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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६३७
जीवन सफल कर लिया है। प्रस्तुत में प्रथम धन्य आदि पद देकर पुनः जो धन्य आदि पद पठित हुए हैं वीसा के संच हैं। एक पाठ को एक से अधिक बार उच्चारण करने का नाम वीप्सा है । प्रस्तुत में बोसा के रूप में ही उक्त पाठ को दोबारा उच्चारण किया गया है। संभ्रम' या श्राश्वर्य में वीप्सा दोषावह नहीं होती ।
- तहेव सीहं पासति - यहां पठित तथेत्र यह पद " - वैसे ही अर्थात् प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में माता धारिणी ने स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखा था, उसी भाँति यहां भी समझ लेना चाहिये – " इस अर्थ का परिचायक है । तथा बालक का जन्म, उस का सुबाहुकुमार नाम रखना, पांच घायमाताओं के द्वारा सुबाहुकुमार का पालनपोषण, विद्या का अध्ययन, युवक सुबाहुकुमार के लिये ५०० उत्तम महलों तथा उन में एक विशाल रमणीय भवन का निर्माण, पुष्पचूनाप्रमुख ५०० राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण, माता पिता का ५०० की संख्या में प्रीतिदान-दहेज देना, सुबाहुकुमार का उस पीतिदान का अपनी पत्नियों में विभक्त करना तथा अपने महलों के ऊपर उन तरुण रमणियों के साथ ३२ प्रकार के नाटकों के द्वारा सानन्द सांसारिक कामभोगों का उपभोग करना, इन सब बातों को संसूचित करने के लिये सूत्रकार ने - सेसं तं चेत्र जाव उपि पालादे विहरति- इन पदों का संकेत कर दिया है । इन सब बातों का सविस्तर वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के आरंभ में किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं ।
- पत्ता अभिसमन्नागया- इन शेष पदों का ग्रहण ६१० पर लिख दिया गया है।
- लद्धा ३ - यहां पर दिये गये ३ के अंक से करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों का अर्थ पूर्व पृष्ठ इस प्रकार सुबाहुकुमार के अतीत और वर्तमान जीवनवृत्तान्त का परिचय करा देने के बाद अब सूत्रकार उस के भावी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैं
मूल - पभू णं भंते! सुबाहुकुमारे देवाप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ
(१) शाकटायन व्याकरण में लिखा है कि सम्भ्रम अर्थ में पदों का अनेक बार प्रयोग हो जाता है । जैसेकि - ५५९ - संभ्रमेऽसकृत्। २-३-१ । संभ्रमे वर्तमानं पदं वाक्यं वा असकृदनेकवारं प्रयुज्यते । जय जय जय । जिन जिन जिन । हिरहिरहः । सर सर सर । हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति । लघु पलाय लघु पलायध्वं लघु पलायध्वमित्यादि । इस के अतिरिक्त सिद्धान्तकौमुदी में लिखा है – 'सभ्रमेण प्रवृत्तां यथेष्टमनेका प्रयोगां न्यायसिद्धः" ( वा० ५०५६ ) सर्प सर्प | बुध्यस्व बुभ्यस्त्र सर्प सर्प सर्प | बुध्यस्व बुध्यस्व बुध्यस्व । इत्यादि पद दिये हैं जो कि वीप्सा के संसूचक हैं । प्रस्तुत में नगर निवासी सुमुख गाथापति की जो पुनः २ प्रशंसा कर रहे हैं तथा इस में पदों का अनेक बार जो प्रयोग हुआ है, वह भी बीसा के निमित्त ही है ।
(२) छाया - प्रभु : भदन्त ! सुबाहुकुमारो देवानुप्रियाणामन्तिके मुंडो भूत्वाऽगारादनगारतां प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः । ततः स भगवान् गोतमः श्रमं भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति । ततः स श्रमणो भगवान् अन्यदा कदाचित् हस्तिशीर्षाद् नगराद् पुष्पकरंडादुद्यानात कृतवनमालयक्षायतनात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदं विहरति । ततः स सुबाहुकुमार: श्रमणोपासको जातः, अभिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलम्भयन् विहरति । ततः स सुबाहुकुमारोऽन्यदा चतुर्दश्यष्टम्युष्टिपौर्णमासीषु यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पौषधशालां प्रमाष्टि प्रमा उच्चारप्रवणभूमिं प्रतिलेखयति प्रतिलेख्य दर्भसंस्तार संस्तृणोति दर्भसंस्तारमारोहति । अष्टमभक्तं प्रगृण्हाति । पौषधशालायां पौषधिकोऽष्टमभक्तिकः पौषधं प्रतिजाग्रत् २ विहरति ।
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