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६४६]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
जाव दइज्जमाणे इहमागछेज्जा जाव विहरिज्जा, तते णं अहं समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए मुडे भवित्ता जाव पव्वएज्जा।
पदाथ-तए णं-तदनन्तर । तस्त-उस । सुबाहुस्स-सुबाहु। कुमारस्त -कुमार को । पुव्वरत्तावरत्तकाले - मध्यरात्रि में। धम्मजागरिय-धर्मजागरण-धर्मचिन्तन में । जागरमाणस्सजागते हुए को। इमे-यह । एयारूवे- इस प्रकार का । अज्कत्थिते ४ - संकल्प ४ । समुप्पज्जित्थाउत्पन्न हुा । धन्ना णं-धन्य हैं । ते -वे । गामागर-ग्राम, आकर । जाव-यावत् । सन्निवेसासन्निवेश । जत्थ णं-जहां । समणे · श्रमण । भगवं -भगवान् । महावीरे-महावीर स्वामी । विहरति - विचरते हैं । धन्ना णं -धन्य हैं । ते -वे । राईसर०-राजा ईश्वर श्रादि । जे णं-जो । समणस्स भगवश्रो महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए – पास । मडा- मुंडित हो कर। जावयावत् । पव्वयंति-दीक्षा ग्रहण करते हैं । धन्ना णं-धन्य हैं । ते-वे । राईसर० - राजा और ईश्वरादि । जे णं-जो । समणस्स भगवो महावीरस्त - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के । अंतिए - पास । पंचाणव्वतियं - पंचाणुवतिक । गिहिधम्म-गृहस्थधर्म को । पडिवज्जति स्वीकार करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं । ते- वे । जे णं- जो । समणस्स भगवश्री महावीरस्स-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के । अंतिर -समीप । धम्मं धर्म का । सुण ति-श्रवण करते हैं । तं-अतः । जइ णं- यदि । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् । महावीरे-महावीर । पुव्वाणपवि–पूर्वानुपूर्वी - क्रमशः । जाव-यावत् । दुइज्जमाणे-गमन करते हुए । इहमागच्छेज्जा-यहां आ जावें । जाव-यावत । विहरिज्जा-विहरण करें। तते णं - तब । अहं-मैं । समणस्स भगवो महावीरस्स - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिर -पास । मुंडे - मुडित । भवित्ता-हो कर । जाव -यावत् । पवएज्जा - प्रबजित हो जाऊं- दक्षिा ग्रहण कर लू।
मूलार्थ- तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह संकल्प उठा कि वे ग्राम, नगर, आकर, जनपद और सन्निवेश श्रादि धन्य हैं कि जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, ईश्वर आदि भी धन्य हैं कि जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डत हो कर प्रवजित होते हैं तथा वे राजा, ईश्वर श्रादिक भी धन्य है जो श्रमण भगवान् महावीर के पास पञ्चा पुत्र तक ( जिस में पांच अणुव्रतों का विधान है ) गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, एवं वे भी राजा, ईश्वरादि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म का श्रवण करते हैं। तब यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी यावत् गमन करते हुए, यहां पधारें तो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामो के पास मुण्डित होकर प्रवजित होजाऊं-दीक्षा धारण करल।
टीका-दर्भसंस्तारक-'कुशा के आसन पर बैठ कर पौषधोपवासव्रत को अंगीकार कर के धर्मचिन्तन में लगे हुए श्री सुबाहुकुमार के हृदय में एक शुभ संकल्प उत्पन्न होता है । जिस का व्यक्त स्वरूप इस प्रकार है
(१) सुबाहुकुमार का रेशम आदि के नर्म और कोमल अासन को त्याग कर कुशा के श्रासन पर बैठ कर धर्म का अाराधन करना उस को धर्ममय मनोवृत्ति की दृढता को तथा उस को सादगी को सूचित करता है। साधक व्यक्ति में देहाध्यास (देहासक्ति) की जितनी कमी होगी उतनी ही उस की विकासमार्ग की ओर प्रगति होगी। इस के अतिरिक्त कुशासन पर बैठने से अभिमान नहीं होता और इस में यह भी गुण है कि बस से टकरा कर जो वायु निकलती है, उस से योगसाधन में बड़ी सहायता मिलती है । वैदिकपरम्परा में कुशा को बड़ा महत्त्व प्राप्त है।
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