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५४८]
श्री विपाक सूत्र
[दशम अध्याय
एक वार सिद्धगति में पहुंच जाता है, वह फिर लौट कर कभी संसार में नहीं आता।
विपाकश्रुत के दो विभाग हैं, पहला दु:खविपाक और दूसरा सुखविपाक । जिस में हिंसा, असत्य, चौर्य,मैथुन आदि द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों के दुःखरूप विपाक – फल वर्णित हों, उसे दुःखविपाक कहते हैं,
और जिस में अहिंसा, सत्य आदि से जनित शभ कर्मों का विपाक वर्णन किया गया हो, उसे सुखविपाक कहते हैं । दुःखविपाक में -१ - मृगापुत्र, २- उज्झितक, ३-अभग्नसेन, ४-शकट, ५- वृहस्पति, ६नन्दिवर्धन, ७-उम्बरदत्त, ८- शौरिकदत्त, ९- देवदत्ता और १०-अजू-ये दश अध्ययन हैं । मृगापुत्र उज्झितक श्रादि का वर्णन पीछे कर दिया गया है । अजूश्री नामक दसवें अध्ययन की समाप्ति के साथ विपाकश्रुत का दशाध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त होता है।
मृगापुत्र से ले कर अंजूश्रीपर्यन्त के दश अध्ययनों में वर्णित कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार को यदि अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में कहा जाय तो वह इतना ही है कि मानव जीवन को पतन की ओर ले जाने वाले हिंसा और व्यभिचारमूलक असत्कर्मों के अनुष्ठान से सर्वथा पराङ्मुख हो कर आत्मा की आध्यात्मिक प्रगति में सहायकभूत धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होने का यत्न करना और तदनुकूल चारित्रसंगठित करना । बस इसी में मानव का आत्मश्रेय निहित है। इस के अतिरिक्त अन्य जितनी भी सांसारिक प्रवृत्तियें है, उन से प्रात्मकल्याण की सदिच्छा में कोई प्रगति नहीं होती। इस भावना से प्रेरित हुए साधक व्यक्ति यदि उक्त दशों अध्ययनों का मननपूर्वक अध्ययन करने का यत्न करेंगे तो आशा है उन को उस से इच्छित लाभ की अवश्य प्राप्ति होगी। बस इतने निवेदन के साथ हम श्री विपाकश्रुतस्कन्ध के प्रथम श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी विवेचन को समाप्त करते हुए पाठकों से प्रस्तुत प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों से प्राप्त शिक्षाओं को जीवन में उतार कर साधनापथ में अधिकाधिक अग्रसर होने का प्रयत्न करेंगे, ऐसी आशा करते हैं।
॥ दशम अध्ययन समाप्त । ॥ विपाकश्रुत का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त।
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