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६१८]
श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतम्कन्ध -
[प्रथम अध्याय
करते हैं । जैसे गौतमस्वामी प्रभु वीर से पूछते हैं वैसे ही ये श्री धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए उन्हों ने समुम्ब गाथापति के घर में प्रवेश किया।
टीका -श्री गौतम अनगार के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने सुबाहुकुमार के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारम्भ करते हुए काल और समय इन दोनों का कथन किया है । इस से स्पष्ट सिद्ध है कि ये दोनों अलग २ पदार्थ हैं । जैसे- लोक में व्यापारी लोग खाते में सम्वत् और मिति दोनों का उल्लेख करते हैं। उस में केवल सम्बत् लिख दिया जाये और मिति न लिखी जाये तो वह वहीखाता प्रामाणिक नहीं माना जाता, उस की प्रामाणिकता के लिये दोनों का उल्लेख आवश्यक होता है । वैसे ही सूत्रकार ने काल और समय दोनों का प्रयोग किया है । काल शब्द सम्वत् के स्थानापन्न है और समय मिति के स्थान का पूरक है । तब उस काल और समय का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि इस अवसर्पिणी के चतुर्थकाल - चौथे बारे में और उस समय जब कि सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के भव से इस भव में आया था ।
जब तक स्थान को न जान लिया जावे तब तक उस स्थान पर होने वाली किसी भी घटना का स्वरूप भलीभाँति जाना नहीं जा सकता । इसलिए स्थान का निर्देश करना नितान्त आवश्यक होता है, फिर भले ही वह कहीं हो या कोई भी हो । इसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगर हस्तिनापुर का उल्लेख किया गया है। .
हस्तिनापुर बहुत प्राचीन नगर है। भारतवर्ष के इतिहास में इस को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यह नगर पहले भगवान् शान्तिनाथ ओर कन्धुताथ की राजधानी बना रहा है। फिर पांडवों की राजधानी का भी इसे गौरव प्राप्त रहा है। यहां पर अनेक तीर्थंकरों के कल्याणक हुए और हमारे चरितनायक सुबाहुकुमार के जीव ने भी अपने को सुबाहुकमार के रूप में जन्म लेने की योग्यता का सम्पादन इसी नगर में किया था। संभवत: इसी कारण प्राचीन हस्तिनापुर सुदूर पूर्व से लेकर आजतक भारत का भाग्यविधाता बना रहा है । इसी हस्तिनापुर में सुबाहुकुमार अपने पूर्वभव में सुमुख माथापति के नाम से विख्यात था।
. सुमुख-जिस का मुख नितान्त सुन्दर हो, जिस के मुख से प्रिय वचन निकलें, अर्थात् जिस के मुख से अश्लील, कठोर, असत्य और अप्रिय वचनों के स्थान में सभ्य, कोमल, सत्य और प्रिय ववनों का नि. स्सरण हो, वह सुमुख कहा वा माना जाता है।
, गाथापति-गाथा नाम घर का है, उस का पति -संरक्षक गाथापति-गृहपति कहलाता है। वास्तव में प्रतिष्ठित गृहस्थ का ही नाम गाथापति है।
सुमुख गायापति अाढ्य - सम्पन्न, दीप्त-तेजस्वी और अपरिभूत था अर्थात् नागरिकों में उस का कोई पराभव -तिरस्कार नहीं कर सकता था । तात्पर्य यह है कि धनी, मानी होने के साथ २ वह आचरणसम्पन्न भी था। इसलिये उस का तिरस्कार करने का किसी में भी साहस नहीं होता था । सुमुख गाथापति पूरा २ सदाचारी था, अतएव अपरिभूत था ।
__धन, धान्य की प्रचुरता से किसी मनुष्य का महत्त्व नहीं बढ़ता । उस की प्रचुरता तो कृपण और दुःशील के पास भी हो सकती है । सुमुख का घर धन, धान्यादि से भरपूर था, मगर उस की विशेषता इस बात में थी कि उस का धन परोपकार में व्यय होता था । दीपक अपने प्रकाश से स्वयं लाभ नहीं उठाता । वह जलता है तो दूसरों को प्रकाश देने के लिये ही । समुख गाथापति भी दीपक की भाँति अपने वैभव का विशेषरूप से दूसरों के लिये ही उपयोग करता था। उस की वदान्यता-दानशीलता देश देशान्तरों में प्रख्यात थी। उस की धनसम्पत्ति का विशेष भाग अनुकम्पादान और सपात्रदान में ही होता था । .
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