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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
आसपास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिये बुद्धिमान् बढ़े हुए नाखून को जैसे यथावसर काटता रहता है, इसी भान्ति धन को भी मनुष्य यथावसर दानादि के शुभ कार्यों में लगाता रहे। जैनधर्म धनपरिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित धन में से भी नियंप्रति यथाशक्ति दान देने का विधान करता है । जिस का स्पष्ट प्रमाण श्रावक के बारह व्रतों में बाहरवां तथा शिक्षाबतों में से चौथा अतिथिसंविभागवत है । जो व्यक्ति जैनधर्म के इस परम पवित्र उपदेश को जीवनांगी बनाता है वह सर्वत्र सुखी होता है। इस के अतिरिक्त अतिथिसंविभागवत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त ५ कार्यों का त्याग कर देना चाहिये :
१-सचित्तनिक्षेपन-जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि महात्माओं के लेने योग्य हैं उन अचित्त पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना । अथवा अचित्त पदार्थों के निकट सचित्त पदार्थ रख देना।
२-सचित्तपिधान-साधुत्रों के लेने योग्य अचित्त पदार्थों के ऊपर सचित्त पदार्थ ढांक देना, अर्थात् श्रचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढक देना।
३-कालातिक्रम - जिस वस्तु के देने का जो समय है वह समय टाल देना । काल का अतिक्रम होने पर यह सोच कर दान में उद्यत होना कि अब साधु जो तो लेंगे ही नहीं पर वह यह जानेंगे कि यह श्रावक बड़ा दातार है।।
४-परव्यपदेश -वस्तु न देनी पड़े, इस उद्देश्य से वस्तु को दूसरे की बताना । अथवा दिये गये दान के विषय में यह संकल्प करना कि इस दान का फल मेरे माता, पिता, भाई श्रादि को मिले । अथवा वस्तु शुद्ध है तथा दाता भी शुद्ध है परन्तु स्वयं न देकर दूसरे को दान के लिये कहना ।
५-मात्सर्य-दूसरे को दान देते देख कर उस की ईर्षा से दान देना, अर्थात् यह बताने के लिये दान देना कि मैं उस से कम थोड़े हूं, किन्तु बढ कर हूं, । अथवा मांगने पर कुपित होना और होते हुए भी न देना । अथवा कषायकलुषित चित्त से साधु को दान देना।
श्रावक जो व्रत अंगीकार करता है वो सर्व से अर्थात् पूर्णरूप से नहीं किन्तु देश-अपूर्णरूप से स्वीकार करता है । इसलिये श्रावक की अांशिक त्यागबुद्धि को प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है । पांचों अणुव्रतों को प्रोत्साहन मिलता रहे इस लिये तीन गुणवतों का विधान किया गया है। उन के स्वीकार करने से बहुत सी आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं। उन का संवद्धन रुक जाता है। बहुत से आवश्यक पदार्थों का त्याग कर के नियमित पदार्थों का उपभोग किया जाता है. परन्तु यह वृत्ति तभी स्थिर रह सकती है जब कि साधक में आत्मजागरण की लग्न हो तथा आत्मानात्मवस्तु का विवेक हो । एतदर्थ बाको के चार शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है । आत्मा को सजा रखने के लिये उक्त चारों ही व्रत एक सुयोग्य शिक्षक का काम देते हैं । इसलिये इन चारों का जितना अधिक पालन हो उतना ही अधिक प्रभाव पूर्व के व्रतों पर पड़ता है और वे उतने ही विशुद्ध अथच विशुद्धतर होते जाते हैं । सारांश यह है कि श्रावक के मूलवत पांच हैं, उन में विशेषता लाने के लिये गुणव्रत और गुणव्रतों में विशेषता प्रतिष्ठित करने के लिये शिक्षावत है. कारण यह है कि अणुव्रती को गृहस्थ होने के नाते गृहस्थसम्बन्धी सब कुछ करना पड़ता है । संभव है उसे सामायिक श्रादि करने का समय ही न मिले तो उस का यह अर्थ नहीं होता कि उस का गृहस्थधर्म नष्ट हो गया। गृहस्थधर्म का विलोप तो पांचों अणुव्रतों के भंग करने से होगा, वैसे नहीं। सो पांचों अणव नों की पोषणा बराबर होती रहे । इसीलिये तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत प्राचार्यों ने संकलित किये हैं। वे सातों व्रत भी नितान्त उपयोगी हैं । इसी दृष्टि से अणुव्रतों के साथ इन को परिगणित किया गया है।
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