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श्री विपाक सूत्र -
[ सप्तम अध्याय
में आने पर सुखी जीव भी दुःखों का केन्द्र बन जाता है । उसको चारों ओरं दु:ख के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता । वह यदि सुवर्ण को छू ले तो वह भी उसके अशुभ कर्म के प्रभाव से मिट्टी बन जाता है । सारांश यह है कि प्राणि मात्र की जीवनयात्रा कर्मों से नियंत्रित है. उस के अधीन हो कर ही उसे अपनी मानवलोला का सम्बरण या विस्तार करना होता है । शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही संसार में सुख और दुख का चक्र भ्रमण कर रहा है अर्थात् सुख के बाद दु.ख और दु.ख के अनन्तर सुख यह चक्र बरावर नियमित रूप से चलता रहता है
बालक उम्बर दत्त अभी पूरा युवक भी नहीं हो पाया था कि फलोन्मु व हुए अशुभ कर्मों ने उसे श्रा दबाया। प्रथम तो सेठ सागरदत्त का समुद्र में जहाज़ के जलमग्न हो जाने के कारण अकस्मात् ही देहान्त हो गया और उसके बाद पतिविरह से अधिकाधिक दुःखित हुई सेठानी गंगादत्ता ने भी अपने पतिदेव के मार्ग का ही अनुसरण किया। दोनों ही परलोक के पथिक बन गये तत्पश्चात् अनाथ हुए उम्बरदत्त की पतक जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति पर दुसरों ने अधिकार जमा लिया और र.ज्य की सहायता से उसको घरसे बाहिर निकाल दिया गया। कुछ दिन पहले उम्बरदत्त नाम का जो बालक अनेक दास और दासियों से घिरा रहता था । आज उसे कोई पूछता तक नहीं । अशुभ कमां के प्रभाव की उष्णता अभी इतने मात्र से हो ठंडी नहीं पड़ी थी किन्तु उसमें और भी उत्त जना प्रा गई। उम्बरदत के नीरोग शरीर पर रोगों का अाक्रमण हा वह भी एक दो का नहीं किन्तु सोलह का और वह भी क्रमिक नहीं किन्तु एक बार ही हश्रा। गोग भी सामान्य रोग नहीं किन्तु म रोग उत्पन्न हुए। १ .श्वास, २ कास और 1- भगंदर से लेकर १६ - कुष्ठपर्यन्त १६ प्रकार के महारोगों के एक बार ही आक्रमण से उम्बरदत्त का कांचन जैसा शरीर नितान्त विकृत अथच नष्टप्राय हो गया। उसके हाथ पांव गल सड़ गये । शरीर में से रुधिर
और पूय बहने लगा। कोई पास में खड़ा नहीं होने देता, इत्यादि । देखा कर्मों का भयंकर प्रभाव !, कहां वह शैशवकाल का वैभवपूर्ण सुखमय जीवन और कहां यह तरूणकालीन दुःखपूर्ण भयावह स्थिति ?, कमदेव । तुझे धन्य है
__भगवान् महावीर बोले . गौतम ! यह सेठ सागरदत्त और सेठानी गंगादत्ता का प्रियपुत्र उम्बरदत्त है, जिसे तुमने नगर के चरों दिगद्वारों में प्रवेश करते हुए देखा है, तथा जिसे देख कर करुणा के मारे तुम कांप उठे हो। प्रमादी जीव कर्म करते समय ना छ विचार करता नहीं और जब उन के फल देने का समय आता है तो उसे भोगता हुअा रोता और चिल्लाता है परन्तु इस रोने और चिल्लाने को सुने कौन ?, जिस जीव ने अपने पूर्व के भवों में नानाप्रकार के जीव जन्तुओं को तड़पाया हो, दुखी किया हो तथा उन के मांस से अपने शरीर को पुष्ट किया हो, उस को अागामी भवों में दुःख - पूर्ण जीवन प्राप्त होना अनिवार्य होता है । यह जो आज रोगक्रान्त हो कर तड़प रहा है, वह इसी के पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का प्रत्यक्ष फल है।
ठिति० जाव नामाधज्जं-" यहां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ १५६ पर पढ़े गए "--ठितिपडियं च चन्दसूरदसणं च जागरियं च महया इढिसक्का समुदए करेति, तते गं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्त संपत्ते वारसाहे अयमेयारूव गोगणं गुणनिष्फन्नं-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिये।
"-पंचधातीपग्ग्गिहिते जाव परिवड्ढति - " यहां पठित जान - यावत् पद से पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए -तंजहा-खीरधातीर १ मज्जण- से ले कर -सुहंसुहेणं- यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये ।
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