Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 739
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा का सहित। यह अर्थ समझना चाहिए । धर्म का संक्षिप्त अर्थ सुकृत है। -पुव्वाणुपुटिव जाव दूइज्जमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से -चरमाणे गामाणुगामइन अवशिष्ट पदों का ग्रहण जानना चाहिये । अर्थात् ये पद" -क्रमशः चलते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाते हुए -"इस अर्थ के बोधक है । तथा-इहमागच्छेज्जा जाव विहरिज्जा- इस वाक्यगत जाव-यावत् पद से - इहेव णयरे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् यदि भगवान् महावीर यहां पधारें और इसी नगर में अनगारवृत्ति के अनुसार आश्रय स्वीकार कर के तप और संयम के द्वारा आत्मभावना से भावित होते हुए विहरण कर - निवास करें। तथा-मडे भवित्ता जाव पव्वएज्जा- यहां पठित जाव-यावत् पद से-गाराओ अणगारियं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ स्पष्ट ही है। सारांश यह है कि मेरा शरीर सर्वाङ्गपरिपूर्ण है । किसी अंग में भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है । ऐसा सर्वांगसुन्दर शरीर किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से ही प्राप्त होता है । संसार में अनेकों प्राणी हैं। उन में यदि बोलने की शक्ति है तो देखने की नहीं, देखने की है तो सुनने की नहीं, सुनने की है तो सूघने की नहीं, यदि सब कुछ है तो भले बुरे को पहिचानने की शक्ति नहीं। इसी प्रकार हाथ हैं तो पांव नहीं, कान हैं तो नाक नहीं और नाक है तो जिह्वा नहीं । अगर अन्य सब कुछ है तो प्रतिभा नहीं है । तात्पर्य यह है कि ससारी प्राणियों में प्रायः कोई न कोई त्रुटि अवश्य देखने में आती है, परन्तु मेरा शरीर सब तरह से परिपूर्ण है। तब इस प्रकार के अविकृत शरीर को प्राप्त करके भी यदि मैं जन्म मरण के दुःखजाल से छुटने का उपाय नहीं करूंगा तो मेरे से बढ़ कर प्रमादी कौन हो सकता है ? चिन्तामणि रत्न के समान प्राप्त हुए इस मानव शरीर को यही कामभोगों में लगा कर व्यर्थ खो देना तो निरी मूर्खता है । ऐसे उत्तम शरीर से तो अच्छे से अच्छा काम लेने में ही इस की सफलता है । इस के द्वारा तो किसी ऐसे पुण्यकार्य का संपादन करना चाहिये कि फिर इस संसार की अन्धकारपूर्ण गर्भ की कालकोठरी में आने का अवसर ही न मिले । ऐसा कार्य तो धर्म का सम्यग अनुष्ठान ही है । जन्म मरण के भय से त्राण देने वाला और कोई पदार्थ नहीं है परन्तु धर्म का सम्यक पालन तभी शक्य हो सकता है जब कि प्रारम्भ अोर परिग्रह का त्याग किया जाए । गृहस्थ में रह कर श्रारम्भ और परिग्रह का सर्वथा त्याग करना तो किसी तरह भी शक्य नहीं है । बहाँ तो अनेकों प्रकार के प्रतिबन्ध सामने श्राखड़े होते हैं, जिन का निवारण करना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव सा हो जाता है । अतः इस के लिये सब से अधिक और सुन्दर तथा सरल उपाय तो यही है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अपना लू, मुनिधर्म को अंगीकार कर लू । इसी में मेरा हित है, इसी में मेरा मंगल और कल्याण है । पहिले तो कई एक कारणों से उस अनमोल अवसर से लाभ नहीं उठा सका परन्तु अब कि ऐसी भूल नहीं करूंगा। अवश्य जीवन को साधुता के सौरभ से सरभित कलंगा और अपना भविष्य उज्ज्वल एवं समुज्ज्वल बनाने का प्रयास करूंगा । ये थे तेले की तपस्या के साथ श्रात्मचिन्तन करने वाले सुबाहुकमार के मनोगत विचार, जिन के अनुसार वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर अपने आप को संयमवत के लोकोत्तर रम में रंगने का स्वप्न देख रहा है । इस के अनन्तर क्या हुश्रा अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - . मूल-तते णं समणे भगवं महावीरे सुवाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं (१) छाया- तत: श्रमणो भगवान् महावीर: सुबाहोः कुमारस्य इममेतद्र पमाध्यात्मिकं यावद् For Private And Personal

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