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प्रथम अभ्याय]
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
विशिष्ट क्रियावदी का ही ग्रहण करना अभीष्ट है, सामान्य का नहीं । इस लिये श्री सुमुख गाथापति के सम्यगदृष्टि होने में कोई सन्देह नहीं है।
प्रश्न-यदि श्री सुमुख गाथापति को मिथ्या दृष्टि ही मान लिया जाये तो क्या हानि है !
उत्तर- यही हानि है कि सुमुख गृहपति का परित्तसंसारी-परिमितसंसारी होना समर्थित नहीं होगा और यह बात शास्त्रविरुद्ध होगी। मिथ्यादृष्टि जीव का सदनुष्ठान अकामनिर्जरा (कर्मनाश की अनिच्छा से भूख आदि के सहन करने से जो निर्जरा होती है वह) का कारण बनता है. और वह- 'कामनिर्जरा वाला संसार को परित्त-परिमित नहीं कर सकता। संसार को परिमित करने के लिये तो सम्यक्त्व की आवश्यकता है । सम्यग्दृष्टि जीव का सदनुष्ठान-शुभ कर्म ही सकामनिजेरा (कर्मनाश की इच्छा से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने से होने वाली निर्जरा ) का कारण है और उस से ही संसार परिमित होता है।
दूसरी बात-अनन्तानुबंधी क्रोधादि के नाश हुए बिना संसार परिमित नहीं हो सकता और अनन्तानुबंधी कोध का नाश सम्यक्त्व पाए बिना नहीं हो सकता । तब सुमुख गृहपति को प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसे सम्यगदृष्टि स्वीकार किया जाये। इस के अतिरिक्त एक बात और भी ध्यान देने योग्य है. वह यह कि मिथ्याष्टि और उस की क्रिया को भगवान की आज्ञा से बाहिर माना है, जो कि युक्तिसंगत है। इसी न्याय के अनुसार सुमुख गृहपति की दानक्रिया को भी आशाबाह्य ही कहना पड़ेगा, परन्तु वस्तुस्थिति इस के विपरीत है। अर्थात् सुमुख को मिथ्यादृष्टि और उस के सुपात्रदान को अाशाविरुद्ध नहीं माना गया है । अगर सुमुख मिथ्या दृष्टि है तो उस की दानक्रिया को आशानुमोदित कसे माना जा सकता है । अत: जहां सुमुख की दानकिया भगवदाज्ञानुमोदित है वहां उस का सम्यग्दष्टि होना भी भगवान् के कथनानुकूल ही है।
प्रश्न-देवों का सुवणवृष्टि करना और "अहोदान अहोदान' की घोषणा करना क्या पापजनक नहीं है।
उत्तर- नहीं । इसे एक लौकिक उदाहरण से समझिये । कल्पना करो कि कोई गृहस्थ अपने पुत्र या पुत्री की सगाई करता है यदि उस ने पुत्र की सगाई की है तो वह लड़की वालों के सम्मान का भाजन बनता है। लड़की का पिता उसे अपनी लड़की का श्वशुर जान कर उस का श्रादर, सम्मान करता है तथा सभ्य भाषण
और भोजनादि से उसे प्रसन्न करने का यत्न करता है। इस सम्मानसूचक व्यवहार से लड़के का पिता यह निश्चय कर लेता है कि सगाई पक्की हो गई । इन्हें मेरा लड़का और मेरा घर आदि सब कुछ पसन्द है। इसी प्रकार लड़की की सगाई में समझिए। यदि वह अपनी लड़की के श्वशुर का सम्मान करता है और वह उस के सम्मान को स्वीकार कर लेता है तो सगाई पक्की अन्यथा कच्ची समझ ली जाती है । बस इसी से मिलती जुलती बात की पुनरावृत्ति देवों की सुवर्णवृष्टि और देवकृत हर्षघोषणा ने की है । हर्षध्वनि सुपात्रदान की प्रशंसासूचक है और सुवर्णवृष्टि उस की सफल अनुमोदना है। अब रही- पुण्य और पाप की बात १ सो इस का उत्तर स्पष्ट है। जबकि सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का हेतु है तो उस की प्रशंसा या अनुमोदना को पाप - जनक क्यों कर माना जा सकता है ? सारांश यह है कि स्वर्णवृष्टि और हर्षध्वनि से देवों ने किसी प्रकार
(१) श्री श्रीपपातिकसूत्र के मूलपाठ में सम्वररहित निर्जरा की क्रिया को मोक्षमार्ग से अलग स्वीकार किया है। उस क्रिया का अनुष्ठान करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव को मोक्षमार्ग का अनाराधक माना गया है। विशेष की जिज्ञासा रखने वाले पाटक श्री सनांग सूत्र ( स्थान ३, उद्द. ३) तथा श्री भगवती सूत्र के शतक पहले और उद्देश्य चतुर्थ को देख सकते हैं ।
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