________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
६१४]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
खाने पीने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखनी चाहिये। इस भावना के लोग न तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार करते है और न समय कुसमय को देखते हैं । भोजन की शुद्धता या अशुद्धता का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता । जो लोग भक्ष्य और अभक्ष्य के विवेक से शून्य होते हैं, उन के लिये ही अनेकानेक मूक प्राणियों - पशुपक्षियों का वध किया जाता है, ऐसे मांसाहारी लोग इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं करते कि उन की भोजनसामग्री कितने अनर्थ का कारण बन रही है ?, वास्तव में देखा जाये तो संसार में पाप की वृद्धि भूखे मरने वालों की अपेक्षा खाने के लिये जीने वालों ने विरोध को है । यदि भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विवेक रखा जाये तो इतना अधिक पाप न फैले । परन्तु इस कक्षा के लोग इन बातों को कहां ध्यान में लाते हैं ? जो लोग जीने के लिये खाते अर्थात् भोजन करते हैं, उन का ध्येय यह नहीं होता कि हम खाकर शरीर को शक्तिशाली बनावें और पापाचरण करें, किन्तु वे इस लिये खाते हैं कि जिस से उन का शरीर टिका रहे और वे उस के द्वारा अधिक से अधिक धर्म का उपार्जन कर सकें। उन को भक्ष्याभक्ष्य का पूरा २ ध्यान रहता है, तथा वे इस बात के लिये सदा चिन्तित रहते हैं कि उन के भोजन के निमित्त किसी जीव को अनावश्यक कष्ट न पहुंचे और वे उस दिन को भी प्रतीक्षा में रहते हैं कि जिस दिन उन के निमित्त किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंच सके । यद्यपि भोजन दोनों ही करते हैं परन्तु एक पापप्रकृति को बांधता है, जबकि दूसरा पुण्य का बन्ध करता है। इस प्रकार भोजन के लिये जीने वालों का आहार धम के स्थान में अधर्म का पोषक होता है और जीने के लिये खाने वालों का आहार पुण्योपार्जन में सहायक होता है । यही दृष्टि गौतम स्वामी के भोजनसम्बन्धी प्रश्न में अवस्थित है।
__ छठा प्रश्न सुबाहुकुमार के कृत्यविषयक है। यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है । मानव के प्रत्येक कृत्य-कार्य से दोनों की प्रकृतियों अर्थात् पुण्य और पाप की प्रकृतियों का बन्ध होता है । कर्मबन्ध का आधार मानव की भावना है। मानवीय विचारधारा की शुभाशुभ प्रेरणा से प्राप्तव संवर और सम्बर अानव हो जाता है । वास्तव में देखा जाए तो मानव की बाह्यक्रिया मात्र से वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता । आत्मशुद्धि या उस की अशुद्धि की मादिका मानवीय भावना है । इसी के आधार पर शुभाशुभ कर्मबन्ध की भित्ति प्रतिष्ठित है। सांसारिक कृत्यों-कार्या से पाप पुण्य इन दोनों का प्रादुर्भाव होता रहता है, परन्तु ज्ञानपूर्वक-विवेक के साथ जिस काम के करने में पुण्यकर्मबन्ध होता है, उसी काम को यदि अज्ञानपूर्वक अर्थात् अविवेक से किया जाये तो उस में पापकर्म का बन्ध होता है। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ उस की उन्नति एवं अवनति का कारण बना करती हैं । इस लिए मनुष्य को चाहिये कि किसी भी कार्य को करने से पहले उस की कृत्यता तथा अकृत्यता का विचार कर ले । यदि कार्य कृत्यता से शन्य है तो उसे कभी नहीं करना चाहिये, चाहे कितना भी संकट आ पड़े। नीतिकारों ने इस तथ्य का पूरे ज़ोर से समर्थन किया है, अतः जीवन को पापजनक प्रवृत्तियों से बचाना चाहिये और धर्मजनक प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिये । श्री गौतम स्वामी के प्रश्न का भी यही
(१) मांसाहार धार्मिक दृष्टि से निन्दित है, गर्हित है, अतः हेय है, त्याज्य है तथा मनुष्य की प्रकृति के भी प्रतिकूल है आदि बातों का विचार पृष्ठ ३९२ तथा ३१३ पर कर आये हैं ।
(२) कर्तव्यमेव कर्तव्यं प्राणैः कण्ठगतरपि । अकर्तव्यं न कर्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥
अर्थात् – जब प्राण कण्ठ में आ जावें तब भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, उस समय भी कर्तव्य को छोड़ना उचित नहीं है । इसके विपरीत चाहे प्राण कएठ में आ जाये तब भी अकर्तव्य कर्म का आचरण नहीं करना चाहिये । सारांश यह है कि कर्तव्यनिष्ठा में जीवनोत्सर्ग कर देना अच्छा है, परन्तु अक - तव्य-अकृत्य को कभी भी जीवन में नहीं लाना चाहिये।
For Private And Personal