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प्रथम अध्याय]
__ हिन्दी भाषा टीका सहित।
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को प्राप्त करता तथा यथाप्रगृहीत तपकर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित - वासित करता हुआ विहरण कर रहा था।
इस वर्णन में श्रमणोपासक की तत्त्वज्ञानसम्बन्धी योग्यता, प्रवचननिष्ठा, गृहस्थचर्या और चारित्रशुद्धि की उपयुक्त धार्मिक क्रिया आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का समावेश किया गया है। गृहस्थावास में रहते हुए धर्मानुकूल गृहसम्बन्धी कार्यों का यथाविधि पालन करने के अतिरिक्त उस का आत्मश्रेय साधनार्थ क्या कर्तव्य है ? और उस के प्रति सावधान रहते हुए नियमानुसार उस का किस तरह से आचरण करना चाहिए ? इत्यादि अनुकरणीय और आचरणीय विषयों का भी उक्त वर्णन से पर्याप्त बोध मिल जाता है।
(३) पौषधोपवास -धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं अपितु आचरण की वस्तु है । जैसे औषधि का नाम उच्चारण करने से रोग की निवृत्ति नहीं हो सकती और तदर्थ उस का सेवन आवश्यक है । इसी प्रकार धर्म का श्रवण करने के अनन्तर उस का आचरण करना आवश्यक होता है । बिना आचरण के धर्म से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। जब तक धर्म का श्रवण कर के पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उस का आचरण न किया जावे तब तक उस से किसी प्रकार का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा । इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में कुशल श्री सुबाहुकुमार ने उन दोनों के अनुसार चारित्रमूलक पौषधोपवास व्रत का अनुष्ठान करने में प्रमाद नहीं किया। सुबाहुकुमार अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन पुण्य तिथियों में पौषधोपवासव्रत करता था और धर्मध्यान के द्वारा आत्मचिन्तन में निमग्न हो कर गृहस्थधर्म का पालन करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था ।
-पोसह- यह प्राकृत भाषा का शब्द है । इस की संस्कृत छाया 'पोषध होती है । पोषधशब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "-पोषणं पोष:-पुष्टिरित्यथः तं धत्त गृह्णाति इति पोषधम्" इस प्रकार है। अर्थात् जिस से आध्यात्मिक विकास को पोषण-पुष्टि मिले उसे पोषध कहते हैं । यह श्रावक का एक धार्मिक कृत्यविशेष है, जो कि पौषधशाला में जाकर प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में किया जाता है । इस में सर्व प्रकार के सावध व्यापार के त्याग से लेकर मुनियों की भाँति सारा समय प्रमादरहित हो कर धर्मध्यान करते हुए व्यतीत करना पड़ता है। इस में आहार का त्याग करने के अतिरिक्त शरीर के गार तथा अन्य सभी प्रकार के लौकिक व्यवहार या व्यापार का भी नियमित समय तक परित्याग करना होता है । इस व्रत की सारी विधि पौषधशाला या किसी पौषधोपयोगी स्थान पर की जा सकती है । इस के अतिरिक्त पौषधव्रत शास्त्रों में १-आहारपौषध, २-शरीरपौषध, ३-ब्रह्मचर्यपौषध और ४-अव्यवहारपौषध या अव्या. पारपौषध, इन भेदों से चार प्रकार का वर्णन किया गया है, ये चारों भी सर्व और देश भेद के से दो २ प्रकार के कहे है । इस तरह सब मिला कर पौषध के आठ भेद हो जाते हैं । इन आठों भेदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ५९६ पर किया जा चुका है।
सामान्यरूप से तो इस के दो ही भेद है-देशपौषध और सर्वपौषध । देशपौषध का ग्रहण दसवें
(१) पोषध शब्द से व्याकरण के "प्रज्ञादिभ्यश्च । ५-४-३६ (सिद्धान्त कौमुदी) इस सूत्र से स्वार्थ में अण प्रत्यय करने से पौषध शन्द भी निष्पन्न होता है। आज पौषध शब्द का ही अधिक प्रयोग मिलता है। इसीलिये हमने इस का अधिक आश्रयण किया है।
(२) पोसहोववासे चउम्विहे पएणते तंजहा-आहारपोसहे. सरीरपोसहे, बम्भपोसहे अववहारपोसहे।
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