________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
प्रथम अध्याय |
www.kobatirth.org
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६३९
मूतार्थ -भगवन् ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुडित हो कर गृहस्थावास को त्याग कर अनगारधर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ?
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
भगवान् - हां गौतम ! है, अर्थात् प्रत्रजित होने में समर्थ है।
तदनन्तर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार कर संयम और तप के द्वारा आत्मभावना करते हुए विहरण करने लगे, अर्थात् साधुचर्या के अनुसार समय बिताने लगे ।
तनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक दानगत कृतवनमाल नामक पक्षायतन से विहार कर अन्य देश में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। इधर सुबाहुकुमार जो कि श्रमणो गमक-श्रावक बन चुका था और जीवाजीवादि पदार्थों का जानकार हो गया था, आहारदि के दान द्वारा अपूर्व लाभ प्राप्त करता हुआ समय बिता रहा था । तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहु कुमार चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिनों में से किमी एक दिन पौषधशाला में जाकर वहां की प्रमार्जना कर, उच्चार और प्रस्रवण भूमि का निरीक्षण करने के अनन्तर वह कुशासन बिछा कर उस पर आरूढ़ हो कर अष्टमभक्त - तीन उपवास को ग्रहण करता है, ग्रहण कर पौधशाला में पौष हो कर यथाविधि उसका पालन करता हुआ अर्थात् तेलापौषध कर के विहरण करने लगा - धार्मिक क्रियानुष्ठान में समय व्यतीत करने लगा ।
-
टीका - प्रस्तुत मूलपाठ में सुबाहुकुमार से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य- १ - गौतम स्वामी का प्रश्न और भगवान् का उत्तर । २ – सुबाहुकुमार का तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाला सम्यक् बोध । ३ – ग्रहण किये गये देशविरतिधर्म का 'सम्यक् पालन - इन तीन बातों का वर्णन किया गया है। इन तीनों का ही यहां पर क्रमशः विवेचन किया जाता है.
१ - क्या भगवन् ! यह सुबाहुकुमार जिस ने श्रापश्री की सेवा में उपस्थित हो कर गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है, वह कभी श्री से सर्वविरतिधर्म - साधुधमं को भी अंगीकार करेगा ? वह सर्वविर तिघमं के पालन में समर्थ होगा ? तात्पर्य यह है कि आपश्री के पास मुण्डित हो कर श्रगार - घर को छोड़ कर गारता को प्राप्त करने गृहस्थावास को त्याग मुनिधर्म को स्वीकार करने में प्रभु – समर्थ होगा कि नहीं ?, यह था प्रश्न जो गौतम स्वामी ने भगवान् से किया था । गौतम स्वामी के इस प्र में प्रयुक्त किये गये १ - मुण्डित, २ - अनगारता, ३ - प्रभु। ये तीनों शब्द विशेष भावपूर्ण हैं । ये तीनों ही उत्तरोत्तर एक दूसरे के सहकारी तथा परस्पर सम्बद्ध हैं। इन का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है
1
१ - मुण्डित - यहां पर सिर के बाल मुंडा देने से जो मुण्डित कहलाता है, उस द्रव्यमुण्डित का ग्रहण अभिमत नहीं, किन्तु यहां भाव से मुण्डित हुए का महा अभिप्रेत है । जिस साधक व्यक्ति ने सिर पर लदे हुए गृहस्थ के भार को उतार देने के बाद हृदय में निवास करने वाले विषयकषायों को निकाल कर बाहिर फैंक दिया हो वह भावमुण्डित कहलाता है । श्रमणता – साधुता प्राप्त करने के लिये सत्र से प्रथम बाहिर से जो मुंडन कराया जाता है वह आन्तरिक मुडन का परिचय देने के लिये होता है। यदि अन्तर में विषयकपायों का कीच भरा पड़ा रहे तो बाहिर के इस मु ंडन से श्रमणभाव साधुता की प्राप्ति दुर्घट ही नहीं किन्तु असम्भव भी । इसीलिये शास्त्रकार स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि " न वि मुडिएण समणो - " अर्थात् केवल सिर के मुडा लेने से अलग नहीं हो सकता, पर उनके लिये तो भावमुडित विषयकवाव
(१) उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २५, गा० ३१ । तथा श्री स्थानाङ्ग सूत्र में भी इस सम्बन्ध में लिखा हैदस मुंडा पं० तं जहा- सोइन्दियमुंडे जाव फासिंदियमुण्डे, कोहे जाव लोभमुण्डे सिरमुण्डे ।
For Private And Personal