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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
है कि कुछ लोग कुलटा स्त्रियों का इसलिए पोषण करते हैं कि उन से व्यभिचार करा कर धनोपार्जन किया जाये, यह धन्धा अनर्थों का मूल और पापपूर्ण होने से त्याज्य है।
(३) अनर्थदण्डविरमणमत-क्षेत्र, धन, गृह, शरीर, दास, दासी, स्त्री, पुत्री आदि के लिए जो दण्ड-हिंसा किया जाता है, उसे अर्थदण्ड कहते हैं और बिना प्रयोजन की गई हिंसा अनर्थदण्ड कहलाती है । जैसे- रास्ते में जाते हुए व्यर्थ ही हरे पत्ते तोड़ते रहना, किसी कुते आदि को छड़ी मार देना...इत्यादि सभी विकल्प अनर्थदण्ड के अन्तर्गत हो जाते हैं । ऐसे अनर्थदण्ड को त्यागने की प्रतिज्ञा का करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है। शास्त्रों में अनर्थदण्ड के ४ भेद पाए जाते हैं, जिन के नाम तथा अर्थ निम्नोक्त हैं -
१-अपभ्यानाचरित-जो अप्रशस्त-बुरा ध्यान (अन्तर्मुहूर्त मात्र किसी प्रकार के विचारों में एकाग्रता ) है, वह अपध्यान कहलाता है । तात्पर्य यह है कि 'आर्तध्यान और रौद्रभ्यान के वश हो कर किसी प्राणी को निष्प्रयोजन क्लेश पहुंचाना अपध्यानाचरित कहा जाता है।
२-प्रमादाचरित-असावधानी से काम करना, तेल तथा घी आदि के बर्तन बिना ढके, खुले मह रखना आदि । अथवा-मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा ये ५ प्रमाद होते हैं । अहंकार या मदिरा
आदि मद्य पदार्थ का मद शब्द से ग्रहण होता है। पांच इन्द्रियों के तेईस विषयों का ग्रहण विषय शब्द से किया जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों की कषाय संज्ञा है । निद्रा नींद को कहते हैं । जिन के कहने, मानने से कोई लाभ न हो उन बातों की गणना विकथा में होती है। इन प्रमादों का सर्वथा त्याग संसारी व्यक्ति के लिये तो अशक्य होता है, इसलिए इस के निष्कारण और सकारण ऐसे दो भेद कर दिये गये हैं । सकारण प्रमाद अर्थदण्ड में है जब कि निष्कारण प्रमाद अनर्थदण्ड से बोधित होता है । अनर्थदण्डविरमणव्रत में निष्कारण प्रमाद का त्याग किया जाता है। ...
३-हिंसाप्रदान-बिना प्रयोजन तलवार, शूल, भाला आदि हिंसा के साधनभूत शस्त्रों को क्रोध से भरे हुए, अथवा जो अनभिज्ञ हैं उन के हाथ में दे देना।
४-पापकर्मोपदेश-जिस उपदेश के कारण पाप में प्रवृत्ति हो, उपदेश सुनने वाला पापकर्म करने लगे, वैसा उपदेश देना। तात्पर्य यह है कि बहुत से मनचले लोगों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे दूसरों को मारने पीटने की तथा राजद्रोह आदि की व्यर्थ बातें कहते रहते हैं । अनर्थदण्ड के त्यागी को ऐसा कम नहीं करना चाहिये ।
अनर्थदण्डविरमगावत का इतना ही उद्देश्य है कि श्रावक ने अणुव्रत स्वीकार करते समय जिन बातों की छुट रखी है, उस छूट का उपयोग करने में अर्थ अनर्थ अर्थात् सार्थक और निरर्थक का वह अन्तर
(१) अार्ति दुःख कष्ट, या पीडा को कहते हैं । आर्ति के कारण जो ध्यान होता है उसे प्रार्तभ्यान कहा जाता है । यह ध्यान -१-अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर, २ - इष्ट वस्तु के वियोग होने पर, ३-रोग
आदि के होने पर तथा ४ –भोगों की लालसा के कारण उत्पन्न हुआ करता है । इस ध्यान के कारण मन में एक प्रकार की विकलता सी अर्थात् सतत कसक सी हुआ करती है।
२-हिंसा आदि क र भावों की जिस में प्रधानता हो उस व्यक्ति को रुद्र कहते हैं । रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को रौद्रभ्यान कहा जाता है। रौद्र ध्यान वाला व्यक्ति हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और सम्प्राप्त विषयभोगों के संरक्षण में ही तत्पर रहा करता है और उस के लिए वह छेदन, भेदन, मारण ताइन श्रादि कठोर प्रवृत्तियों का ही चिन्तन करता रहता है ।
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