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६४२]]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
उवलद्धपुरणपावे, श्रासवसंवर निज्जरकिरियाहिगरणबन्धमोक्खकुसले, असहेज्जदेवतासुरनागसुवरगजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावय. साओ अणइक्कमणिज्जे. निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लढे गहिय? पुच्छियो अडिगयडे विणिच्छिय? अटिमिंजपेमाणुगगरते अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेटे, सेसे अनट्टे, उसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तेउरघरप्पवेसे बहूहिं सीलब्धयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोस होपवासेहिं चाउद्दसमुद्दिपुराणमासिणीसु पडिपुराणं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समाणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिगहकंबलपायपुछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं प्रोसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणे अहापरिग्गहिपहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरति । इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है -
वह सुबाहुकुमार जीव, अजीव के अतिरिक्त पुण्य (श्रात्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीर की भाँति मिले हुए शुभ कर्मपुद्गल) और पाप (आत्मप्रदेशों से मिले हुए अशुभ कर्मपुद्गल) के स्वरूप को भी जानता था । इसी प्रकार प्राप्तव, संवर२, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण", बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का ज्ञाता था, तथा किसी भी कार्य में वह दूसरों की सहायता की आशा नहीं रखता था। अर्थात् वह निर्ग्रन्थप्रवचन में इतना दृढ़ था कि देव असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवविशेष भी उसे निग्रंथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। उसे निग्रन्थप्रवचन में शंका (तात्विकी शंका) कांक्षा (इच्छा) और विचिकित्सा (फल में सन्देह लाना) नहीं थी। उस ने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था, वह शास्त्र का अर्थ- रहस्य निश्चितरूप से धारण किये हुए था। उस ने शास्त्र के सन्देहजनक स्थलों को पूछ लिया था, उन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन का विशेषरूप से निणय कर लिया था, उस की हड्डियां और मज्जा सर्वज्ञदेव के प्रेम-अनुराग से अनुरक्त हो रही थी अर्थात् निग्रन्थप्रवचन पर उस, का अटूट प्रेम था। हे आयुष्मन् ! वह सोचा करता था कि यह निग्रंथप्रवचन ही अर्थ (सत्य) है, परमार्थ है (परम सत्य है). उस के बिना अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) है । उस की उदारता के कारण उस के भवन के दरवाजे की अर्गला ऊँची रहती थी और उस का द्वार सब के लिये सदा खुला रहता था। वह जिस के घर या अन्त:पुर में जाता उस में प्रीति उत्पन्न किया करता था, तथा वह शीलवत', गुणव्रत, विरमण-रागादि से निवृत्ति-प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करता था । श्रमणों - निग्रन्थों को निर्दोष और ग्राह्य अशन, पान, खादिम और स्वादिम श्राहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध औरभेषज श्रादि देता हुआ महान् लाम
(१) शुभ और अशुभ कर्मों के आने का मार्ग प्रास्रव होता है । २-शुभ और अशुभ कर्मों के आने के मार्ग को रोकना सम्बर कहलाता है। ३-आत्मप्रदेशों से कमवर्गणाओं का देशत: या सर्वतः क्षीण होना निर्जरा कहलाती है। ४-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टाओं को क्रिया कहते हैं और वह २५ प्रकार की होती हैं । ५-कर्मबन्ध के साधन-उपकरण या शस्त्र को अधिकरण कहते हैं । अधिकरण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण भेद से दो प्रकार का होता है। ६-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह मिलने अर्थात् जीवकर्म-संयोग को बन्ध कहते हैं । ७-कमपुद्गलों का जीवप्रदेशों से आत्यन्तिक सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष कहलाता है।
(८) शीलव्रत से पांचों अणुव्रतों का ग्रहण करना चाहिये। शीलव्रत, गुणद्रत और शिक्षाव्रतों की व्याख्या इसी अध्ययन में ५७६ से ले कर ५९८ तक के पृष्ठों पर की जा चकी है।
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