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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
है। मैं उन के शासन में अवश्य विजय प्राप्त करूंगा। ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है । इस लिये मां ! उठो तुम स्वयं चल कर मुझे भगवान् के चरणों में जाकर उन्हें अर्पण कर दो और अन्ततोगत्वा यही समझ लेना कि मेरा वीर पुत्र अपनी प्रान को बचाने की खातिर रणक्षेत्र में कूद पड़ा है।
मेघकुमार के पिता महाराज श्रेणिक बड़े नीतिज्ञ थे । उन्हों ने सोचा कि कभी कभी अनेक युवक भावुकता के प्रवाह में बहते हुए अंतरंग में स्थायी और दृढ़ संकल्पों के अभाव में भी स्थायी प्रभाव रखने वाले कार्यों में जुट जाते हैं । उस का फल यह होता है कि तीर तो हाथ से छूट जाता है मात्र पश्चात्ताप पल्ले रह जाता है । यद्यपि मेघ कुमार बुद्धिमान् और सुशोल है तथापि युवक हो तो है । अस्तु, इस की दृढ़ता की प्रथम जांच करनी चाहिये । यह सोच महाराज श्रेणिक मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए बोले
पुत्र ! त् वीर है, संसार में वीरता का श्रादर्श उपस्थित कर तू संयमी - साधु बन कर दुनिया को कायरता का सन्देश क्यों देता है ? संसार का जितना कल्याण तलवार से हो सकता है, उतना साधुवृत्ति से नहीं होगा। अपने ऊपर आये हुए गृहस्थी के भार से भयभीत हो कर भागना कायरों का काम है, तेरे जैसे वीरात्मा का नहीं १ लोग तुझे क्या समझेगे ? तेरी शक्ति का संसार को क्या लाभ हुआ ? पदि तू संसार का कल्याण चाहता है तो अपने हाथ शासन की बागडोर ले और प्रजा का नीतिपूर्वक पालन कर । ऐसा करने से तेरा और जगत् दोनों का हित सम्पन्न होगा।
पिता की यह बात सुन मेवकुमार बोला -पिता जी ! यह आप ने क्या कहा ! क्या संयम धारण करना कायरों का काम है ? नहीं, नहीं। उस के धारण करने के लिये तो बड़ी शूरवीरता की आवश्यकता होतीहै। तलवार चलाने में वह वीरता नहीं जो सयम के ग्रहण करने में है। तलवार के बल से जनता के मन को भयभीत किया जा सकता है, उसे व्यथित एवं संत्रस्त किया जा सकता है परन्तु अपनाया या उठाया नहीं जा सकता । तलवार से वश होने वाले, तलवार की स्थिति तक ही वश में रह सकते हैं, पीछे से वे शत्र बनते हैं और समय आने पर सारा बदला चुका लेते हैं । राम अकेला था, निस्सहाय था, जंगल का विहारी था और रावण था लंकेश, परन्तु प्रजा ने किस का साथ दिया ? राम का न कि रावण का । सारांश यह है कि तलवार चलाने में वीरता नहीं, वीरता तो उस काम में है, जिस से अपना और दूसरों का हित सम्पन्न हो, कल्याण हो । दूसरी बात यदि बाहिरी शत्रों को जीता तो क्या जीता ? इस में तो कोई असाधारण वीरता नहीं, वीरता तो अान्तरिक शत्रों की विनय में है। उन का दमन करने वाला ही सच्चा वीर है। काम, क्रोधादि जितने भी आन्तरिक शत्र हैं वे तलवार से कभी जोते नहीं जा सकते, इन पर तलवार का कोई असर नहीं होता । उन के जीतने का तो एक मात्र साधन संयमव्रत है । सयम की तलवार में जितना बल है उस से तो शतांश या सहस्रांश भी इस बाहिर की चमकने वालो लोहे की जड़ तलवार में नहीं है । संयम की तलवार जहां अन्दर के काम, क्रोधादि को मार भगाने में शक्तिशाली है, वहां बाहिर के शत्रुओं को पराजित करने में भी वह सिद्धहस्त है । मैं तो इसी उद्देश्य से अर्थात् इन्हीं अन्तरग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने आप को संयम की तलवार से सन्नद्ध कर रहा हूँ, परन्तु आप उस में प्रतिबन्ध बन रहे हैं। क्या आप के हृदय में मेरी इस आदर्श वीरोचित तैयारी के लिये प्रोत्साहन देने की भावना जागृत नहीं होती? अवश्य होनी चाहिये । क्या ही अच्छा हो, यदि आप अपने हाथ से मेरा निष्क्रमणाभिषेक करावें ओर प्रसन्नचित्त से मुझे भगवान् के हाथ समर्पित करें।
मेषकुमार के सदुत्तर ने महाराज श्रेणिक को भी मौन करा दिया और माता ने भी समझ लिया कि मेषकुमार अब एक नहीं सकेगा । तब इस से तो यही अच्छा है कि इस के भेयसाधक कार्य में अब विशेष
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