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६५८]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
संसार भर के जितने मधुर से मधुर एवं कोमल से कोमल फल फूल हैं, उन सब का ग्रहण इठ में वर्जित होता है । भोजन के ग्रहण में भी बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है । भिक्षा से जीवननिर्वाह करना होता है। इस विषय में तो इतनी अधिक कठिनाई है कि जो तेरे जैसे राजसी ठाठ में पले हुए सुकुमार युवक की कल्पना में भी नहीं था सकती । नीरस भोजन, पृथ्वी पर सोना, दंशमशकादि का काटना और शीतातप का लगना आदि ऐसे अनेक कष्ट झेलने पड़ते है कि जिन की तेरे जैसे राजकुमार को कभी कल्पना भी नहीं हो सकती। ऐसे विकट मार्ग में गमन करने से पहिले अपने आत्मबल को भी देख लेना चाहिये । कहीं इस नवीन वैराग्य की बाढ़ में तरने के बदले अपने आप को खो देने की भूल न कर बैठना । तू अभी बच्चा है। तेरा अनुभव इतना विशद नहीं। प्रत्येक काय में उस के प्रारम्भ से पहले उस से निष्पन्न होने वाले हानि लाभ का विचार करना नितान्त अावश्यक होता है । इस लिये पुत्र ! मेरी तो इस समय तेरे लिये यही सम्मति है कि तू अभी दीक्षा के विचार को स्थगित कर दे।
माता पिता के इस उपदेश का भी मेधकुमार के हृदय पर कुछ असर नहीं हुआ, प्रत्युत कठिनाई की बातों को सुन कर वह कुछ उत्तेजित सा होकर बोला कि माता जी ! संयम महान् कठिन है, यह मैं जानता हूं और यह भी जानता हूं कि इस के धारक वीर पुरुष हो हो सकते हैं। यह काम कायरों और कमज़ारों का नहीं, वे तो प्रारम्भ में ही फिसल जाते हैं । परन्तु मैं तो एक वीर क्षत्रियाणी का वीरपुत्र हूं और क्षात्रधर्म का जीता जागता प्रतीक हूँ : वीरांगना के प्रात्मजों में दुर्बलता की शंका करना नितरां भ्रम है। मां! एक सिंहनी अपने पुत्र को रणसंग्राम से पीछे हटने का उपदेश दे, यह देख मुझे तो आश्चर्य होता है। एक क्षत्रिय कमार होता हा मैं संयम की कठिनता से भयभीत हो जाऊयह तो आप को स्वप्न में भी ख्याल नहीं करना चाहिये। "तेजस्विनः क्षणमसूनपि संत्यजन्ति । सत्यवतप्रणयिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् " अर्थात् तेजस्वी, धीर और वीर पुरुष अपने प्राणों का त्याग कर देते हैं परन्तु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा को भंग नहीं होने देते । भला मां! यह तो बतलाश्रो कि संसार में कोई ऐसा काम भी है जिस में किसी न किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़े १ माता बच्चे को जन्म देते समय कितनी व्यापक वेदना का अनुभव करती है ? यदि वह उस असह्य वेदना को सह लेती है तभी तो अपनी गोद को बच्चे से भरी हुई पाती है और "-मां !, मां !-" हस मधुर ध्वनि से अपने कर्णविवरों को पूरित करने का हर्षपूर्ण पुण्य अवसर प्राप्त करती है ।
__माता जी ! मुझे संयम की कठिनाइयों से भयभीत करके संयम से पराङमुख करने का विफल प्रयास मत करो । मैं तो "कार्य वा साधयामि देहं वा पातयामि'-इस प्रतिज्ञा का पालन करने वाला हूँ। इस लिये मुझे संयम में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों से अणुमात्र भी भय नहीं है । आप इस विषय में सर्वथा निश्चिन्त रहें । आप का यह वीर बालक आप की शुभकीर्ति में किसी प्रकार का लांछन नहीं लगने देगा। अतः मुझे दीक्षाग्रहण करने की श्राज्ञा प्रदान करो १ माता के चप रहने पर वह फिर बोला
वीर माता अपने पुत्र को रणक्षेत्र में जाने के लिये स्वयं सजा कर भेजती है, परन्तु श्राज न जाने उसे क्या हो गया १ मां ! मैं तो कमरूपी शत्रुओं के महान् दल को विध्वंस करने जा रहा हूं, मुझे उस के लिये स्वयं तैयार करो ? योग्य माताओं के आदर्श को अपना कर अपने इस वीर बालक को संयमयात्रा की आज्ञा प्रदान करो ? अब तो सौभाग्यवश मुझे श्रमण भगवान महावीर जैसे सेनानायक फा संयोग प्राप्त हो रहा
(१) कार्य को सिद्ध कर लूगा या उस की सिद्धि में जीवन को अर्पण कर दूंगा, अर्थात् कार्यसिद्धि के लिये इतनी दृढ़ता है तो उसके लिये मृत्युदेवी का सहर्ष प्रालिंगन कर लूगा ।
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