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विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध
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रहित होने की आवश्यकता है। तत्र गौतम स्वामी के पूछने का भी यही अभिप्राय है कि क्या श्री सुबाहुकुमार भाव से मु°डित हो सकेगा ? तात्पर्य यह है कि द्रव्य से मुडित होने वालों, बाहिर से सिर मुंडाने वालों की तो संसार में कुछ भी कमी नहीं। सैंकड़ों नहीं बल्कि हज़ारों ही निकल आयें तो भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है परन्तु भाव से मुण्डित होने वाला तो कोई विरला ही वीरात्मा निकलता है ।
प्रयुक्त हुआ
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1 जिस
२ – अनगारता - गृहस्थ और साधु की बाह्य परीक्षा दो बातों से होती है। घर से और जर से । ये दोनों गृहस्थ के लिये जहां भूत्रणा बनते हैं वहां साधु के लिये नितान्त दूषणरूप हो जाते हैं। गृहस्थी के पास घर नहीं वह गृहस्य नहीं और जिस साधु के पास घर है वह साधु नहीं । इस लिये मुण्डित होने के साथ २ घरसम्बन्धी अन्य वस्तुओं के त्याग की भो साधुता के लिये परम आवश्यकता है। वर्तमान युग में घरबार आदि रखते हुए भी जो अपने आप को परिव्राजकाचार्य या साधुशिरोमणि कहलाने का दावा करते हैं, वे भले ही करें, परन्तु शास्त्रकार तो उस के लिये ( साधुता के लिये ) अनगारता घर का न होना ) को ही प्रतिपादन करते हैं। गृह के सुखों का परित्याग कर के, सर्वथा गृहत्यागी बन कर विवरना एवं नानाविध परीषहों को सहन करना एक राजकुमार के लिये शक्य है कि नहीं ? अर्थात् सुबाहुकुमार जैसे सद्गुणसम्पन्न सुकुमार राजकुमार के लिये उस कठिन संयमन्नत के पालन करने की संभावना की जा सकती है कि नहीं ? यह गौतम स्वामी के प्रश्न में रहा हुआ अनगारता का रहस्यगर्भित भाव है ।
प्रथम अध्याय
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३ - प्रभु - पाठकों को स्मरण होगा कि श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हो कर उनकी धर्मदेशना सुनने के बाद प्रतिबोध को प्राप्त हुए श्री सुबाहुकुमार ने भगवान् से कहा था कि प्रभो ! इस में सन्देह नहीं कि आप के पास अनेक राजा महाराजा और सेठ साहूकारों ने सर्वविरतिधर्म - साधुधर्म को गीकार किया है परन्तु मैं उस सर्व विरतिरूप साधुधर्म को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हूं। इसलिये आप मुझे देशविरतिधर्म को ग्रहण कराने की कृपा करें, अर्थात् मैं महाव्रतों के पालन में तो असमर्थ हूँ अतः वनों का ही मुझे नियम करावें । श्री सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए ही श्री गौतम स्वामी ने भगवान् से" - पभू णं भन्ते १ सुबाहुकुमा रे देवाणु अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अगगारियं पव्वइत्तीए - " यह पूछने का उपक्रम किया है । इस प्रश्न में सब से प्रथम प्रभु शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया जान पड़ता है । भगवान् - हां गौतम ! है अर्थात् सुबाहुकुमार मुण्डित हो कर सर्वविरतिरूप साधुवम के पालन करने में समर्थ है। उस में भावसाधुता के पालन को शक्ति है । भगवान् के इस उत्तर में गौतम स्वामी की सभी शंकायें समाहित हो जाती हैं।
- हंता पभू-हंत प्रभुः- यहां दंत का अर्थ स्वीकृति होता है । अर्थात् हृत अव्यय स्वीकारार्थ में है। प्रभु समर्थ को कहते हैं ।
- संजमेण तवसा अपा भावेमा - प्रर्थात् संयर और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करना । संयम के आराधन और तप के अनुष्ठान से आत्मगुणों के विकास में प्रगति लाने का यत्न - विशेष ही श्रात्मभावना या आत्मा को वासित करना कहलाता है ।
For Private And Personal
जनपद यह शब्द राष्ट्र, देश, जनस्थान और देशनिवासी जनसमूह आदि का बोधक है, किन्तु प्रकृत में यह राष्ट्र - देश के लिये ही प्रयुक्त हुआ है।
२ - से सुबाहुकुमारे समणांवासर जाते अभिगयजीवाजीवे जाव पडिनाभेमाणे विहरति इन पदों में श्रमणोपासक का अर्थ और उस की योग्यता के विषय में वर्णन किया गया है। श्रमणोपासक शब्द (२) यहां पर घर शब्द को स्त्री, पुत्र तथा अन्य सभी प्रकार की धन सम्पत्ति का उपलक्ष्य समझना चाहिए ।