Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 734
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ૬૪૪ ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय 1 में और ग्यारह व्रत में सर्वपौषध का ग्रहण होता है। पौषध लेने की जो विधि है उस में ऐसा ही 'उल्लेख पाया जाता हैं । सर्वपौषध में पूरे आठ प्रहर के लिए प्रत्याख्यान होता है । इस से कम काल का पौषध सर्वपौषध नहीं कहलाता। सुबाहुकुमार का पौषध सर्वपौषध था और वह उसने पौषधशाला में किया था और वहीं पर इस ने अष्टमभक्त-तेला व्रत सम्पन्न किया था । यह बात मूलपाठ से स्पष्ट सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहुकुमार ने लगातार तीन पौषध करने का नियम ग्रहण किया, परन्तु इतना ध्यान रहे कि पौषधत्रय करने से पूर्व उस ने एकाशन किया तथा उस की समाप्ति पर भी एकाशन किया । इस भाँति उस ने आठ भोजनों का त्याग किया । कारण कि पौषध में तो मात्र दिन रात के लिए आहार का त्याग होता है । दैनिक भोजन द्विसंख्यक होने से पौषधत्रय में छः भोजनों का त्याग फलित होता है । सूत्रकार स्वयं ही - पोसहिएइस विशेषण के साथ - अट्ठमभत्तिए - - यह विशेषण दे कर उस के श्राठ भोजनों का त्याग संसूचित कर रहे हैं । प्रश्न - पौषध और उपवास इन दोनों में क्या भिन्नता है ? उत्तर- धर्म को पुष्ट करने वाले नियमविशेष का धारण करना पौषध कहलाता है । पौषध भेदोपभेदों का वर्णन पीछे पृष्ठ ५९६ पर किया जा चुका है । और उपवास मात्र त्रिविध या चतुर्विध आहार के त्याग का नाम है । तथा उपवासपूर्वक किया जाने वाला पौषधद्रत पौषधोपवास कहलाता है । पौष व्रत में उपवास अवश्यंभावी है जब कि उपवास में पौषव्रत का आचरण आवश्यक नहीं । श्रथवा पौषधोपवास एक ही शब्द है । पौषघव्रत में उपवास – अवस्थिति पौषधोपवास कहलाता है । पौधशाला - जहां बैठ कर पौषधत्रत किया जाता है, उसे पौधशाला कहते है । जैसे भोजन के स्थान को भोजनशाला, पढ़ने के स्थान को पाठशाला कहते हैं. उसी भाँति पौषधशाला के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिये । मलमूत्रादि परित्याग की भूमि को उच्चारप्रस्रवणभूमि कहा जाता है । प्रश्न – सूत्रकार ने जो पुरीषालय का निर्देश किया है, इस की यहां क्या आवश्यकता थी ? क्या यह भी कोई धार्मिक अंग हैं ? उत्तर - जहां पर मलमूत्र का त्याग किया जाता हो उस स्थान को देखने से दो लाभ होते हैं । प्रथम तो वहां के जीवों की यतना हो जाती है । दूसरे वहां की सफ़ाई से भविष्य में होने वाली जीवों की (१) पौषध का सूत्रसम्मत पाठ इस प्रकार है - एकारसमे पडिपुराणे पोस होववासवर सव्वत्र असण - पाण–खाइम - साइम-पञ्चकवा, श्रवम्भ - पचकखाणं, मणिसुवरणाइपचकवाणं मालावन्नगविलेवपाइपच्चक्खाणं, सत्यमुसल• वावाराइसावज्जजोगपञ्चकवाणं जाव श्रहोरतं पज्जुवासामि दुविहं तिबिहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कापसा तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पा वोसिरामि । इस पाठ में चारों प्रकार के आहार का, सब प्रकार की शारीरिक विभूषा का तथा सर्व प्रकार के मैथुन एवं समस्त सावद्य व्यापार का अहोरात्रपर्यन्त त्याग कर देने का विधान किया गया है । प्रातःकाल सूर्योदय से ले कर अगले दिन सूर्योदय तक का जितना काल है वह अहोरात्र काल माना जाता है। दूसरे शब्दों में पूरे आठ प्रहर तक आहार, शरीर विभूषा, मैथुन तथा व्यापार का सर्वथा त्याग सर्वपौषध कहलाता है । (२) पोषणं पोषः पुष्टिरित्यर्थः तं धत्त े गृह्णाति इति पोषधः, स चासावुपवासेश्चेति । यद्वोक्त्यैव व्युत्पत्त्या पोपधमष्टम्यादिरूपाणि पर्वदिनानि तत्रोप० श्रहारादित्यागरूपं गुणमुपेत्य वासः -- निवसनमुपवास इति पोषधोपवासः । ( उपासक दशांग संजीवनी टीका पृष्ठ २५७ ) । For Private And Personal

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