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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[५८९
श्रादि वाहन बना कर बेचना या किराए पर देना ।
___-भाटीकर्म-घोड़ा, ऊट, भैंस, गधा, खच्चर, बैल आदि पशुओं को भाड़े पर दे कर, उस भाड़े से अपनी आजीविका चलाना । इस में महान् हिंसा होती है, क्योंकि भाड़े पर लेने वाले लोग अपने लाभ के सन्मुख पशुओं की दया की उपेक्षा कर डालते हैं ।
५- स्फोटीकर्म हल, कुदाली अादि से पृथ्वी को फोड़ना और उस में से निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु, आदि खनिज पदार्थों द्वारा अपनी आजीविका चलाना ।
६-दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दान्तों का व्यापार करना । दान्तों के लिये अनेकानेक प्राणियों का वध होता है, इसलिये भगवान् ने श्रापकों के लिए इस का निषेध किया है ।
७-लाक्षावाणिज्य -- लाख वृक्षों का मद होता है, उस के निकालने में त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है । इसलिये श्रावक को लाख का व्यापार नहीं करना चाहिये।
८-रसवाणिज्य - रस का अर्थ है - मदिरा आदि द्रव पदार्थ, उन का व्यापार करना । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ मनुष्य को उन्मत्त बनाते हैं, जिन के सेवन से बुद्धि नष्ट होती है, ऐसे पदार्थों का सेवन अनेकानेक हानियों का जनक होता है, अतः ऐसे व्यापार को नहीं करना चाहिये ।।
९-विषवाणिज्य-अफ़ीम, संखिया आदि जीवन नाशक पदार्थों का व्यवसाय करना, जिन के खाने या सूघने से मृत्यु हो सकती है।
१० --केशवाणिज्य-केश का अर्थ है – केश वाला । लक्षणा से दास दासी आदि द्विपदों का ग्रहण होता है, उन का व्यापार करना केशवाणिज्य है। प्राचीन काल में अच्छे केश वाली स्त्रियों का कय, विक्रय होता था और ऐसी स्त्रियां दासी बना कर भारत से बाहिर यूनान आदि देशों में भेजी जाती थीं, जिस से अनेकानेक जघन्य प्रवृत्तियों को जन्म मिलता था। इसलिये श्रावक के लिये यह निन्द्य व्यवसाय भगवान् ने त्याज्य एब हेय बतलाया है।
११-यन्त्रपीडनकर्म यंत्रों-मशीनों द्वारा तिल, सरसों श्रादी या गन्ना आदि का तेल या रस निकाल कर अपनी आजीविका करना। इस व्यवसाय से त्रस जीवों की भी हिंसा होती है।
१२-निर्लाञ्छनकर्म बैल, भैंसा, घोड़ा आदि को नपुसक बनाने की आजीविका करना । इस से पशुओं को अत्यन्तात्यन्त पीड़ा होती है, इस लिए भगवान् ने श्रावक के लिये इस का व्यवसाय निषिद्ध कहा है।
१३ - दवाग्निदापनकर्म-वनदहन करना । तात्पर्य यह है कि भूमि साफ़ करने में श्रम न करना पड़े, इसलिये बहुत से लोग आग लगा कर भूमि के ऊपर का जंगल जला डालते हैं और इस प्रकार भूमि को साफ़ कर या करा कर अपनी आजीविका चलाते हैं, किन्तु यह प्रवृत्ति महान् हिंसासाध्य होने से श्रावक के लिये हेय है, त्याज्य है।
१४-- सराहदतडागोषणकर्म - तालाब, नदी आदि के जल को सुखाने का धन्धा करना। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोग तालाब, नदी का पानी मुखा कर, वहां की भूमि को कृषियोग्य बनाने का धन्धा किया करते हैं, इस से जलीय जीव मर जाते हैं । अथवा बोए हुए धान्यों को पुष्ट करने के लिये सरोवर आदि से जल निकाल कर उन्हें सुखा देने की आजीविका करना, इस में त्रस और स्थावर जीवों की महान् हिंसा होती है। इसीलिए यह कार्य श्रावक के लिए त्याज्य है।
१५-असतीजनपोषणकर्म-असतियों का पोषण कर के उन से आजीविका चलाना । तात्पर्य यह
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