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दूसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
वर्णन किया गया है। वह दूसरी नरक से निकल कर सीधा वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा स्त्री की कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । इस का तात्पर्य यह है उस ने मार्ग में और किसी योनि में जन्मधारण नहीं किया। दूसरे शब्दों में उस का मानव भव में अनंतरागमन हुआ, परम्परागमन नहीं ।
___ सुभद्रादेवी पहले जातनिदुका थी, अर्थात् उस के बच्चे जन्मते ही मर जाते थे। “जातनिंदुयाजातनिदुका" की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है
___“जातान्युत्पन्नान्यपत्यानि निद्रु तानि निर्यातानि मृतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिदुता, अर्थात् जिस की सन्तान उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाय उसे जातनिंदुआ-जातनिद्रता कहते हैं । कोषकारों के मत में जातनिंदुया पद का जातनिंदुका यह रूप भी उपलब्ध होता है।
नवमास व्यतीत होने के अनन्तर सुभद्रादेवी ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होने के अनन्तर उस ने बालक को कूड़े कचरे में फैकवा दिया, फिर उसे उठवा लिया गया । ऐसा करने का सुभद्रा का क्या प्राशय था ? इस विचार को करते हुए यही प्रतीत होता है कि उस ने जन्मते ही बालक को इसलिए त्याग दिया कि उस को पहले बालकों की भांति उस के मर जाने का भय था। रूड़ी पर गिराने से संभव है यह बच जाए, इस धारणा से उस नवजात शिशु को रूड़ी पर फिंकवा दिया गया, परन्तु वह दीर्घायु होने से वहां-रूड़ी' पर मरा नहीं। तब उस ने उसे वहां से उठवा लिया।
बालक के जीवित रहने पर उस को जो असीम आनन्द उस समय हुआ, उसी के फलस्वरूप उस ने पुत्र का जन्मोत्सव मनाने में अधिक से अधिक व्यय किया, और पुत्र का गुण निष्पन्न नाम उज्झितक रखा।
नाम-करण की इस परम्परा का उल्लेख श्री अनुयोद्वार सूत्र में भी मिलता है। वहां लिखा है -
से किं तं जीवियनामे १ अवकरए उक्कुरुडए उझियर कज्जवए सुप्पए से तं जीवियनामे।
(स्थापना- प्रमाणाधिकार में ) (१) प्रस्तुत कथा- सन्दर्भ में लिखा है कि माता सुभद्रा ने नवजात बालक को रूड़ी पर गिरा दिया, गिराने पर वह जीवित रहा, तब उसे वहां से उठवा लिया । यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मराज के न्यायालय में जिसे जीवन नहीं मिला वह केवल रूड़ी पर गिरादेने से जीवन को कैसे उपलब्ध कर सकता है ? जीवन तो आयुष्कर्म की सत्ता पर निर्भर है । रूड़ी पर गिराने के उस का क्या सम्बन्ध ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव में गिराए गए उस नवजात शिशु को जो जीवन मिला है उस का कारण उस का रूड़ी पर गिराना नहीं प्रत्युत उस का अपना ही आयुष्कर्म है । आयुष्कर्म की सत्ता पर ही जीवन बना रह सकता है। अन्यथा -आयुष्कर्म के अभाव में एक नहीं लाखों भी उपाए किये जाएं तो भी जीवन बचाया नहीं जा सकता. एवं बढ़ाया नहीं जा सकता । रही रूड़ी पर गिराने की बात, उस के सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि प्रचीन समय में बच्चों को लड़ी आदि पर गिराने की अन्धश्रद्धामूलक प्रथा - रूढ़ि चल रही था जिस का आयुष्कर्म की वृद्धि के साथ कोई सन्बन्ध नहीं रहता था ।
(२) - "से किं तं जीवियहेउ"मित्यादि इह यस्य जातमात्र किञ्चिदपत्यं जीवननिमित्तमवकरादिध्वस्यति, तस्य चावकरक;, उत्कुरुटक इत्यादि यन्नाम क्रियते तज्जीविकाहेतोः, स्थापनानामाख्यायते"सुप्पए" त्ति यः शूर्पे कृत्वा त्यज्यते तस्य शूर्पक एव नाम स्थाप्यते। शेष प्रतीतमिति - वृत्तिकारः।
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