Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 726
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६३६] पथ संज्ञा होती है । - - आइक्खड़ -- सामान्यरूप - एवं श्राइकखइ ४ - इस पाठ में उपन्यस्त ४ का श्रंक एवं श्राइक्खड, एवं भासह, एवं पराणवेड, एवं परुवेइ - इन चार पदों के बोध कराने के लिए दिया गया । इस पर वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि कहते हैं। कि 'प्रथम के एवं श्राइकवर ( इस प्रकार कथन करते हैं), एवं भासह (इस प्रकार भाषण करते हैं इन दोन पदों के अनुक्रम से व्याख्यारूप ही - एवं परणवेइ ( इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं), एवं परूवेंड इस प्रकार प्ररूपण करते हैं, ये दो पद प्रयुक्त किये गए हैं। अथवा इन चारों का भावार्थ “ मे कहते हैं । भाइ - विशेषरूप में कहते हैं। पराणवेद - प्रमाण और युक्ति के द्वारा बोध कराते हैं । परूवे - भिन्न २ रूप से प्रतिपादन करते हैं, इस प्रकार समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि समुख गृहपति के विषय में हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार कहती है, इस प्रकार से बोलती है, इस प्रकार से बोध कराती है और वि भिन्नरूप से निरूपण करती । यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जावे तो "आख्याति, भाषते ' इन दोनों के व्याख्यारूप में ही 'प्रज्ञापयति और प्ररूपयति" ये दोनों पद प्रयुक्त हुए हैं या होने चाहियें । वृत्तिकार का पहला कथन - एतच्च पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थे पदद्वयमवगन्तव्यम् - कुछ अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है । आख्यान और भाषण की प्रज्ञापन और प्ररूपण अर्थात् युक्तिपूर्वक बोधन और विभिन्न प्रकार से निरूपण - यही सुचारु व्याख्या हो सकती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal प्रथम अध्याय -धन्ने णं देवा० सुमुहे गाहावती जात्र तं धन्ने ५ - इस स्थान में उल्लिखित जाव- यावत् पद से तथा ५ के अंक से भगवती सूत्रानुसारी-धन्ते णं देवापिया ! सुमुहे गाहावती, कयत्थे णं देवापिया ! सुमुहे गाइावती, कयपुराणे णं देवाप्पिया ! सुमुहे गाहावती, कपलकवणे र्ण देवाणुपिया ! सुमु गाहातो, कया गं लोय। देवापिया ! सुमुहस्ल गाहावइस्स, सुलझे णं देशणुपिया ! मास्तर जन्मजीवियरुते सुमुहस्स गाहावइस्स, जस्त ण गिहंसि तहारू साधू साधुवे पडिलाभिर समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउब्याई तंजहा - १ - सुहारा बुट्ठा, २ - दसद्धवराणे कुसुमे नित्रातिते, ३ – चेतुवेवे कते, ४ - आहताय देवदुन्दुभी ५ अन्तरा विय गं आगा अहोदाराम होदा घुई य, तं धन्ने कत्थे कयपुन्ने कलकवणे कया गं लोया सुल े माणुस्सर जम्मजोवियफले सुनुहरुल गाहावस्व सुमुहस्त गाडावरून - इस पाठ की ओर संकेत कराया गया है । अर्थात् हे महानुभावो ! यह सुमुत्व गाथापति धन्य है, कृताथ है - जिस का प्रयोजन सिद्ध हो गया है, कृतपुण्य - पुण्यशील है, कृतलक्षण है (जिस ने शरोरगत चिह्नों को सफत कर लिया है), इस ने दोनों लोक सफल कर लिये हैं, इसने अपने मनुष्य जन्म तथा जीवन को सफल कर लिया है - जन्म तथा जीवन का फल भाँति प्राप्त कर लिया है। जिस के घर में सौम्य आकार वाले तथारूप साधु (शास्त्रों में वर्णित हुए प्राचार का पालक मुनि के प्रतिलामित होने पर अर्थात् मुनि को दान देने से - १- -सोने की वर्षा, २- पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, ३ वस्त्रों की वर्षा, ४ – देवदुन्दुभियों का वजना, ५ - आकाश में अहो ! आश्चर्यकारक ) दान, अहोदान - इस प्रकार की उद्घोषणा, ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, इसलिये सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है, इस ने दोनों लोक सफल कर लिये हैं, इस ने मनुष्य का जन्म तथा (१) एवं इति सामान्येनावडे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम् - एवं भासइति विशेषतः श्राचष्टे । एवं पराणवेद एवं परूवेड - एतच्च पदद्वयं पूर्वोतपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थ पदद्वयमवगन्तव्यम् । अथवा आख्यातीति तथैव, भापते व्यवचनैः प्रज्ञापयातीति युक्तिभिर्वाधयति, प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति । (वृत्तिकारः)

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