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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
[६४१
का व्युत्पतिजन्य अर्थ क्या है ? तथा जीवाजीवादि पदार्थों का अधिगम करने वाला भ्रमणोपासक कैसा होना चाहिये । इन बातों पर विचार कर लेना भी उचित प्रतीत होता है ।
श्रमणों के उपासक को श्रमणोपासक कहते हैं | जो धर्मश्रवण' की इच्छा से साधुओं के पास बैठता है, उस की उपासक' संज्ञा होती है। उपासक -१ द्रव्य, २-तदर्थ, ३ -मोह और ४-भाव इन भेदों से चार प्रकार का माना गया है। जिस का शरीर उपासक होने के योग्य हो, जिस ने उपासकभाव के आयुष्कर्म का बन्ध कर लिया हो तथा जिस के नाम गोत्रादि कर्म उपासकभाव के सम्मुख आ गये हों, उसे द्रव्योपासक कहते हैं । जो सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के मिलने की इच्छा रखता है, उन की प्राप्ति के लिये उपासना (प्रयत्नविशेष) करता है, उसे तदर्थोपासक कहते हैं । अपनी कामवासना की पूर्ति के लिये युवती युवक की और युवक युवती की उपासना करे, परस्पर अन्धभाव से एक दूसरे की आज्ञा का पालन करें तथा मिथ्यात्व की उत्तेजनादि करें उसे मोहोपासक कहा जाता है । जो सम्यग्दृष्टि जीव शुभ परिणामों से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उपासक श्रमण-साधु की उपासना करता है उसे भावोपासक कहते हैं । इसी भावोपासक की ही श्रमणोपासक संज्ञा होती है । तात्पर्य यह है कि भावोपासक और श्रमणोपासक ये दोनों समानार्थक है ।
प्रश्न-जनसंसार में श्रावक ( जो धर्म को सुनता है -जैन गृहस्थ ) शन्द का प्रयोग सामूहिक रूप से देखा जाता है । चतुर्विध संघ में भी श्रावकपद है, किन्तु सूत्र में "श्रमणोपासक, लिखा है। इस का क्या कारण है ? और इन दोनों में कुछ अर्थगत विभिन्नता है, कि नहीं ? यदि है तो क्या ?
उत्तर-श्रावक शब्द का प्रयोग अविरत सम्यग्दृष्टि के लिये किया जाता है और श्रमणोपासक, यह शब्द देशविरत के लिये प्रयुक्त होता है । सूत्रों में जहां श्रावक का वर्णन आता है वहां तो "-दंसणसावए. दर्शनश्रावक-" यह पद दिया गया है और जहां बारह व्रतों के आराधक का वर्णन है वहां पर " -समणोवासप-श्रमणोपासक-" यह पाठ पाता है। सारांश यह है कि व्रत, प्रत्याख्यान श्रादि से रहित केवल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है और द्वादशव्रतधारी की "श्रमणोपासक" संज्ञा है। यही इन दोनों में अर्थगत भेद है। वर्तमान में तो प्रायः श्रावकशब्द ही दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत दोनों का ही ग्रहण श्रावक शब्द से किया जाता है।
-अभिगयजीवाजीवे -इस विशेषण से श्री सुबाहुकुमार को जीवाजीवादि पदार्थों का सम्यग ज्ञाता प्रमाणित किया गया है । चेतना विशिष्ट पदार्थ को जीव और चेतनारहित जड़ पदार्थ को अजीव कहते हैं । इन दोनों का भेदोपभेदसहित सम्यग बोध रखने वाला व्यक्ति अभिगतजीवाजीव कहलाता है । इस के अतिरिक्त श्री सुबाहुकुमार के सात्त्विक ज्ञान और चारित्रनिष्ठा एवं धार्मिक श्रद्धा के द्योतक और भी बहुत से विशेषण हैं, जिन्हें सत्रकार ने "जाव-यावत् पद से सूचित कर दिया है। वे सब इस प्रकार हैं
(१) उप-समीपम् आस्ते-निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति उपासकः । (वृत्तिकारः)
(२) इन चारों की विशद व्याख्या के लिये देखो-जैनधर्मदिवाकर श्राचार्यप्रवर परमपूज्य गुरुदेव श्री श्रात्मा राम जी महाराज द्वारा अनुवादित श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, पृष्ठ २७३ ।
(३) अभिगतः सम्यक्तया ज्ञात: जीवाजीवादिपदार्थ:-पदार्थस्वरूपो येन.स तथा । अर्थात जिस ने जीव, अजीव प्रभृति पदार्थों का सम्यग् बोध प्राप्त कर लिया है, उसे अभिगतजीवाजीव कहते है। श्री सुबाहुकुमार को इन का. सम्यग बोध था, इसलिये उस के साथ यह विशेषण लगाया गया है।
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