तर किसी अन्य समय में नवमास परे होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया । जन्म देते ही उस बालक को सुभद्रा सार्थवाही ने एकान्त में कूड़ा गिराने की जगह पर डलवा दिया और फिर उसे उठवा लिया उठवा कर क्रमपूर्वक संरक्षण एवं संगोपन करती हुई वह उसका परिवर्तन करने लगी।
तदनन्तर उस बालक के माता पिता ने महान् ऋद्धिसत्कार के साथ कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र जन्मोचित वधाई बांटने आदि दी पुत्रजन्म-क्रिया और तीसरे दिन चन्द्रसूर्यदर्शन-सम्बन्धी 'उत्सवविशेष, छठे दिन कुल मर्यादानुसार जागरिका-जागरण महोत्सव किया । तथा उसके माता-पिता ने ग्यारहवें दिन के व्यतीत होने पर बारहवें दिन उसका गौण-गुण से सम्बन्धित गुणनिष्पन्न-गुणानरूप नामकरण इस प्रकार किया-चूंकि उत्पन्न होते ही हमाग यह बालक जन्मते ही एकान्त अशुचि प्रदेश में त्यागा गया था इसलिए हमारे इस बालक का उज्झितक कुमार यह नाम रखा जाता है । तदनन्तर वह उझितक कुमार क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मंडनधात्री, क्रीडापनधात्री, और अंधात्री इन पांच धायमातों से युक्त दृढ़प्रतिज्ञ की तरह यावत् निर्वात एवं निर्व्याघात पर्वतीय कन्दरा में विद्यमान चम्पक-वृक्ष की भांति सुख-पूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
टीका- प्रस्तुत सूत्र में गोत्रास के जीव का नरक से निकल कर मानव भव में उत्पन्न होने का
(१) पुत्रजन्म के तीसरे दिन चन्द्र और सूर्य का दर्शन तथा छठे दिन जागरणमहोत्सव ये समस्त बातें उस प्राचीन समय की कुलमर्यादा के रूप में ही समझनी चाहिये । आध्यात्मिक जीवन से इन बातों का कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
(२) क्षीरधात्री के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं -प्रथम तो यह कि जिस समय बालक के दुग्धपान का समय होता था । उस समय उसे माता के पास पहुँचा दिया जाता था, ध्यान रखने वाली और बालक को माता के पास पहुँचाने वाली स्त्री को क्षीरधात्री कहते हैं। दूसरा विचार यह है कि-स्तनों में या स्तनगत दूध में किसी प्रकार का विकार होने से जब माता बालक को दूध पिलाने में असमर्थ हो तो बालक को दूध पिलाने के लिए जिस स्त्री का प्रबन्ध किया जाए उसे क्षीरधात्री कहते हैं । दोनों विचारों में से प्रकृत में कौन विचार आदरणीय है ? यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है ।
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