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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[६०७
दूसरों को कल्याणमार्ग में इष्ट प्रतीत हो और जिसे देख कर दर्शक की कल्याणमार्ग की ओर प्रवृत्ति बढ़े, वह रूप इष्ट है । जिस रूप पर दृष्टिपात होते ही पाप कांप उठता है या प्रस्थान कर जाता है और अन्तरंग में दबी हुई विशुद्ध धर्मभावना खिल उठती है, वह रूप इष्टकारी है। इस बात की पुष्टि के लिए पाठकों को अपने पूर्वजों के जीवनवृत्तान्त पर दृष्टिपात करना होगा । एक अोर वल्कलवस्त्रधारी महाराज राम हों और दूसरी ओर अनेक उत्तमोत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रावण हो, तब इन दोनों में किस का रूप इष्ट है ? सोचिये और विचार करिये कि राम का रूप इष्ट है या रावण का ? विचारक की दृष्टि में राम का रूप ही इष्ट हो सकता है, कारण कि उस में नैतिक और आध्यात्मिक सौन्दर्य है। उस की अपेक्षा रावण के कृत्रिम शारीरिक सौन्दर्य या विभूषा का कुछ भी मूल्य नहीं है । इसी दृष्टि से गौतम स्वामी सुबाहुकुमार के रूप को इष्ट, कान्त और मनोज शब्दों से विशेषित कर रहे हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो-बहुजनसमाज को जो प्रिय लगता है, वह इष्ट कहलाता है ---यह कह सकते हैं। जिस का रूप देख कर जनसमाज-यह मेरा है, २-कह उठे, पुकार उठे वह इष्टरूप है । इष्टकारी रूप नीतिज्ञता, सुशीलता और धार्मिकता पर निर्भर रहा करता है। जो व्यक्ति जितना नीतिज्ञ, सुशील और धर्मनिष्ठ होगा उस का रूप उतना हो इष्टकारी होता है। इस के विपरीत जिस व्यक्ति के देखने से दर्शक के हृदय में पाप वासनात्रों का प्रादुर्भाव हो वह देखने में भले ही सुन्दर मालूम दे परन्तु वह इष्ट या कांतरूप नहीं कहा जा सकता है।
इष्ट और कान्त में क्या अन्तर है। इसे भी समझ लेना चाहिये । कोई वस्तु इष्टकारी तो होती है परन्तु वह किसी के लिये इच्छा करने योग्य नहीं भी होती, अथवा देशकाल के अनुसार कमनीय है मगर कभी २ कमनीय नहीं भी रहती। इसे उदाहरण से समझिये
घी और दूध को लें। घी और दूध इष्टकारी माना जाता है, परन्तु पर्याप्त भोजन कर लेने के पश्चात् क्या कोई उस को चाहता है ? नहीं। उस समय घी, दूध कमनीय नहीं रहता, क्योंकि उस में रुचि का अभाव होता है, उस में रुचि नहीं होती। यह दोष श्री सुबाहुकुमार में नहीं था। वह कभी अरुचिजनक रूप वाला नहीं होता । उस का रूप सदैव आल्हादजनक रहता है । अतः सुबाहुकुमार इष्ट, इष्टरूप, कान्त और कान्त रूप वाला कहा गया है अर्थात् वह इष्टकारी होने के साथ २ सदा कमनीय भी है। इस से इष्ट और कान्त में जो विभिन्नता है, वह स्पष्ट हो जाती है।
इष्ट रूप अनुकूल होता है और कान्त मनोहरता को लिये हुए होता है तथा प्रिय और प्रियरूप का हार्द यह है कि कोई वस्तु इष्ट और कान्त होने पर भी प्रीति के योग्य नहीं होती। उदाहरण के लिये-एक बर्तन में पके हुए ग्रामों का रस और दूसरे में मूगी की पकी हुई दाल है । बुधातुर व्यक्ति के सामने दोनों के उपस्थित किये जाने पर दोनों में भूख को शान्त करने की समान शक्ति होने पर भी वह श्राम रस को चाहेगा। इसी तरह संसार में इष्ट और कमनीय तो बहुत हैं या होंगे परन्तु मुद्गरूप और अाम्ररस में जो अन्तर है वही अन्य सांसारिक मनुष्यों और सुबाहुकुमार में दृष्टिगोचर होता है । जहाँ अन्य लोगों का रूप किसी को भाता
और किसी को नहीं भाता है वहां सुबाहुकुमार सब को प्रिय लगता है। इसी प्रकार मनोज और मनोजरूप के विषय में भी निम्नलिखित विवेक है
कई वस्तुएं ऐसी होती हैं, जिन से प्रीति तो होती है परन्तु वे मनोज्ञ नहीं होती अर्थात् उन से मन और इन्द्रियों को शान्ति नहीं मिलती। कोई भोज्य वस्तु ऐसी भी होती है जो इष्ट-कमनीय और प्रिय होने पर भी खाने के पश्चात् विकार उत्पन्न कर देने के कारण मनोज्ञ नहीं रहती। जैसे श्रामातिसार के रोगी को प्रिय होने पर भी ग्राम का रस हानिप्रद होता है । ज्वर के रोगी को गरिष्ट भोजन स्वादिष्ट होने पर भी अहितकर
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