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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
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उस का सम्पूर्ण उल्लेख तो यहां पर नहीं हो सकता तथापि प्रकृतोपयोगी स्थलमात्र का संक्षेप से यहां पर वर्णन कर दिया जाता है।
राजगृह नाम की सुप्रसिद्ध राजधानी में महाराज श्रेणिक का शासन था। उन की महारानी का नाम श्री धारिणीदेवी था । महारानी धारिणी की पुनीत कुक्षि से जिस पुण्यशाली बालक ने जन्म लिया वह मेषकुमार के नाम से संसार में विख्यात हुआ । मेधकुमार का लालन पालन प्रवीण धायमाताओं की पूर्ण देखरेख में बड़ी उत्तमता से सम्पन्न हुआ । सुयोग्य कलाचार्य की छाया तले बालक मेषकुमार ने ७२ कला' आदि का उत्तम शिक्षण प्राप्त किया और युवावस्था को प्राप्त करते ही वह अपने मानवोचित हर प्रकार के कर्तव्य को पूरी तरह समझने लगा और तदनुसार ही व्यवहार करने लगा।
मेघकुमार को युवक हुअा जान कर महाराज श्रेणिक ने उस के लिये पाठ उत्तम महल और उन के मध्य में एक विशाल भवन बनवाया । तदनन्तर उत्तम तिथि, करण, नक्षत्रादि में आठ सुयोग्य राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण करवाया और प्रीतिदान में हिरण्यकोटि श्रादि अनेकानेक बहुमूल्य पदार्थ दिए और मेषकुमार भी बत्तीस प्रकार के नाटकों के साथ उन महलों में राजकुमारियों के साथ यथारुचि भोगोपभोग करने लगा।
एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते २ राजगृह नगरी में पधारे और गुणशिल नामक चैत्य-उद्यान में विराजमान होगए । सारे नगर में भगवान् के पधारने की खबर बिजली की भांति फैल गई। सब लोग भगवान् का दर्शन करने, उन्हें वन्दना नमस्कार करने तथा भगवान् के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय उपदेश को सुनने के लिये गुणशिल नामक उद्यान में बड़े समारोह के साथ जाने लगे। इधर मेघकुमार भी अपने पूरे वैभव के साथ भगवान् को वन्दन करने तथा उन का धर्मोपदेश सुनने के लिये वहां पहुंचा । सारी जनता के उचित स्थान पर बैठ जाने के बाद भगवान ने उसे धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उपदेश क्या था ? मानो जीवन के धार्मिक विकास का साक्षात् मार्ग दिखाया जा रहा था । भगवान् के सदुपदेश ने मेघकुमार के हृदय पर अपूर्व प्रभाव डाल दिया । उस के हृदयसरोवर में वैराग्य की तरंगे निरंतर उठने लगीं। उस के मन पर से मानवोचित सांसारिक वैभव की भावना इस तरह उतर गई जैसे सांप के शरीर पर से पुरानी कांचली उतर जाती है। तात्पर्य यह है कि भगवान् की धर्मदेशना से मेघकुमार के विषयवासनावासित हृदय पर वैराग्य का न उतरने वाला रंग चढ़ गया । उस का हृदय जहां विषयान्वित था वहां अब वैराग्यान्वित होकर संसार को घृणास्पद समझने और मानने लगा।
सब के चले जाने पर मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सम्मुख उपस्थित हो कर बड़े नम्रभाव से बोला-भगवन् ! आप श्री का प्रवचन मुझे अत्यन्त प्रिय और यथाथे लगा, मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में मुण्डित होकर प्रवजित हो जाऊ, संयम व्रत को ग्रहण कर लू । माता तथा पिता से पूछना शेष है, अतः उन से पूछ कर मैं अभी उपस्थित होता हूं। इस के उत्तर में भगवान् नेजैसे तुम को सुख हो, विलम्ब मत करो-इस प्रकार कहा, यह सुन कर मेघकुमार जिस रथ पर चढ़ कर श्रआया था उस पर सवार होकर घर पहुंचा और माता पिता को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगा
मैं ने आज भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशामृत का खूब पान किया ? उस से मुझे जो अानन्द माप्त हुआ वह बर्णन में नहीं सकता। उपदेश तो अनेकों बार सुने परन्तु पहले कभी हृदय इतना प्रभावित नहीं हुआ था, जितना कि आज हो रहा है। मां ! भगवान् के चरणों में आज मैं ने जो उपदेश सुना है,
(१) ७२ कलाओं का दिग्दर्शन १०८ से लेकर ११५ तक के पृष्ठों पर किया जा चुका है।
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