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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६५१
मूलार्थ-तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी सुबाहुकुमार के उक्त प्रकार के संकल्प को जान कर क्रमशः ग्रामानुग्राम चलते हुए हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानान्तर्गत कृतवनमालप्रिय नामक यक्ष के यक्षायतन में पधारे और यथाप्रतिरूप-अनगारवृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थान ग्रहण कर के वहां अवस्थित हो गए।
तदनन्तर परिषद् और राजा नगर से निकले, सुबाहुकुमार भी पूर्व की भाँति महान समारोह के साथ भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थित हुए । भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद तथा राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये ।
सुबाहुकुमार भगवान के पास धर्म का श्रवण कर उम का मनन करता हुआ प्रसन्नचित्त से मेघकुमार की भाँति माता पिता से पूछता है । उस का (सुबाहुकुमार का) निष्क्रमण-अभिषेक भी उसी तरह ( मेषकुमार की तरह ) हुआ, यावत् वे अनगार, ईर्यासमिति के पालक और ब्रह्मचारी बन गये, मुनिव्रत को उन्हों ने धारण कर लिया।
टीका-पुरुष और महापुरुष में भेद करने वाली एक शक्ति है. जो परोपकार के नाम से प्रसिद्ध है। पुरुष स्वार्थी होता है, वह अपना ही प्रयोजन सिद्ध करना जानता है, इस के विपरीत महापुरुष परमार्थी होता है, अपने हित से भी वह दूसरों के हित का विशेष ध्यान रखता है। दोनों के साध्य भिन्न • होते हैं, इसी लिये दोनों विभिन्न साधनसामग्री को जुटाने का भी विभिन्न प्रकार से प्रयास करते हैं।
स्वार्थी पुरुष तो उस साधनसामग्री को ढूढता है जिस से अपना स्वार्थ सिद्ध हो, उस में दूसरे की हानि या नाश का उसे बिल्कुल ध्यान नहीं रहता, उसे तो मात्र अपने प्रयोजन से काम होता है, परन्तु महापुरुष ऐसा नहीं करता, वह तो ऐसी सामग्री को ढूढेगा कि जिस से किसी दूसरे को हानि न पहुंचती हो, प्रत्युत लाभ ही प्राप्त होता हो । महापुरुषों का प्रत्येक प्रयास दूसरों को सुखी बनाने, दूसरों का कल्याण सम्पादित करने के लिये होता है। वे -परोपकाराय सतां विभूतयः-" इस लोकोक्ति का बड़े ध्यान से संरक्षण करते हैं और अपनी धनसम्पत्ति या ज्ञानविभूति का वे दीन दुःखी प्राणियों के दु:खों तथा कष्टों को दूर करने में ही उपयोग करते हैं । यही कारण है कि संसारसमुद्र में गोते खाने वाले दुःखसन्तप्त मानव प्राणी ऐसे महापुरुषों का आश्रय लेते हैं और उन्हें अपना उपास्य बना कर जीवन व्यतीत करने का उद्योग करते हैं।
सुबाहुकुमार जैसे भावुक तथा विनीत व्यक्ति की अपने उपास्य के प्रति कितनी श्रद्धा एवं विशुद्ध भावना है । इस का वर्णन ऊपर हो चुका है। अपने उपासक की निर्मल भावना को जिस समय सुबाहुकुमार के परम उपास्य भगवान् महावीर ने जाना तो सुबाहुकुमार के उद्धार की इच्छा से भगवान् ने हस्तिशीर्ष नगर की
ओर प्रस्थान कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारे और पुष्पकरण्डक नामक उद्यानगत कृतवनमालप्रिय यक्ष के मन्दिर में विराजमान हो गये । तदनन्तर उद्यानपाल के द्वारा भगवान् के पधारने की सूचना मिलते ही नगरनिवासी जनता को बड़ा हर्ष हुअा। भावुक नगरनिवासी लोग प्रसन्न मन से भगवान के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े। इधर नगरनरेश भी सुबाहुकुमार को साथ ले कर बड़े समारोह के साथ उद्यान की ओर प्रस्थान करते हुए भगवान् की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं तथा विधिपूर्वक वन्दनादि करके यथास्थान बैठ जाते हैं।
प्रश्न-क्या भगवान् महावीर स्वामी के पास शिष्य नहीं थे । यदि थे तो क्या वे भगवान् की सेवा नहीं करते थे। यदि करते थे तो केवल एक शिष्य की लालसा से उन्हें स्वयं पैदल विहार कर इतना बड़ा कष्ट उठा कर हस्तिशीर्ष नगर में आने की क्या आवश्यकता प्रतीत हुई ?
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