Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 719
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टोका सहित [६२९ निर्वाणपद को प्राप्त कर लिया था । तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का उत्थान और पतन भावना पर ही अवलम्बित है । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी"-इस अभियुक्तोक्त में अणुमात्र भी विसंवाद दिखाई नहीं देता अर्थात् इस की सत्यता निर्वाध है । प्रश्न-सुदत्त मुनि ने महीने की तपस्या का पारणा किया, आहार देने वाले सुमुख के घर सुवण की वृष्टि हुई, यह ठीक है परन्तु आजकल दो दो महीने की तपस्या होती है और पारणा भी होता है मगर कहीं पर भी इस तरह से स्वयं की वृष्टे देवी वा सुनी नहीं जाती, ऐसा क्यों? उत्तर - सबसे प्रथम ऐसा प्रश्न करने वालों या सोचने वालों को यह जान लेना चाहिये कि सुवर्णवृष्टि की लालसा ही उस वृष्टि में एक बड़ा भारी प्रतिबन्ध है, रुकावट है। जो लोग तपस्वी मुनि को आहार देकर मोहरों की वर्षा की अभिलाषा करते हैं, वे थोड़ा देकर बहुत की इच्छा करते हैं । यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार की सौदेबाज़ी है । जिस की पारमार्थिक जगत् में कुछ भी कीमत नहीं। देव किसी व्यापारी या सौदेबाज के प्रांगन में मोहरों की वर्षा नहीं करते। मोहरों की वर्षा तो दाता के घर में हुआ करती है । सच्चा दाता दान के बदले में कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं करता. वह तो देने के लिये ही देता है, लेने के लिये नहीं । ऐसा दाता तो कोई विरला ही होता है और वसुधारा का वर्षण भी उसी के घर होता है। . इस के अतिरिक्त अगर कोई पुरुष भूख से पोडित हो रहा है तो उस की भूख मिटाने के लिये उसे कुछ खाने को देना, उस को अपेक्षा वह अपने लिये अधिक लाभकारी होता है। तात्पर्य यह है कि दान लेने वाले की अपेक्षा दान देने वाला अधिक लाभ उठाता है, इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत में वर्णित सुमुख गृहपति के जीवन से अनायास ही हो जाता है । प्रश्न जिस समय सुमुख गृहपति ने सुदत्त मुनि के पात्र में आहार डाला तो उस समय देवताओं ने वसुधारा आदि की वृष्टि को और आकाश से अहोदान अहोदान की घोषणा की, इस में क्या हार्द है ! उत्तर-इस के द्वारा देवता यह सूचित करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, तुम को ही इस दान की योग्यता प्राप्त हुई है । हमारा ऐसा सद्भाग्य नहीं कि किसी सुपात्र को दान दे सकें । सब कुछ होते हुए भी हम कुछ नहीं कर सकते । तुम को ऐसा सुअवसर अनेक बार प्राप्त होता है, इसलिये तुम धन्य हो तथा तुम्हें योग्य है कि उस को हाथ से न जाने दो । सारांश यह है कि देवता लोग इस सुवर्णवृष्टि द्वारा शद्ध हृदय से किये गये सुपात्रदान की भूरि २ प्रशंसा कर रहे हैं। प्रश्न-जिस समय श्री सुमुख गृहपति ने सुदत्तमुनि को दान दिया था वह समय भारतवर्ष का सुवर्णमय युग था, जिसे लगभग तीन हज़ार वष से भी अधिक समय हो चुका है। उस समय जितना सस्तापन था उस की तो आज कल्पना भी नहीं कर सकते । ऐसे सस्तेपन के ज़माने में सुमुख गृहपति के द्वारा दिये आहार की कीमत भी बहुत कम ही होगी, तब इतनी साधारण चीज़ के बदले में देवों ने सुवर्ण जैसी महापं वस्तु की वृष्टि की. इस का क्या कारण है। उत्तर-इस का मुख्य कारण यही था कि दाता के भाव नितान्त शुद्ध थे । इसी कारण दान का मूल्य बढ़ गया, अतः देवों ने स्वर्ण को वर्षा की । वास्तव में देखा जाए तो देय वस्तु का मूल्य नहीं आंका जाता, वह स्वल्य मूल्य की हो या अधिक की । मूल्य तो भावना का होता है । विना भावना के तो जीवन अपण किया हुआ भी किसी विशिष्ट फल को नहीं दे सकता। इस लिये दानादि समस्त कार्यों में भावना ही मूल्यवती है। प्रश्न ---सुमुख गृहपति ने श्री सुदत्त मुनि को दान देने पर मनुष्य का आयुष्य बांधा, इस कथन से स्पष्ट For Private And Personal

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